शिक्षा के मुख्य उद्देश्य Main Objectives of Education


 शिक्षा के तीन उद्देश्य 

अपामीवामप  स्त्रिधमप सेधत दुर्मतिम्‌ । 

आदित्यासो युयोतना नो अंहसः॥ साम॰ ३९७


             व्याख्या--शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का शारीरिक, आत्मिक और बौद्धिक विकास है। मनुष्य संसार के कार्यक्षेत्र में इस सर्वाङ्गीण उन्नति के बिना पूर्ण सफल नहीं कहला सकता। जीवन में कुछ अवसर ऐसे आते हैं कि न वहाँ बुद्धिबल काम देता है और न आत्मिक बल। हाँ, शारीरिक शक्ति पास हो तो मनुष्य काम बना लेता है।

            महाभारत-युद्ध में चक्रव्यूह के प्रवेशद्वार के रक्षक आचार्य द्रोण थे। आचार्य द्रोण को वीरता और बल से दबाकर चक्रव्यूह में प्रवेश के लिए केवल अभिमन्यु को ही उपयुक्त समझा गया। व्यूह में प्रवेश के लिए जहाँ कलात्मक ज्ञान अपेक्षित था, वहाँ शौर्य और बल-प्रवणता की भी कम अपेक्षा नहीं थी। 

               इस व्यूह के युद्ध में शौर्य का जो कीर्तिमान अभिमन्यु ने स्थापित किया, वह पाण्डव-पक्ष में अर्जुन को छोड़कर कोई स्तापित नहों कर सका। अभिमन्यु को स्वयं अपने बल पर कितना आत्मविश्वास था, यह द्रष्टव्य है-

अशक्यं तु तमन्येन द्रोणं मत्वा युधिष्ठिर: । 

अविषह्यं गुरुं भारं सौभद्रे समवासूृजत्‌॥ म० भा०, द्रो० अ० ३४।१२ 

युधिष्ठिर ने विचार किया कि गुरु द्रोण के पराक्रम का सामना करने की और किसी में शक्ति नहीं है। इसलिए इस असह्य गुरुतर भार को अभिमन्यु को सौंपा। अभिमन्यु ने उत्तर दिया-


द्रोणस्य दृढमव्यग्रमनीकप्रवरं युधि। 

पितृणां अयमाकांक्षन्नवगाहेऽविलम्बितम्‌ ॥ 

युद्ध में द्रोण की दृढ़ और प्रबल सेना में मैं आप लोगों के विजय कामना से अवगाहन करता हूँ। 

भिन्ध्यनीकं युधा श्रेष्ठ द्वारं संजनयस्व नः। 

वयं त्वानुगमिष्यामो येन त्वं तात यास्यसि॥ 

              हे योद्धाओं में श्रेष्ठ! शत्रु-सेना को भेदकर हमारे लिए द्वार बना। लोग तुम्हारे पीछे-पीछे जिधर से तुम जाओगे, चलेंगे। 

अभिमन्यु बोले-

अहमेतत्‌ प्रवेक्ष्यामि द्रोणानीकंं दुरासदम्‌। 

मैं दुर्दमनीय द्रोण की सेना में प्रवेश करूँगा।

नाहँ पार्थेन जात: स्यां न च जातः सुभद्रया। 

यदि मे संयुगे कश्चिज्जीवितो नाद्य मुच्यते॥ 

               यदि मैं आज युद्ध में किसी को भी जीवित छोड़ूॅं तो मुझे अर्जुन और सुभद्रा से उत्पन्न हुआ न समझा जावे।

यदि चैव रथेनाहंं समग्रं क्षत्रमण्डलम्‌। 

न करोम्यष्टधा युद्धे न भवाम्यर्जुनात्मज: ॥ 

           यदि अकेला ही एक रथ से सम्पूर्ण क्षत्रिय-समूह को युद्ध में आठ टुकड़ों में न बाँट दूँ तो मुझे अर्जुन का बेटा न समझा जावे।

तेन संचोद्यमानस्तु याहि याहीति सारथिः।

प्रत्युवाच ततो राजन्नभिमन्युमिदं वच: ॥ 

               अभिमन्यु ने अपने सारथि सुमन्त्र को जब बार-बार चलने को कहा को चिन्तित होकर सारथि ने अभिमन्यु से कहा-

अतिभारोऽयमायुष्मन्नाहितस्त्वयि पाण्डवे:। 

संप्रधार्य क्षणं बुद्ध्या ततस्त्वं योद्धुमर्हसि ।

             आयुष्मन्‌! आपके ऊपर पाण्डवों ने बहुत बड़ा बोझ रख दिया है। थोड़ी देर भले प्रकार विचार करके फिर युद्ध करना चाहिए। 

ततोऽभिमन्यु: प्रहसन्‌ सारथिं वाक्यमगब्रवीत्‌।

सारथे कोन्वयं द्रोण: समग्रं क्षत्रमेलव वा॥ 


               अभिमन्यु ने हँसते हुए सारथि को उत्तर दिया--यह द्रोण तो है ही क्‍या, मेरे सामने क्षत्रियों के समस्त योद्धा भी आ जायें तो मैं उनकी परवा नहीं करता। 


न ममैतद्‌ द्विषत्सैन्यं कलामर्हति षोडशीम्‌। 

अपि विश्वजितं विष्णुं मातुलं प्राप्प सूतज। 

पितरं चार्जुनं युद्धे न भीर्मामुपयास्यति ॥ 


                 यह शत्रु सेना तो मेरे सामने कुछ भी नहीं है। मेरे सामने युद्ध में विश्व विजेता मामाजी ( श्रीकृष्ण) और पिताजी भी आ जायें तो उनसे भी मुझे कोई झिझक नहीं है। 


प्रवर्तमाने संग्रामे तस्मिन्नति भयङ्करे। 

द्रोणस्य मिषतो व्यूहं भित्वा प्राविशदार्जुनि: ॥ 


             उस भयङ्कर युद्ध के प्रारम्भ होने पर द्रोण के रक्षक होते हुए भी अभिमन्यु चक्रव्यूह में प्रवेश कर गया। 


           स्पष्ट है, यहाँ सफलता शारीरिक बल और उसी से सम्बन्धित युद्धकौशल को मिली। इसके विपरीत कुछ अवसर ऐसे होते हैं, जिनमें बुद्धिमत्ता और विचारशीलता ही काम आती है; शारीरिक बल व्यर्थ रहता है। इसको स्पष्ट करने के लिए भी पाण्डवों के वनवास के समय का एक उदाहरण उपयुक्त रहेगा-


             वनवास-काल में पार्वत्य और वन-प्रदेश में घूमते हुए प्यास से व्याकुल युधिष्ठिर ने सहदेव से कहा कि भाई! एक वृक्ष पर चढ़कर देखो, कहीं पानी दिखाई देता हो तो बाणों के तूणीर में ही भरकर पीने योग्य थोड़ा पानी ले आओ। आज्ञानुसार सहदेव ने वृक्ष पर चढ़कर इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई तो उसे एक जलाशय दिखलाई पड़ा। नीचे उतरकर वह पानी लेने गया और वापस पर्याप्त समय तक नहीं आया। इसके बाद नकुल गया, वह भी नहीं लौटा। फिर अर्जुन गया, वह भी नहीं आया। इसके बाद भीम गया, वह भी गुम। 


             युधिष्ठिर और द्रौपदी इस स्थिति से बहुत दुःखी और चकित होकर स्वयं गए। पहुँचकर देखा कि चारों भाई जलाशय पर मृत पड़े हुए हैं। युधिष्ठिर देखकर स्तब्ध! फिर सोचा, पहले पानी पीकर प्यास बुझा लें, फिर देखते हैं क्‍या हुआ। पानी पीने के लिए ज्यों ही तालाब में प्रवेश किया तो जलाशय के अधिपति ने कहा--'पहले जो मैं पूछता हूँ उसका उत्तर दो, नहीं तो जो अवस्था इन चारों को हुई है, वहां तुम्हारी भी होगी।' यद्यपि प्यास से युधिष्ठिर व्याकुल था, किन्तु गम्भीर और विचारशील भी था; उससे पहले अन्य भाइयों को भी यही बात कही गई थी, पर उन्होंने अपने बल के अहंकार में सुनी नहीं। 


                   युधिष्ठिर ने उत्तर दिया--'यदि यही बात है तो मैं प्यास के कष्ट को और सहूँगा। तुम पूछो! जो मुझे आता होगा, वह मैं अपनी बुद्धि के अनुसार उत्तर दूँगा।' 


                  इस पर जलाशय के अधिपति यक्ष ने प्रश्न पूछे और युधिष्ठिर ने उत्तर दिये जो महाभारत में यक्ष और युधिष्ठिर के संवाद के रूप थे प्रसिद्ध हैं। 


                युधिष्ठिर के बुद्धिमत्तापूर्ण उत्तरों को सुनकर यक्ष बहुत प्रसन्न हुआ व केजल यूधिष्ठिर को पानी पीने की अनुमति दी, अपितु चारों मूर्छित भाईयों को भी सचेत कर दिया।

               यहाँ सफलता बुद्धिबल को मिली। शारीरिक शक्ति असफल सिद्ध हुई। 

                इन दो के अतिरिक्त इनसे भी महत्वपूर्ण तीसरी शक्ति है, जिसे आत्मिक शक्ति कहते हैं। उससे सम्पन्न व्यक्ति की शारीरिक और बौद्धिक क्षमता  अत्याधिक तीव्र और प्रभावोत्यादक हो जाती है। इसके प्रतीक हैं--योगिराज कृष्ण। 


                 पाण्डवों की सफलता का समस्त श्रेय योगिराज कृष्ण को है | उन्होंने भयंकर से भयंकर समय में भी अविचल रहकर पाण्डवों का पथप्रदर्शन किया--जरासंध का संहार, राजसूय यज्ञ  की सफलता, युद्ध में भीष्म, कर्ण और जयद्रथ का वध। गाण्डीव के धिक्कारने पर युधिष्टिर को मारने के लिए उद्यत अर्जुन को अपनी सुझ-बूझ से शान्त करना, दुर्योधन पर प्रहार करने के कारण युद्ध के नियमों के विपरीत भीम को मारने के लिए उद्यत बलराम को समझाना--ये सब कृष्ण के चमत्कारपूर्ण कार्य आत्मिक बल के कारण ही हो सके। 

              अतः इस वेदमन्त्र में, संसार में पूरी सफलता प्रात करने के लिए तीनों प्रकार की न्यूनताओं को दूर करके त्रिविध शक्तिप्राप्ति की प्रार्थना की गई।

                    मन्त्र में शिक्षा के मनोवैज्ञानिक क्रम का वर्णन किया गया है। सन्तान को शिक्षा देनेवाले माता-पिता होते हैं। शिष्यों को गुरु शिक्षा देते हैं और समाज का पथ-प्रदर्शन बहुश्रुत, विद्यावृद्ध और वयोवृद्ध करते हैं। इन सभी को बहुत सार्थक ' आदित्यास: ' शब्द से सम्बोधित किया गया ॥


                   आदित्य शब्द के अनेक अर्थों में से एक अर्थ है 'मर्यादा का पालन करनेवाले '। जो मर्यादा भङ्ग करते हैं, वे दिति के पुत्र 'दैत्य”' कहलाते हैं। “दो अवखण्डने' धातु से यह शब्द बना। जो मर्यादा की रक्षा करते हैं, वे अदिति के पुत्र आदित्य कहलाते हैं। 

                     इस शब्द से माता-पिता व गुरु को सम्बोधित कर उन्हें सावधान किया है कि तुम जिन मर्यादाओं और गुणों को अपने बच्चों और शिष्यों में देखना चाहते हो और जिनकी उन्हें शिक्षा देते हो, वे गुण स्वयं तुम्हारे आचरण में होने चाहिएं। यदि आपका आचरण आपकी आकांक्षा और कथन के विपरीत है तो उसका प्रभाव आपकी सन्तान, आपके शिष्य और श्राताओं पर यथेष्ट नहीं होगा। आज की उच्छृङ्खलता का एक मुख्य कारण यह भी है कि हम अभिभावक और शिक्षक अपने बच्चों और शिष्यों को तो बहुत-कुछ कहते रहते हैं, किन्तु हमारा आचरण बहुधा हमारे कथन के विपरीत होता है। हम उन्हें कहते हैं--'' Do what say, don't do what I do” तुम वह करो जो मैं कहता हूँ, तुम वह मत करो जो मे करता हूं। 


                  किन्तु, मनोविज्ञान इसके विपरीत कहता है। बात को सुनकर, सुननेवाला पहले यह देखता है कि कहनेवाला स्वयं उसके ऊपर आचरण करता है कि नहीं। यदि कहनेवाले का आचरण उसके विपरीत है तो वह उसके ऊपर आचरण नहीं करेगा। आज माता, पिता और गुरु भी इस तथ्य की ओर, ध्यान नहीं देते, इसलिए सब आवाँ बिगड़ रहा है। 


                    आदित्य का दूसरा अर्थ है--सूर्य=प्रकाशस्वरूप | यह विशेषण गुरु पर चरितार्थ होता है। जिस प्रकार सूर्य में अन्धकार की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार अध्यापक जिस विषय को पढ़ाता है, उसमें उसे संशय का अन्धकार नहीं होना चाहिए, अर्थात्‌ उस विषय पर उसका पूर्ण अधिकार होना चाहिए। 


                   मन्त्र के आगे के विशेषणों में शिक्षा का लक्ष्य निर्धारित किया कि * अंहसः '--पापों से, त्रुटियों से दूर होकर उसमें पक्‍वता और पूर्णता हो। सांकेतिक रूप से उन त्रुटियों का भी परिगणन कराया कि ' अमीवाम्‌ अपसेधत्‌'--शारीरिक विकास में बाधक रोगादि त्रुटियाँ दूर हों। इसके लिए गर्भकाल से ५ वर्ष की आयु तक माता को सावधान रहना होगा। इस अवधि में जबतक बालक गर्भस्थ रहे, माता का खान-पान अपने लिए नहीं, बालक के लिए होना चाहिए। आगे भी उसी सावधानी की आवश्यकता है, ताकि बच्चे को कोई रोग न हो और शरीर का विकास सन्तुलित रूप से होता चला जाए। 


                   आज हमारी देवियों में इस ज्ञान का बहुत अभाव है | परिणामस्वरूप अनेक प्रकार के रोग बचपन से ही लग जाते हैं। साथ ही स्वास्थ्यवर्धक भोज्य-पदार्थों की मात्रा का ज्ञान भी होना चाहिए, ताकि बच्चे असन्तुलित और बेडौल न हों। 


                   प्राय: देखा है जिन घरों में दूध, दही, मक्खन और उत्तम खान-पान की सुविधा है, वहाँ बालक स्थूलकाय और बेडौल हो जाते हैं। मोटापा भी बहुत बड़ा रोग ही है। 


                     विद्यालय में प्रवेश के अनन्तर भोजन के साथ-साथ व्यायाम, आसन, प्राणायाम और ब्रह्मचर्य-पालन आदि का भी पूर्ण ध्यान होना चाहिए। आज की स्कूली शिक्षा में इन सभी बातों का सर्वथा अभाव है। वहाँ बिगड़ते के साधन तो सभी हैं, बनने के लिए नहीं। वास्तविक शिक्षा के लिए इन सभी में आमूल चुल परिवर्तन की आवश्यकता है। प्रथम तो सन्‍तति निर्माण के लिए माता पिता ही अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं करते, अत: परिणाम यह होता है कि ऐसे बालकों पर गुरु का श्रम भी सफल नहीं हो पाता। क्‍योंकि, माता पिता की स्थिति उस कुम्हार के समान है जो मिट्टी तैयार करके अनेक प्रकार के पात्र और खिलौने बनाता है। गुरु का स्थान वह है जो उन बने-बनाए पात्रों पर अनेक प्रकार की चित्रकारी करके उनके उत्कर्ष को बढ़ाता है। जिस पात्र में मिट्टी से बनाते समय कोई दोष रह गया है, उसे चित्रकार यत्न करके भी दूर नहीं कर सकता। जहाँ टेढ़ी रह गई है, वह रहेगी ही। रंगरोगण से उसकी निर्माणगत न्यूनता की पूर्ति नहीं होगी। 


               अतः शिक्षा में आधारभूत प्रथम कर्सव्य हुआ माता-पिता का। शारीरिक विकास के साथ माता-पिता को मानसिक शक्ति के विकास की तथा आत्मिक उन्नति के संस्कारों की भी आधारशिला रखनी होगी । मानसिक विकास के लिए इस वेदमन्त्र में कहा है कि “स्त्रिधम अपसेधत्‌'--हिंसा की भावना को उत्पन्न न होने दो! 


                    हिंसा का दुर्गुण एक पाशविक वृत्ति है, जो अपने से अल्प बल और अल्प ज्ञानवाले को दबाने के लिए उत्पन्न होती है । पशु स्वाभाविक रूप से अपने से हीनबल को दबाएगा, उसका चारा छीनकर स्वयं खाने लगेगा। यही वृत्ति संस्कार-शून्य बालक में भी स्वाभाविक रूप से होती है। छोटा बालक अपने-जैसे अथवा अपने से हीनबल बालक के ऊपर झपटकर, उसके हाथ की चीज़ को छीन लेगा और उसको मारेगा भी | माता का यह पवित्र कर्त्तव्य है कि बच्चे के कोमल अन्त:करण पर प्रारम्भ से ही दया और करुणा के भाव अङ्कित करके उसे देवत्व की शिक्षा दे। यह कोरा भ्रम है कि बच्चे उस अवस्था में हमारी शिक्षा को ग्रहण नहीं कर पाते। बच्चों की ग्राहक शक्ति का अनुमान तो भाषा के ज्ञान से लगाया जा सकता है। किसी नयी भाषा को सीखकर ऐसे प्रयोग में लाने के लिए बड़े श्रम और साधना की आवश्यकता होती है। किन्तु बालक जहाँ पलता है, वहाँ की भाषा को अनायास ग्रहण करके बोलने लग जाता है, अतः बच्चों में सुसंस्कृत होने की पूरी पात्रता होती है॥ इसलिए माता-पिता को चाहिए कि बच्चे को सिखाएँ कि उसकी शक्ति गिरतों को उठाने के काम में आवे, ज्ञान भूले-भटकों को मार्ग बताए, तथा धन दीनों के भरण-पोषण में काम आवे। 


                      इससे आगे की बात आत्मिक उन्नति के साथ सम्बद्ध है। बालक अपने जन्म-जन्मान्तरों के कुसंस्कार काम-क्रोधादि तथा उत्तम संस्कार दया-दाक्षिण्यादि लेकर उत्पन्न हुआ है| बच्चे का अन्तःकरण कोरे काग़ज़ के समान नहीं है कि उस पर जन्म के बाद प्रथम बार ही कुछ लिखा जाना है, अपितु उसका अन्त:करण अनेक प्रकार के अच्छे-बुरे संस्कारों से प्रभावित है। 


                         शिक्षा का उद्देश्य यह है कि अच्छे संस्कार समुन्नत और विकसित होकर दूषित संस्कारों के ऊपर हावी हो जावें, अथवा विवेक जागृत हो जाने पर जले हुए बीज के समान उसके अङ्कूर-प्ररोह की क्षमता ही नष्ट हो जाए। यदि यह स्थिति उत्पन्न हो जाय तो शिक्षा सार्थक हो गई। 


                इसके लिए मन्त्र में आया कि 'दुर्मतिम्‌ अपसेधत '-- कुत्सित कर्म की भावना ही दूर हो, ऐसी शिक्षा हो। 


                    राष्ट्र-निर्माण में शिक्षा का सर्वाधिक महत्त्व है। किसी भी राष्ट्र का निर्माण दो प्रकार का होता है। एक भौतिक, जिसमें बड़े-बडे भवन, सड़कें, नहरें, कल-कारख़ाने, ये सभी आ जाते हैं। ये राष्ट्र के शरीर के समान हैं। राष्ट्र में रहनेवाले व्यक्तियों के चरित्र का सत्‌-शिक्षा के द्वारा निर्माण राष्ट्र की आत्मा के समान होता है। जैसे आत्मा के बिना शरीर कितना ही विशाल हाथी का ही क्‍यों न हो--निरर्थक है; उस विशाल निर्जीव शरीर को एक क्षुद्र जीव भी रौंदकर चला जाता है, यही अवस्था चरित्रहीन-अधार्मिक वृत्तिवाली स्वार्थी प्रजा से राष्ट्र की भी होती है। 


                     भारत के पतन का अतीत-इतिहास यही है । इन्हीं बुराइयों ने भौतिक उत्कर्ष के शिखर से गिराकर देश को पराधीनता और दरिद्रता के पङ्क में डुबो दिया। 


                    राजा दाहर पर सन्‌ ७१२ में मुहम्मद-बिन-क़ासिम की विजय के बाद भारत की पराधीनता का दुर्दिन आया। उस समय के भारत की समृद्धि की कल्पना भी आज का व्यक्ति नहीं कर सकता । “विश्वासघात ! नाम से उस समय के इतिहास के लेखक गणपतराय अग्रवाल ने लिखा है कि क़ासिम ने दाहर के राज्य पर अधिकार करके, दाहर के कोषागार का पता लगाना चाहा। बहुत खोजने पर भी ख़ज़ाने का कुछ पता न चला। इसी मध्य एक स्वार्थी नीच उसके पास गया और कहा कि यदि आप मुझे कुछ इनाम दें तो मैं आपको कोष का पता बता सकता हूँ। क़ासिम ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और साधारण-से प्रलोभन पर दाहर का भूमि के नीचे के घर (तहख़ाने) में छिपे कोषागार का पता दिया। गणपतराय अग्रवाल लिखते हैं कि इस खज़ाने में सोने-चाँदी के ढेर लगे हुए थे। ४५ देगें थीं, जो अशर्फियों से भरी हुई थीं। ६ हज़ार सोने की मूर्तियाँ थीं; इनमें से बड़ी मूर्त्ति ६ फुट ऊँची थी और उस एक मूर्त्ति का भार ही ६० मन था। 


                 बादशाह अकबर के समय तक भी भारत कितना समृद्ध था, इसका दिग्दर्शन 'देश की बात” नामक पुस्तक के प्रारम्भिक पृष्ठों में कराया गया है। वहाँ लिखा है कि एक बार अकबर ने अपने मन्त्री को आदेश दिया कि हमारे ख़ज़ाने में कितना सोना-चाँदी है, इसका हिसाब लगाया जाय। आदेश दिये तीन मास हो गए, किन्तु बादशाह को इसका उत्तर नहीं मिला। बादशाह ने वज़ीर से पूछा--' हमने ख़ज़ाने के सोना-चाँदी का हिसाब जानना चाहा था, उसका उत्तर अभी तक भी नहीं मिला ?' 


                    इस पर वज़ीर ने कहा--'जब से आपने आदेश दिया था, तभी सै ८०० व्यक्ति तराजू-बट्टे लेकर ख़ज़ाने को तोलने में लगे रहते हैं। अभी पूरे ख़ज़ाने का वज़न नहीं हो पाया, पूरा होते ही आपको बता दिया जाएगा।' 


                 अतः भारत की पराधीनता का कारण यहाँ के लोगों की अनैतिकता और चरित्रहीनता रही है। बीच-बीच में कुछ व्यक्ति उच्चकोटि के भी हुए हैं, किन्तु जिसे जन-सामान्य का चरित्र कहते हैं, उसका पतन हो गया था। वही यहाँ की मूल समस्या थी। स्वतन्त्रता के बाद तो सत्‌ज्ञान द्वारा उस बुराई का ही विनाश होना चाहिए था, किन्तु देश के सब कर्णधार शिक्षा-पद्धति के परिवर्तन पर भाषण तो देते रहे, पर किया किसी ने कुछ भी नहीं। 


                  परिणाम सामने है, इन वर्षों में जो नया भारत बना है वह उच्छृङ्खला, अनुत्तरदायी, स्वार्थी और चरित्रहीन है। ऐसे देश को कभी सुरक्षित नहीं माना जा सकता। इस स्थिति में तुरन्त सुधार के उपाय होने चाहिएँ। वह जादू की छड़ी से नहीं हो सकता; उसका माध्यम तो शिक्षा और कठोर अनुशासन ही है। 


                  यही बात इस मन्त्र में कही गई है। मार्ग लम्बा है। समय और श्रम दोनों की अपेक्षा है। इसके अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं है। पर न किसी के पास समय है, न ही कोई श्रम के लिए तैयार है। इसलिए मंजिल अब भी उतनी ही दूर है, जितनी स्वाधीनता से पहले थी। 



धन्यवाद


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