आगे बढ़ते हुए कदम, श्रम में जुटे हुए हाथ और विजय की भावना से भरपूर हृदय यही सच्चे पुरुषार्थ की पहचान है। इसी की प्रेरणा देते हुए महर्षि वेदव्यास ने युवकों को ललकारा है- "उठो, अलसी को त्यागो और भले काम में जुट जाओ । मन में दृढ़ संकल्प करो कि कार्य पूर्ण होगा, निश्चय ही वह होकर रहेगा ।"
एक शिष्य ने पूछा - "महर्षि वर! पुरुषार्थ के लिए किन गुणों की आवश्यकता होती है ?"
महर्षि बोले - "पुरुषार्थ के लिए 5 गुण होना चाहिए- बुद्धि, तेज, बल, उन्नति करने की इच्छा और उद्योग । यह गुण जिस पुरुष में हो वह अवश्य सफल होता है ।"
इसे साधारण उपदेश नहीं समझना चाहिए। यह संसार के सबसे बड़े महाकाव्य महाभारत में अंकित है । इसे करो ना लोगों ने अपनाया । लाखों ने इस प्रेरणा से अपनी हार को जीत में बदल दिया। करोड़ों लोग इस आदर्श को अपनाकर उन्नति के शिखर पर पहुंचे ।
पुरुषार्थ -उन्नति की कुंजी है ।
पुरुषार्थ - सफलता की गारंटी है ।
पुरुषार्थ - फतेह कमजोरी का अचूक इलाज है ।
यदि दुर्भाग्यवश तुम शरीर से दुर्बल हो, तो तुम भी पुरुषार्थ करो। तुम अवश्य बलवान बनोगे। यदि तुम पढ़ाई में कमजोर हो तो आज अभी और इसी क्षण से पुरुषार्थ की 5 नियमों का पालन करो, तो अवश्य योग्य विद्यार्थी बन जाओगे। यदि किसी कार्य क्षेत्र में हो तो उस कार्य में अवश्य ही सफलता प्राप्त होगी ।
यदि हम सफलता को प्राप्त करना चाहते हैं तो निसंकोच हमारे पास पड़ोस में जो सबसे अधिक सफल मनुष्य है उससे उसकी सफलता के कारण पूछा जाए। और उसके अनुसार अपने जीवन को बनाया जाए।
अवश्य ही वह मनुष्य यह बताएगा की -मैं काम करते हुए यह कभी नहीं सोचा कि मैं बहुत काम कर चुका हूं, मैंने तो बस चींटी की तरह काम में जुटा रहा। मार्केट में बाधाएं आती रही, मैं उनसे घबराया नहीं, परंतु मैं दुगने बैग से निरंतर चलता रहा। एक दिन स्वयं मुझे आश्चर्य हुआ कि सहसा मैंने अपना लक्ष्य पा लिया।
यही सच्चा पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ की दृष्टि से लोग तीन प्रकार के होते हैं। पहले लोग वे हैं जो विघ्नों के भय से कार्य को आरंभ ही नहीं करते। बे नीच कहलाते हैं। दूसरे लोग में हैं, जो जोश में आकर कार्य करने की तरफ एकदम कदम तो बढ़ा देते हैं परंतु मार्ग में थोड़ी सी भी बाधाएं देखकर उस काम को अधूरा ही छोड़ देते हैं, गेम मध्यम श्रेणी के लोग होते हैं। तीसरे लोग उत्तम श्रेणी के होते हैं जो सोच विचार कर कार्य आरंभ करते हैं, फिर मार्ग में चाहे लाख रुकावट आए,दे उन पर विजय पाते हुए निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं और अंत में सफलता उनके चरण चूमती है।
आलसी और निकम्मे हैं वे लोग, जो कहते हैं हमारे भाग्य में ही दुख लिखा है। बे समझते हैं, मनुष्य भाग्य का खिलौना है। वह उनकी महान भूल है। भाग्य ईश्वर की बनाई हुई कोई वस्तु नहीं अभी तू अपने भाग्य का निर्माता स्वयं मनुष्य है। हमारा भाग्य वही है तो फौलादी ह्रदय, चुस्त हाथ और चौंकाने मस्तिष्क के रूप में कार्य प्रभावित होता है। भाग्यवादी लोक विधाता का जो लेख बताते हैं , उसे बदल देने की शक्ति तुम्हारे अपने अंदर विद्यमान है। भाग्य जो करे उसे करने दो पर तुम आप तो अपने काम से पीछे मत हटो । जब कभी दुर्भाग्य या असफलता तुम्हारे सामने आए भी तो तुम पुरुषार्थ के निम्नलिखित उपाय करो:-
१ : -दर्पण में अपना प्रतिबिंब देखकर अपने आप से कहो -मेरे दो हाथ मजबूत हैं। मेरी टांगे सलामत हैं। मेरी आंखों में ज्योति है और मेरा शरीर स्वस्थ और बलवान है। जो लोग इस कार्य में सफल हुए हैं वह मुझसे अधिक अच्छे तो नहीं थे। उनमें अधिकांश तो मुझसे भी दुर्बल थे। यदि मुझसे कमजोर व्यक्ति इस कार्य में सफलता प्राप्त कर सकता है तो मैं क्या नहीं कर सकता? मैं उनसे भी अधिक सफल होकर दिखाऊंगा।
२ :-अपनी असफलता के कारण को ढूंढो और उन्हें दूर करो। तुम्हारे प्रयास में जो त्रुटियां रह गई थी, उन्हें दूर करो। इस कार्य में किसी कुशल व्यक्ति की सलाह लो। जो कार्य है तुम स्वयं नहीं कर सकते, उसके लिए साथियों संबंधियों से सहायता मांगो ।
३ :-कार्य की पूरी योजना बनाओ । उसे आरंभ करके लगन और यत्न से करो।
४ :- मार्ग की बाधाएं तब तंग करती है जब उनका पहले से अनुमान ना लगा लिया जाए। अतः कार्य आरंभ करते समय पहले ही सोच लो कि तुम्हारे रास्ते में कौन-कौन सी और किस-किस तरह की बाधाएं आ सकती हैं। उन बाधाओं से बचने के उपाय भी सोच विचार लो। उन्हें दूर करने के साधन भी जुटा कर रखो, बाधाएं आएंगी तो उन्हें हटाकर तुम्हें आनंद प्राप्त होगा। उन पर तुम्हारी विजय होगी।
५ :- एक कृषि कहावत याद रखो -जब तुम हल जोतने चलो तो अगल बगल में कोई चुहिया देखकर उसे पकड़ने में समय मत गबाओ"अर्थात सारा ध्यान अपने काम में लगा दो ।
६ :- परिश्रम में थोड़ी सी सफलता पाकर ढीले मत पड़ जाओ और ना इतराओ । तब तक परिश्रम करते रहो जब तक पूर्ण रूप से सफलता प्राप्त ना हो जाती।
अंत में पुरुषार्थ के दो स्वर्ण नियम सदा याद रखो -
(क) भूल किए बिना कोई मनुष्य महान नहीं बनता।
(ख) घोड़े से गिर गिर कर ही बहादुर लोग अच्छे घुड़सवार बनते हैं। जो गिरने से डरता है वह सवार नहीं बन सकता।
एक बार यदि सफल ना हो तो पुनः उद्योग करो और जीवन में पुरुषार्थ करने का संकल्प लो ।