लौहपुरुष स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज
स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के जन्मतिथि का निश्चित ज्ञान नहीं है किन्तु यह निश्चित है कि आपके पूर्वज उदयपुर के पास गाँव मोहि के निवासी थे तथा वहाँ से आकर पंजाब के वर्तमान् लुधियाना जिला में गाँव मोही बसाया और यहीरहने लगे। यह गाँव बसाने वाले फटूजी की सातवीं पीढ़ी में केहरसिंह नाम से आपका जन्म हुआ। बचपन में ही विवाह हो गया किन्तु आप ने ब्रह्मचारी रहते हुये, अपनी पत्नी की मृत्यु के पश्चात् जब आप पिता आपको सेना में भेजना चाहते थे, आप घर से भाग गये तथा देश ही नहीं विदेश भी गये व धर्म का प्रचार करते रहे। तीन वर्ष पश्चात् जब विदेश से लौटे तो फिरोजपुर के गाँव परवरनड में पूर्णानन्द जी से संन्यास की दीक्षा ली तथा प्राणपुरी नाम से जाने गये न्तुि आप के स्वतन्त्र स्वभाव के कारण आपको स्वतन्त्र स्वामी और फिर स्वामी स्वतन्त्रानन्द के नाम से जाना जाने लगा। आपके ननिहाल लाताला के उदासी डेरे के महंत बिशनदास जी ने आप को व्यर्थ घूमना बंद कर देश और धर्म के लिये आपको आर्यसमाज के माध्यम से कार्य करने की सलाह दी, जिसे आपने शिरोधार्य किया तथा वेद प्रचार के कार्य में जुट गये।
स्वामी जी वैद्यक के असाधारण पंडित थे तथा असाध्य रोगों का भी इलाज कर सकते थे। अनाथों से आप को विशेष लगाव था। इस कारण ही रामा मंडी की अनाथ कन्या को आपने फिरोजपुर अनाथालय भेज दिया। जिला सिरसा व भठिंडा के क्षेत्रों में रहते हुये आप नित्य स्वाध्याय कर बालकों को पढ़ाते व क्षेत्र भर में धर्म का उपदेश देते थे। इस प्रकार नित्य प्रात: चार बजे उठकर रात्रि दस बजे तक कार्य करते थे। आपने आर्य प्रतिनिधि सभा लाहौर के माध्यम से खूब काम किया तथा विदेशों में भी वेद प्रचार करते रहे। माॅरीशस ,बर्मा, पूर्वी अफ्रीका आदि अनेक देशों में वैदिक धर्म का प्रचार किया। उत्तम संगठनकर्ता होने के कारण स्वामी जी सबका, यहाँ तक कि सभाओं के भी मतभेद दूर करवा दिया करते थे।
विदेशों में भी स्वामी जी धन संग्रह तथा किसी लालच से दूर रहते हुये कहते थे कि विदेश प्रचार में सन्यासी या वानप्रस्थी ही जावें तो वह लम्बे समय तक वहाँ रहकर प्रचार कर सकेंगे। स्वामी जी किसी प्रकार के अंधविश्वास व पाखंडों के विरोधी थे। आप आर्य प्रतिनिधि सभा लाहौर के प्रचार प्रचार अधिष्ठाता रहे। आपकी देखरेख में खूब वेद प्रचार हुआ। इस समय आप के पास उपदेशक विद्यालय का दायित्व भी था।
आप ने साधुओं को निवास, आराम व रोग के समय विश्राम के लिये दीनानगर में दयानन्द मठ की स्थापना की। यहाँ स्वामी जी अपने हाथों से रोगियों का शौच तक उठाते थे। इस प्रकार का सेवाभाव यहाँ रहा, किन्तु एक समय का भोजन भिक्षा द्वारा लेने का नियम बनाया जो इस मठ में आज भी चल रहा है। यहाँ पर रोगियों की चिकित्सा के लिये चिकित्सालय के साथ एक फार्मेसी भी स्थापित की। यहाँ चौबीस घंटे रोगियों को दवा देने की परम्परा आज भी चल रही है।
वेद प्रचार की धुन के धनी स्वामी जी ने इस मठ में एक पुस्तकालय भी आरम्भ किया। इस विशाल पुस्तकालय का अनेक शोधार्थी लाभ उठाते रहते हैं। इस पुस्तकालय में 26000 से अधिक मूल्यवान् पुस्तकों का भारी संग्रह है।
14 जनवरी के जम्मू में वीर रामचन्द्र जी पर आक्रमण हुआ तथा 20 जनवरी 1923 को उनके बलिदान होने से स्वामी जी ने आर्यों में नयी जान फूंक दी। इस वर्ष ही भरतपुर में आर्यकुमार सम्मेलन की अनुमति न दी गई तो आपके नेतृत्व में सत्याग्रह की तैयारी हुई किन्तु विरोध से बचने के लिये सम्मेलन की स्वीकृति दे दी गई।
हैदराबाद सत्याग्रह की सफलता का श्रेय आपको ही जाता है। इस सत्याग्रह का आपको मार्शल बनाया गया। आपने जिस संगठन बुद्धि से इस सत्याग्रह को सफलता तक पहुँचाया। इस सम्बन्ध में तो यहाँ कह दिया गया कि यदि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के हाथ में कमान न होती तो सफलता नहीं मिल सकती थी। इस सफलता पर विरोधियों ने भी बधाई दी। हैदराबाद सत्याग्रह की विजय के कारण आपकोआपलौहपुरुष कहा जाने लगा। लौहारू (हरियाणा) के नवाब आर्यों पर अत्याचार आरम्भ किये तो यहाँ भी स्वामी जी अड़ गये। मार्च 1941 को स्वामी जी पर कुल्हाड़ों से हमला किया गया। सिर पर कुल्हाड़ें का गहरा घाव हो गया किन्तु स्वामी जी न डगमगाये। अंत में नवाब को झुकना पड़ा और स्वामी जी से क्षमा माँगने को बाध्य होना पड़ा। स्वामी जी कहते थे हमारे पास रक्त की कुछ बूंदें मात्र हैं। जिन्हें बीजा कर अहम् निकलते अंकूर को देखते हैं। स्वामी जी छोटों को सम्मान भी देते थे तथा उनकी आवश्यकतओं का भी ध्यान रखते थे।
समालखा में गायों को वधशाला नहीं बनाने दी। 1943 में सिंध में सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबन्ध की योजना बनी तो सत्याग्रह का निर्णय लिया गया। इस पर सरकार ने कहा कि इस पर प्रतिबन्ध का हमारा कोई विचार नहीं है। विरोधी सदा ही स्वामी जी का अंत करना चाहते किन्तु स्वामी जी स्वतन्त्र घूमते रहते, सदा निडर रहते।
देश की आजादी के लिये स्वामी जी 1918 से ही स्वाधीनता के लिये कार्य करने लगे थे। जब स्वामी जी को हिरासत में लिया गया तो अंग्रेज सरकार की हथकड़ी आपके बाजू में न आ सकी। स्वामी जी ने हरियाणा के गाँव-गाँव में भ्रमण कर सैनिकों के परिवारों को सन्देश दिया कि वह अपनी सैनिक सन्तानों को कहें कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की सेना पर गोली न चलावें। इस समय एक गुप्तचर था ,जिसने इसकी सूचना सरकार को दी किन्तु आजादी के बाद यही गुप्तचर सांसद बन गया। स्वामी जी के इन कार्यों के कारण उन्हें लाहौर के खतरनाक दुर्ग में कैद कर दिया गया और छूटने पर भी दीनानगर में बाहर जाने की आज्ञा न थी, यहाँ तक कि उन्हें व्याख्यान देने से भी रोक दिया गया।
स्वामी जी देश की एकता के सच्चे सिपाही थे तथा आर्यसमाज के माध्यम से निरंतर जात-पात, छूआछूत आदि के विरुद्ध लड़ते रहे। आपने सिद्धान्त की रक्षा के लिये अनेक पुस्तकें भी लिखीं। इतिहास का आपको गहरा ज्ञान था तथा आने वाली घटनाओं को समय से पहले ही भांप लेते थे। इस कारण ही आपने आजादी बहुत पहले ही हिन्दुओं को सावधान करना आरम्भ कर दिया था। आपने परोपकारिणी सभा को ऊपर उठाया तथा हिन्दू शुद्धि सभा के भी प्रधान रहे। स्वामी श्रद्धानन्द स्मारक समिति के साथ भी जुड़े रहे। आर्यवीर दल भी आपके नेतृत्व में खूब फला। आप लाहौर अनाथालय के प्रधान रहे।आपने अनाथ बच्चों की खूब सेवा की।
सन् 1953 में गोरक्षा की योजना बनी। इस निमित्त एक बहुत बड़ा संघर्ष आरम्भ करने की योजना का भार आप ही को दे दिया गया। इसके लिये आपने देश भर में भ्रमण कर आन्दोलन की भूमिका तैयार की। इसके लिये आपने लोगों व सरकार से पत्र व्यवहार भी किया। प्रान्तीय सरकारों ने अपने प्रान्त में गोवध पर प्रतिबन्ध कर दिया। इस भागादौड़ी में आप ही बीमार हो गये। डॉक्टरों ने बताया कि कैंसर है, जिसका उन दिनों कोई इलाज न था। रोग जानलेवा सिद्ध हुआ। इसके कारण ही स्वामी जी ने 3 अप्रैल 1955 को यह शरीर त्याग दिया।
आचार्य निवास शास्त्री