भारतीय ज्ञान परंपरा वेदों का सामान्य परिचय

                   


 **** संहिताएं ****

 संहिता का शाब्दिक अर्थ है— सम्मिश्रण, संकलन या संग्रह वैदिक वाङ्मय में संहिता शब्द क्रमबद्ध मन्त्र पाठ के अर्थ में सामान्य रूप से व्यवहृत होता है। ऋगादि चारों संहिताओं में क्रमबद्ध मन्त्र पाठ है। वेद शब्द का निर्माण 'विद्' धातु से 'घञ्' प्रत्यय करने से होता है। इसका अर्थ है 'ज्ञान', परन्तु यह ज्ञान मानव से उत्पन्न नहीं, यह पूर्णरूपेण ईश्वरीय है। ईश्वर द्वारा मानव मात्र के लिए दिया हुआ ज्ञान है। आधुनिक युग के वेदों के प्रसिद्ध व्याख्याकार दयानन्द सरस्वती ने 'वेद' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है— 'विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, अर्थात जिनके द्वारा मनुष्य सत्यविद्या को जानते हैं अथवा प्राप्त करते हैं उसी का नाम वेद है।


वेद शब्द को परिभाषित करते हुए सायणाचार्य ने कहा है कि 'इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेदः' अर्थात् जो इष्ट प्राप्ति का तथा अनिष्ट निवारण का अलौकिक उपाय बतलाता है उसी का नाम वेद है।


वेदों को 'श्रुति' नाम से भी पुकारा जाता है। गुरु-मुख द्वारा शिष्य वेदों का श्रवण कर स्मरण किया करते थे। श्रवण किया जाने के कारण इनका नाम श्रुति पड़ गया।


वेदों की संख्या ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नामभेद से चार मानी जाती है। ऋग्वेद में ज्ञान का, यजुर्वेद में कर्म और सामवेद में उपासना का विषय वर्णित है। अथर्ववेद में ज्ञान, कर्म और उपासना तीनों का ही विषय वर्णित है। इन तीन प्रकार के विषयों का प्रतिपादन किये जाने के कारण ही चारों वेदों को 'वेदत्रयी' के नाम से भी जाना जाता है।


             • ऋग्वेद संहिता


ऋग्वेद को विश्व साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है। ऋग्वेद में ऋचाओं का संग्रह है जिनकी उत्पत्ति विराट पुरुष के मुख से हुई है।


ऋग्वेद में 'ज्ञान' की महत्ता को दर्शाया गया है। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने वेदों का ज्ञान वायु, अग्नि, आदित्य और अंगिरा नामक चार ऋषियों को प्रदान कर दिया था। चारों ऋषियों ने अपने पुत्रों तथा अन्य ऋषियों को ज्ञान दिया अन्ततः यह ज्ञान विस्मृत होने लगा तो इसे लिपिबद्ध कर लिया गया। इस प्रकार जिस ऋषि को जितना ज्ञान प्राप्त रह गया वह ऋषि उन मन्त्रों का मन्त्रद्रष्टा कहलाया। इस प्रकार वेद मन्त्रों का संग्रह किये जाने के कारण वेदों को 'संहिता' नाम से भी पुकारा जाने लगा।

निरुक्तकार ने देवताओं को तीन भागों में रखा है : (i) धुलोकस्थानीय देवता वरुण, मित्र, उषस्, सूर्य आदि ।


(ii) अन्तरिक्षस्थानीय देवता इन्द्र, रुद्र आदि ।


(iii) पृथ्वीस्थानीय देवता - अग्नि, सोम, पृथ्वी आदि। इसके अतिरिक्त 20 सम्वाद सूक्त अथवा आख्यान सूक्त भी प्राप्त होते हैं,


परन्तु उनमें निम्न सूक्त प्रमुख हैं :


(1) यम-यमी संवाद


(10/10)


(2) इन्द्र-वरुण संवाद (4/12)


(3) देवगण एवं अग्नि संवाद(१०_१२)


(4) वरुण-अग्नि संवाद (१०-५२)

 इन्द्र-इन्द्राणी संवाद (१०-५१)


(6) पुरुरवा उर्वशी संवाद(१०-९५)


(7) सरमा-पणि संवाद(१०-१०८)


(8) सोम-सूर्या संवाद(१०-८५)


(9) विश्वामित्र नदी संवाद(३-३३)


ऋग्वेद की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि इसका प्रारम्भ अग्नि सूक्त से तथा अन्त संज्ञान सूक्त से किया गया है।


महाभाष्यकार पतंजलि ने ऋग्वेद की 21 शाखाएं मानी हैं— 'एकविंशतिघा बाहवृच्यम्' तथा जिनमें से शाकल, वाष्कल, आश्वलायिनी, शांखायनी तथा माण्डूकायनी प्रमुख शाखाएं हैं जिनमें केवल शाकल शाखा ही पूर्ण रूप से प्राप्त होती है। मन्त्रों की संख्या 10580 तथा सूक्तों की संख्या 1028 है। कल्पसूत्रों


में केवल एक ही 'वशिष्ट धर्म सूत्र' प्राप्त होता है।


        • यजुर्वेद संहिता


यजुर्वेद का प्रतिपाद्य विषय कर्मकाण्ड है तथा ऋत्विक अध्वर्यु है। मुख्य देवता वायु है और 85 शाखाएं हैं, लेकिन कहीं-कहीं 100, 101 शाखाओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है। यजुर्वेद के शुक्ल यजुर्वेद तथा कृष्ण यजुर्वेद नामक दो भाग हो जाते हैं। यजुर्वेद में यजुषों का संग्रह है। 'यजुष' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए यारक ने लिखा है कि यज् (यज्ञ करना) धातु से यजुष शब्द बना है 'यजुर्यजते' इसका अभिप्राय यह है कि यज्ञ की दृष्टि से जो सर्वाधिक उपयोगी मन्त्र हैं वे यजुष कहलाये। यजुर्वेद को अध्वर्यु वेद भी कहा जाता है।

 शुक्ल यजुर्वेद की मुख्य रूप से (i) वाजसनेयि या माध्यन्दिन तथा (ii) काण्व शाखा; कृष्ण यजुर्वेद की (i) तैत्तिरीय शाखा, (ii) मैत्रायणी शाखा, (iii) कठ शाखा, (iv) कपिछल शाखा ही प्रसिद्ध हैं।


यजुर्वेद के वर्ण्य विषय का ज्ञान मात्र वाजसनेयि संहिता के अध्ययन से हो सकता है, इसका कारण यह है कि यह संहिता यजुर्वेद की प्रतिनिधि है। इसमें मुख्य रूप से वैदिक कर्मकाण्ड का ही प्रतिपादन है तथा इसमें 40 अध्याय हैं। इनमें से प्रथम 25 अध्यायों में महान यज्ञों का वर्णन है, लेकिन 14 अध्याय 'खिल' नाम से प्रसिद्ध होने के कारण अवान्तरयुगीन माने जाते हैं। इसका 34वां अध्याय शिवसंकल्प सूक्त तथा 40वां अध्याय ईशावास्योपनिषद् है।


तैत्तिरीय संहिता में 7 काण्ड, 44 प्रपाठक और 631 अनुवाक हैं। मैत्रायणी संहिता के अन्तर्गत 4 काण्ड, 54 प्रपाठक, 2114 मन्त्र है।


          • सामवेद संहिता


सामवेद का ऋत्विक उद्गाता तथा देवता सूर्य है। सामन् का शाब्दिक अर्थ है 'गान'। सामवेदीय मन्त्र जब विशेष गान-पद्धति से गाये जाते हैं तो उनको 'साम' कहा जाता है। सामवेद का प्रमुख विषय उपासना है। इसमें सोमयाग सम्बन्धी मन्त्रों का संकलन है। सामवेद को दो भागों में विभक्त किया गया है (i) पूर्वार्चिक (ii) उत्तरार्चिक। पूर्वार्चिक में अग्नि, इन्द्र से सम्बद्ध मन्त्र हैं जबकि उत्तरार्चिक में प्रत्येक मन्त्र की लय, तान को याद करने का वर्णन विद्यमान है। सामवेद का प्रमुख ऋत्विक उद्गाता है। यज्ञ के अवसरों पर उद्गाता द्वारा मन्त्रों का सस्वर गान किया जाता है। सामवेद संहिता के पूर्वाचिक में 650 ऋचाएं हैं जिनमें यज्ञानुष्ठान पर प्रयोग में लाने वाले विभिन्न साम संगृहीत हैं। पूर्वाचिक के प्रथम प्रपाठक में अग्नि से सम्बन्धित ऋग्वेदीय मन्त्र हैं. इसलिये इसे आग्नेय काण्ड कहा जाता है। दूसरे से चतुर्थ प्रपाठक तक इन्द्र सम्बन्धी मन्त्र हैं अतः यह 'ऐन्द्र पर्व' कहलाता है। पंचम में सोम से सम्बन्धित मन्त्र हैं इसलिये इसे 'पवमान' पर्व कहा जाता है।


सामवेद की सहस्रों शाखाएं बतलायी गयी हैं 'सहस्रवर्त्मासामवेद' लेकिन इस समय केवल तीन–(i) कौथुमीय, (ii) राणायणीय, (iii) जैमिनीय शाखाएं ही उपलब्ध होती हैं। सामवेद में सामविकार भी पाये जाते हैं जिन्हें गान करते समय कुछ घटाया-बढ़ाया भी जाता है। ये छः प्रकार के होते हैं–(i) विकार, (ii) विश्लेषण, (iii) विकर्षण, (iv) अभ्यास, (v) विराम, (vi) स्तोभ। इसके अतिरिक्त यज्ञ सम्पादन के समय पांच प्रकार के साममन्त्र भी गाये जाते हैं।


(i) प्रस्ताव इसका गान प्रस्तोता द्वारा किया जाता है।


(ii) उद्गीथ इसका गान उद्गाता नामक ऋत्विक द्वारा किया जाता है। (iii) प्रतिहार – इसका गान प्रतिहार नामक ऋत्विक द्वारा किया जाता है।

 उपद्रव – इसका गान उद्गाता नामक ऋत्विक द्वारा किया जाता है।


(v) निधन इसका गान प्रस्तोता, उद्गाता एवं प्रतिहर्ता नामक ऋत्विक द्वारा किया जाता है। इसके अतिरिक्त गान भी चार प्रकार के होते हैं- (i) ग्राम या गेय गान, (ii) अरण्य गेय गान, (iii) ऊह गान (iv) ऊह्म गान।


         • अथर्ववेद संहिता


अथर्ववेद का ऋत्विक ब्रह्म है। अथर्वन ऋषि के नाम पर इस वेद का नाम अथर्ववेद पड़ा। इसके देवता सोम तथा आचार्य सुमन्तु हैं। (1) पिप्पलाद, (2) मोद, (3) स्तोद, (4) शौनकीय, (5) जलद, (6) जाजल, (7) ब्रह्मवेद, (8) देवदर्श, तथा (9) चारणवैद्य नौ शाखाएं हैं। जिनमें से केवल शौनक एवं पिप्पलाद शाखाएं ही समुपलब्ध हैं। इसकी शौनक शाखा में 20 काण्ड, 730) सूक्त तथा 5987 मन्त्र विद्यमान हैं।


अथर्ववेद को अन्य नामों से भी पुकारा जाता है; जैसे- (1) अंगिरसवेद, (2) अथर्वाङ्गिरसवेद, (3) ब्रह्मवेद, (4) भृग्वाङ्गिरोवेद, (6) भैषज्यवेद, (7) छन्दोवेद (8) महीवेद इत्यादि। (5) क्षत्रवेद, अथर्ववेद के उपवेद भी माने जाते हैं सर्पवेद, विशाचवेद, असुरवेद,


इतिहासवेद, पुराणवेद आदि।


अथर्ववेद के प्रथम काण्ड में विविध रोगों की निवृत्ति का वर्णन तथा बीसवें


काण्ड में सोमयाग का वर्णन तथा इन्द्रस्तुति से सम्बन्धित मन्त्र हैं। अथर्ववेद में


प्रयुक्त प्रमुख सूक्तों का वर्णन निम्नवत है :


(1) भैषज सूक्त रोगों की उत्पत्ति के साथ-साथ रोगों को दूर करने के


उपायों का भी वर्णन किया गया है; जैसे क्षय रोग, गण्डमाला, खांसी, दन्तपीड़ा


आदि रोगों की औषधि का वर्णन किया गया है।


(2) दीर्घायु सम्बन्धी सूक्त इसमें दीर्घायु सम्बन्धी प्रयोग विद्यमान जैसे- मुण्डन संस्कार, उपनयन संस्कार, गोदान संस्कार आदि।


हैं;


(3) पौष्टिक सूक्त– पौष्टिक सूक्तों में गृह निर्माण के लिए, हल जोतने के लिए, अनाज उत्पन्न करने के लिए, पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थनाएं की गयी हैं। (4) प्रायश्चित सूक्त इसमें चारित्रिक त्रुटि, धार्मिक विरोध तथा अन्य विधिहीन आचरणों को क्षमा करने की प्रार्थना की गयी है।


(5) स्त्रीकर्म सूक्त–विवाह तथा वैवाहिक प्रेम सम्बन्धी विषयों का वर्णन इन सूक्तों में विद्यमान है।


(6) राजकर्म सूक्त– शत्रुओं को परास्त करने सम्बन्धी प्रार्थनाओं के साथ ही साथ संग्राम तथा तदुपयोगी साधनों का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त भूमिसूक्त, प्रसाद सूक्त, याज्ञिक सूक्त तथा दार्शनिक सूक्तों का भी वर्णन प्राप्त होता है।

              #शास्त्री हरी आर्य:

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