माता निर्माता भवति
माँ संस्कारदाता है, पिता स्वभावदाता है और आचार्य ज्ञानदाता है। माता का स्वयं सुसंस्कृत होना नितान्त आवश्यक है। 'माता निर्माता भवति' माता निर्माण करने वाली होती है। माता बच्चे का पहला गुरु है, पिता दूसरा और आचार्य तीसरा संस्कार जिसका भी पड़ता है, वैसा ही तैयार होता है।
स्वाति नक्षत्र की एक बूंद सर्प के मुख में पड़ जाए तो वह भयंकर विष बनेगी, एक बूंद यदि केले के पत्ते में पड़े तो वह कर्पूर बनेगी, एक बूंद यदि समुद्र की सीप में पड़े तो वह मोती बन जायेगी। संपर्क भी अच्छा ही किया जाये। परिवारों में एक-एक करके संस्कारों की नींव डालो। अच्छी से अच्छी, जहाँ संकल्प होगा संस्कार वहीं बनेगा।
एक दृष्टान्त याद आ रहा है संस्कारों का। एक बार राजा कुवलयाश्व और रानी मन्दालसा में वार्तालाप हुआ। प्रश्न था कि सन्तानों पर माता और पिता दोनों में से किसका अधिक प्रभाव पड़ता है। राजा ने कहा, वीर्यदाता पिता होने से मेरा प्रभाव अधिक होता है। किन्तु महारानी मन्दालसा ने कहा, पिता का नहीं माता का ही अधिक प्रभाव होता है। दोनों अपनी बात पर डटे रहे, कोई एक-दूसरे की बात को मानने को तैयार नहीं हुए।
निकट भविष्य में महारानी ने एक पुत्ररत्न को जन्म दिया। उस राजपुत्र का नाम विक्रान्त था। जब रानी विक्रान्त को दूध पिलाती और सुलाते समय रानी लोरियां देती थी, बेटा वेदां का विद्वान् बनिये रे, शास्त्रों का ज्ञात्या बनिये रे । रानी धार्मिक लोरियां सुनाती थी और अपने भवन में ऋषि-मुनियों के चित्र लगाए हुए थी। सोते समय और उठते समय रानी गर्भवती महापुरुषों के दर्शन करती थी, जो गर्भ पर संस्कार पड़ते थे। जब राजपुत्र विक्रान्त 13-14 वर्ष का होने पर राजपाट त्याग कर वैराग्य धारण कर वन में चला गया। दूसरे पुत्र सुबाहु पर भी इसी प्रकार माता के विचारों का प्रभाव लोरियां देने का पड़ा। वह भी 13-14 साल का होने पर वन को चला गया। जब तीसरा पुत्र शत्रुमर्दन हुआ तो इसी प्रकार माता के विचारों से लोरियों का प्रभाव पड़ा और 13-14 वर्ष का होने पर वैराग्य पाकर वन को चला गया।
जब तीनों पुत्रों को राजगद्दी त्याग कर वैराग्य से जंगल जाना पड़ा। इससे राजा कुवलयाश्व बहुत परेशान, निराश, हताश हुए और इस चिन्ता में डूबकर रानी से प्रार्थना करते हुए कहने लगे कि हे महामते मैंने जान लिया कि सन्तानों पर माता का हीअधिक प्रभाव पड़ता है, आपके विचारों की जीत हुई।
अब मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे उत्तराधिकारी के लिए, राजवंश चलाने के लिए, एक पुत्र इस प्रकार प्रदान करें कि वह राजपुत्र युवराज बनकर राजपाट सम्भाले । कर्म-धर्म संयोग से रानी मन्दालसा ने एक पुत्र (अलर्क) को जन्म दिया। दूध पिताते समय रानी लोरियां इस प्रकार सुनाती, बेटा चक्रवर्ती राजा करिये, बेटा प्रजा पर शासन करिये, बेटा बाहुबल बलवान बनिये। जब पुत्र गर्भ में था तो रानी ने अपने भवन के सारे चित्र ऋषियों के उतरवा दिए और चक्रवर्ती राजाओं के चित्र अपने भवन में लगवा दिये। सोते और उठते समय दर्शन भी करती, उस बालक मन पर राजा बनने के संस्कार जागे। जब वह बड़ा हुआ तो पिता के कहने पर भी उसने संन्यास नहीं लिया, वन में नहीं गया, अपितु राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ।
अतः स्पष्ट होता है कि माता संस्कार देने वाली होती है, वह संस्कार बड़े प्रभावशाली होते हैं। इसलिए विवाह समय, विवाह का उद्देश्य समझाने के लिए जिन वेदमंत्रों से आहुतियां प्रदान की जाती हैं, उनमें स्पष्ट कर दिया है कि गृहस्थ धर्म की सफलता परिवार, समाज, राष्ट्र धर्म कार्य करने वाली सुसंस्कारित सन्तानें निर्माण करने में ही है।