नियोग (Niyoga)


अन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत् ।। (ऋ-१०/१०/१०)

जब पति संतान उत्पत्ति में असमर्थ हो तब अपनी स्त्री को आज्ञा दे की है शुभगे ! सौभाग्य की इच्छा करने वाली स्त्री! तू (मत्) मुझसे (अन्यम्) दूसरे पति की (इच्छस्व) इच्छा कर, क्योंकि अब मुझसे संतान उत्पत्ति नहीं हो सकती। तब स्त्री दूसरे से नियुक्त करके संतान उत्पत्ति करें।परंतु उस विवाहित महाशय पति की सेवा में तत्पर रहे, वैसे ही स्त्री भी जब रोग आदि दोषों में ग्रस्त होकर संतान उत्पत्ति में असमर्थ हो तब अपने पति को आज्ञा दें कि हे स्वामी! आप संतान उत्पत्ति की इच्छा कर रहे हैं तो मुझे छोड़कर किसी दूसरी विधवा स्त्री से नियोग करके संतानोत्पत्ति कीजिए।

जैसा कि पांडू राजा की स्त्री कुंती और माद्री आदि ने किया और जैसा व्यास जी ने चित्रांगद और विचित्रवीर्य के मर जाने के पश्चात उन अपने भाइयों की स्त्रियों से नियोग करके अंबिका में धृतराष्ट्र और अंबालिका में पांडु और दासी में विदुर की उत्पत्ति की, इत्यादि इतिहास भी इस बात में प्रमाण हैं ।

* प्रषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नर: समा: । विद्यार्थं षड् यशोर्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान् ।।१।। (मनु० ९/७६)


* बंध्याष्टमेऽधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजा । एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी ।। २ ।। (मनु० ९/८१)




विवाहिक स्त्री जो विवाहित पति धर्म के अर्थ प्रदेश गया हो तो ८ वर्ष, विद्या और कीर्ति के लिए गया हो तो ६ वर्ष,और धना भी कमाने के लिए गया हो तो तीन वर्ष तक बाट देख के पश्चात नियोग करके संतान उत्पत्ति कर ले , जब अविवाहित पति आए तब नियुक्त पति छूट जाए। (१)

हमारे अनुसार यदि विदेश गए हुए पति या पत्नी से किसी भी प्रकार का संपर्क जैसे पत्रादि व्यवहार हो रहा है, या आधुनिक संपर्क सूत्रों से संपर्क हो रहा है तो पति की आज्ञा अनुसार नियोग कर सकते हैं । यदि पति की अज्ञा न हो तो इसकी कोई आवश्यकता नहीं है  ।


वैसे ही दूसरे श्लोक में पुरुष के लिए भी नियम है कि बंध्या हो तो आठवें (विवाह से 8 वर्ष तक स्त्री को गर्भ ना रहे), या संतान होकर मर जाए तो  दशवें , या जब-जब हो तब तब कन्या ही हो पुत्र ना हो तो ग्यारहवें वर्ष तक और जो अप्रिय बोलने वाली हो तो सद्य: ही उस स्त्री को छोड़कर किसी दूसरी स्त्री से नियोग करके संतान उत्पत्ति कर लेना चाहिए  ।(२)

वैसे ही जो पुरुष अत्यंत दुख दायक हो तो स्त्री को उचित है कि उसको छोड़ कर दूसरे पुरुष नियोग कर संतान उत्पत्ति करके उसी विवाहित पति के दायभागी संतान उत्पत्ति कर ले ।


इत्यादि प्रमाण और युवतियों से स्वयंवर विवाह और नियोग श्री अपने-अपने कुल उन्नति करें । जैसा"औरस" अर्थात विवाहिक पति से उत्पन्न ना हुआ पुत्र पिता की पदार्थों का स्वामी होता है वैसे ही" क्षेत्रेज" अर्थात नियोग से उत्पन्न हुए पुत्र भी मृत पिता दायभागी होते हैं ।


इस नियोग से संबंधित कुछ प्रश्न उत्तर -

प्रश्न - पुनर्विवाह और नियोग में क्या भेद हैं ?

उत्तर - १  - जैसे विवाह करने पर कन्या अपने पिता का घर छोड़ पति के घर को प्राप्त होती है और पिता से विशेष संबंध नहीं रहता और विधवा स्त्री उसी विवाहित पति के घर में रहती है। 

२ - उसी विवाहित स्त्री के लड़के उसी विवाहित पति के दायभागी होते हैं ।और विधवा स्त्री के लड़के वीर्य दाता के नाम पुत्र कहलाते हैं ना उसका गोत्र होता है ना उसका स्वत्व उन लड़कों पर रहता है । किंतु बे मृत पति के पुत्र कहलाते हैं,उसी का गोत्र रहता है और उसी के पदार्थों के दाय भागी होकर उसी के घर में रहते हैं।

३ - विवाहित स्त्री पुरुष को परस्पर सेवा और पालन करना अवश्य हैं और नियुक्त स्त्री पुरुष का कुछ भी संबंध है नहीं रहता।

४ - विवाहित स्त्री पुरुष का संबंध महाराणा पर्यंत रहता है और नियुक्त स्त्री पुरुष का संबंध कार्य के पश्चात छूट जाता है ।

५ - विवाहित स्त्री पुरुष आपस में गृह कि कार्यों की सिद्धि करने में यत्न किया करते हैं और और नियुक्त स्त्री पुरुष अपने-अपने घर के काम किया करते हैं।


प्रश्न- विवाह और नियोग के नियम एक समान है ह या अलग ?


उत्तर - कुछ थोड़ा सा भेद है। जितने पूर्व कह आए और यह कि विवाहित स्त्री पुरुष एक पति और एक ही स्त्री मिलके 10 संतान उत्पन्न ना कर सकते हैं, और नियुक्त स्त्री या पुरुष दो या चार से अधिक संतान उत्पत्ति नहीं कर सकते ।


* जैसे विवाहित स्त्री पुरुष हमेशा एक साथ रहते हैं वैसे नियुक्त स्त्री पुरुष  को एक साथ नहीं रहना चाहिए।


(इसके और भी बहुत सारे नियम है कृपया सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में देख लें)





प्रश्न - यह नियोग की बात व्यभिचार के समान दिखती है , क्या सत्य है  ? 

उत्तर - जैसे बिना विवाहितों का व्यभिचार होता है वैसे बिना नियुक्त का व्यभिचार कहलाता है। इसे यह सिद्ध हुआ कि जैसे नियम से विवाह होने पर व्यभिचार नहीं कहलाता तो नियम पूर्वक नियोग होने पर भी व्यभिचार नहीं कह लाएगा ।  

जैसे दूसरे की कंया का दूसरे के कुमार के साथ शास्त्र उक्त विधि पूर्वक विवाह होने पर समागम मैं व्यभिचार या पाप, लज्जा नहीं होती वैसे ही वेद शास्त्रोक्त नियोग में व्यभिचार पाप लज्जा नहीं मानना चाहिए ।


प्रश्न - यह नियोग वेश्यावृत्ति के समान दिखता है , क्यों , क्या सत्य है ?

उत्तर - नहीं यह वेश्यावृत्ति नहीं है, क्योंकि वेश्या के समागम में किसी निश्चित पुरुष का कोई नियम नहीं है और नियोग में विवाह के समान नियम हैं।

 जैसे दूसरे को लड़की देने, दूसरे के साथ समागम करने में विवाह पूर्वक लज्जा नहीं होती वैसे ही नियोग में भी नहीं होनी चाहिए। 

क्या जो व्यभिचारी पुरुष वा स्त्री होते हैं वे दे विवाह होने पर भी कुकर्म से बचते हैं? ।


प्रश्न - हमको नियोग की बात मैं क्यों  पाप मालूम पड़ता है ?

उत्तर - ऋषि दयानंद जी कहते हैं यदि नियोग की बात में पाप मानते हो तो विवाह में पाप क्यों नहीं मानते ? पाप तो नियोग के रोकने में है, क्योंकि ईश्वर के सृष्टि क्रमानुकुल स्त्री पुरुष का स्वभाविक व्यवहार रुक नहीं सकता, सिवाय वैराग्य वान , पूर्ण विद्वान योगियों के ? क्या गर्भपातन रूप भ्रूण हत्या और विधवा स्त्री और मृतस्त्री पुरुषों के महा संतापको पाप नहीं गिनते हो ? क्योंकि जब तक बे युवावस्था में हैं मन में संतान उत्पत्ति और विषय की इच्छा होने वालों को किसी राज व्यवहार वा जाति व्यवहार से रुकावट होने से गुप्त गुप्त कुकर्म बुरी चाल से होते रहते हैं । इस व्यभिचार और कुकर्म के रोकने का एक ही श्रेष्ठ उपाय है की जो जितेंद्रिय रह सके वे विवाह या नियोग न

भी करें तो ठीक है । परंतु जो ऐसे नहीं हैं उनका विवाह और आपत्काल में नियोग अवश्य होना चाहिए । इससे व्यभिचार का न्यून होना,प्रेम से उत्तम संतान होकर मनुष्यों की वृद्धि होना संभव है और गर्भ हत्या सर्वथा छूट जाती है। नीच पुरुषों से उत्तम स्त्री और वेश्या भी नीच स्त्रियों से उत्तम पुरुषों का व्यभिचार रूप कुकर्म, उत्तम कुल में कलंक, वंश का उच्छेद ,स्त्री पुरुषों का संताप और गर्व हत्या आदि कुकर्म विवाह और नियोग से निवृत्त होते हैं, इसलिए नियोग करना चाहिए।


प्रश्न - नियोग में क्या क्या बात होनी चाहिए ? 

उत्तर - जैसे प्रसिद्धि से विवाह, वैसे ही प्रसिद्धि से नियोग, जिस प्रकार विवाह में भद्र पुरुषों की अनुमति और कन्या वर्ग की प्रसन्नता होती है, वैसे नियोग में अभी अर्थात जब स्त्री पुरुष का नियोग हो ना हो तब अपने कुटुंब में पुरुष स्त्रियों के सामने प्रकट करें कि  - हम दोनों नियोग केवल संतान उत्पत्ति के लिए करते हैं । जब नियोग का नियम पूरा होगा तब हम संयोग नहीं करेंगे । जो अन्यथा करें तो पापी और जाति वा राज्य के दंड अनुसार दंडनीय होंगे। महीने महीने में एक बार गर्भाधान का काम करेंगे, गर्भ रहे पश्चात 1 वर्ष पर्यंत पृथक रहेंगे।


प्रश्न - नियोग अपने वर्ण में होना चाहिए या अन्य वर्णों  के साथ भी ?

उत्तर -  अपने बारे में या अपने से उत्तम वर्ण में स्थित पुरुष के साथ, अर्थात वैश्य स्त्री वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण के साथ। क्षत्रिया क्षत्रिय और ब्राह्मण के साथ। ब्रह्माणी ब्राह्मण के साथ नियोग कर सकती है। इसका तात्पर्य यह है की वीर्य सम वा उत्तम वर्ण का होना चाहिए , अपने से नीचे वर्ण का नहीं। स्त्री और पुरुष की सृष्टि का यही प्रयोजन है कि धर्म से अर्थात वेदोक्त रीति से विवाह वा नियोग से संतान उत्पत्ति करना।


प्रश्न  - पुरुष को नियोग करने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि वह दूसरा विवाह कर सकता है ?


उत्तर - क्योंकि द्विजों में स्त्री और पुरुष का एक ही बार विवाह होना वेदादि शास्त्रों में लिखा है, द्वितीय बार नहीं। 


कुमार और कुमारी का ही विवाह होने में न्याय और विधवा स्त्री के साथ कुमार पुरुष और कुमारी स्त्री के साथ विधुर (जिस पुरुष का पत्नी मर गई हो) पुरुष के विवाह होने में अन्याय अर्थात अधर्म है। 

जैसे विधवा स्त्री के साथ कुमार विवाह नहीं करना चाहता वैसे ही विवाहित और स्त्री से समागम किए हुए पुरुष अर्थात शादीशुदा पुरुष के साथ विवाह करने की इच्छा कोई भी कन्या नहीं रखती। जब विवाह किए हुए पुरुष को कोई कुमारी कन्या और विधवा स्त्री का ग्रहण कोई कुमार पुरुष नहीं करेगा तब पुरुष और स्त्री को नियोग करने की आवश्यकता होगी । और यही धर्म है की जैसे के साथ वैसे ही का संबंध होना चाहिए।


प्रश्न - जैसे विवाह में वेदादी शास्त्रों का प्रमाण है वैसे नियोग के लिए प्रमाण है या नहीं  ?

उत्तर - इस विषय में बहुत प्रमाण हैं -  जो आगे उल्लेख है - 


* कुह स्वीद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करत: कुहोषतु: । को वहां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ । ( ऋ० १०/४०/२)



हे स्त्री या पुरुषों ! जैसे देवर को विधवा और विवाहित स्त्री अपने पति कोसमान स्थान शया में एकत्र होकर संतान उत्पत्ति को सब प्रकार से उत्पन्न करती हैं वैसे तुम दोनों स्त्री पुरुष कहां रात्रि और कहां दिन में बसे थे ? कहां पदार्थों की प्राप्ति की? और किस समय कहां वास करते थे ? तुम्हारा शयनस्थान कहां है ? तथा कौन किस देश के रहने वाले हो ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि देश विदेश में स्त्री पुरुष संग ही में रहे । और विवाहित पति के समान नियुक्त पति को ग्रहण करके विधवा स्त्री भी संतान उत्पत्ति कर ले ।

प्रश्न - यदि किसी व्यक्ति का छोटा भाई ना हो तो विधवा नियोग किसके साथ करें ? 

उत्तर - देवर के साथ, परंतु देवर शब्द का अर्थ जैसा तुम समझते हो वैसा नहीं, देखो निरुक्त में - 

देवर: कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते ।। (निरुक्त ३/१५)


देवर उसको कहते हैं जो विधवा का दूसरा पति होता है चाहे पति के छोटा छोटा भाई हो या बड़ा भाई अपने वर्ण का हो या अपने से उत्तम वर्ण वाला हो,  जिससे नियोग करें उसी का नाम देवर है।


* उदीर्ष्व नार्यभिजीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि । हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ ।। (ऋ० १०/१८/८)


हे विधवे ! तू इस मरे हुए पति की आशा छोड़कर बाकी पुरुषों में से जीते हुए दूसरे पति को प्राप्त हो और इस बात का विचार और निश्चय रख की जो तुझे विधवा के पुनः पाणिग्रहण करने वाले नियुक्त पति के संबंध के लिए  नियोग होगा तो यह जन्मा हुआ बालक उसी नियुक्त पति का होगा और जो तू अपने लिए नियोग करेगी तो यह संतान तेरा होगा। ऐसे निश्चययुक्त वह और नियुक्त पुरुष भी इसी नियम का पालन करें। 



* अदेवृघ्न्यपतिघ्नीहैधि शिवा पशुभ्य: सुयमा सुवर्चा: । प्रजावती वीरसूर्देवृकामा स्योनेममग्निं गार्हपत्यं सपर्य ।। (अथर्व ० १४/२/१८)


हे पति और देवर को दुख ना देने वाली स्त्री! तू इस गृह आश्रम में पशुओं के लिए कल्याण करने हारी अच्छे प्रकार धर्म नियम में चलने, रूप और सर्वोशास्त्र विद्यायुक्त उत्तम पुत्र पौत्र आदि से सहित शूर वीर पुत्रों को जन्म देने वाली ,देवर की कामना करने वाली , और सुख देनेहारी पति या देवर को प्राप्त करके इस गृहस्थ संबंधी अग्निहोत्र को सेवन किया कर।



* तामनेन विधानेन शिंजो विन्देत देवर: ।। (मनु०  ९/६९)

जो अक्षत योनि स्त्री विधवा हो जाए तो पति का निजी छोटा भाई भी उससे विवाह कर सकता है।


(नियोग के विषय में यह छोटा सा लेख ऋषि दयानंद कृत सत्यार्थप्रकाश के अनुसार आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत है)

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