आर्यसमाज
संसार की सभी क्रान्तियों का मुख्य आधार वैचारिक क्रान्ति माना जाता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती एक क्रान्तिकारी विचारक थे। आर्यसमाज की विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं। उन्होंने 7 अप्रैल 1875 को आर्यसमाज की स्थापना की थी। उनकी प्रेरणा से आर्यसमाज ने गत वर्षों में धार्मिक, सामाकि, शैक्षणिक, राष्ट्रीय, राजनैतिक और आर्थिक प्रायः सभी क्षेत्रों में नयी आकांक्षाओं दिशाओं, आशाओं और संभावनाओं को जन्म दिया है। इतना ही नहीं आर्यसमाज मानव की उन्नति में प्रयासरत भी है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने हमें जो धार्मिक जीवन दर्शन दिया, वह शाश्वत सत्यों पर आधारित है। आज के वैज्ञानिक युग में वह सभी प्रकार से कसौटी पर खरा उतर रहा है। उसमें कोई अंधविश्वास और निरर्थक रीति रिवाज नहीं है। इस दर्शन की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं
1. ईश्वर एक है और वह एक निराकार शक्ति है।
2. आत्मा अनादि और अमर है। वह कर्म करने में सर्वथा स्वतंत्र है। स्वस्थ एवं सम्पन्न शरीर उसका आवश्यक साधन है।
३. स्थूल जगत् अर्थात् प्रकृति का अस्तित्व पृथक् और अनादि
4. कर्म और उसका परिणाम पुनर्जन्म है। यह केवल भाग्य या ईश्वर इच्छा पर न होकर जीवात्मा के पुरुषार्थ और कर्म पर आधारित है। पुरुषार्थ को महत्ता दी गई है।
5. सब प्रकार की समानता पर आधारित व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याण एक-दूसरे के पूरक हैं। सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र रहें। मनुष्य को सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
6. ईश्वर और मनुष्य के बीच में किसी पैगम्बर गुरु या मसीहा अथवा दूत की मध्यस्थता की आवश्यकता नहीं है।
आज भारतवर्ष का सुधरा हुआ समाज आर्यसमाज की ही देन है। आर्यसमाज जन्मगत जात-पाँत, छुआ-छूत, बाल-विवाह, पर्दा, दहेज आदि का विरोध करता है। आर्यसमाज गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार वर्ण व्यवस्था को मानता है। अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह और स्त्रीशिक्षा आदि के क्षेत्र में आर्यसमाज के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
आर्यसमाज शुरू से ही हिन्दू (आर्य) धर्म और हिन्दू समाज को अनेक कुरीतियों और कमजोरियों से मुक्त करके सुसंगठित करने का प्रयास करता रहा है। आर्यसमाज ने शुद्धि आन्दोलन के द्वारा इसके दरवाजे ईसाई, मुसलमान आदि के लिए भी खोल दिए। आर्यसमाज ने हिन्दू (आर्य) को साहसिक हिन्दू बनाया। महर्षि दयानन्द सरस्वती को योद्धा संन्यासी के रूप में स्मरण किया जाता है।
भारत में राजनैतिक चेतना और राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने में आर्यसमाज का दृष्टिकोण शुद्ध भारतीय और राष्ट्रीय था। महर्षि दयानन्द स्वराज्य के प्रथम उद्घोषक के रूप में सदैव स्मरण किये जाएँगे। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है, "माता-पिता के समान होने पर भी विदेशी राज्य की बराबरी नहीं कर सकता। सुराज्य का विकल्प नहीं है।" इस आधुनिक परिकल्पना की घोषणा महर्षि ने बहुत पहले कर दी थी। लाला लाजपतराय, स्वामी श्रद्धानंद, रामप्रसाद बिस्मिल, भाई परमानन्द, भगत सिंह, तथा अनेक स्वतंत्रता आन्दोलन के वीर सिपाही आर्यसमाज से सम्बन्धित थे।
शिक्षा के क्षेत्र में आर्यसमाज के योगदान का सभी लोहा मानते हैं। उसके परिसरों में चलाए जा रहे हजारों विद्यालय, डी.ए.वी. विद्यालय व कॉलेज, गुरुकुल, आर्य पुत्री पाठशालाएँ व संस्कृत पाठशालाएँ संसार भर में अपनी सफलता का परचम लहरा रहे हैं। शिक्षा प्रसार के साथ-साथ धार्मिक शिक्षा और राष्ट्रीय चेतना इन आर्यसंस्थाओं की विशेषताएँ हैं। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार के स्नातकों ने देश की जो सेवा की है और वर्तमान में भी कर रहे हैं, वह सर्वविदित है।
अस्पृश्यता भारतीय हिन्दू समाज का कलंक है। आर्यसमाज ने इसे दूर करने के लिए यथाशक्ति संघर्ष किया है। आर्यसमाजों में आजकल हरिजन कुलोत्पन्न पण्डित, पुरोहित यज्ञ, विवाह तथा अन्य संस्कार कराते हैं।
आर्यसमाज का प्रचार-प्रसार भारत तक ही सीमित नहीं है अपितु विदेशों में भी आर्यसमाज और आर्य प्रतिनिधि सभाएँ वेदप्रचार के कार्य में संलग्न हैं। हिन्दू धर्म, संस्कृति और हिन्दी भाषा का प्रचार विदेशों में आर्यसंस्थाएँ कर रही हैं।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने गुजराती होते हुए भी हिन्दी भाषा को अपनाया तथा अपने ग्रंथों का प्रणयन हिन्दी भाषा में किया। आर्यसमाज का सारा कार्य हिन्दी भाषा में ही होता है। हिन्दी साहित्य के विकास में तथा हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्थापित करने में आर्य विद्वानों को प्रमुख स्थान रहा है।
वेद मानव मात्र के कल्याण की उद्घोषणा करते हैं। वेदों के अध्ययन के लिए संस्कृत का ज्ञान होना आवश्यक है। आर्यसमाज ने संस्कृत भाषा के अध्ययन पर विशेष बल दिया तथा संस्कृत भाषा के ग्रंथों का अनुवाद हिन्दी भाषा में कराया तथा उन्हें सब को उपलब्ध भी कराया।
महिलाओं को समाज में समानता दिलाने में आर्यसमाज भूमिका निर्विवाद है। कन्याओं के लिए पाठशालाएँ आदि खोलने का महत्वपूर्ण कार्य आर्यसमाज ने ही सर्वप्रथम किया है। किसी समय यहाँ 'स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्' कह कर स्त्री और शूद्रों को वेद पढ़ने से रोका जाता था। इस गलत धारणा को पूर्ण रूप से आर्यसमाज ने समाप्त किया। स्त्रियों को यज्ञोपवीत पहनने व उनके अध्ययन का अधिकार आर्यसमाज ने दिलाया। पर्दा, दहेज, बहुविवाह, बाल विवाह आदि के विरुद्ध आन्दोलन तथा अन्तर्जातीय विवाह और विधवा विवाह के समर्थन आर्यसमाज ने प्रभावशाली ढंग से किया।
आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य संसार का उपकार करना है। आर्यसमाज का लक्ष्य
'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्'
आर्यसमाज के नियमों का मूल स्वर 'सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझना' है। सत्यार्थप्रकाश आर्यसमाज की विचारधारा को सही रूप में सभी के सम्मुख प्रस्तुत करता है।
इति ओम् शम्
शास्त्री हरी आर्यः