गंगा के किनारे एक साधु अपनी कुटिया बनाकर रहते थे। एक दिन उन्होंने अपने कपड़े धोए। धूप अच्छी थी, वही गंगा के किनारे रेत पर सुखाने के लिए डाल दिए। तब स्वयं नहाए। नहा धोकर अपनी कुटिया में जाकर बैठ गए। तभी एक चांडाल आया वहां। उसे भी गर्मी लग रही थी। उसने सोचा गंगा जी के शीतल जल में स्नान कर लूं । बस, कपड़े धोने लगा।
कपड़े धोने की आवाज कुटिया में पहुंची तो साधु ने सोचा कि कपड़े कौन धो रहा है? बाहर आकर देखा तो एक चांडाल कपड़े धो रहा है।यहां भी देखा कि उसके कपड़ों से उड़ने वाले क्षेत्र साधु के सुख ते हुए कपड़ों पर गिर रहे हैं। बस, फिर क्या था! चडगया क्रोध। दौड़ते हुए बहुत साधु चंदाल के पास पहुंचा और गालियां देता हुआ बोला - तू अंधा है? चांडाल होकर यहां कपड़े धोता है? तेरे अपवित्र अच्छी टोने मेरे कपड़ों के अपवित्र छेड़ो ना मेरी कपड़ों को अपवित्र कर रहा है। आगे बढ़कर 3-4 थप्पड़ उन्होंने चांडाल के मुंह पर लगा दिए। चांडाल हाथ जोड़कर खड़ा रहा। साधु महाराज चिल्लाकर बोले - फिर मत आना इस स्थान पर !"
साधु महाराज थे बूढ़े और दुर्बल। चांडाल बलवान था। साधु बाबा थक गए। साधु महाराज की सांस फूलने लगी। गर्मी जो लगी तो गंगा में पहुंचकर नहाने लगे।
चांडाल को भी मार खाकर पसीना आ गया था। वह भी गंगा में कूद पड़ा। साधु बाबा ने चिल्लाकर कहा - अभी तो पसीना से तर हो रहा है । एकदम गंगा में कूद पड़ा। सर्द गर्म हो गया तो मरेगा। और फिर तू तू नहा चुका था, अब क्यों नहाता है ?"
चांडाल बोला - महाराज ! आप भी तो नहा चुके थे आप क्यों नहा रहे हैं ?
साधु ने कहा - मुझे चांडाल ने छू लिया था, इसलिए नहा रहा हूं ।"
चांडाल बोला - और मुझे महा चांडाल ने, आपके क्रोध ने छू लिया था, इसलिए नहा रहा हूं ।
बस तू तो है यह क्रोध महा चांडाल है । सब कुछ बिगाड़ देता है। जहां उत्पन्न हो जाए, वहां सर्वनाश कर देता है। कुछ भी शेष नहीं रहने देता।
प्रसन्न हृदय वाला निर्मल हृदय वाला वह व्यक्ति है जिसमें क्रोध नहीं है। मन को प्रसन्न और निर्मल बनाने का पहला साधन क्या है कि क्रोध को अपने निकट मत आने दो। शांत और गंभीर बन कर रहो।
Apratim
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