शरीर - याग

                               


ओउम् 


स्वयं यजस्व दिवि देव देवान् किं ते पाकः कृणवदप्रचेताः । यथायज ऋतुभिर्देव देवानेवा यजस्व तन्वं सुजात ।। ऋ० ७।९०४


शब्दार्थ- हे देव कमनीय! अथवा कामनाक्रान्त जीव! तू स्वयम् = | अपने-आप दिवि मस्तिष्क में विद्यमान देवान् = देवों को, इन्द्रियों को, दिव्य भावों को यजस्व मिल, प्रेर, संगत कर। अप्रचेताः = मूढ़, अचेत | पाकः = परिपक्व, पवित्र ते तेरा किं क्या कृणवत् = कर सकता है। यथा = • जैसे तू ऋतुभिः = ऋतुओं के अनुसार देवान् देवों को अयजः = संगत - करता है एवा ऐसे ही, हे सुजात सुकुल तन्वं शरीर को यजस्व संगत कर! ! कुलीन! उत्तम! देव = देव !


व्याख्या इस मन्त्र में कई धारणीय तत्त्व हैं ( १ ) देव = इन्द्रियाँ द्युलोक मस्तिष्क में रहती हैं। यह शरीर ब्रह्माण्ड का एक संक्षिप्त सार है। ब्रह्माण्ड में त्रिलोकी है-द्यौ, अन्तरिक्ष तथा पृथिवी द्यौ में सूर्य, चन्द्र, तारे आदि प्रकाशपिण्ड रहते हैं। अन्तरिक्ष में वायु आदि हैं। पृथिवी सबका आयतन है। शरीर में मस्तिष्क शिरोभाग द्यौ है । आत्मा को बाहर के पदार्थों का ज्ञान पहुँचाने वाले आँख, नाक, कान, रसना, स्पर्श इन्द्रिय सब देव यहीं रहते हैं। शरीर का मध्य भाग अन्तरिक्ष है। अधो भाग पृथिवी है।


(२) इनसे तुझे स्वयं संगत होना होगा, किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं करनी होगी। मेरी आँख से मैं ही देखूँगा, दूसरा कोई भी मेरी आँख द्वारा नहीं देख सकता। मेरे कान से मैं ही सुन सकता हूँ, महाश्रवणशक्ति सम्पन्न होता हुआ भी दूसरा नहीं सुन सकता। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों की दशा समझ लेनी चाहिए। जैसे इनसे मैं ही कार्य ले सकता हूँ, ऐसे ही इनके द्वारा प्राप्त होने वाले सुख-दुःख का भागी तथा भोगी भी मैं ही बनूँगा।


(३) अप्रचेताः = मूढ़ अज्ञानी किसी का कुछ सँवार नहीं सकता। पवित्रता के साथ ज्ञान भी अत्यन्त आवश्यक है।


(४) ऋतु ऋतु में उस उस ऋतु के अनुसार यज्ञ करने चाहिए। गोपथब्राह्मण में ऐसे यज्ञों को भैषज्य यज्ञ कहा गया है। इनसे अपना पराया स्वास्थ्य बिगड़ने नहीं पाता।


(५) जैसे देवयज्ञ करना आवश्यक है, वैसे शरीर-याग [ यजस्व तन्वम् ]

भी आवश्यक है।


वेद सभी मनुष्यों के लिए है, किन्तु आज तो 'यजस्व तन्वम्' उपदेश भारतीयों के लिए अत्यन्त उपादेय है। वेद शरीर की उपेक्षा का उपदेश नहीं करता। यज्ञ वैदिक धर्म का प्राण है। यहाँ शरीर-याग करने का विधान है, | अर्थात् शरीर निन्दनीय नहीं है। यजुर्वेद में कहा है


इयं ते यज्ञिया तनूः-  यजुः० ४।१३


यह तेरा तन यज्ञ करने योग्य है, पूजनीय परमात्मा से मिलाने का साधन है। कौन मूढ़ ऐसे अमूल्य रत्न को सँभालकर न रखेगा?


भवसागर पार करने को यह शरीर नौका है। नौका को बिगाड़ दोगे, उसमें छिद्र करोगे तो आप ही डूबोगे, लक्ष्य पर न पहुँचोगे, इसी संसार सागर में गोते खाते रहोगे, अतः तरणि को सुरक्षित रखो, इसी से वेद कहता है-


 यजस्व तन्वम्।

जैसा कि ऊपर यजुर्वेद के प्रमाण से बताया जा चुका है कि यह मानव तन पूजनीय परमात्मा से मिलने का साधन है। इससे सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि शरीर का वेद की दृष्टि में कितना महत्त्व है। परमात्मा से मिलने-मिलाने की बात छोड़ भी दी जाए, तो भी मानव शरीर का महत्त्व न्यून नहीं होता। वाचाशक्ति और किस शरीर में है? सांसारिक जीवन की सुख-सुविधा इसी देह पर अवलम्बित है। रुग्ण देहवाला मनुष्य अपने परिवार को भी भार प्रतीत होता है, अपनी क्रिया भली-भाँति नहीं कर सकता, इस हेतु अथर्ववेद में कहा गया है-


'स्वे क्षेत्रे अनमीवा विराज' 

अपने देह में अनमीवा रोगरहित विराजमान हो, अर्थात् आहार-विहार ऐसा रखो, जिससे किसी प्रकार का रोग शरीर पर आक्रमण न करे। शरीर पर रोग अपथ्य, मिथ्याहार-विहार, अशुद्ध उपचार से आते हैं। यदि खान-पान, शयन आसन आदि में नियमितता एवं संयम रखा जाए तो रोग होने का कोई हेतु नहीं। इस पर भी यदि शरीर रुग्ण हो जाए, तो समझ लीजिए, पूर्वजन्म की असावधानता का परिणाम है। इसे समझने का फल यह होना चाहिए कि मनुष्य अधिक सावधान हो जाए। पूर्वजन्म की बात से अगले जन्म का विचार करे। पूर्वजन्म के विचार, आचार, व्यवहार के आधार पर हमारा वर्तमान देह बना है। इसी भाँति इस जन्म के आहार. व्यवहार, विहार के अनुसार उत्पन्न संस्कार भावी जन्म के हेतु बनेंगे। यहाँ एक बात और विस्मरण नहीं करनी चाहिए कि विचारों का शरीर पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, अतः शरीरयाग के लिए विचारों की पवित्रता नितान्त प्रयोजनीय है। शरीर हृष्ट-पुष्ट है, किन्तु विचार अपवित्र हैं तो शरीर-याग नहीं हुआ, इसका सङ्केत 'किं ते पाकः कृणवदप्रचेताः' में है। मनन कीजिए। आत्मा को सम्बोधन करते हुए 'देव' तथा 'सुजात' शब्द कहे गये हैं। ये दोनों विशेषण महत्त्व के हैं। 'देव' दिव्य भावों वाले को कहते हैं, अर्थात हे जीव! तेरी नैसर्गिक प्रकृति तो देवत्व है, अज्ञान से तू असुर भावों में फँस जाता है, अतः अपना स्वरूप पहचान। निःसन्देह नेत्र आदि महादेव तेरे साथी हैं. किन्तु अप्रचेता-जड़, अतः तेरा कुछ नहीं सँवार सकते। तू उनसे ऊपर उठ और अपने ऊपर भरोसा करके देवयज्ञ कर, शरीरयाग कर, यज्ञ हो और देवयज्ञ हो, तभी कल्याण होगा।

                    इति ओउम् शम् 

              शास्त्री हरी आर्य:

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