स्वामी स्वतंत्रतानंद का जीवन और दर्शन
जन्म: स्वामी स्वतंत्रतानंद जी का जन्म पौष मास की पूर्णिमा सन 1877 ई. में हुआ। महर्षि दयानंद सरस्वती भी इसी सन् में प्रथम बार पंजाब के लुधियाना नगर में पधारे थे। उसी वर्ष लुधियाना से कुछ मील दूर मोही ग्राम के जाट सिख परिवार में हुआ। इनका नाम केहर सिंह था। इनके पिता सरदार भगवान सिंह सेना में अफसर थे तथा बाद में बडौदा रियासत की सेना के प्रमुख बने। पिता की इच्छा पुत्र को फ़ौज में अफसर बनाने की थी।
केहर सिंह बचपन में ही मातृविहीन हो गए थे। माता की मृत्यु के समय दूसरे छोटे भाई की आयु मात्र आठ दिन की थी। अतः आपका लालन पालन अपने ननिहाल लताला कस्बे में हुआ। वहां उदासी पंथ के डेरे के महंत पंडित बिशनदास के संपर्क से बालक केहरसिंह पर वैदिक धर्म की छाप पडी।
शिक्षा: बालक केहरसिंह की प्राथमिक शिक्षा मोही एवं लाताला में हुई। बाद में पिताजी के साथ रहकर जालंधर छावनी व पेशावर के विद्यालयों में अंग्रेजी मिडिल तक की शिक्षा प्राप्त की। उस समय की परम्पराओं के अनुसार आपका विवाह बचपन में ही हो गया था और कुछ समय पश्चात् पत्नी का देहांत हो गया। इस थोड़े से वैवाहिक जीवन में भी आप अखंड ब्रहमचारी रहे।
सन्यास की दीक्षा: केवल 15 वर्ष की आयु में वैराग्य भावन से प्रेरित होकर एक दिन चुपचाप घर से निकल पड़े। वर्षों तक देश के विभिन्न भागों और मलाया, ब्रह्मा आदि देशों में भ्रमण करते रहे। भारत वापस लौटने पर आपने फिरोजपुर जिले के परवरनड़ नामक ग्राम में स्वामी पूर्णनन्द जी सरस्वती से 23 वर्ष की आयु में सन्यास की दीक्षा लेकर प्राणपुरी नाम पाया। सन्यासी बनाने के बाद लताला वाले महंत जी की प्रेरणा से आपने अमृतसर में जाकर उदासी संत पंडित स्वरुपदास जी से वेद, दर्शन एवं व्याकरण ग्रंथों का अध्ययन किया। साथ ही यूनानी और आयुर्वेदिक पद्धतियों का अध्ययन किया। आप यूनानी और आयुर्वेदिक पद्धतियों के असाधारण पंडित थे।
स्वतंत्रतानंद बने : अमृतसर से आप कुरुक्षेत्र के मेले पर गए। इस समय आपने कौपीन के सिवाय सब वस्त्र त्याग दिए। केवल एक समय भिक्षा का भोजन ग्रहण करते तथा अधिक समय साधना में व्यतीत करते। यहाँ से स्वामी जी विरक्तों की एक टोली में मिलकर भारत भ्रमण पर निकल पड़े। भिक्षा के लिए आप तुम्बा के स्थान पर एक बाल्टी रखते थे जिसके कारण आपका नाम 'बाल्टी वाला बाबा' पड़ गया। आप अपने साथी साधुओं को निराले ढंग से वैदिक संस्कार दिया करते थे। स्वतंत्र विचार धारा रखने के कारण मंडली में आपको सभी स्वतंत्र स्वामी कहकर पुकारने लगे। धीरे-धीरे आपका नाम स्वतंत्रतानंद सरस्वती पड़ गया।
आर्यसमाज को समर्पित: पंजाब वापस पहुँचाने पर पंडित बिशनदास जी की प्रेरणा से आर्यसमाज के माध्यम से देश सेवा और धर्म रक्षा की ठानी और आर्य समाज को अपना जीवन भेंट करने का संकल्प ले लिया। इस संकल्प के बाद आपने महर्षि दयानंदकृत ग्रंथों का और अन्य वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन किया। आर्य समाज के प्रचार के लिए सर्वप्रथम आपने राममण्डी जिला भटिंडा को चुन। यहाँ रहकर प्रचार के साथ गहन स्वाध्याय भी किया। हिसार जिले के एक समीपवर्ती गाँव कुथरावां में एक हिंदी पाठशाला भी चालू की। आपका सर्वप्रथम भाषण आर्य समाज सिरसा जिला हिसार के वार्षिक उत्सव पर हुआ।
विदेशों में प्रचार व योग साधना: सन् 1920 और 1923 ई. में आप प्रथम वैदिक धर्मी सन्यासी थे जो बिना किसी संस्था की सहायता से जावा, सुमात्रा, मलाया, सिंगापूर, फिलिपिन्स, ब्रहमा,मोरिशस व अफ्रीका आदि देशों में प्रचारार्थ गए। तब तक सार्वदेशिक सभा की स्थापना नहीं हुई थी। विदेश प्रचार यात्रा से लौटकर लताला के पास स्थित एक डेरे में लगातार एक वर्ष तक योगसाधना के द्वारा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की। आप बहुत बड़े साधक तथा महान योगी थे। सन् 1948 में आप फिर से प्रचारार्थ विदेश गए। आपने मोरिशस में भी तीन वर्ष प्रचार किया।
संन्यास दीक्षा गुरु स्वामी सर्वानन्द जी महाराज के साथ स्वामी ओमानन्द सरस्वती के रूप में
देवेंद्र कुमार शास्त्री
स्वामी सर्वानंद शिष्य योग वेद प्रचार मंडल पतंजलि योग धाम मठ गुलनी, जिला - नवादा [दक्षिण बिहार]