सृष्टि किसने, क्‍यों, कैसे और किन तत्त्वों से बनाई?


सृष्टि किसने, क्‍यों, कैसे और किन तत्त्वों से बनाई?

                        सृष्टि की रचना से जुड़ा और दार्शनिकता से भरपूर यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर हमारे ऋषि-मुनियों ने सदियों अनुसंधान किया है और अब भी जारी है। विश्व के दार्शनिकों, विद्वानों तथा आध्यात्मिकता के चरम को छूने वालों के लिए भी यह अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। जीवन के इन रहस्यों को यदि कोई अपने विद्यार्थी जीवन काल में ही सुलझा लेता है तो वह अपने बहुमूल्य जीवन को अंधविश्वासों तथा भ्रान्तियों में फँस कर नष्ट होने से बचा सकता है। 


                         विश्व के सबसे पुराने ग्रंथ ऋग्वेद में सृष्टि की रचना का वर्णन मिलता है। ऐसा माना जाता है कि ईश्वर ने वेदों का ज्ञान सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही चार ऋषियों को दिया था। उन ऋषियों ने मनुष्य जाति के उपकार और मार्गदर्शन के लिए वैदिक ज्ञान को चार वेदों में परिवर्तित कर दिया। आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती ने चारों वेदों एवं उनसे जुड़े साहित्य का गहन अध्ययन एवं चिन्तन किया। उन्होंने वैदिक साहित्य को लेकर विस्तार से अनुसंधान कार्य किया और वेदों का भाष्य लिखा तथा सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम को प्रचारित तथा प्रसारित भी किया। यह लगभग वैसा ही है, जैसा आज के वैज्ञानिक और भूगोल-विशेषज्ञ मानते हैं। आदि स्मृति ग्रंथ 'मनुस्मृति' में भी इसका वर्णन इसी प्रकार आया है। 


                         ईश्वर ने सृष्टि की रचना अपने स्वाभाविक गुण के आधार पर की। इसके द्वारा जीव मुक्ति के साधनों को अपनाकर मोक्ष के आनंद को प्राप्त कर सकता है अर्थात्‌ ईश्वर ने यह सृष्टि जीवों के भोग तथा मोक्ष के लिए बनाई। 


                         इस सृष्टि की रचना पाँच तत्त्वों से हुई है। उनका क्रम है-आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी। इन्हीं पाँच तत्त्वों से ही मनुष्य का शरीर भी बना। 


                        आओ! जरा देखें कि सृष्टि का निर्माण किस क्रम से हुआ और वह कौन से पाँच तत्त्व हैं, जो इस सृष्टि में भी हैं और उन्हीं से हमारे शरीर की रचना भी हुई है तथा हमारी इन्द्रियाँ भी उनसे प्रभावित हैं। 


 आकाश  

                     सबसे पहले आकाश (खाली स्थान: space) बना, जिसका निज गुण है शब्द अर्थात्‌ आवाज और इससे हमारी इंद्रिय बनी ' श्रोत्र' अर्थात्‌ 'कान! जिससे हम सुनते हैं। अतः आकाश हमारे शरीर का पहला तत्त्व है। इससे हम शून्यत्व, चिंता, संदेह, मोह इत्यादि कर्म करते हैं। 


वायु

                      आकाश से बनी वायु, जिसका निजी गुण है स्पर्श किंतु उसमें आकाश का गुण शब्द भी है, क्योंकि वायु जब चलती है तो उसकी आवाज भी होती है। आँधी-तूफान में यह हमें पूरी तरह सुनाई देती है। अतः वायु में दो गुण हैंशब्द और स्पर्श अर्थात्‌ यदि वायु ठंडी होगी तो उसके स्पर्श से ठंड का पता चलता है और यदि गर्म हो तो उसके स्पर्श से गर्म महसूस होता है। अतः वायु हमारी शरीर की रचना में दूसरा तत्त्व है, जिससे त्वक्‌, इंद्रिय अर्थात्‌ चमड़ी से छूना है। इस तत्त्व में हमारा सिकुड़ना, दौड़ना, लांघना, फैलाना और चेष्टा करना कर्म बनता है। 


अग्नि

                        आकाश और वायु के बाद बनी अग्नि, जिसका निजी गुण है रूप अर्थात्‌ यह हमें दिखाई भी देता है। आकाश और वायु दिखाई नहीं देते हैं, लेकिन जब अग्नि जलती है तो वह दिखाई भी देती है। अग्नि में अपने इस गुण के एक निजी गुण के अतिरिक्त आकाश और वायु के दोनों गुण भी हैं। क्योंकि इसमें शब्द भी है। जब यह जलती है तो आवाज करती है और स्पर्श का गुण भी है, क्योंकि इसके स्पर्श से गर्मी लगती है। अतः अग्नि हमारे शरीर की रचना में तीसरा तत्त्व है, जिससे नेत्र इंद्रिय बनती है और आँखों से देखते हैं। इस तत्त्व से हम भूख, प्यास, आलस्य और निद्रा जैसे कर्म करते हैं। 


जल

                       आकाश, वायु, अग्नि के बाद जल, जिसका निजी गुण है रस अर्थात्‌ तरल पदार्थ जो ऊपरलिखित तीनों तत्त्वों में विद्यमान नहीं हैं कितु तीनों तत्त्वों के गुण जल में हैं। इसमें आकाश का गुण शब्द भी है, इसलिए जब यह बहता है और गिरता है तो आवाज करता है। वायु का स्पर्श गुण भी इसमें हैं, क्योंकि यह ठंडा और गर्म भी लगता है और अग्नि की तरह इसका रूप भी है अर्थात्‌ यह दिखाई भी देता है। अतः हमारे शरीर की रचना में जल चौथा तत्त्व है जो हमारी रसना अर्थात्‌ जिह्वा इंद्रिय बनता है, जिससे हम चखते हैं और स्वाद लेते हैं। इससे शरीर में लार, मूत्र, वीर्य, रक्त और चर्बी इत्यादि बनती है। 


पृथ्वी

                       सृष्टि क्रम में पृथ्वी पाँचवाँ तत्त्व है, जो हमारे शरीर में भी विद्यमान है और इसका निजी गुण है गंध अर्थात्‌ सुगंध या दुर्गंध। यह गुण उक्त चारों तत्त्वों में नहीं है, लेकिन उन चार तत्त्वों के गुण पृथ्वी में विद्यमान हैं। क्योंकि पृथ्वी में शब्द अर्थात्‌ आवाज है, स्पर्श है, रूप है और रस है। इस तत्त्व से हमारी प्राण इंद्रिय बनती है अर्थात्‌ नाक से सूँघना। इस तत्त्व से हमारे शरीर में चमड़ी, हड्डी, नाड़ी, बाल और मांस का निर्माण होता है। 


                     इस प्रकार हम देखते हैं कि सृष्टि के निर्माण में जो पाँच तत्त्व कारक हैं उनसे ही हमारा शरीर भी बनता है। केवल हमारा ही नहीं, सब प्राणियों के शरीरों का निर्माण होता है, चाहे वह पशु हो या पक्षी हो या जलचर हो। इन सभी का निर्माण पाँच तत्त्वों से ही हुआ है। जब पाँचों तत्त्व सृष्टि में सही अनुपात से रहते हैं तो सब कुछ ठीक-ठाक रहता है और यदि हम इन तत्त्वों से छेड़खानी करके या दुरुपयोग करके, इसका संतुलन बिगाड़ देते हैं तो पर्यावरण भी बिगड़ जाता है और फिर अकाल, भूचाल, अति वृष्टि, समुद्री तूफान, चक्रवात आदि आपदाएँ आती हैं। 


                      वेदों में यह उल्लेख बार-बार आया है कि सृष्टि की सभी शक्तियाँ उसके लिए काम करती हैं, जो ईश्वर की रचना से प्यार करता है। ईश्वर की रचना से प्यार करने का अर्थ है, इन पाँच तत्त्वों से बनी सृष्टि के पर्यावरण की रक्षा करना, जिसे हम अपने दैनिक व्यवहार में कर सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि हम सिगरेट, बीड़ी पीते हैं तो पर्यावरण को दूषित करते हैं। अपने शरीर का भी नाश करते हैं और दूसरों को भी नुकसान पहुँचाते हैं। यदि हम चिल्लाते हैं या फिर अपने स्टीरियो की आवाज बहुत ऊँची करके बजाते हैं तो भी हम पर्यावरण को दूषित करते हैं और अपने शरीर की सुनने की शक्ति को भी बर्बाद करते हैं। यदि हम अपनी कॉपी, किताब के कागजों को आवश्यकता से अधिक प्रयोग करके यूँ ही फाड़ते-फेंकते रहते हैं तो भी हम पर्यावरण को दूषित करते हैं, क्योंकि कागज भी पेड़ों से बनता है। कागज के दुरुपयोग से ज्यादा पेड़ काटने पड़ते हैं, जो पाँचों तत्त्वों के संतुलन को बिगाड़ता है। इसी प्रकार हम आवश्यकता अनुसार बिजली, पानी, पेट्रोल ओर डीजल को कम से कम इस्तेमाल करके और इसकी बरबादी रोक पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं। दूसरी ओर हम प्रतिदिन यज्ञ कर, शुद्ध देशी घी के दीपक जलाकर ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाकर और उनकी निरंतर सेवा करके पर्यावरण को ज्यादा से ज्यादा शुद्ध और पवित्र करके पाँचों तत्त्वों-आकाश वायु, अग्नि जल और पृथ्वी की रक्षा कर सकते हैं। 



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