यहां प्रश्न होता है, किससे छूटना?
उत्तर स्पष्ट है कि दुख, अर्थात बंधन से छूटना मुक्ति है।
जहां बंधन नहीं वहां मुक्ति भी नहीं। जीवात्मा बद्ध है, इसलिए इसको मुक्ति की आवश्यकता है। ईश्वर सदा मुक्त है अर्थात बंधन से पृथक है, इसलिए उसको मुक्त स्वभाव कहते हैं। मुक्ति का अधिकारी होना बड़ा ही कठिन काम है। मुक्ति की दशा में नित्य सुख का अनुभव होता है। आजकल तो लोग यह समझते हैं कि सस्ती भाजी की तरह मनमाने कामों से मुक्ति मिलती है, परंतु यह मूर्खतापन की समझ है । मुक्ति के मनमाने चार वेद जो लोग बतलाते हैं वे यह हैं -
सायुज्य, सारूप्य, सामीप्य और सालोक्य, यह सब कल्पित हैं । बीदादी शास्त्रों में मुक्ति के यह भेद कहीं नहीं लिखे। प्रत्युत उनमें एक ही प्रकार की मुक्ति बतलाई है।
यजुर्वेद में लिखा है -
तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय ।
अर्थात उस परमपिता परमात्मा को जानकर ही मृत्यु को जीत सकते हैं, दूसरा और कोई मार्ग नहीं है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि मुक्ति का मार्ग एक है और वह केवल परमेश्वर का ज्ञान है।
इस पर प्रश्न होगा कि वह परमेश्वर कैसा है ?
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यश: ।
अर्थात उस परमपिता परमात्मा की कोई प्रतिमा (मूर्ति या पैमाना) नहीं है, जिसका कि यश बड़ा है। फिर तबल्कार और बृहदारण्यक उपनिषद को भी देखना चाहिए, जिनमें बतलाया है कि जीवात्मा के भीतर भी वह परमात्मा व्यापक है तथा उससे वाणी, मन, आंख, कान और प्राणों को भी अपने अपने कामों में लगाने वाला माना है और उसे एक तथा अद्वितीय माना है। इन सब परमाणु पर विचार करने से सिद्ध होता है कि परमेश्वर के ज्ञान के बिना मुक्ति पाने का कोई दूसरा मार्ग नहीं है। वह परमेश्वर अरूप, अनादि कथा अनंत है। वही ब्रह्मा सबसे बड़ा और सब का सहारा है। आजकल की मुक्ति तो यह समझे जाती है कि जीव और परमात्मा एक ही है, बस यह ज्ञान होना ही मुक्ति है। यह आजकल के वेदांती यों का मत है, किंतु यह सच्चा वेदांत नहीं है और ना वेदों का सिद्धांत है। इस बात की पड़ताल करने पर की षट् दर्शनों के प्रणेता ओं की मुक्ति के विषय में क्या सम्मति है , इसका तत्व मालूम हो जाएगा। पहले जैमिनी कृत पूर्व मीमांसा में यह कहा है कि धर्म अर्थात यज्ञ से मुक्ति मिलती है और वहां "यज्ञो वै विष्णु:" इत्यादि शतपथ ब्राह्मण के भी प्रमाण दिए हैं । इस पर विचार करना आवश्यक है।
फिर कणाद मुनि नए वैशेषिक दर्शन में कहा है कि - तत्वज्ञान से मुक्ति होती है।
न्याय दर्शन के रचयिता गौतम ने अत्यंत दुख निवृत्ति को मुक्ति माना है ।
विद्या ज्ञान के दूर होने से बुद्धि, वाक् और शरीर शुद्ध होते हैं और इनकी सुद्धि इसे यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है , वही मुक्ति की अवस्था है।
योग शास्त्र के कर्ता पतंजलि मानते हैं कि - चित्त वृत्तियों का निरोध करने से शांति और ज्ञान प्राप्त होते हैं और इससे कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
संख्या शास्त्र के प्रणेता महामुनि कपिल कहते हैं की - तीन प्रकार के दुखों की निवृत्ति होना ही परम पुरुषार्थ (मुक्ति) है।
अब देखिए कि उत्तर मीमांसा अर्थात वेदांत दर्शन के रचयिता वादरायण (व्यास) क्या कहते हैं -
अविभागेन दृष्टत्वात् ।।
चितितन्मात्रेण तदात्मकत्वादित्यौडुलोमि: ।।
(अभावों बादरिराह ह्येवम् ।।
भावना जैमिनिर्निर्विकल्पामननात् ।।
द्वादशाहवदुभयविधं वादरायणोऽत: ।।)
व्यास के मत से मुक्ति की दशा में भाव और अभाव दोनों रहते हैं । मुक्त जीवात्मा का परमेश्वर के साथ व्याप्य- व्यापक संबंध रहता है। दोनों एक अर्थात जीवात्मा का अभाव कभी नहीं होता।
भोगमात्रसाम्यलिङ्गाच्च ।।
अर्थात परमेश्वर के ज्ञान, सामर्थ्य और आनंद जीवात्मा को प्राप्त होते हैं। ईश्वर का आनंद असीम है, वैसा आनंद मुक्त जीवात्मा तो हो ही नहीं सकता। जीव - ब्रह्म में अभेद मानने से धर्मानुष्ठान के सब साधन योग, तप और उपासना आदि सब निष्फल हो जाएंगे, इसलिए परमात्मा और जीवात्मा को एक मानना ठीक नहीं है।
व्यापक और व्याप्य, सेव्य और सेवक आदि संबंध ईश्वर और जीव मैं वर्तमान रहता है और यही संबंध जीवात्मा के जन्म - मरण के बंधन से छुटकारे का कारण होता है।