गर्भाधान #Conception#

 


गर्भाधान उसको कहते हैं कि जो -

"गर्भस्याऽऽधानं वीर्यस्थापनं स्थिरीकरणं यस्मिन् येन वा कर्मणा, तद् गर्भाधानम् "

गर्भ का धारण, अर्थात विर्य का स्थापन , वीर्य का गर्भाशय में स्थिर करना जिससे होता है, उसे  गर्भाधान कहते हैं।


जैसे बीज और खेत के उत्तम होने से उन्नादि पदार्थ भी उत्तम होते हैं, वैसे उत्तम, बलवान स्त्री पुरुषों से (उत्पन्न) संतान भी उत्तम होते हैं। जो व्यक्ति युवावस्था पर्यंत यथावत ब्रम्हचर्य का पालन और विद्या अभ्यास करके, अर्थात कम से कम 16 वर्ष की कन्या और कम से कम 25 वर्ष का पुरुष हो तो अच्छे संतान की उत्पत्ति होती है। इससे अधिक उम्र वाले स्त्री- पुरुष होने से अधिक उत्तम संतान की उत्पत्ति होती है।

क्योंकि बिना 16 वर्ष के गर्भाशय में बालक के शरीर को यथावत बढ़ने के लिए अवकाश और गर्भ के धारण पोषण का सामर्थ्य कभी नहीं होता और 25 वर्ष के बिना पुरुष का वीर्य भी उत्तम नहीं होता। इसके शास्त्रों में यह प्रमाण हैं -


पंचविंशे ततो वर्षे पुमान् नारी तुम षोडशे   । समत्वगतवीर्यौ तौ जानीयात्कुशलो भिषक् ।।

(सुश्रुत सूत्रस्थाने, अ० ३५/१०)


सुश्रुतकार परम पूज्य हैं जिनका प्रमाण सब लोग सब विद्वान लोग मानते हैं, बे विवाह और गर्भाधान का समय न्यून से न्यून 16 वर्ष की कन्या और 25 वर्ष का पुरुष अवश्य हो, ऐसा लिखते हैं।


उपरोक्त श्लोक का अर्थ है की जितना सामर्थ्य 25 वर्ष के  पुरुष के शरीर में होता है, उतना ही सामर्थ्य 16  वर्ष के कन्या के शरीर में हो जाता है। इसलिए वैद्य लोग पूर्वक्तो अवस्था में दोनों को सम वीर्य अर्थात तुल्य सामर्थ्य वाले जानें ।

 ऊनषोडशवर्षायमप्राप्त: पंचविंशतिम् ।

 यद्याधत्ते पुमान् गर्भं कुक्षिस्थ: स विपद्यते  ।।


16 वर्ष से न्यून अवस्था की स्त्री में 25 वर्ष से कम अवस्था का पुरुष यदि गर्भधान करता है, तो वह गर्भ उदर में ही बिगड़ जाता है।


जातो वा न चिरं जीवेज्जीवेद्वा दुर्बलेन्द्रिय: । तस्मादत्यन्तबालायां गर्भाधानं न कारयेत् ।।


और जो उत्पन्न  भी हो तो अधिक नहीं   जीवे , अथवा कदाचित जिए भी तो उसके अत्यंत दुर्बल शरीर और इंद्रिय होगा। इसलिए अत्यंत बाला अर्थात 16 वर्ष की अवस्था से कम अवस्था की स्त्री में कभी गर्भाधान नहीं करना चाहिए।

 चतस्रोऽवस्था: शरीरस्य वृद्धिर्यौवनं सम्पूर्णता किंचित्परिहाणिश्चेति। आषोडशाद् वृद्धिराचतुर्विंशतेर्यौवनमाचत्वारिंशत: सम्पूर्णता तत: किंचित्परिहाणिश्चेति ।।


अर्थ - 16वें वर्ष से आगे मनुष्य के शरीर के सब धातुओं की वृद्धि और 25 वें वर्ष से युवावस्था का आरंभ, 40 वें बर्ष में युवावस्था की पूर्णता अर्थात सब धातुओं की पूर्णपुष्टि, और उससे आगे किंचित किंचित धातु अर्थात वीर्य की हानि होती है, अर्थात 40 वें वर्ष तक सब अवयव पूर्ण हो जाते हैं। पुनः खानपान से उत्पन्न जो विर्य (धातु )होता है, वह कुछ कुछ क्षीण होने लगता है ।

 इससे यह सिद्ध होता है कि यदि शीघ्र विवाह करना चाहे, तो कन्या 16 वर्ष की और पुरुष 25 वर्ष का अवश्य होना चाहिए। परंतु आजकल के भारत सरकार के नियम भी उचित है। मध्यम समय कन्या का 20 वर्ष पर्यंत और पुरुष का 40 वां वर्ष, और उत्तम समय कन्या का 24 और पुरुष का 48 वर्ष पर्यंत का है।


जो अपने कुल की उत्तमता, उत्तम संतान, दीर्घायु, सुशील, बुद्धि बल पराक्रम युक्त, विद्वान और श्रीमान करना चाहता है, वे 16 वर्षों से पूर्व कन्या और 25 में वर्ष से पूर्व पुत्र का विवाह कभी ना करें। यही सब सुधार का सुधार, सब सौभाग्य का सौभाग्य और सब उन्नतियों की उन्नति करने वाला कर्म है कि इस अवस्था में ब्रम्हचर्य रखकर अपने संतानों को विद्या और  सुशिक्षा ग्रहण करावे की जिससे उत्तम संतान हों ।  

* ऋतुदान का काल * 

मनुआदि ऋषियों ने ऋतुदान के समय का निश्चय इस प्रकार से किया है -

 ऋतुकालाभिगामी स्यात् स्वदारनिरतस्सदा  ।

पर्ववर्जं व्रजेच्चैनां तद् व्रतो रतिकाम्यया  ।।


सदा पुरुष ऋतु काल में स्त्री का समागम करें और अपनी स्त्री के बिना दूसरी स्त्री का सर्वदा त्याग रखें । वैसे स्त्री भी अपने विवाहित पुरुष को छोड़कर अन्य पुरुषों से सदैव पृथक रहे। जो स्त्री व्रत अर्थात अपनी विवाहित स्त्री ही से प्रसन्न रहता है,जैसे कि पतिव्रता स्त्री अपने विवाहित पुरुष को छोड़ दूसरे पुरुष का संग कभी नहीं करती, वह पुरुष जब ऋतु दान देना हो, तब पर्व अर्थात जो उन ऋतु दान के 16 दिनों में पूर्णमासी, अमावस्या, चतुर्दशी वा अष्टमी आए, तो उसको छोड़ दे। इनमें स्त्री- पुरुष रतिक्रिया (संभोग) कभी ना करें ।

 ऋतु: स्वाभाविक: स्त्रीणां रात्रय: षोडश स्मृता: ।

चतुर्भिरितरै: सार्द्धमहोभि: सद्विगर्हितै: ।।


स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल 16 रात्रि का है, अर्थात रजोदर्शन दिन से लेकर 16वें दिन तक ऋतु का समय है। उनमें से प्रथम की चार रात्रि अर्थात जिस दिन रजस्वला हो उस दिन से लेकर 4 दिन तक निंदित हैं । प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रात्रि में पुरुष स्त्री का स्पर्श और स्त्री पुरुष का संबंध कभी ना करें, अर्थात उस रजस्वला के हाथ का छुआ पानी भी ना पिए। नाम है स्त्री कुछ काम करें, किंतु एकांत में बैठी रहे, क्योंकि इन 4 रात्रियों में समागम करना व्यर्थ और महारोगकारक है । राज: अर्थात स्त्री के शरीर से एक प्रकार का विकृत उष्ण रुधिर, जैसा कि फोड़े में से  पीव का रुधिर निकलता है, वैसा ही रुधिर (रक्त) निकलता है।

 तासामाद्याश्चतस्त्रस्तु निन्दितैकादशी च या  ।

त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दंश रात्रय: ।।


जैसे प्रथम की चार रात्रि ऋतुदान देने में निन्दित हैं, वैसे 11वीं और 13वीं रात्रि भी निन्दित हैं । और बाकी रही 10 रात्रि, वह ऋतुदान देने में श्रेष्ठ हैं ।।



युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु ।तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्त्तवे स्त्रियम्  ।।


जिनको पुत्र की इच्छा हो, छठी, आठवीं, दसवीं, 12वीं, 14 वी, और 16 वीं यह 6 रात्रि ऋतुदान में उत्तम है , परंतु इनमें भी उत्तर- उत्तर श्रेष्ठ हैं । और जिनको कन्या की इच्छा हो, वे पांचवी, सातवीं, नववी, और 15वीं यह चार रात्रि उत्तम समझें । इससे पुत्रार्थी युग्म रात्रियों में ऋतुदान देवें ।।



पुमान्पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रिया: ।

समे पुमान्पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्यय: ।।


पुरुष के अधिक वीर्य होने से पुत्र और स्त्री के आर्त्तव अधिक होने से कन्या, तुल्य होने से नपुंसक पुरुष वा बंध्या स्त्री, क्षीण और अल्पवीर्य से गर्भ का न रहना वा रह कर गिर जाना होता है।



निन्द्यास्वष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन् ।

ब्रह्मचार्येव भवति यत्र तत्राश्रमे वसन ।।


जो पहले निन्दित 8 रात्रि कहा गया है, उन्हें जो स्त्री का संग छोड़ देता है, वह गृहाश्रम में बसता हुआ भी ब्रह्मचारी ही कहलाता है।।

(मनुस्मृति अ० - ३)


उपनिषदि गर्भलम्भनम् ।।

(अश्व लायन गृह सूत्र का वचन है)

जैसा उपनिषद में गर्भस्थापन विधि लिखा है, वैसा करना चाहिए, अर्थात पूर्वोक्त जैसा कि कम से कम 16 और 25 में वर्ष में विवाह करके ऋतु दान लिखा है, वही उपनिषद में भी विधान है।


इसके अनंतर स्त्री जब रजस्वला होकर चौथे दिन के उपरांत पांचवें दिन स्नान कर रज- रोग रहित हो, उसी दिन (आदित्यं गर्भमिति) इत्यादि मंत्रों से, जिस रात्रि में गर्भस्थापन करने की इच्छा हो, उससे पूर्व दिन में सुगंधादि पदार्थों सहित संस्कार विधि में वर्णित विधि अनुसार हवन करना चाहिए। एवं माता पिता और गुरुजनों का आशीर्वाद लेना चाहिए ।

*गर्भाधान की प्रक्रिया*

 इसके पश्चात रात्रि में नियत समय पर जब दोनों का शरीर आरोग्य, अत्यंत प्रसन्न और दोनों में अत्यंत प्रेम बड़ा हो, उस समय गर्भाधान- क्रिया करनी चाहिए। गर्भाधान- क्रिया का समय प्रहर रात्रि के गए पश्चात प्रहर रात्रि रहे तक है। जब वीर्य गर्भाशय में जाने का समय आवे तब दोनों स्थिरशरीर, प्रसन्न वदन, मुख के सामने मुख, नासिका के सामने नासिका आदि सब सूधा शरीर रखें  । वीर्य का प्रक्षेप पुरुष करें। जब वीर्य स्त्री के शरीर में जा चुका हो, उस समय अपना पायु , मूलेन्द्रिय और योनीद्रिय को ऊपर संकोच और वीर्य को खींच कर स्त्री गर्भाशय में स्थिर करें। तत्पश्चात थोड़ा ठहर के स्नान करें। यदि शीतकाल हो तो प्रथम केसर, कस्तूरी, जायफल, जावित्री, छोटी इलायची डालकर गर्म कर रखे हुए शीतल दूध का यथेष्ट पान करके पश्चात पृथक पृथक चयन करें। यदि स्त्री-पुरुष को ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाए कि गर्भ स्थिर हो गया तो उस के दूसरे दिन, और जो गर्भ रहने का दृढ़ निश्चय नहीं हुआ तो 1 महीने के पश्चात रजस्वला होने के समय स्त्री रजस्वला ना हो तो निश्चित जानना कि गर्भ स्थिर हो गया है ।

 (यह लेख महर्षि दयानंद द्वारा रचित संस्कार विधि से लिया गया है)

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