आत्मज्ञान का रूप और फल क्या है, यह जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि आत्मज्ञान का अधिकारी कौन है ?
अमृतत्व की प्राप्ति से पहले मनुष्य का मृत्यु से भय से मुक्त होना आवश्यक है। मृत्यु के भय से मुक्त होने के लिए नाशवान पदार्थों का पूरा ज्ञान और शुभ कर्मों का संचय होना चाहिए। मांण्डुक्य उपनिषद में इस विषय की विशद व्याख्या की गई है।
सत्येन लभ्यपस्तपसा भरते आत्मा।
सम्यक ज्ञानेन ब्रह्म चार्येण नित्यम् ।।
वह आत्मा सत्य, तप, सम्यक ज्ञान और ब्रम्हचर्य इन साधनों से प्राप्त होता है। जो विचारक आत्मज्ञान तक पहुंचने के लिए कर्मों को अनावश्यक समझते हैं, उपनिषद कार ने इस वाक्य में उनका समाधान कर दिया है।
इस प्रश्न का उत्तर भी उपनिषद कार ने दिया है कि मनुष्य के हृदय में आत्म ज्ञान की प्यास कैसे उत्पन्न होती है।
परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राम्हणों।
निर्वेद मयान्नस्त्यकृत: कृतेन ।।
तद् विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् ।
समित् पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।।
विद्वान पुरुष कर्म करने से प्राप्त होने वाले सुखमय जीवन को उपलब्ध करने के पश्चात मानव थक् कर सोचता है कि केवल नित्य कर्मों से नित्य ब्रह्म के दर्शन नहीं हो सकते ।
यज्ञ - याग, दान पुण्यादि सब कृत हैं, तभी इन्हें क्रतु कहा गया है। अकृत को कृत से नहीं पाया जाता। कृत से कृत ही पाया जा सकता है, जिसकी उत्पत्ति है और विनाश है वही मिल सकता है। ब्रह्मा तो अकृत है, उसकी उत्पत्ति नहीं, विनाश नहीं। अक्रत को अंकृतु ही सकता है -
"तमक्रतु: पश्यती "
उस अंकृत को जानने के लिए जिज्ञासु वनकर ओर समिधाएं हाथ में लेकर श्रोत्रिय व्रह्मनिष्ठ गुरु के चरणों में उपस्थित होता है। विद्वान गुरु ऐसे जिज्ञासु को,जो भली प्रकार शांति चित और स्थिर बुद्धि वाला है, उसे ब्रह्मविद्या का उपदेश देता है, जिससे वह परम पुरुष परमात्मा जाना जाता है। परमात्मा को जानने के लिए केवल जिज्ञासु होना ही आवश्यक नहीं, शम,दम तप और सत्य आदि की साधना की भी आवश्यकता है। इसलिए गीता में कहा है -
*अनेक जन्म संसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ।
अनेक जन्मों की साधना ओं के पश्चात मनुष्य परा गति अर्थात मोक्ष को प्राप्त होता है।
प्रायः देखा जाता है कि कुछ लोग जब आयुका बड़ा भाग भर्ती पूरे संसार के कार्यों में बिता कर थक जाते हैं तो मोक्ष की जिज्ञासु बनकर योगियों की तलाश में निकलते हैं। किसी तीर्थ स्थान पर या जंगल में, घर या कुटिया पर योगी को बैठा देखते हैं,उसकी सेवा में जाकर योग सीखने की इच्छा प्रकट करने लगते हैं।कुछ सज्जन तो इतना कष्ट भी नहीं उठाते और किसी पुस्तक में प्राणायाम की विधि पढ़कर गुरु से पूछे बिना एकदम आसन जमाकर सांस खींचने लगते हैं।कभी-कभी यह भी देखा गया है कि ऐसे महानुभाव कुछ ही महीनों के पश्चात ना केवल योगी होने का दावा करने लगते हैं, यह भी कहने लगते हैं कि जब हम आंखें मूंदकर ध्यान में बैठते हैं, तू हमें एक दीपक साथ जलता दिखाई देता है। वह कोरी आत्मा प्रतारणा है। उपनिषदों में बताया गया है कि ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति तो दूर रही, ब्रह्म ज्ञान का अधिकारी बनने के लिए भी सत्य, तप, ज्ञान और ब्रह्मचर्य आदि साधनों द्वारा आत्मा को परिष्कृत करना आवश्यक है। योग दर्शन में योग साधना का आरंभ यमों और नियमों से किया गया है। अहिंसा, सत्य आदि यज्ञों आर शौच, संतोष आदि नियमों के ज्ञान और पालन द्वारा कुंदन बन कर ही जीवात्मा इस योग्य है होता है कि वह ब्रह्म रूपी माणिक्य के साथ मिल सके।
उपनिषद में -
"कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा "
इस मंत्र द्वारा कर्मों का महत्व बतलाया है और विद्या तथा विद्या की विवेचना द्वारा यह उपदेश दिया है कि वह यदि ब्रह्म को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना चाहता है तो उसे ज्ञान कर्म और विज्ञान की कठिन साधनाओं में से होकर जाना पड़ेगा ।
मनुष्य के मन में अच्छे संस्कारों से अथवा ठोकर लगने से प्रबल वैराग्य हो जाने के कारण,संसार के दुखों से छूटने की अभिलाषा उत्पन्न हो गई और वह जिज्ञासु बन गया तो अमृतत्व की प्राप्ति की और यह पहला पग है। दूसरा पग यह होगा कि वह श्रोत्रिय और ब्रह्मा निष्ठा सच्चे,सदाचारी और विद्वान गुरु के पास आए अथवा शास्त्रों से परामर्श करें। उसे पता लगेगा कि ब्रह्मा ज्ञान और उस द्वारा अमृतत्व की प्राप्ति के लिए किन साधनों की आवश्यकता है। ब्रम्हचर्य, सत्य, तप आदि जिन साधनों द्वारा आत्मा परिष्कृत होता है उन सब को भली प्रकार जाना और फिर उन्हें अपने जीवन में ढालना - यह अमृतत्व की और दूसरा पाग है ।
जब वह इन प्रारंभिक साधनों द्वारा विशुद्ध हो जाएगा, तब उस का अधिकार होगा कि वह आत्मा और परमात्मा को पहचान सके, इससे पूर्व नहीं।
यहां भ्रम दूर करने के लिए "आत्मज्ञान"और "ब्रह्मा ज्ञान" इन दो शब्दों के भेद को स्पष्ट कर देना आवश्यक है।
आत्मा - शब्द का प्रयोग,वैदिक साहित्य में आत्मा और परमात्मा जीव और ब्रह्म है दोनों के लिए होता है। यथा याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद में आत्मा शब्द जीवात्मा ( अहम ) के लिए आया है -
स होवाच, न वा अरे पत्यु: कामाय पति: प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पति: प्रियो भवति । (छांदोग्य उपनिषद)
इत्यादि वाक्यों में जीवात्मा का ही ग्रहण होता है।अन्य अनेक स्थलों पर वेदों में तथा उपनिषदों में परमात्मा के लिए भी आत्मा शब्द का खुला प्रयोग मिलता है, जैसे -
आत्मा वा अरे ज्ञातव्यो
मंतव्यो निदिध्यासितव्य: ।
यहां आत्मा का प्रयोग ब्रह्मपरक है । जहां केवल ईश्वर संबंधी ज्ञान का प्रसंग है, वहां उसे मुख्य रूप से ब्रह्मज्ञान अथवा विज्ञान शब्द से निर्दिष्ट किया जाता है। आत्मा और परमात्मा दोनों के लिए आत्मा शब्द का प्रयोग होने से कुछ व्याख्या कार बहुत भ्रांति में पड़ जाते हैं। वे या तो जीव परक वाक्यों को ईश्वर परक अथवा ईश्वर परक वाक्यों को जीव परक लगाने लगते हैं। आत्मा शब्द कहां जीवात्मा का वाचक है और कहां परमात्मा का वाचक है इसका निश्चय मुख्य रूप से प्रकरण देखकर करना चाहिए।
जीवात्मा और परमात्मा दोनों के स्वरूप को पहचानने के लिए इन उपायों को काम में लाना चाहिए।
भेद यह है कि जब तक जीवात्मा ने अपने असली रूप को नहीं जान लिया, तब तक वह ब्रह्म के रूप को नहीं पहचान सकता। समानता यह है की जीवात्मा और परमात्मा दोनों का ज्ञान मुख्य रूप से अनुभूति का विषय है, केवल तक का नहीं। विज्ञान और योग का यही उपयोग है कि वह मनुष्य को बाह्य जगत से अलग कर के अपने अंदर देखने के योग्य बनाता है। मनुष्य को बाहिया जगत का ज्ञान देकर और सब कर्मों द्वारा विशुद्ध करके ब्रह्मा ज्ञान का अधिकारी बनाना अपरा विद्या का काम है और उसके पश्चात जिस विद्या से वह अमृत में अक्षर ब्रह्म को जान जाता है वह परा विद्या है ।
अतः हमें विद्या आदि अध्ययन करके गुरुओं के सम्मुख जाकर के ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जाना आवश्यक है, तत्पश्चात हम आत्मज्ञान का अधिकारी बन सकते हैं।