ईश्वर भक्त के लक्षण

 


प्रियो नो अस्तु विष्पतिर्होता मन्द्रो वरेण्य: ।

प्रिया: स्वग्नयो वयम्  ।।

(ऋ०. १/२६/७)

प्रजाओं का स्वामी आनंद दाता वरणीय परमात्मा हमें प्रिय हो। हम मन और बुद्धि की उत्तम अग्नियों वाले होकर उसके प्यारे हो जाएं।



सच्चे ईश्वर भगत का पहला लक्षण यह होता है कि उसका ईश्वर प्रेम सर्वोपरि होता है। वह अपने शरीर से भी प्रेम करता है, परंतु वह इससे अधिक ईश्वर से प्रेम करता है। मैं अपनी आजीविका के साधन से भी प्रेम करता है, परंतु वह इससे भी अधिक ईश्वर से प्रेम करता है। वह अपनी पत्नी से भी प्रेम करता है, परंतु इससे अधिक ईश्वर से प्रेम करता है। वह अपनी भूमि, संपत्ति ,धन से भी प्रेम करता है, परंतु वह इन से भी अधिक ईश्वर से प्रेम करता है। मैं अपनी संतान से भी प्रेम करता है परंतु इन से भी अधिक ईश्वर से प्रेम करता है। वह अपने दामाद और पुत्रवधू ओं से भी प्रेम करता है, परंतु बहन से भी अधिक ईश्वर से प्रेम करता है। वह अपने पोते पोतियो से भी प्रेम करता है, परंतु उसका ईश्वर प्रेम सर्वोतोमुखी होता है। वह अपने धेवते - धेवतियों से भी प्रेम करता है, परंतु इससे बढ़कर उसका प्रेम ईश्वर के प्रति होता है। जब उसका प्रेम अत्यधिक मात्रा में बढ़ जाता है तो वह महर्षि दयानंदके भांति ईश्वर प्राप्ति के लिए घर बार छोड़ कर निकल पड़ता है और उसी के ध्यान में लवलीन रहता है।



कुछ वेद मंत्र इसी अनन्य प्रेम की ओर संकेत करते हैं - 

वयं घा ते त्वे  । (ऋ०.८/६६/१३)

हम निश्चय से तेरे हैं।


त्वमस्माकं तव स्मसि ।(ऋ०.८/९२/३२)

तू हमारा है और हम तेरे हैं।


बालादेकमणीयस्कमुतैकं नैव दृश्यते  ।

तत: परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया   ।।

(अथर्व० १०/८/२५)


एक बाल से भी अधिक सूक्ष्म है और एक नहीं की तरह दिखता है। उससे परे जो उससे आलिंगन किए हुए जो देवता है वह मुझे प्यारा है। बाल से भी अधिक सूक्ष्म प्रकृति है। नहीं की तरह दिखने वाला आत्मा है। जो आत्मा को थामे हुए हैं वह परमात्मा है। यहां परमात्मा प्रेम को सर्वोपरि ठहराया गया है।


सच्चा ईश्वर भगत केवल परमात्मा की मुख्य रूप से प्रशंसा करता है। उसकी प्रशंसा का मुख्य केंद्र परमात्मा ही होता है।

तुंजे तुंजे य उत्तरे स्तोमा इन्द्रस्य वज्रिण: न विन्धे अस्य सुष्टुतिम्  ।।

(ऋ०.१/७/७)


एक-एक दान पर में पाप वर्जन इंद्र की अधिक अधिक स्तुति करता हूं, उन सब से भी उसकी स्तुति का पाश्र नहीं पाता हूं ।


स्तविष्यामि त्वामहं,विश्वस्यामृत भोजन  ।

अग्ने त्रातारममृतं  मियेध्य,यजिष्ठं हव्यवाहन  ।।

(ऋ०.१/४४/५)


हे अमर! हे सदा मुक्त! हे विश्व के पालक! हे दुखों के प्रक्षेप्ता! हे प्राप्तव्यों को प्राप्त कराने वाले! हे अग्रणी तेजोमय! त्राण कर्ता ! पीयूष तुल्य! सर्वाधिक यज्ञ कर्ता परमात्मान् ! मैं तुझे स्तुति का विषय बनाऊंगा ।


न धेन् अन्यत् आपपन वज्रिन्नपसो नविष्ठौ।

तवेदु स्तोमं चिकेत ।।

(ऋ०.८/२/१७)


हे बज्र वाले! मैं कर्म के आरंभ में अन्य किसी की भी स्तुति नहीं करता। तेरी ही स्तुति करना जानता हूं।

ईश्वर भक्त केवल ईश्वर की उपासना करता है और वह भी दोनों समय,

 उपत्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम्  ।

नमो भरन्त एमसि  ।।

(ऋ०.१/१/७)

हे अग्ने!हम प्रतिदिन रात और दिन के समय बुद्धि व कर्म से नमस्कार की भेंट लाते हुए तेरे समीप आ रहे हैं ।

सच्चा ईश्वर भक्त परमात्मा को किसी मूल्य पर भी बेचना नहीं चाहता। वह वेद  के शब्दों में कहता है - 


महे चन त्वामद्रिव: परा शुल्काय देयाम् ।

न सहस्राय नायुताय वजिव्रो न शताय शतामद्य  ।।

(ऋ०.८/१/५)

हे संसार को बस में करने वाले! मैं तुझे बड़े से बड़े मूल्य से भी नहीं बेचूं । हे अनंत ऐश्वर्य वाले ! हे बज्रवाले ! ना सहस्र के बदले में, न लाख करोड़ के बदले में और ना अनगिनत राशि के बदले में मैं तुझे छोड़ अथवा दे सकता हूं।


सच्चा ईश्वर भक्त ईश्वर को हृदय से चाहता है -

अग्निं मन्दं पुरुर्प्रियं शीरं पावकशेचिशम्  ।

हृदि भर्मन्देभिरीमहे   ।।

(ऋ०.८/४३/३१)

बहुत प्यारे और पवित्र ज्योति वाले, सोए पड़े हुए ,मस्ती देने वाले, हर्षित करने वाले, आनंद रूप परमात्मा को हम हर्षित होने वाले ही हृदयों से चाह रहे हैं ।

उर्दू के किसी कवि ने ईश्वर को बेचने वालों पर बहुत तीखी व्यंग कसे हैं।

 वह कहता है -

शेख साहिब! मुकाबला कैसा!हम सरों से शराबनसों से ।
एक अस्मतफरोश बेहतर है आप जैसे खुदाफरोशों से ।।
मैंने अस्मत को बेचा है एक फाका टालने के लिए  ।
तुम खुदा को बेच देते हो मतलब निकालने के लिए       ।। 

अर्थात शेख साहिब ! हम जैसे शराब नसों से आप क्या मुकाबला करेंगे ? आप जैसे ईश्वर को बेचने वालों से एक इज्जत बेचने वाली वेश्या ही अच्छी है । एक वेश्या एक खुदा परस्त से कहती है कि मैंने तो एक फाका टालने के लिए ही सम्मान को बेचा है और तुम तो अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए खुदा को बेच देते हो।

* उत स्वया तन्वा संवदे तत् कदा न्वन्तर्वरुणे भुवानि ।
किं मे हव्यमहृणानो जुषेत कदा मृडीकं सुमना अभिरव्यम्  ।।

(ऋ०.७/८६/२)

और मैं उस वरुण के विषय में अपने शरीर के साथ वार्तालाप करने लगता हूं। अब कब मैं वरुण के अंदर हो जाऊंगा ? क्या प्रसन्न होता हुआ वह मेरी भेंट (भक्ति भाव) का सेवन करेगा? कब मैं सुमना होकर उस सुख कारी वरुण को देखूंगा (साक्षात्कार करूंगा)।


सच्चा ईश्वर भक्त ईश्वर भक्ति अपना कर्तव्य मात्र समझकर करता है। वह मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य लेकर ईश्वर भक्ति नहीं करता । उर्दू के एक कवि ने इस कर्तव्य भावना का बहुत सुंदर चित्रण किया है -

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में ।

इबादत तो नहीं वह एक तरह की तिजारत है ।।

जो डर करना रे दोजख से खुदा का नाम लेते हैं ।

इबादत क्या वह खाली बुजदिलाना एक हिकमत है  ।।

मगर जब सुक्रेनेमत में जबीं झुकती है बंदे की  ।

वह सच्ची बंदगी है एक शरीफाना इताअत  है  ।।


जो लोग स्वर्ग की इच्छा लेकर उपासना करते हैं, वह उपासना नहीं, वह तो एक प्रकार का व्यापार है। जो नरक की आग से डरकर ईश्वर का नाम लेते हैं, वह उपासना नहीं है, वह केवल कायरता पूर्ण चाल है। परंतु जब मनुष्य का माथा बहुमूल्य पदार्थ के धन्यवादार्थ झुकता है, तो वह सच्ची उपासना है और सौजन्य पूर्ण आज्ञा पालन है।

 सच्चे ईश्वर भक्त का दूसरा लक्षण है, अपनी आलोचना करना। सच्चा ईश्वर भक्त दूसरों की आलोचना नहीं करता, वह अपनी आलोचना करता है।


मजाल क्या तुझे दुनिया में कोई बद नज़र आए ।
तू अपने ऐबों को दिल में शुमार करके तो देख ।।

यदि तू अपने दोस्तों को दिल में गिन कर देखें तो तेरी क्या हिम्मत है कि तुझे संसार में कोई बुरा व्यक्ति दिखाई दे। इस के संदर्भ में एक कहानी दी जा रही है। यह कहानी की कोई वास्तविक घटना नहीं है।

*जब परमात्मा ने मनुष्य का निर्माण किया तो उसे सपना नींव में श्रेष्ठ बनाया। ब्रह्मा ने पूछा तुम दुनिया में रहकर क्या चाहते हो ? सब मनुष्यों ने कहा, मैं तीन बातें चाहता हूं मैं सदा प्रसन्न रहूं, सब मेरा सम्मान करें, मैं उन्नति करता जाऊं।

यह सुनकर ब्रह्मांड है उसे दो थैले दिए और कहा कि एक थैले में तेरी अपनी कमजोरियां होंगी और दूसरे में लोगों की कमियां। इन दोनों थैलों को अपने कंधे पर डाल ले। परंतु जिस थैले में तेरी अपनी खामियां हो उसे अगली तरफ रखना और दूसरों की कमजोरियों वाला थैला पिछली तरफ रखना। अपने सामने वाला थैला समय-समय पर खोलकर देखते रहना और अपनी कमियों को दूर करते रहना, परंतु दूसरे लोगों के अवगुणों का थैला, जो पीठ पर डाला होगा उसे कभी नहीं खोलना और ना ही दूसरों के ऐब देखना या कहना। यदि तुम इस शिक्षा पर पूर्णतया आचरण करोगे तो तुम्हारी तीनों इच्छाएं पूरी होंगी। तुम सदा प्रसन्न रहोगे, सबसे सम्मान पाओगे और सदा उन्नति करते जाओगे। परंतु मनुष्य ने ब्रह्मा के इस आदेश पर ध्यान ना दे कर इसके सर्वथा विपरीत आचरण किया। जो थैला पीठ पीछे डालना था उसे तो आगे कर लिया,जिससे आगे रखकर देखते रहना था उसे पीठ पर डाल दिया अर्थात वह दूसरों के अवगुणों को ही देखता रहा, अपने अवगुणों और अपनी त्रुटियों पर ध्यान नहीं देता , जिसका परिणाम यह है कि उसका फल भी उसको उल्टा ही मिल रहा है ना तो वह प्रसन्न नहीं रहता है, ना सम्मान पाता है और ना उन्नति करता है।


सच्चे ईश्वर भगत का तीसरा लक्षण यह है कि वह किसी का अधिकार नहीं छीनता, अपितु अपना अधिकार दूसरों को देखकर प्रसन्नता का अनुभव करता है ।  


  मा गृध: कस्यस्विद्धनम्   । (यजु.४०/१)

तू किसी के धन का लालच मत कर ।

जब आत्मा जाग उठती है अथवा जब सच ईश्वर भक्ति जाग उठती है तो व्यक्ति दूसरे के धन अथवा अधिकार को नहीं छीनता। मैं उसका धन अथवा अधिकार उसे सौंप देता है। एक घटना के आधार पर स्पष्ट किया जाता है।


*  जब महाराजा भोज के पिता की मृत्यु का समय निकट आया तो उन्होंने अपने अवयस्क पुत्र भूत का हाथ अपने छोटे भाई मूंज के हाथ में पकड़ाते हुए कहा,"जब तक यह वयस्क ना हो जाए तब तक तुम इस राज्य की देखभाल करना। जब वयस्क हो जाए तो इसे राजा बना देना।" यह कहकर राजा ने आंखें मूंद ली। राजा भोज का चाचा मूंज कुछ दिनों तक भोज का पालन पोषण करते रहे। 1 दिन मूंज की नियत में फर्क आ गया। मैं सोचने लगा कि क्यों ना इसको मार कर वह स्वयं राज्य का उत्तराधिकारी बन जाए। उसने योजना बनाई कि भोज को जंगल में ले जाकर मार दिया जाए। हत्यारे को नियुक्त किया गया। जब हत्यारा उसे इस कार्य के लिए जंगल में ले गया तो उस समय भोज को एक बात सुझी। उसने हत्यारे से कहा"  तुम मुझ के पास जाओ और जाकर उससे यह श्लोक पढ़ा दो । "उसके पश्चात वह जैसा कहेगा वैसे करना"


वह श्लोक इस प्रकार था - 


मांधाता च महीपति: कृतयुगालंकारभूतो गत:,

सेतुर्येन महोदधौ विरचित: क्वाऽसौ दशस्यान्तक: ।

अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते,

नैकेनापि समंगता वसुमती मुंजस्त्वया यास्याति ।।


सतयुग का प्रतापी राजा मांधाता मर गया। समुद्र पर पुल बांधने वाले और रावण को मारने वाले श्री राम चंद्र जी कहां हैं ? और भी युधिष्ठिर जैसे प्रतापी राजा मृत्यु को प्राप्त हो गए। यह पृथ्वी इनमें से तो किसी के साथ गई नहीं, परंतु है मूंज ! आपके साथ अवश्य जाएगी ।

ज्योंही मुंज यह श्लोक पड़ा त्योंही उसे ज्ञान हो गया। उसमें सच्ची ईश्वर भक्ति जागृत हो गई । उसने हत्यारे को आदेश दिया कि भोज को वापस ले आओ।


सच्ची ईश्वर भक्तों का एक लक्षण यह भी है की वह सुख दुख लाभ हानि, विजय पराजय, मान -अपमान, उत्थान-पतन और जन्म मृत्यु में एक समान रहता है।

 इन द्वंदों में समत्व बुद्धि रखता है। सुख के आने पर अधिक प्रश्न नहीं होता, दुख के आने पर दुखी नहीं होता। इस प्रकार लाभ, विजय, मान, उत्थान और जन्म में  सुखी नहीं होता और हानि, पराजय, अपमान, और मृत्यु मैं दुखी नहीं होता। गीता में इस अवस्था को समत्व बुद्धि, समत्व योग और गुणातीत अवस्था कहा गया है। तीनों का लक्ष्य यही है कि व्यक्ति द्वंदों में एक समान रहे । गीता के निम्नलिखित तीनों लोगों का यही तात्पर्य है -


दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: ।

वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते  ।। 

दुखों में स्थिर चित्त वाला, सुखों के समय आसक्ति से रहित, राग- भय- क्रोध को दूर करने वाला मननशील मनुष्य स्थितप्रज्ञा कहलाता है ।

 य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता  ।।

(गीता.२/५७)

जो सब जगह स्नेह से रहित है, उस-उस मंगल और अमंगल को प्राप्त करके न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर रहती है।


समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्ठाश्मकांचन:  ।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति:  ।।

(गीता.१४/२४)


दुख और सुख समान संभला हुआ ढेले, पत्थर और मैं समान भाव वाला और सब प्रवृत्तियों का प्यार करने वाला गुणातीत कहा जाता है ।

 उर्दू के कवियों ने इस संदर्भ में प्रभावशाली पद्य कहे हैं।

उनका यहां वर्णन करना संगत प्रतीत होता है - 


* मुसीबत हो कि राहत हो, नहीं लाजिम गिला करना।

बसर का फर्ज है हर हाल में शुक्रे खुदा करना ।।

चाहे विपत्ति हो चाहे संपत्ति हो, मनुष्य को गिला करना आवश्यक नहीं है। मनुष्य का कर्तव्य है कि प्रत्येक अवस्था में ईश्वर का धन्यवाद करें ।


*  जिए तो रंज में भी आदमी मुस्कुरा कर जिए ।

बगरना जिंदगी बवाल है आदमी के लिए ।।

मनुष्य को चाहिए कि दुख में भी मुस्कुरा कर जिए, नहीं तो मनुष्य का जीवन भी विपत्ति का रूप धारण कर लेता है।


*  ज़रदार को कहते हैं कि है माल में मस्त ।

बेज़र को ये कहते हैं कि है हाल में मस्त  ।।

ऐ मेहर यह मस्ती है फ़कत कहने की  ।

है मस्त वही जो कि है हर हाल में मस्त  ।।

धनवान को कहते हैं कि वह धन में मस्त है, निर्धन को कहते हैं कि वह अपनी खाल में मस्त रहता है। ऐ मेहर (कवि का उपनाम) यह मस्ती तो केवल कहने की ही है। वास्तव में वही मस्त है जो हर हाल में मस्त है।


*  सब्र और शुक्र करो खुश रहो जिस हाल में हो ।

इसको ही हर दर्द की दुनिया में दवा कहते हैं  ।।

संतोष और धन्यवाद करो और जिस हाल में रहो, प्रसन्न रहो। यही संसार में हर पीड़ा का इलाज है।


*  दिल दे तो इस मिजाज का परवरदिगार दे ।

जो रंज की घड़ी भी खुशी से गुजार दे  ।।

हे परमात्मान् ! तू मुझे इस ढंग का स्वभाव दे जो शोक की घड़ी को भी प्रसन्नता पूर्वक बिता दे ।



सच्चा ईश्वर भक्त केवल ईश्वर की इच्छा रखता है। वह केवल ईश्वर की इच्छा को ही सर्वोपरि रखता है।


*  न यह चाहता हूं , ना वो चाहता हूं ।

फ़कत अपने रब की रजा चाहता हूं  ।।

* किसी ने सड़क के किनारे एक कुआं खुदवा दिया। सड़क पर आने जाने वाले मुसाफिरों को जब भी प्यास लगती, बी कुएं से पानी निकालते और अपनी प्यास बुझाते। कुआं खुदवाने वाले की तारीफ करते हुए सब लोग एक स्वर में कहते,"उसने बड़ा काम किया। सचमुच कितनी अच्छी जगह कुआं खुदवाया। उसने प्यासे और थके यात्रियों की राहत की चिंता की और यह सोचा कि पानी पीने के लिए उन्हें दूर नहीं जाना पड़े"  ।

कुछ समय बाद एक मुसाफिर अंधेरी रात में असावधानी से कुएं में गिर कर मर गया। सब लोग कुआं खुदवाने वाले की आलोचना करने लगे। अब लोग हुजूम बन कर यह कहते थे कि" कितनी गलत जगह कुआं खुदवा या है। यह भी नहीं सोचा कि रात के अंधेरे में कोई यात्री उसे कैसे देख पाएगा ? इसे सड़क से जरा दूर हटकर नहीं बनवा सकता था ? चीन की यह लोककथा हमें बताती है कि लोगों की प्रशंसा और आलोचना का सुर बदलते देर नहीं लगती ।

सच्चे ईश्वर भगत का एक यह लक्षण भी है कि वह चराचर जगत में ईश्वर के दर्शन करता है।


यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्ममन्येवानुपश्यति ।

सर्व भूतेषु चात्मानं ततो न विचित्सति  ।।

(यजु.४०/६)

जो भी विद्वान समस्त भौतिक पदार्थों को परमात्मा में आश्रित देखता है और सब भौतिक पदार्थों में परमात्मा को देखता है, फिर वह  संशययुक्त नहीं रहता है ।


विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गविहस्तिनि  ।

शुनि चैव श्वपाके च पंडित: समदर्शिन:  ।।

(गीता.५/१८)

ज्ञानी लोग विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में तथा गो, हाथी, कुत्ते और चांडाल में भी समभाव से देखने वाले होते हैं। ज्ञानी लोग महाद्वीप, देश, प्रांत, संप्रदाय, अवांतर संप्रदाय, व्यवसाय, रंगभेद, भूमि संपत्ति धन, पदवी, आयु और शारीरिक बल के भेद भाव से ऊपर उठ जाते हैं ।


समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति  ।।

(गीता.१३/२७)

जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में नाश रहित परमेश्वर को समभाव से देखता है, वही देखता है।

 यह था ईश्वर भक्त का कुछ लक्षण, जो कि शास्त्रों के प्रमाण सहित आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया है, आशा करते हैं आप सबको पसंद आए।

धन्यवाद!

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