एक साधु रहता था किसी जंगल में। कितने ही लोग उसके दर्शन करने को आते। जो भी जाता, उसे शांति मिलती। 1 दिन उस देश के राजा भी गए। देखा, साधु एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। सर्दी और बरसात से बचने का कोई प्रबंध नहीं है।
राजा ने कहा - महात्मन् ! यहां तो बहुत कष्ट होता होगा, आप मेरे साथ चलिए महल पधारिए, महल में रहिए।
साधु पहले तो माना नहीं, राजा ने बहुत आग्रह किया तो बोले - "अच्छा चलो!"
महल में गए। एक सुंदर कमरे में ठहरे। हर समय नौकर उपस्थित रहने लगे। अच्छा भोजन मिलने लगा। तीन माह व्यतीत हो गए। राजा उसकी पूजा करते। रानी उसमें श्रद्धा रखती। एक दिन रानी नहाने के लिए स्नानागार में गई। नहा कर उठी तो वहां हीरो का हार पहनना भूल गई, जो उसने उतारकर स्नानागार में रख दिया था। हार वहीं पड़ा रहा। रानी के पश्चात साधु-संतों नगर में गया। हार को देखा, उठाकर अपने को पीने में छुपा लिया। गंगा घाट से निकले, महल से बाहर चले गए।
कुछ देर पश्चात रानी को हार का ध्यान आया। दासी से बोली - "स्नानागार में हार छोड़ आई हूं, उसे ले आओ।"परंतु वहां तो हार नहीं था। खोज होने लगी। पूछा गया - गुसल खाने में रानी के पश्चात कौन गया था? पता लगा कि महात्मा गए थे। महात्मा की खोज होने लगी। महात्मा मिले नहीं। राजा को ज्ञात हुआ तो उसने सिपाहियों को आज्ञा दी - "उस साधु के पीछे जाओ। उसे पकड़ कर ले आओ!"
इधर वे महात्मा शहर से बाहर निकले । जंगल में चले गए। दिन भर चलते रहे। पांव थक गए । भूख भी सताने लगी तो जंगल का एक फल तोड़कर खा गए, फल था एक औषधि, उससे दस्त लग गए। इतने दस्त आए कि महात्मा निर्बल हो गए । तभी उन्हें हार का ध्यान आया। उसे देखते ही बोले - " मैं इसे क्यों उठा लाया ? मैंने चोरी क्यों की ?"
उसी समय वापस चल पड़े। आधी रात के समय राजा के महल पर पहुंचे। आवाज दी। राजा जागे। महात्मा ने उसके पास जाकर कहा - "राजन ! आपका यह हार है, ले लो। मैं यहां से उठाकर ले गया था। मुझसे अपराध हुआ। मैं क्षमा मांगने आया हूं।"
राजा ने आश्चर्य से कहा - " वापस ही लाना था, तो आप इसे ले क्यों गए थे ?"
साधु ने कहा - " राजन ! क्रोध ना करना, 3 मार्च तक मैं तुम्हारा अन्न खाता रहा, उससे मेरा मन पापी हो गया। जंगल में जाकर दस्त आए। शरीर शुद्ध हो गया। तेरे अन्न का प्रभाव समाप्त हो गया। मैंने वास्तविकता को जाना और वापस आ गया।"
यह है अन्य का प्रभाव! इसीलिए यूनान के फिलोसोफर पाइथागोरस ने कहा था - "तुम मुझे बताओ, कौन आदमी क्या खाता है, मैं तुम्हें बताऊंगा कि वह क्या सोचता है! "
इसलिए कहते हैं कि जैसा अन्न खाओगे, वैसा मन बनेगा। जो व्यक्ति गंदा और खोटा अन्य खाता है, उसका मन भी अच्छा होगा नहीं। अन्य को जिस भावना से कमाया हो और तैयार किया हो, उसका प्रभाव मन पर पड़ता है।
इसीलिए हम जो हैं शुद्ध आहार का ग्रहण करें और अपने मन को अपने विचार को भी शुद्ध बनाएं क्योंकि मन शुद्ध ना हो तो मन में नाना प्रकार के दुष्ट विचार आते हैं जिसके कारण हम कुसंगति में फंस जाते हैं और कुसंगति पर फसने पर हमारा जीवन नर्क बन जाता है
क्योंकि किसी कवि ने कहा है :-
ओहो दुर्जना संसर्गान्मानहानि: पदे पदे।
पावको लोहसंगेन मुद्गरैरभि हन्यते ।।
अर्थात दुर्जन के संसर्ग में रहने से पद पद पर मानहानि अपमान सहना करना पड़ता है, शुद्ध पवित्र अग्नि को भी लोहा के साथ घनों से पीटा जाता है । चने के साथ घुन भी पिस आ जाता है।सीता को चुराया रावण ने किंतु दुष्ट के संसर्ग में होने के कारण समुद्र पर सेतु बांधा गया। यह लोकोक्ति है कि - "नीचाश्रयो हि मेहतामपमान हेतु: "
नीच का आश्रय लेने से या उसके निकट रहने से महापुरुषों का भी अपमान होता है ।
* एक बार भगवान विष्णु ने राजा बलि से पूछा कि - तुम सज्जनों के साथ नर्क में जाना पसंद करोगे या दूर जनों के साथ स्वर्ग में ? राजा बलि ने उत्तर दिया कि मैं सज्जनों के साथ नर्क में जाना उत्तम समझता हूं,क्योंकि जहां सज्जन जाएंगे वहां नर्क भी स्वर्ग बन जाएगा और दुर्जन स्वर्ग को भी नर्क बना देते हैं।
पंडित विष्णु शर्मा पंचतंत्र में लिखते हैं -
"वरं प्राणत्यागो न पुनरधमनामुपगम: "
प्राण त्याग देना अच्छा है किंतु नीच की संगति अच्छी नहीं। क्योंकि प्राण त्यागने पर दूसरा उत्तम शरीर क्रमानुसार मिल जाएगा, किंतु कुसंग मैं तो लोक परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। यहां लोक तो प्रत्यक्ष रूप से है ही नष्ट भ्रष्ट और पाप कर्म करने से अगला जन्म भी उत्तम नहीं मिलता।
कहने का तात्पर्य यह है कि हमें यदि कुसंगति से बचना है, तो हम जो हैं अपने मन को शुद्ध बनाएं, और मन को शुद्ध बनाने हेतु, विचार को शुद्ध करने के लिए शुद्ध आहार, अच्छे विचार से बनाया गया आहार का ग्रहण करें। तभी हमारा मन और विचार शुद्ध होगा।
"क्योंकि जैसा आहार वैसा विचार"