सहोऽसि सहो मयि धेहि।
हे ईश्वर! (सहोऽसि) आप सहनशील हैं।( मति) मुझ में ( सहो) सहनशीलता (धेहि) प्रदान करो।
ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका महर्षि दयानंद जी ने हिंदी भाषा में इसका अर्थ इस प्रकार किया है- यह सब के सहन करने हारेश्वर! आप जैसे पृथ्वी आदि लोगों के धारण और नास्तिकों के दुष्ट व्यवहार को सहते हैं वैसे ही सुख, दुख, हनी, लाभ, सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास और युद्ध आदि को सहन वाला मुझको भी कीजिए।
धैर्य अथवा धृति का अर्थ है- दृढ़ता, स्थिरता, धारण करने की क्रिया, स्थिर रहने की क्रिया या भाव, ठहराव और मन की दृढ़ता आदि हैं। इन सब अर्थों का एक ही भाव है की मन स्थिर और दृढ़ रहे। चाहे कैसी भी विपरीत स्थिति हो, मन में किसी प्रकार का विकार नहीं उठे। मन में किसी प्रकार की चंचलता ना आए।मन में किसी प्रकार की उद्विग्नता और बेचैनी ना हो । मन शांत सरोवर की भांति बना रहे। उसमें किसी प्रकार का हिलन डुलन न हो । जैसे वायु के चलने पर सरोवर के जल की ऊपरी सतह पर कुछ लहरें सी उठती हैं इसी प्रकार मन में किसी प्रकार की चंचलता और उद्विग्नता की लहरें न उठे। इसी का नाम है धैर्य अथवा धीरज है ।
* मनु महाराज ने धर्म के 10 लक्षण गिनाए हैं। उनमें धृति (धैर्य, धीरज) को धर्म का पहला लक्षण बताया है।
* धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिंद्रियनिग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।।
किसी कवि ने कहा है -
"विपदिधैर्यम् "
महापुरुष विपत्ति में धैर्य धारण करते हैं।
एमर्सन ने लिखा है -
Adopt the pace of nature, her secret is patience.
अर्थात प्रकृति का अनुसरण करो, धैर्य उसका रहस्य है।
रूसो ने लिखा है -
Patience is bitter, but its fruit is sweet.
अर्थात धैर्य कड़वा होता है, परंतु उसका फल मीठा होता है।
* श्री कृष्णा जी ने जब शिशुपाल का वध किया तो अर्जुन के आश्चर्य से पूछा, जैसे आज निमिष मात्र ही में अपने इस दुष्ट को मृत्युदंड का पात्र मान लिया वैसे आप पहले भी मार सकते थे। वह तो सदैव आपका अपमान करता आया था।
श्री कृष्णा ने आत्मस्थ गांभीर्य के साथ उत्तर दिया, धनंजय! मैं तुम्हारा प्रश्न समझता हूं। आज की तरह कभी भी मैं उसका सहारा कर सकता था,किंतु मेरे सम्मुख सदैव एक प्रश्न रहा है कि क्या बल का धर्म सदैव दंड देना ही है, श्याम आया सहन करना नहीं है ? क्षमा तो बलवान ही कर सकता है, दुर्बल क्या क्षमा करेगा ? सहन भी वही करेगा, जिसके पास सहनशक्ति होगी। आ सकते क्या सहन करेगा ?अब तक मै अपनी इन्हीं शक्तियों की परीक्षा कर रहा था । अपनी ही परीक्षा ले रहा था कि मुझ में जो सकती है, वह कितनी मेरी है, क्योंकि शक्ति उतनी ही हमारी होती है, जिस पर हमारा हमारे संकल्प का अंकुश रह सकता है।
* शारीरिक कष्ट के समय भी धीरज की परीक्षा होती है।
संत एकनाथ रोज गंगा स्नान के लिए पैदल जाते थे। एक दुष्ट रास्ते के एक पेड़ पर कचरे की छावडी लेकर बैठ गया। संत गंगा स्नान करके लौट रहे थे कि उन पर थोड़ा कूड़ा डाल दिया। संत पुनः गंगा स्नान को चले गए। वापसी में फिर वही कार्य हुआ। एकनाथ फिर गंगा स्नान करने चले गए। यह क्रम 10 बार तक चलता रहा। दुष्ट का मन बदल गया। वह व्यक्ति पेड़ से उतरकर संत के चरणों पर गिरकर गिड़गिड़ा ते हुए बोला, महाराज! मैंने बार-बार कूड़ा डाल कर आप को बहुत कष्ट पहुंचाया है। मुझे आप क्षमा करें।
संत एकनाथ ने कहा, भैया! तुमने तो मेरा बड़ा उपकार किया है।तुम्हारी कृपा से आज एकादशी के दिन मुझे 10 बार गंगा स्नान करने का अवसर प्राप्त हुआ।अगर तुम यह कार्य नहीं करते तो मैं एक ही दिन में इतना स्नान का पुण्य लाभ कैसे प्राप्त करता है।
गंगा स्नान में पुण्य मिलना ना मिलना अलग बात है। किंतु यहां संत के धैर्य को देखना चाहिए ,उससे हमें शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
* अपमान में भी व्यक्ति के धीरज की परीक्षा होती है।
मनु महाराज कहते हैं -
सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजत् विषादिव ।
अमृतस्येव चाकाक्ष्येदवमानस्य सर्वदा ।।
अर्थात ब्राह्मण सम्मान को सदा बीच के समान समझे और उसको प्राप्त करके बेचैन हो जाए और सदा अपमान की इच्छा अमृत के तुल्य करें।
ऋषि दयानंद जी के जीवन में अनेक घटनाएं आती है जिनसे यह सिद्ध होता है कि उन्होंने मनु महाराज के इस आदर्श को जीवन में ढाला हुआ था ।
* एक घमंडी युवक ने प्रख्यात सुरवीर सर बोल्टर रैले द्वंद युद्ध की चुनौती दी । उस समय यूरोप में द्वंद युद्ध की चुनौती को अस्वीकार करना कायरता माना जाता था। अत्यंत वीर होने पर भी जब सर रैले ने चुनौती अस्वीकार कर दी , तो उस असभ्य युवक ने उनके मुंह पर थूक दिया। रैले ने शांत भाव से मुंह पोछते हुए कहा , जितनी सरलता से अपने मुंह पर पड़े इस थूक को मैं पोंछ सकता हूं , अगर उतनी ही सरलता से मानव हत्या का पाप भी पोछा जा सकता तो मैं तुम्हारी चुनौती अवश्य स्वीकार कर लेता ।,
* बात सन 1933 की है जब महात्मा गांधी दलित उत्थान अभियान के सिलसिले में काशी आए हुए थे। विद्यापीठ में ठहरे थे। पंडित मदन मोहन मालवीय, राजर्षि टंडन, डॉक्टर भगवान दास तथा अन्य अनेक नेता उनकी सेवा में उपस्थित थे। तभी खाली बदन एक व्यक्ति कंधे पर गमछा डाल कर कमरे से बाहर आया और स्नान करने के लिए नल पर पहुंचा। उस व्यक्ति ने नल पर पानी भर रहे एक स्वयंसेवक से कहा, भैया कुछ समय के लिए बाल्टी मुझे दे दो जिससे मैं स्नान कर लूं। स्वयंसेवक ने झिड़कते हुए कहा, बाल्टी खाली नहीं है। दिखता नहीं है कि मुझे नेताओं के लिए कमरे में पानी पहुंचाना है। स्वयंसेवक की झिड़की खाकर वह व्यक्ति एक और चुपचाप खड़े होकर बाल्टी खाली होने की प्रतीक्षा करने लगा। तभी वहां से ठक्कर बापा निकले। उस नंगे बदन व्यक्ति को देख कर बोले,"अरे राजेंद्र बाबू, आप यहां क्यों खड़े हैं ? यह शब्द सुनते ही स्वयंसेवक चौंका और राजेंद्र बाबू से क्षमा मांगने लगा। राजेंद्र बाबू बोले, 'अरे भाई , इसमें क्षमा मांगने की बात ही नहीं है। तुम तो अपना काम कर रहे थे। कार्यकर्ताओं को कर्तव्य के प्रति इसी प्रकार निष्ठावान होना चाहिए।
कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को धैर्यशील होना चाहिए, क्योंकि धैर्यवान और सहनशील व्यक्ति ही संसार के लोगों का जीतने में समर्थ होता है।
भतृहरी जी महाराज भी अपने नीतिशतकम् में कहते हैं :-
कांताकटाक्षविशिखा: न लुनन्ति यस्य,
चित्तं न निर्दहति कोपकृशानुताप: ।
कर्षन्ति भूरि विषयाश्च न लोभपाशै: ,
लोकत्रयं जयति कृत्स्नमिदं स धीर: ।।
अर्थात धीर गंभीर व्यक्ति ही तीनों लोकों को जीतने में समर्थ होते हैं , किंतु उसके लिए कभी कहता है कि जिनके मन के ऊपर सुंदर स्त्रियों के दृष्टि प्रभावशाली नहीं होती अर्थात जो कामदेव द्वारा प्रभावित नहीं होते, जिन्हें कभी क्रोध रूपी अग्नि संतप्त नहीं करता, जो कभी क्रोध के वशीभूत नहीं होते, तथा जिन्हें इंद्रियों के विषय भोग प्रभावित नहीं करते अर्थात जो जितेंद्रिय होते हैं, वे ही मनस्वी और धैर्य शाली लोग तीनों लोकों को जीतने में समर्थ होते हैं ।
अतः हमें भी धैर्यवान और सहनशील व्यक्ति बनना चाहिए। जिससे संसार का विश्व का कल्याण हो सकता है।