विद्यां च अविद्यां च यस्तेद्वेदोभयँ सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्य या अमृतमश्नुते ।।(यजु० ४०।१४)
जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है वह अविद्या अर्थात कर्म उपासना से मृत्यु को तर के विद्या अर्थात यथार्थ जान से मोक्ष को प्राप्त होता है।
विद्या का लक्षण:-
अनित्याशचिदुखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ।। (योग २।५)
यह योग सूत्र का वचन है। जो अनित्य संसार और देहादि में नित्य अर्थात जो कार्य जगत देखा सुना जाता है, सदा रहेगा, सदा से है और योग बल से यही देवों का शरीर सदा रहता है वैसी विपरीत बुद्धि होना और विद्या का प्रथम भाग है। अनुचित अर्थात मलमल स्त्र्यादि के और मिथ्या भाषण चोरी आदि अपवित्र में पवित्र बुद्धि दूसरा, अत्यंत विषय सेवन रूप दुख में सुख बुद्धि आदि तीसरा, उन आत्मा में आत्मा बुद्धि करना और विद्या का चौथा भाग है। यह चार प्रकार का विपरीत जानो विद्या कहाती है। इससे विपरीत अर्थात अनित्य में अनित्य और नित्य में, अपवित्र में अपवित्र और पवित्र में पवित्र, दुखों में दुख और सुख में सुख, ऑन आत्मा में उन आत्मा आत्मा में आत्मा का ज्ञान होना विद्या है। अर्थात
" वेत्ति यथावत्वपदार्थस्वरूपं ययासा विद्या; तत्वस्वरुपं न जाति भ्रमादन्यस्मिन्नन्यन्निश्चिनोति रक्षा सा अविद्या"
जिससे पदार्थों का यथार्थ स्वरूप बौद्ध हुए वह विद्या और जिससे तत्व स्वरूप ना जान पड़े, अन्य में अन्य बुद्धि हो गई वह अविद्या कहलाती है।अर्थात कर्म और उपासना अविद्या इसलिए है कि यह वाक्य और अंतर क्रिया विशेष है जान विशेष नहीं।इसी से मंत्र में कहा है कि बिना शुद्ध कर्म और परमेश्वर की उपासना के मृत्यु दुख से पार कोई नहीं होता । अर्थात पवित्र कर्म, पवित्र उपासना और पवित्र जान ही से मुक्ति और अपवित्र मिथ्या भाषण आदि से, पाषाण मूर्ति आदि की उपासना और मिथ्या जान से बंध होता है।
कोई भी मनुष्य क्षण मात्र भी कर्म, उपासना और ज्ञान से रहित नहीं होता।इसलिए धर्म आयुक्त सत्य भाषण आदि कर्म करना और मिथ्या भाषण आदि अधर्म को छोड़ देना ही मुक्ति का साधन है।
बहुत सुंदर विचार आदरणीय शास्त्री जी
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