ओउम्
व्यवहारभानु
महर्षि दयानन्द द्वारा निर्मित लघुग्रंथों में व्यवहार-भानु अत्यन्त शिक्षाप्रद पुस्तक है। इसमें सरल भाषा में न्याय-अन्याय, धर्माधर्म आदि बातों पर विचार किया गया हैं। इसमें यह भी बतलाया गया है कि मित्र- पड़ोसी, स्त्री-पुरुष राजा प्रजा, अध्यापक विद्यार्थी आदि का परस्पर कैसा व्यवहार करना चाहिए। प्रत्यके मनुष्य के लिए धार्मिक तथा व्यावहारिक शिक्षा बहुत जरूरी है। इस सम्बन्ध में महर्षि इस ग्रन्थ की भूमिका में लिखते हैं- “जब मनुष्य धार्मिक होता है तब उसका विश्वास और मान्य शत्रु भी करते हैं और जब अधर्मी होता है। तब उसका मान्य और विश्वास मित्र भी नहीं करते।" महर्षि के उक्त शब्द केवल सिद्धांत रूप में ही नहीं कह गये, अपितु लोक में परीक्षा करके उन्होंने उक्त सिद्धांत स्थापित किया है। मतहर्षि लिखते हैं
"मैंने इस संसार में परीक्षा करके निश्चय किया है कि जो मनुष्य धर्मयुक्त व्यवहार में ठीक-ठीक वर्त्तता है उसको सर्वत्र सुख-लाभ और जो विपरीत वर्त्तता है वह दुःखी होकर अपनी हानि करता है।
प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य स्कूल तथा कॉलेजों में आधुनिक उच्च से उच्च शिक्षा को प्राप्त तो कर लेता है किन्तु धार्मिक तथा व्यावहारिक ज्ञान से कोसों दूर रहता है, जिस कारण उसे जीवन में अनेक प्रकार की हानिया उठानी पड़ती हैं। तथाकथित पब्लिक तथा माडर्न स्कूलों में तो धार्मिक तथा व्यावहारिक शिक्षा की और कम ही ध्यान दिया जाता है। इसलिए व्यवहार भानु जैसे ग्रन्थों का होना बहुत जरूरी है। वे लिखते हैं- “मैं मनुष्यों को उत्तम शिक्षा के लिए सब वेदादि शास्त्र और सत्याचारी विद्वानों को रीति-युक्त इस 'व्यवहार भानु' ग्रन्थ को बनाकर प्रसिद्ध करता हूँ।"
विद्या की महिमा
न विद्यया विना सौख्यं नराणां जायते ध्रुवम् । अतो धर्मार्थमोक्षेभ्यो विद्याभ्यासं समाचरेत् ॥
अर्थात् विद्या के बिना किसी को निश्चित सुख नहीं हो सकता। विद्या के बिना क्षण पर्यन्त होने वाला सुख वस्तुतः न हुआ जैसा ही है। किसी का सामर्थ्य नहीं कि जो अविद्वान् होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्वरूप को यथावत् जान सके। महर्षि दयानन्द लिखते हैं- विद्या से यथार्थ ज्ञान होकर यथायोग्य व्यवहार करने कराने से आप और दूसरों को आनन्दयुक्त करना विद्या का फल है।
विद्या और अविद्या
जिससे पदार्थ का स्वरूप यथावत् जानकर उससे उपकार लेके अपने और दूसरों के लिए सुखों को सिद्ध कर सके वह विद्या और जिससे पदार्थों के स्वरूप को उलटा जानकर अपना और पराया अनुपकार कर लेवे, वह अविद्या कहलाती है। विद्या की प्राप्ति और अविद्या-नाश के लिए वर्णोच्चारण से लेकर वेदार्थ ज्ञान के लिए ब्रह्मचर्य आदि कर्म करने चाहिए।
शिक्षा
जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभ गुणों की प्राप्ति और अविद्यादि दोषों को छोड़कर सदा आनन्दित हो सकें वह शिक्षा कहाती है।
प्रश्न- अपने सन्तानों के लिए माता-पिता और आचार्य क्या-क्या शिक्षा करें?
उत्तर- शतपथ ब्राह्मण में कहा है-
'मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद'
अर्थात् बच्चे के माता पिता तथा आचार्य- ये तीन गुरु हैं। इसीलिए महर्षि दयानन्द लिखते हैं- 'अहोभाग्य उस मनुष्य का कि जिसका जन्म धार्मिक विद्वान् माता पिता और आचार्य के सम्बन्ध में हो क्योंकि इन तीनों की ही शिक्षा से ही मनुष्य उत्तम होता है । ये अपने सन्तान और विद्यार्थियों को अच्छी भाषा बोलने, खाने पीने, बैठने, उठने, वस्त्र धारण करने माता-पिता आदि का मान्य करने, उनके सामने यथेष्टाचारी न होने, विरुद्ध चेष्टा न करने आदि के लिए प्रयत्न से नित्यप्रति उपदेश किया करें। इस प्रकार लड़के और लड़कियों को पाँच व आठ वर्ष की अवस्थापर्यन्त माता-पिता और आचार्य की शिक्षा देनी चाहिए?
प्रश्न किस प्रकार की शिक्षा देनी चाहिए?
उत्तर- सदैव उत्तम शिक्षा देनी चाहिए। यथा सदैव सत्य बोलना, चोर न करना, बड़ों का सम्मान करना, विद्या में मन लगाना इत्यादि। ऐसी शिक्षा कभी न करें कि- तू किसी का मार गाली दे, इसकी टोपी फेंक दे या कपड़े छीन ले इत्यादि।
प्रश्न- जो माता पिता आचार्य और अतिथि अधर्म करें और कराने का उपदेश करें तो मानना चाहिए वा नहीं।
उत्तर- कदापि नहीं। कुमाता, कुपिता सन्तानों को बुरे उपदेश करते हैं कि तेरा शीघ्र विवाह कर देंगे, किसी की चीज के तो उठा लाना, लड़ाई, झगड़ा, खेल, चोरी, जारी मिथ्या भाषण आदि में कुछ भी दोष नहीं तो सन्तान को चाहिए कि ऐसा उपदेश न माने।
प्रश्न- कौन व्यक्ति माता-पिता तथा आचार्य कहलाने के योग्य हैं?
उत्तर- जो बुरी चेष्टा देखकर लड़कों को न घुड़कते और न दण्ड देते हैं वे क्योंकर माता-पिता और आचार्य नहीं हो सकते हैं क्योंकि जो अपने सामने यथातथा बकने, निर्लज्ज होने, व्यर्थ चेष्टा करने आदि बुरे कामों से हटाकर विद्या आदि शुभ गुणों के लिए उपदेश नहीं करते, न तन-मन-धन लगाकर उत्तम विद्या व्यवहार का सेवन कराकर अपने सन्तानों को सदा श्रेष्ठ करते जाते हैं. वे माता-पिता, आचार्य कहलाकर धन्यवाद के पात्र कभी नहीं हो सकते और जो अपने-अपने सन्तान और शिष्यों को ईश्वर की उपासना, धर्म अधर्म, प्रमाण, प्रमेय, सत्य, मिथ्या, पाखड, वेद, शास्त्र आदि के लक्षण और उनके स्वरूप का यथावत बोध करा और सामर्थ्य के अनुकूल उनको वेद-शास्त्रों के वचन भी ण्ठिस्थ कराकर विद्या पढ़ने आचार्य के अनुकूल रहने की रीति जना देवें कि जिससे विद्या प्राप्ति आदि प्रयोजन निर्विघ्न सिद्ध हों, वे ही माता-पिता और आचार्य कहा हैं।
प्रश्न- मनुष्य विद्या को किस प्रकार प्राप्त कर सकता है? उत्तर वर्णोच्चारण, व्यवहार की शुद्धि पुरुषार्थ, धार्मिक विद्वानों का संग औ अपने आत्मा की पवित्रता विषयकथरा प्रसंग का त्याग, सुविचार से व्याकरण आदि शब्द, अर्थ और सम्बन्धों का यथावत् जानकर उत्तम क्रिया करे और विद्या को सर्वर्था साक्षात् करता जाए।
विद्या चार प्रकार से प्राप्त होती है-
(1) आगमकाल
(2) स्वाध्यायकाल
(3) प्रवचनकाल तथा
(4) व्यवहारकाल के द्वारा।
(1) आगमकाल उसको कहते हैं कि जिससे मनुष्य पढ़ाने वाले से सावधान होकर ध्यान देकर विद्यादि पदार्थ ग्रहण कर सके अर्थात् ध्यान से सुने।
(2) स्वाध्यायकाल उसको कहते हैं जो पठन समय में आचार्य के मुख से शब्द, अर्थ और सम्बन्धों की बातें प्रकाशित हो उनको एकान्त में स्वस्थचित्त होकर पूर्वापर विचार के ठीक-ठीक हृदय में दृढ़ कर सें।
(3) प्रवचनकाल उसको कहते हैं कि जिसे प्रीति से दूसरों को विद्याओं को पढ़ा सकना ।
(4) व्यवहारकाल उसको कहते हैं कि जब अपने आत्मा में सत्यविद्या होती है तब यह करना यह न करना इत्यादि रूप में यथावत् आचरण करनज्ञ विद्या प्राप्ति के अन्य चार कर्म इस प्रकार है श्रवण, मनन, निदिध्यासन तथा साक्षात्कार।
(1) श्रवण का अर्थ अध्यापक अथवा गुरु मख से पाठ सुनना है।
( 2 ) मनन का अर्थ पठित पाठ पर एकान्त में विचार करना है।
(3) निदिध्यासन उसको कहते हैं कि जो-जो शब्, अर्थ और सम्बन्ध सुने-विचारे हैं, वे ठीक-ठाक हैं या नहीं, इस बात की विशेष परीक्षा करके दृढ़ निश्चय करना।
(4) साक्षात्कार उसको कहते हैं कि जिन अर्थों के शब्द और सम्बन्ध सुनें-विचारें और निश्चय किये हैं उनको यथावत् ज्ञान क्रिया से प्रत्यक्ष करके व्यवहारों की सिद्धि से अपना और पराया उपकार करना।
उत्तम विद्यार्थी
काकचेष्टा बकोध्यानं श्वाननिन्द्रा तथैव च।
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थिणां पञ्चलक्षणम्॥
विद्यार्थी को कौवे जैसी चेष्टा वाला अर्थात् अपना लक्ष्य साधने में तत्पर होना चाहिए। जिस प्रकार बगुला एक टाँग पर खड़ा रहकर अपने शिकार की ओर टकटकी लगाकर देखता है वैसे ही विद्यार्थी को अन्य सभी बातों से मन हटाकर ध्यानपूर्वक विद्या पढ़नी चाहिए। विद्यार्थी को कुत्ते के समान थोड़ी नींद वाला, परिमित भोजन करने वाला, गृहत्यागी तथा ब्रह्मचारी होना चाहिए। इसके अतिरिक्त
क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भजते न कामात्।
अर्थात् अच्छा विद्यार्थी अपने पाठ को शीघ्र समझ लेता है तथा देर तक अध्यापक के मुख से ध्यानपूर्वक सुनता रहता है। पढ़े हुए। हृदयंगम करके काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय-शोकादि दृष्ट गुणों से पृथक् रहता है। विद्यार्थी के लिए ब्रह्मचर्य अति अनिवार्य है। भीष्मपितामह
ब्रह्मचर्य के विषय में कहते हैं
आजन्ममरणाद्यस्तु ब्रह्मचारी भवेदहि ।
न तस्य किञ्चिदप्राप्यमिति विद्धि नराधिप ।
अर्थात् जो व्यक्ति आजोवन ब्रह्मचारी रहता है उसके लिए संसार में कुछ भी अप्राप्त नहीं रहता। आदित्य ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द इसीलिए लिखते हैं
"जो निरन्तर सत्य में रमण, जितेन्द्रिय, शान्तात्मा, उत्कृष्ट शुभ गुण-स्वभाव-युक्त और रोगरहित, पराक्रम सहित शरीर, ब्रह्मचर्य अर्थात् वेदादि और सत्यशास्त्र और परमात्मा की उपासना का अभ्यास आदि कर्म करते हैं वे अपने सब बुरे कार्य और दुःखों को नष्ट कर सर्वोत्तम धर्मयुक्त कर्म और सब सुखों की प्राप्ति कराने वाले होते हैं और इन्हीं के सेवन से मनुष्य उत्तम अध्यापक और उत्तम विद्यार्थी हो सकते हैं।"
पढ़ने-पढ़ाने वालों के दोष
आलस्य, अभिमान, नशा करना, मूढ़ता, चपलता, व्यर्थ इधर-उधरी की अण्ड-बण्ड बातें करना, जड़ता, कभी पढ़ना, कभी न पढ़ना, अभिमान और लोभ-लालच से सात विद्या के विरोधी दोष हैं। क्योंकि जिनको की इच्छज्ञ है उनको विद्या कहाँ और जिनका चित्त विद्या सुख ग्रहण करने-कराने में लगा हुआ है उनको विषय संबंधी सुख चैन कहाँ? इसलिए सुख के इच्छुक व्यक्ति विद्य को छोड़ दें तथा विद्यार्थी विषय-सुख से अवश्य अलग रहें।
प्रश्न- आचार्य किस रीति से विद्या और सुशिक्षा का ग्रहण करावें और विद्यार्थी लोग कैसे ग्रहण करें?
उत्तर- आचार्य समाहित होकर ऐसी रीति में विद्या और सुशिक्षा करें कि जिससे उसके आत्मा के भीतर सुनिश्चित अर्थ होकर अत्साह ही बढ़ता जाए। ऐसी चेष्टा व कर्म कभी न करें कि जिसको देख करके विद्यार्थी अधर्मयुक्त हो जावे। इन शब्दों के द्वारा महर्षि ने आचार्य तथा अध्यापकों के सामने बहुत बड़ी जिम्मेदारी रख दी है। जो-जो हमारे उत्तम चरित्र हैं सो सो करो और कभी हम भी बुरे काम करें तो उनको कभी मन करो। इत्यादि उत्तम उपदेश करने हारे माता-पिता. आचार्य श्रेष्ठ कहाते हैं।
आचार्य तथा अध्यापकों के सामने बहुत बड़ी जिम्मेदारी रख दी है। जो-जो हमारे उत्तम चरित्र हैं सो सो करो और कभी हम भी बुरे काम करें तो उनको कभी मन करो। इत्यादि उत्तम उपदेश करने हारे माता-पिता. आचार्य श्रेष्ठ कहाते हैं।
व्यावहारिक शिक्षा
व्यवहारभानु के माध्यम से महर्षि ने छात्र-आचार्य, राजा प्रजा मित्र-मित्र आदि के परस्पर के व्यवहार को इस प्रकार प्रस्तुत किया है ।
विद्यार्थी मिथ्या छोड़कर सत्य बोलें, सरल रहें, अभिमान न करें, आज्ञापालन करें, स्तुति करें, नीचे आसन पर बैठें, ऊँचे न बैठें, शान्त रहें, चपलता न करें, आचार्य की ताड़ना पर प्रसन्न रहें। क्रो कभी न करें, जब वे कुछ पूछें तो हाथ जोड़ के नम्र हाकर उत्तर देवें, घमण्ड से न बोलें, जब वे शिक्षा करें ध्यान देर सुनें, हँसी में न उड़ावें। शरीर और वस्त्र शुद्ध रखें, मैले कभी न रखें। जो कुछ प्रतिज्ञा करें उसको पूरी करें। जितेन्द्रिय होवें। लम्पटन व्यभिचार कभी न करें। उत्तमों का सदा मान करें, अपमान कभी न करें। उपकार मान के कृतज्ञ होंवे, किसी के अनुपकारी होकर कृतघ्न न होवें पुरुषार्थी रहें, आलसी कभी न हों। जिस-जिस कर्म से विद्या प्राप्त हो उस उसको करते जायें। जो-जो बुरे काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक आदि विद्या विरोधी हों उनको छोड़कर सदा उत्तम गुणों की कामना करें। बुरे कामों पर क्रोध, विद्याग्रहण में लोभ, सज्जनों में मोह, बुरे कामों में भय, अच्छे का न होने में शोक करके विद्यादि शुभ गुणों से आत्मा और वीर्य आदि धातुओं की रक्षा से जितेन्द्रिय हो शरीर का बल सदा
व्यावहारिक शिक्षा
व्यवहारभानु के माध्यम से महर्षि ने छात्र-आचार्य, राजा प्रजा मित्र साथ कैसा व्यवहार हो ?
राजपुरुष प्रजा के लिए सुमाता और सुपिता के समान और प्रजापुरुष राज सम्बन्ध में सुसन्तान के सदृश वर्त्तकर परस्पर आनन्द बढ़ावें। राजा को कैसा होना चाहिए, इस विषय में महर्शि लिखते हैं 'जो विद्या, न्याय, जितेन्द्रियता, शौर्य, धैर्य आदि गुणों से युक्त होकर अपने पुत्र के समान प्रजा के पालन में श्रेष्ठों की यथायोग्य रक्षा और दुष्टों को दण्ड देकर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति से युक्त होकर तथा अपनी प्रजा को कराकर आनन्दित रहता और सबाके सुख से युक्त करता है, वह राजा कहालाता है। "
इसी प्रकार उत्तम प्रजा के विषय में वे लिखते हैं- "जैसे पुत्रादि तन, मन, धन से अपने माता-पितादि की सेवा करके उनको सर्वदा प्रसन्न रखते हैं। वैसे ही प्रजा अनेक प्रकार के धर्मयुक्त व्यवहारों से पदार्थों को सिद्ध करके, राजसभा को कर देकर उनको सदा प्रसन्न रखे, वह प्रजा कहाती है। जो अपना हित और प्रजा का अहित करना चाहे वह न राजा और जो अपना हित और राजा का अहित वाहे वह प्रजा भी नहीं है।"
(3 मित्र, पड़ोसी तथा स्वामी सेवक का व्यवहार
मित्र, मित्र के साथ सत्य व्यवहारों के लिए आत्मा के समान प्रीति से वर्ते परन्तु अधर्म के लिए नहीं पड़ोसी के साथ ऐसा वर्ताव करें जैसा अपने शरीर के लिए करते हैं। वैसे ही मित्रादि के लिए भी कर्म किया करें। स्वामी सेवक के साथ ऐसा वर्ते कि जैसा अपने हस्तपादादि अंगों की रक्षा के लिए वर्तते हैं। स्वामी सेवकों के लिए वतें जैसे अन्न, जल, वस्त्र और घर आदि शरीर की रक्षा के लिए होते हैं। कितने उच्च आदर्शमय व्यवहार की शिक्षा यहाँ पर दी गई है। यदि मित्रों का पड़ोसियों का तथा स्वामी सेवकादि का परस्पर इतना उत्तम व्यवहार हो जाए तो व्यर्थ में परस्पर लड़ाई-झगड़े, ईर्ष्या-द्वेष, एक-दूसरे की हानि स्वतः समाप्त हो जायेंगे। पूरा समाज आत्मा से के समान हो जायेगा।
बालविवाह निषेध
महर्षि बाल विवाह के घोर विरोधी हैं। हमारे देश में यह कुप्रथा इतना घर कर गयी थी कि 5-5 वर्ष के बच्चों के, यहाँ तक कि जन्म-पूर्व गर्भावस्था में ही बच्चों के माता-पिता उनके विवाह सम्बन्धी तय कर देते थे। कितना अन्याय था उन बच्चों के साथ इस विषय में महर्षि जी लिखते हैं- "परन्तु यह बात तब होगी कि जब ब्रह्मचर्य से विद्या शिक्षा ग्रहण करके युवावस्था में परस्पर परीक्षा करके प्रसन्नतापूर्वक स्वयंवर विवाह ही करें क्योंकि जितना सुख, विद्या और उत्तम प्रजा की हानि बाल्यावस्था में विवाह होती है उतना ही सुखलाभ ब्रह्मचर्य से शरीर आत्मा की पूर्ण युवास्था में परस्पर प्रीति से विवाह करने से होता है। "
सभा आदि में करणीय व्यवहार
जब सभा में जावें तब दृढ़ कर लेवें कि मैं सत्य को जिताऊँ और असत्य को हटाऊँगा। अभिमान न रखें। अपने को बड़ा न मानें। अपनी बात का कोई खण्डन करे तो उस पर क्रुद्ध व अप्रसन्न न हों। जो कोई कहे उसके वचन को ध्यान देकर सुनकर जो उसमें कुछ असत्य भान हो उस अंश का खण्डन अवश्य करें और जो सत्य हो तो प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करें। बड़ाई-छोटाई न गिनें। व्यर्थ बकवाद न करें। कभी मिथ्या का पक्ष न करें और सत्य को कदापि न छोड़े। ऐसी रीति में बैठे-उठें कि किसी को बुरा विदित न हो। सर्वहित पर दृष्टि रखें। जिससे सत्य की बढ़ती और असत्य का नाश हो, उसको करें। सज्जनों का संग करें और दुष्टों से अलग रहें। जो-जो प्रतिज्ञा करें वह वह सत्य से विरुद्ध न हो और उसको सर्वदा यथावत् पूरी करें-इत्यादि सब सभा आदि व्यवहारों में करें।
महर्षि दयानन्द के अनुसार, सभा आदि सभी व्यवहारों में इसी प्रकार विशुद्धाचरण करना चाहिए। सत्य पर वे बहुत सरल बल देते हैं. विशेषकर सभा में जाकर तो कभी भी असत्य भाषण न करना चाहिए। मनु जी ने भी कहा है कि या तो सभ में प्रवेश ही न करें, प्रवेश करें तो वहाँ सदा सत्य ही बोलें। जिस सभा में सभासदों के देखते-देखते सत्य का हनन हो जाता है तो वे सभासद् मृत के तुल्य मानने चाहिए। उनको महान पाप लगता है। इसी प्रकार पक्षपात, छल-प्रपञ्च, ईर्ष्या-द्वेष आदि दुर्गुणों को त्यागकर परस्पर व्यवहार करना चाहिए।
सत्य का व्यवहार
सभी प्रकार के व्यवहारों में महर्षि ने सत्य पर बहुत बल दिया है। आर्यसमाज के दस नियमों में नियमों में सत्य का प्रतिपादन उन्होंने किया है। महर्षि लिखते हैं- "मनुष्य में मनुष्यपन यही है कि सर्वथा झूठ-व्यवहारों को छोड़कर सत्य-व्यवहारों को सदा ग्रहण करें। मुण्डकोपनिषद् में लिखा है
सत्यमेव जयति नानृतं सत्यने पन्था विततो देवयानः । येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्त कामा यत्र तत्सत्यस्यपरमंधानम्॥
मुण्डक० 3/1/6
अर्थात् सर्वदा सत्य की ही विजय और झूठ की पराजय होती है। इसलिए जिस सत्य से चलकर धार्मिक ऋषि लो जहाँ सत्य की निधि परमात्मा है उसको प्राप्त होकर आनन्दित हुए थे और अब भी होतजे हैं, उसका सेवन मनुष्य लोग क्यों न करें? इसी प्रकार यह कहा गया है कि सत्य से परे कोई धर्म तथा असत्य से बढ़कर कोई अधर्म नहीं है।
कुछ व्यक्ति कहते हैं कि झूठ से ही उनके कार्य सिद्ध होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को सावधान करते हुए महर्षि लिखते हैं- “जो मनुष्य महामूर्ख हैं वे ऐसा समझते हैं कि सत्य से व्यवहार का नाश और झूठ से व्यवहार की सिद्धि होती है परन्तु जब किसी को कोई एक व्यवहार में झूठ समझ ले तो उसकी प्रतिष्ठा और विश्वास सब नष्ट होकर उसके सब व्यवहार नष्ट हो जाते हैं और जो सब व्यवहारों में झूठ को छोड़कर सत्य ही कहते हैं। उनको लाभ करने का नाम धर्म और विपरीत का नाम अधर्म है।"
सत्यासत्य की परीक्षा
सत्य एवं असत्य की परीक्षा में पाँच साधन हैं। इनमें प्रथम ईश्वर, उसके गुण, कर्म, स्वभाव और वेदविद्या दूसरा सृष्टिक्रम तीसरा प्रत्यक्षादि आठा प्रमाण चौथा आप्तों का आचार, उपदेश, ग्रन्थ और सिद्धान्त और पाँचवाँ अपने आत्मा की साक्षी, अनुकूलता, जिज्ञासुता, पवित्रता और विज्ञान।
(1) ईश्वरादि से परीक्षा करना उसको कहते हैं कि जो-जो ईश्वर को न्याय आदि गुण पक्षपात रहित सृष्टि बनाने का कर्म और सत्य, न्याय, दयालुता, परोपकारता आदि स्वभाव और वेदोपदेश से सत्य और धर्म ठहरे, वही सत्य और धर्म है जो असत्य और अधर्म ठहरे वही असत्य अधर्म है।
(2) सृष्टिक्रम उसको कहते हैं जो सृष्टि के गुण-कर्म और स्वभाव से विरुद्ध हो वह मिथ्या और जो अनुकूल हो वह सत्य कहाता है। जैसे कोई कहे कि बिना माँ-बाप के लड़का, कान से देखना, आँ से बोलना आदि बातें सृष्टिक्रम के विरुद्ध होने से मिथ्या हैं। ईसामसीह के बारे में भी प्रसिद्ध है कि वह बिना बाप कुमारी मरियम नामक कन्या से पैदा हुआ था। ऐसा होना सर्वथा असम्भव है, अतः मिथ्या है। इसी प्रकार चित्रों में गणेश जी का सिर हाथी का बनाया जाता है, हनुमान आदि का मुख बन्दर का तथ पूँछ से युक्त चित्र बनाते हैं, इस प्रकार की सभी बातें सृष्टिक्रम के विरुद्ध होने से मिथ्या हैं।
(3) प्रत्यक्षादि आठ प्रमाणों के आधार जो ठीक रहे वह सत्य तथा जो-जो विरुद्ध ठहरे वह मिथ्या समझनी चाहिए। प्रत्यक्षादि प्रमाण इन प्रकार हैं
(1) प्रत्यक्ष- नेत्र श्रोत्र आदि इन्द्रियों का पदार्थ से सम्बन्ध होने पर जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है।
( 2 ) अनुमान- यह प्रत्यक्ष के आधार पर ही होता है। पहले देखी वस्तुओं में कार्य के आधार पर कारण का तथ कारण के आधार पर कार्य का ज्ञान होना अनुमान कहलाता है। यथा- आकाश में बादल (कारण) देखकर वर्षा (कार्य) का अनुमान करना तथा नदी का गेंदला पानी एवं बाढ़ (कार्य) देखकर भी वर्षा (कारण) का अनुमान करना।
( 3 ) उपमानः वन में मनुष्य की आकृति वाले किसी प्राणी को देखकर समझना कि यह वनमानुष है।
( 4 ) शब्दः सत्योदेष्टा ऋषि-मुनि का उपदेश तथा वेद ।
(5) ऐतिह्यः भूतकाल के पुरुषों की चेष्टा, सृष्टि आदि पदार्थों की कथा ।
( 6 ) अर्थापत्तिः एक बात को सुनकर प्रसंग से दूसरी बात जान लेना, जैसे किसी ने कहा कि मोहन दिन में खाना न खाने पर भी हृष्ट-पुष्ट है। इससे ज्ञात हुआ कि वह रात्रि में खाना खाता होगा।
(7) संभवः कारण से कार्य होना आदि।
( 8 ) अभाव: कहीं पर किसी पदार्थ की अनुपस्थिति देखकर उसके अभाव का निश्चय करना।
इस प्रकार इन आठ प्रमाणों के आधार पर भी सत्यासत्य जाना जाता है।
(4) आप्तों के आचार और सिद्धांत से परीक्षा करना उसको कहते हैं कि जो-जो सत्यवादी सत्यकारी सत्यमानी, पक्षपातरहित, सबके हितैषी विद्वान् सबके सुख के लिए यत्न करें, वेद धार्मिक लोग आप्त कहाते हैं। उनके उपदेश, आचार, ग्रंथ और सिद्धांत से जो युक्त हो वह सत्य और जो विपरीत हो वह मिथ्या है।
(5) आत्मा से परीक्षा उसको कहते हैं कि जो-जो अपना आत्मा अपने लिए चाहे, सो सबके लिए चाहन और जो-जो न चाहे सो सो किसी के लिए न चाहना। जैसा आत्मा में, वैसा मन में, जैसा मन में वैसा क्रिया में होने को जानने की इच्छा, शुद्धभाव और विद्या के नेत्र से देखकर सत्य और असत्य का निश्चय करना चाहिए।
धर्म और अधर्म
जो पक्षपात रहित न्याय, सत्य का ग्रहण असत्य का परित्याग, पाँचों परीक्षाओं के अनुकूल आचरण, ईश्वराज्ञापालन, परोपकाररूप करना धर्म और जो इसके विपरीत वह अधर्म कहलाता है क्योंकि जो सबके अविरुद्ध वह धर्म और जो पररूवर अविरुद्धाचरण सो अधर्म क्योंकि न कहावेगा।
वस्तुतः सत्यभाषणादि कार्य करना ही धर्म है। जो लोग गंगास्थान, उपवास, चौक-चूल्हे की छुआछात आदि को धर्म मान बैठे हैं, वह मिथ्या है। समस्त मानवमात्र का धर्म कए ही हो सकता है। न्याय, दया, सत्यभाषणादि ऐसे कर्म हैं जिनसे कोई भी निषेध नहीं कर सकता। इसके आधार पर ही परस्पर के व्यवहार चल रहे हैं। इसीलिए महाभारत में कहा गया है- “धर्मों धारयते प्रजाः' अर्थात् इसी प्रकार के श्रेष्ठ गुणों के आधार पर ही यह संसार स्थिर है। ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, जैन आदि अलग-अलग धर्म न होकर मजहब अथवा सम्प्रदाय हैं। सचा धर्म केवल वेद प्रतिपादित वैदिक धर्म है, क्योंकि वेद सबसे प्राचीन हैं तथा वे किसी भी सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित न होकर प्राणिमात्र के लिए हैं।
प्रश्न- मनुष्य का आत्मा सदा धर्म और अधर्म युक्त किस-किस कर्म में होता है।
उत्तर- जब तक मनुष्य सर्वान्तर्यामी, सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापक, सर्वकर्मों के साक्षी परमात्मा से नहीं डरते अर्थात् कोई कर्म ऐसा नहीं है जिसको वह न जानता हो। सत्य, विद्या, सुशिक्षा, सत्पुरुषों का संग उद्योग, जितेन्द्रियता ब्रह्मचर्य आदि शुभगुणों के होने और लाभ के अनुसार व्यय करने से धर्मात्मा होता है और जो इससे विपरीत है वह धर्मात्मा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि जो राजा आदि अल्पज्ञ मनुष्यों से डरता और परमेश्वर से भय नहीं करता वह क्योंकर धर्मात्मा हो। सकता है? क्योंकि राजा आदि के सामने बाहर की अधर्मयुक्त चेष्टा करने में तो भय होता है परन्तु आत्मा और मन में बुरी चेष्टा करने में कुछ भी भय नहीं होता क्योंकि ये भीतर का कर्म नहीं जान सकते। इससे आत्मा और मन का नियमन करनेहारा राजा एक आत्मा और दूसरा परमेश्वर ही है, मनुष्य नहीं और ये जहाँ एकानत में राजादि मनुष्यों को नहीं देखते वहाँ तो बाहर से भी चोरी आदि दुष्ट कर्म करने में कुछ शंका नहीं करते। वैसे भी कोई स्थान या कर्म ऐसा नहीं है जिसको आत्मा और परमात्मा न देखता हो। जो मनुष्य इस प्रकार आत्मा और परमात्मा की साक्षी के अनुकूल कर्म करते हैं वे ही धर्मात्मा कहलाते हैं।
धर्मात्मा एवं विद्वान्
महर्षि दयानन्द एक अधार्मिक विद्वान् की अपेक्षा धार्मिक व्यक्ति को श्रेष्ठ समझते हैं, भले ही वह विद्वान् न हो। साथ ही यह भी है कि सभी व्यक्ति विद्वान् नहीं हो सकते जबकि धार्मिक तो सब बन सकते हैं। महर्षि लिखते हैं
प्रश्न जो विद्या पढ़ा हो उसमें धार्मिकता न हो तो उसको विद्या का फल होगा या नहीं?
उत्तर- कभी नहीं, क्योंकि विद्या का फल है कि मनुष्य को धार्मिक अवश्य होना है। जिसने विद्या के प्रकाश से अच्छा जानकर न किया और बुरा जानकर न छोड़ा तो क्या वह चोर के समान नहीं है? क्योंकि जैसे चोर भी चोरी को बुरी जानता हुआ करता और
साहूकारी को अच्छी जानकर भी नहीं करता, वैसे ही पढ़कर भी अधर्म को नहीं छोड़ता और धर्म को नहीं करनेहारा मनुष्य है। सभी मनुष्यों के धार्मिक बनने के विषय में महर्षि लिखते हैं- “जो मनुष्य विद्या पढ़ने का सामर्थ्य तो नहीं रखते और धर्माचरण किया चाहें तो विद्वानों के संग और अपने आत्मा की पवित्रता और अविरुद्धता से धर्मात्मा अवश्य हो सकता है क्योंकि सब मनुष्यों को विद्वान् होना तो सर्वथा सम्भव नहीं, परन्तु धार्मिक होना सम्भव सबके लिए है ।
मन-वाणी-कर्म में एकरूपता
नीतिकारों ने कहा है
मनस्येकं वचस्वयेकं कर्मण्येकं महात्मनाम्। मनस्यन्यद् वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्॥
अर्थात् जिसके मन, वाणी तथा कर्म में एक ही प्रकार की बात होती है, वह धर्मात्मा, महात्मा कहलाता है तथा मन-वचन-कर्म में अलग-अलग भाव रखने वाला अधर्मात्मा, दुरात्मा होता है। इसी आशय में महर्षि लिखते हैं- "क्या जब कोई आत्मविरोध अर्थात् आत्मा में कुछ और वाणी में कुछ भिन्न और क्रिया में कुछ और करता है वह अधर्मी और जिसके जैसा आत्मा में वैसा वाणी में और जैसा वाणी में वैसा ही क्रिया में आचरण करता है वह धर्मात्मा है?"
प्रश्न- मनुष्य किसे कहते हैं?
उत्तर- जितने मनुष्य से भिन्न जाति वाले प्राणी हैं उनमें दो प्रकार का स्वभाव है- बलवान से डरना, निर्बल को डराना और पीड़ा कर अर्थात् दूसरे का प्राण तक निकालकर अपना मतलब साध लेना। जो मनुष्य ऐसा ही स्वभाव रखता है उनको भी इन्हीं जातियों में गिनना उचित है। परन्तु जो निर्बलों पर दया, उनका उपकार औश्र निर्बलों को पीड़ा देने वाले अधर्मी बलवानों से किंचित्मात्र भी भय शंका न करके इनको परपीड़ा से हटा के निर्बलों की रक्षा तन-मन और धन से सदा करता है, वही मनुष्य जाति का निजगुण है। क्योंकि जो बुरे कामों के करने में भय और सत्य कामों के करने में किंचित भी भय, शंका नहीं करते, वे ही मनुष्य धन्यवाद के पात्र हैं।
न्याय और अन्याय
जो पक्षपातरहित सत्याचरण करता है वह न्याय और जो पक्षपात से मिथ्याचरण करता है वह अन्याय कहलाता है। इस प्रकार अधर्म एवं अन्याय का परिभाषा करके सभी को सावधान करते हुए। महर्षि लिखते हैं- "ध्यान रखो कि सब अधर्मी और स्वार्थी लोगों की लीला ऐसी ही हुआ करती है कि अपने मतलब के लिए अनेक अन्यायरूप कर्म करके अन्य मनुष्यों को ठग लेते हैं। अभाग्य है ऐसे मनुष्यों का कि जिनके आत्मा अविद्या और अधर्मान्धकार में गिर के कदापि सुख को प्राप्त नहीं होते। "
इस प्रकार अविद्या और अधर्मान्धकार को दूर करके असत्यादि व्यवहारों को छोड़कर धर्मात्मा बन कर उत्तम व्यवहार की प्राप्ति के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती ने यह पुस्तक बनाई है। महर्षि जी लिखते हैं- "यथायोग्य व्यवहार किये बिना किसी को सर्वसुख कैसे हो सकता है? क्या मनुष्य अच्छी शिक्षा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्षफलों को सिद्ध नहीं कर सकता और इसके बिना पशु के समान होकर दुःखी नहीं रहता है?" मनुष्यों के दुष्ट आचरण तथा दुष्ट व्यवहार छुड़ाना महर्षि का प्रबल उद्देश्य प्रतीत होता है। उनकी मान्यता है कि दुष्ट व्यवहार से कभी सुख तथा उत्तम व्यवहार से दुःख नहीं हो सकता। वे लिखते हैं- "जो मनुष्य विद्या कम भी जानता हो परन्तु पूर्वोक्त दुष्ट व्यवहारों को छोड़कर, धार्मिक होकर खाने, पीने, बोलने, सुनने, बैठने, लेने, देने आदि व्यवहार सत्य से युक्त करता हो, वह कहीं कभी दुःख को प्राप्त नहीं कर सकता और जो सम्पूर्ण विद्या पढ़कर पूर्वोक्त उत्तम व्यवहारों को छोड़कर दुष्ट कर्मों को करता है । वह कभी सुख को प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए सब मनुष्यों को उचित है कि आप अपने लड़के लड़की, इष्ट-मित्र अड़ोसी पड़ोसी और स्वामी भृत्य आदि को विद्या और सुशिक्षा से युक्त करके सर्वदा आनन्द करते रहें।
महर्षि ने गवर्गण्ड के रूप में मूर्ख तथा दुष्ट राजा का दृष्टान्त एवं सुनीति के रूप में उत्तम राजा का दृष्टान्त देकर लिखा है कि "जिस देशस्थ प्राणियों का अभाग्य उदय होता है तब गवर्गण्ड के सदृश स्वार्थी, अधर्मी प्रजा का नाश करने वाले राजा धनाढ्य और खुशामदियों की सभा और उनके समान उपद्रवी राजविद्रोही प्रजा भी होती है और जब जिस देशस्थ प्राणियों का सौभाग्य उदय होने वाला होता है तब सुनीति के समान धार्मिक विद्वान् राजा पुत्रवत् प्रजा का पालन करने वाली राज सहित सभा और धार्मिक पुरुषार्थी पिता के समान राज प्रबन्धक हो प्रीतियुक्त मंगलकारिणी प्रजा होती है। जहाँ अभाग्योदय वहाँ विपरीत बुद्धि। मनुष्य परस्पर द्रोहादिस्वरूप धर्म से विपरीत दुःख के ही काम करते जाते हैं और जहाँ सौभाग्योदय वहाँ परस्पर उपकार, प्रीति, विद्या, सत्य, धर्म आदि उत्तम कार्य अधर्म से अलग होकर करते रहते हैं। वे सदा आनन्द को प्राप्त करते हैं। "
पण्डित के लक्षण
(1) जिसको जीवातमा और परमात्मा का यथार्थ ज्ञान है, जो आलस्य को छोड़कर उद्योगी बनकर सदा सुख-दुःखादि को सहन करता है जो धर्म का नित्य सेवन करने वाला है. जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ा अधर्म की ओर न खींच सके, वह पण्डित कहलाता है।
(2) जो सर्वदा प्रशंसनीय कार्यों को करने और निन्दित अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न करने वाला, वेद, ईश्वर और धर्म का विरोधी न होकर, परमात्मा, सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी है, वह पण्डित कहलाता है।
(3) जो मनुष्य प्राप्त होने के अयोग्य पदार्थों की इच्छा कभी नहीं करते, किसी पदार्थ के नष्ठा भ्रष्ट हो जाने पर शोक नहीं करते और बड़े-से-बड़े दुःख आने पर भी मूढ़ होकर नहीं घबराते वे मनुष्य पण्डित होते हैं।
(4) जिसकी वाणी सब विद्याओं में चलनेवाली है, जो बिना जाने पदार्थों को तर्क से जान लेता है, जो सुनी हुई विद्या को उपस्थित रखता है, वह पण्डित है।
(5) जिसकी सुनी हुई और पठित विद्या अपनी बुद्धि के सदा अनुकल रहत है, जिसकी बुद्धि और क्रिया बढ़ी हुई विद्याओं के अनुसार होती है, जो धार्मिक और श्रेष्ठ पुरुषों की मर्यादा का रक्षक और दुष्टों को विधि से नष्ट करने वाला है, वह पण्डित है।
मूर्ख के लक्षण
(1) जो किसी विद्या को न पढ़कर और किसी विद्वान् का उपदेश न सुनकर बड़ा घमण्डी होता है, दरिद्र होकर धन सम्बन्धी बड़े-बड़े कामों की इच्छावाला और बिना पुरुषार्थ किए बड़े-बड़े फलों की इच्छा करनेवाला है, वह मूर्ख कहलाता है।
(2) जो बिना बुलाये जहाँ-तहाँ सभा आदि स्थानों में प्रवेश करके सत्कार की चेष्टा करे तथा बिना पूछे ही व्यर्थ में बोलता रहे वह मूर्ख कहाता है।
( महर्षि दयानंदकृतव्यवहारभानु)
इति ओ३म् शम्
शास्त्री हरी आर्य: