धर्मात्मा की क्या पहचान है,धर्मात्मा कैसे बनते हैं ?


प्रश्न- धर्मात्मा की क्या पहचान है,धर्मात्मा कैसे बनते हैं ? 


उत्तर - 

              महर्षि व्यास ने कहा है-

श्रुयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।

          तुम धर्म के निचोड़ को सुनो और सुनकर इसे धारण करो। जो अपने विपरीत कर्म है उनको दूसरों के लिए न करो।

वेद भगवान ने हमारा लक्ष्य निर्धारित किया है कि हम प्राकृतिक पदार्थों का भोग करते हुए परमात्मा तक पहुंचना है। परमात्मा शुद्धस्वरुप है। शुद्ध-स्वरूप तक पहुंचने के लिए आत्मा को शुद्ध और पवित्र होना पड़ेगा। शुद्ध का साधन है वैचारिक पवित्रता। वैचारिक पवित्रता के लिए अश्लीलता को छोड़ना पड़ेगा। वैचारिक पवित्रता बनती है, आंख,कान, वाणी, मस्तिष्क की पवित्रता,अर्थात् हम सदाचारीबनें। हमारे दिव्य महापुरुष कितने ,सदाचारी वीर हनुमान, भीष्म पितामह, सुखदेव, स्वामी शंकराचार्य, महर्षि दयानन्द सरस्वती, अपने सदाचार के कारण दिव्य पुरुष कहलाये हैं।


            महर्षि दयानन्द जी महाराज की जब मृत्यु हुई तो कश्मीर का एक ब्राह्मण आठ-आठ आंसू रो रहा था। उससे किसी ने पूछा कि तुम स्वामी दयानन्द जी की मृत्यु पर क्यों रो रहे हो? वे तुम्हारे परमविरोधी थे। तुम्हारे हलवे- माँडे बन्द करवाने वाले थे । इस पर वह उदास होकर कहने लगा कि मैं इसलिए नहीं रो रहा कि आज दयानन्द की मृत्यु हुई है। मैं इसलिए रो रहा हूँ कि आज निष्कलंक दयानन्द की मृत्यु हुई है। दयानन्द की चरित्र रूपी सफेद चादर पर अनाचार का कोई धब्बा नहीं लग सका। ऐसे निष्कंलक और सदाचारी व्यक्ति की मृत्यु पर मुझे रोना आ रहा है।

            मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चन्द्र जी महाराज एक पत्नी-व्रत धारी थे, परन्तु उनका काम वासना पर पूरा वशीकार था। वे एक पत्नी व्रत धारी होते हुए भी कितने संयमी थे, यह उनके व्रती जीवन से पता चलता है। वे चौदह वर्ष तक वनवास में रहे ,परन्तु उनके यहाँ कोई संन्तान उत्पन्न नहीं हुई। वे निस्संतान ही वन को गये और निस्संतान ही वहां से लौटे। यह बात उनकी कामवासना पर विजय को सिद्ध करती है। गृहस्थ होते हुए इतने संयम और कामवासना पर विजय का उदाहरण विश्व के इतिहास में अन्यत्र मिलना कठिन है।


           लक्ष्मण जी की प्रवित्रता भी दर्शनीय है। जब रावण सीता जी को हर कर ले जा रहा था उस समय सीता जी ने अपने कुछ आभूषण भूमि पर फेंक दिये ताकि उनके पति अथवा देवर को इनकी खोज करने में सहायता हो। श्री राम चन्द्र जी को जब वे आभूषण मिले तो उन्होंने लक्ष्मण जी को उन्हें पहचानने के लिए कहा। लक्षमण जी ने जो उत्तर उस समय दिया वह उनकी आत्मिक पवित्रता को सूचितकरता है। उन्होंने कहा


नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।

नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादभिवन्दनात्।।


              न तो मैं सीता जी के बाजुओं के आभूषण को पहचानता हूँ और न ही कानों के आभूषणों को जानता हूँ। मैं तो उनके पैरों के आभूषणों को पहचानता हूँ क्योंकि सदा उनके चरणो में प्रणाम किया करता था।

               महाभारत के प्रमुख पात्र योगिराज श्रीकृष्ण भारतवर्ष की महान विभूतियों में से एक थे। वे परम सदाचारी और आदर्श पुरुष थे। वे आदर्श संयमी और मर्यादावादी व्यक्ति थे। मैंने बारह वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके हिमालय की गुफाओ में रहकर बड़ी तपस्या के द्वारा जिसे प्राप्त किया था, मेरे समान व्रत का पालन करने वाली रुक्मिणी देवी के गर्भ से जिसका जन्म हुआ है, जिसके रूप में तेजस्वी सनत्कुमार ने ही मेरे यहां जन्म लिया है, वह प्रद्युम्न मेरा प्रिय है।


             बारह वर्ष के इस घोर ब्रह्मचर्य के पीछे एक घटना है। वह इस प्रकार है कि जब योगेश्वर श्री कृष्ण जी ने रुक्मिणी के साथ विवाह किया तो रुक्मिणी से कहने लगे- 'रुक्मिणी ! विवाह के पश्चात् सभी भोग-विलास में पड़ जाते हैं। हे रुक्मिणी! हम दोनों ब्रह्मचार्य -व्रत का पालन करें और ऐसी सन्तान उत्पन्न करें जो दिव्यगुणयुक्त हो।' ऐसी सन्तान के लिए उन्होंने बारह-वर्ष तक बद्रीनाथ के स्थान पर रहकर ब्रहाचर्य-व्रत का पालन किया और प्रद्युम्न नामक सन्तान को उत्पन्न किया। प्रद्युम्न भी अपने गुणों के कारण अद्वितीय स्थान रखता था। विश्व के इतिहास में गृहस्थ होते हुए भी इतने संयम-पालन का दूसरा उदाहरण मिलना दुर्लभ है। गृहस्थ में बारह वर्ष का ब्रह्मचर्य एक अद्भुत घटना है।

              महाराणा प्रताप भी सदाचार की मूर्ति थे। उन्होंने भी अपनी सेना को आदेश दे रखा था कि जो भी मुस्लिम स्त्री सैनिकों को मिले उसे सम्मान पूर्वक इसके परिवार में पहुंचाया जाए।


               छत्रपति शिवाजी के जीवन की एक मार्मिक घटना है। सैनिक बीजापुर के नवाव आदिलशाह की पुत्रवधू को पकड़कर उनके दरबार में लाये और श्री सेवा में प्रस्तुत किया, शिवा जी ने उसे स्वीकार नहीं किया और अपने सेनापति को डांटा। उस पुत्रवधू की सुन्दरता को देखकर कहने लगे- काश! मैंने आपकी कोख में जन्म लिया होता तो मुझे भी कुछ सुन्दरता प्राप्त हो जाती। यह कहकर उन्होंने आदेश दिया कि उसे सुरक्षापूर्वक उसके माता-पिता के पास पहुँचा दें।


                धन्य है यह देश के ये दिव्य महापुरुष जो निर्व्यसनता के जीवन्त रुप थे।

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