ऋषि देव दयानंद के जीवन की वैसे तो हजारों मुख्य मुख्य घटनाएं हैं परंतु यहां पर कुछ विशेष प्रमुख घटनाओं का ही वर्णन करते हैं जो इसी भांति है :-
जन्म स्थान:-
महर्षि दयानंद का जन्म मोरबी राज्य गुजरात में टंकारा गांव में फाल्गुन बदी दसवीं विक्रमी संवत 1881 तदनुसार 12 फरवरी सन 1824 ईस्वी में पिता कृष्ण जी तिवारी माता यशोदा देवी कई लोगों का कहना है कि माता का नाम अमृताबेन था। जो भी हो हो सकता है एक ही माताजी के 2 नाम हो इनके घर जन्म हुआ। स्वामी जी के बचपन का नाम मुलशंकर था। उनके पिता का शरणजीत दिवारी औदीच्य ब्राह्मण थे। उनको बचपन में दयाल जी के नाम से भी पुकारा जाता था। उनके पिताजी शिव के अनन्य भक्त थे।
शिवरात्रि का बोध:-
फाल्गुन बदी चतुर्दशी संवत 1884 तदनुसार 22 फरवरी सन 1838 को शिवरात्रि का दिन आ गया। बस्ती के सभी सब अपने बच्चों के साथ शिव आराधना के लिए मंदिर की ओर प्रस्थान करने लगे। मूल शंकर भी पिताजी के साथ मंदिर में चला गया।पिताजी ने उसे पहले ही समझा दिया था कि जो वक्त पूरी रात जागरण करके शिवजी की आराधना करता है उसे ही शुभ फल की प्राप्ति होती है। मूल शंकर ने निश्चय कर लिया था कि वह सारी रात जागकर शिव की विधिवत आराधना करेगा,परंतु उस समय उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब रात्रि का तीसरा पहर आरंभ होते ही लगभग सभी आराधक मंदिर के बाहर जाकर निद्रा की गोद में समाते चले गए। उनके पिताजी वही लुढ़क गए और खर्राटे भरने लगे।पर्धन का धनी मुलशंकर शीतल जल की सहायता से जागते रहे और विधिवत शिव आराधना में लगे रहे। सभी भक्तों गहरी निद्रा में सो गए थे,अवसर पाते ही चूहे अपने अपने बिलों से निकलकर शिव पिंड पर चढ़े और प्रसाद का भोग करने लगे। यहां सब देखकर पत्थर पूजा से मूल शंकर का मोहभंग हो गया।
उसे निश्चय हो गया कि यह वह शंकर नहीं है, जिस की कथा उसे सुनाई गई है, कि वह तो चेतन है,डमरू बजाता है, बेल पर चढ़कर यात्रा करता है, शत्रुओं के संहार के लिए त्रिशूल रखता है, परंतु यह सब तो चूहों से अपनी भी रक्षा नहीं कर सकता तो हमारी रक्षा क्या करेगा ,ऐसा विचार आते ही उसने अपने पिता जी को जगा दिया और एक ही सीधा सा प्रश्न किया पिताजी यह कथा वाला शिव है या कोई दूसरा?
पिता कृष्ण जी तिवारी ने अपने पुत्र मूल शंकर को शिव के संबंध में बहुत समझाया परंतु पुत्र का मन पिताजी की बातों से संतुष्ट नहीं हुआ और मूल शंकर को इस घटना से पत्थर पूजा यानी जड़ पूजा से विश्वास उठ गया और वह मंदिर से उठकर घर चला गया और पिताजी की बिना आज्ञा लिए माताजी से भोजन लेकर भोजन कर लिया और सो गया।
मूल शंकर यानी कि ऋषि दयानंद जी को वैराग्य:-
शिवरात्रि के दृश्य से मूल शंकर के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और सच्चे शिव की खोज में ध्यान रहने लगा। इस बीच जब मूल शंकर 16 वर्ष के हुए तो उसकी छोटी बहन की हैजा की बीमारी से मृत्यु हो गई,तब मुलशंकर बिल्कुल नहीं रोया और एक तरफ खड़ा होकर विचार करने लगा कि यह मृत्यु क्या है, क्या मुझे भी 1 दिन इस मृत्यु के मुख में जाना पड़ेगा। 3 साल बाद जब मूल शंकर की आयु 19 वर्ष की हो गई थी, तब उसका चाचा जो उसको अति प्यार करता था उसकी मृत्यु हो गई, तब मुलशंकर बहुत अधिक रोया और उसकी वैराग्य की भावना और अधिक बढ़ गई। उसने अपनी भावना को मित्रों को बदला दी और यह बात उनके माता-पिता के पास पहुंच गई। उन्होंने मूल शंकर का विवाह करने का विचार बना लिया। मूल शंकर विवाह किसी हालत में भी करना नहीं चाहते थे। इसलिए उसने गृह त्याग का मन बना लिया। उसने सन 1846 ईसवी मैं अपनी 21 वर्ष की आयु में गृह त्याग करके जंगल की ओर चल पड़े।कुछ दूर चलने पर उसको साधु देश में कुछ थक मिले जिन्होंने मूल शंकर के गहने अंगूठी तथा कीमती वस्त्र उतरवा लिए। चलते-चलते मुलशंकर सायला (अहमदाबाद)और राजकोट के बीच में पहुंचे वहां उसको एक ब्रह्मचारी मिला जिसने उसको सन 1846 ईसवी मैं ब्रम्हचर्य की दीक्षा दी और उसका नाम शुद्ध चैतन्य रख दिया।
ब्रह्मचारी शुद्ध चैतन्य कुछ दिन सायला ठहर कर फिर से आगे बढ़े तो भी अहमदाबाद के समीप कोर्ट कांगड़ा पहुंचे, वहां बैरागीयों का डेरा लगा हुआ था। वहां शुद्ध चैतन्य को सिद्ध पुर(गुजरात)मेला की जानकारी मिली जहां साधु-संत, योगी, महात्मा एकत्रित होते हैं। वहां के लिए प्रस्थान किया। रास्ते में उनको अपने कुल का परिचित एक बैरागी साधु मिला। उसके पूछने पर शुद्ध चैतन्य ने भावा वेश में अब तक की संपूर्ण घटना उसे कह सुनाई और सिद्ध पूर्व मेले में जाने का अपना विचार भी बता दिया।उस परिचित वैरागी ने अपने घर पर पहुंच कर कृष्ण जी तिवारी को शुद्ध चैतन्य का पूरा विवरण साथ ही सिद्ध पुर मेले में जाने का पूरा विवरण समाचार पत्र द्वारा भेज दिया। इधर शुद्ध चैतन्य ने सिद्धपुर मेले में नीलकंठ महादेव की मंदिर में अपना आसन जमाया।उधर पिताजी पत्र मिलते ही कुछ सिपाहियों को साथ लेकर सिद्धपुर मेले में पहुंच गए और नीलकंठ महादेव के मंदिर में पहुंचकर अपने बेटे को बैरागी बेस में देख कर आप से बाहर हो गए और बोले कुल कलंकी क्या तू अपनी माता की हत्या करना चाहता है।पिता को देखकर शुद्ध चैतन्य खड़ा हुआ और उनके पैर छूते हुए बोले किसी के बहकावे में आकर मैंने घर त्याग दिया था अब मैं आपके साथ चलूंगा। परंतु इससे पिताजी का क्रोध शांत ना हुआ। उन्होंने उसके गेरुआ वस्त्र फाड़ दिए और तुंबा तोड़ दिया। उसे श्वेत वस्त्र पहनाए और सिपाहियों के पहरे पर बिठा दिया। 2 दिन तो ऐसे ही निकल गए। तीसरी रात का तीसरा प्रहर आरंभ हुआ तो प्रहरी उड़ने लगे। धीरे-धीरे प्रोग्राम निद्रा में पहुंच गए,तब शुद्ध चैतन्य शूज जाने का बहाना करके पानी से भरा लोटा हाथ में लिया और दबे पांव वहां से खिसक गए। कुछ दूर चलने के बाद उसे एक बगीचे में मंदिर दिखाई दिया।मंदिर के साथ ही एक विशाल वटवृक्ष था। मंदिर की छत पर वटवृक्ष की ओट में वह बैठ गया।कुछ देर बाद कुछ सिपाही मंदिर में आए और शुद्ध चैतन्य को बिना देखे ही वहां से चले गए। प्रातः शुद्ध चैतन्य पेड़ के सहारे नीचे आए और 2 कोस दूर 1 ग्राम में रात व्यतीत की। इस प्रकार पिताजी से अंतिम भेंट सिद्ध पुर में करके फिर सदा के लिए विदा हो गए।
सन्यास दीक्षा:-
मंदिर से चलकर शुद्ध चैतन्य अहमदाबाद होते हुए बड़ौदा में आकर चैतन्य मठ में ठहरे। वहां उनकी ब्रह्मानंद ब्रह्मचारी जो वेदांत के अच्छे विद्वान थे, उनसे भेंट हुई। उनसे वेदांत पर खुलकर चर्चा हुई और उनसे कुछ वेदांत की जानकारी भी हुई। शुद्ध चैतन्य को भोजन बनाने में काफी समय लग जाता था। जिससे विद्या अध्ययन में बाधा पड़ती थी। यदि संन्यास की दीक्षा ले ली जाए तो इस झंझट से बचा जा सकता है। इसलिए उसने एक ब्रह्मचारी वैदिक विद्वान स्वामी पूर्णानंद जो चाणोद (गुजरात) के पास एक जंगल में आए हुए थे।कौन से संन्यास की दीक्षा लेने का विचार किया और जल्दी ही उनके पास पहुंचकर संन्यास की दीक्षा देने की प्रार्थना की। पहले तो उन्होंने संन्यास की दीक्षा देने से इनकार कर दिया। फिर कुछ समय बाद काफी अनु नए विनायक करने से दीक्षा देने की अनुमति दे दी। और शुद्ध चैतन्य को स्वामी पूर्णानंद ने सन्यास दीक्षा देकर "दयानंद सरस्वती" नाम रख दिया। अब दयानंद सरस्वती भोजन आदि बनाने की झंझट से मुक्त हो विद्या अध्ययन में लग गए।स्वामी पूर्णानंद पूज्य स्वामी ओमानंद के शिष्य थे और स्वामी विरजानंद स्वामी पूर्णानंद के शिष्य थे। स्वामी पूर्णानंद जो स्वामी दयानंद जी के गुरु थे,स्वामी पूर्णानंद ने ही स्वामी दयानंद को अपने शिष्य स्वामी विरजानंद के पास मथुरा जाने की प्रेरणा दी थी। उसके पश्चात स्वामी दयानंद जी मथुरा में गुरु विरजानंद जी के पास आकर गुरु विरजानंद जी के कुटिया के दरवाजा को खटखटाया, अंदर से आवाज आई कौन ? और बाहर से ऋषि दयानंद जी ने उत्तर दिया की "यही तो जानने के लिए आया हूं" तब गुरु विरजानंद जी को जात हुआ बहुत सालों के पश्चात कोई सच्चा जिज्ञासु आया है और इसी समय है ऋषि दयानंद और गुरु विरजानंद जी का दोनों गुरु शिष्यों का मेल हुआ, और वेद आदि के संपूर्ण जान को गुरु विरजानंद जी से ऋषि दयानंद जी ने प्राप्त किया।
लेखक :- शास्त्री किशोर कुमार
अति सून्दर शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
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