हमें सदैव मीठा वचन बोलना चाहिए क्योंकि महाराज भर्तृ हरी द्वारा रचित नीतिशतकम् में लिखा है कि -
केयूरराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चंद्रोज्ज्वला: ,
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजा: ।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते ,
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।।
मनुष्य का एक स्वभाव है, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री वह दूसरों को सुंदर दिखाई देना चाहता है, इसके लिए बाबा अनेकों उपचार करता है, किंतु महाराज भतृहरी जी उन सभी उपचारों की निरर्थकता प्रतिपादित करते हुए, एकमात्र संस्कार युक्त विनम्र वाणी धारण करने का सुझाव देते हुए कहते हैं की -
मनुष्य की सुंदरता बाजूबंद आदि धारण करने से नहीं बढ़ती, नाही चंद्रमा के समान चमचमाते हुए सुंदर अलंकार से उनकी शोभा बढ़ती है, इसके अतिरिक्त बहुत अच्छी प्रकार से रगड़ रगड़ कर समान करने से भी वह सुंदर प्रतीत नहीं होता है। चंदन, हल्दी आदि के उबटन का प्रयोग भी उसकी सुंदरता में वृद्धि करने वाला नहीं होता। शरीर पर पुष्प धारण करने से, अपने सिर के बालों को अत्यधिक सजाने से भी वह सुंदर नहीं लगता। यद्यपि इन सब से सजने सवरने का व्यक्ति प्राय प्रयास करता है, किंतु यह सभी साधन उसे सुंदर बनाने में अस्थाई रूप से ही सहायक होते हैं।
किंतु संस्कार युक्त वाणी को धारण करने वाला व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ एवं हमेशा रहने वाला आभूषण बताया गया है। जिसको धारण करने से मनुष्य सभी जगहों में सम्मान को प्राप्त करता है, एवं सदैव सुखी रहता है।
वेद भी यही कहता है की -
इयं या पारमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्मसंशिता ।
ययैव ससृजे घोरं तयैव शान्तिरस्तु न:।।
(अथर्व.१९/९/३)
(इयम्) यह (या) जो (परमेष्ठिनी) सर्वोत्कृष्ट परमात्मा में ठहरने वाली (देवी) उत्तम गुणवाली(वाक्) वाणी (ब्रह्मसंशिता) वेद ज्ञान से दिखने की गई है और (यया) जिसके द्वारा (घोरम्) घोर पाप (ससृजे) उत्पन्न हुआ है (तया) उस वाणी के द्वारा (एव) ही(न:) हमारे लिए (शांति:) धैर्य और आनंद (अस्तु) होवे ।
वेद मंत्र का आशय यह है कि जिस वाणी के द्वारा वेदों के ज्ञान से परमात्मा को पहुंचते हैं, यदि उस वाणी द्वारा कोई अनर्थ हो तो विद्वान पुरुष उस भूल को उचित व्यवहार से सुधार कर शांति स्थापित करें।
बानी का पहला गुण है मितभाषण अर्थात थोड़ा बोलना। थोड़ा बोलने वाला व्यक्ति प्रायः सोच समझकर बोलता है। वह प्रायर अनाप-शनाप नहीं बोलता। अधिक ना बोलने के कारण उसके मस्तिष्क की शक्तियां बिखरती नहीं है। उसके चिंतन शीलता का विकास होता है। वह बहुत सोच समझकर बोलने के कारण सम्मान को प्राप्त करता है।
प्रख्यात अमेरिकी वैज्ञानिक टाँमस अल्वा एडिसन ऊंचा सुनते थे। एक दिन उनके किसी मित्र ने उन्हें सलाह दी आप ऐसे यंत्र का आविष्कार क्यों नहीं कर लेते जिससे बहरे भी सुन सके ?
एडिसन ने बड़ी सादगी से उत्तर दिया, भाई मेरे! मुझे दूसरों की आपस की बातें सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं है। उसमें समय नष्ट होता है। यदि मैं ऐसे यंत्र का आविष्कार कर लेता, तो मेरी पत्नी ही मुझसे बातें करके मेरा बहुत समय नष्ट करती । मैं मितभाषी हूं और इस वृद्धावस्था में प्रतिदिन 18 घंटे काम करता हूं।
वाणी का एक दुर्गुण है-दूसरों की पीठ पीछे निंदा। वेद कहता है-
मा निन्दत । (ऋ०.४/५/२)
निंदा मत करो ।
हिंदी के किसी कवि ने कहा है -
औरों के हम दोष ना देखें, अपने दोष विचारें ।
निंदा करे ना कभी किसी की, यही एक गुण धारें ।।
जो अपनी आलोचना का अभ्यास कर लेते हैं वे दूसरों की पीठ पीछे आलोचना नहीं करते। वे समझते हैं कि जब हम में दोस्त हैं तो दूसरों के दोष देखने का क्या लाभ ?
दूसरों की आलोचना का क्या दुष्परिणाम हो सकता है, इसका पता निम्नलिखित घटना से चल सकता है।
अब्राहम लिंकन ने जेम्स शील्ड्ज नाम के अभिमानी आयरिश राजनीतिज्ञ की हंसी उड़ाई।"स्प्रिंगफील्ड"नामक पत्र में एक गुमनाम चिट्ठी छपा कर लिंकन ने उस पर व्यंग किया। शीलड्ज़ क्रोध से तमतमा उठा। उसने पता लगा लिया कि यह चिट्ठी किसने लिखी है। वह घोड़े पर सवार होकर लिंकन के पीछे दौड़ा और उन्हें द्वंद युद्ध के लिए ललकारा। लिंकन लड़ना नहीं चाहते थे, परंतु वे बच नहीं सके। एक माह तक तलवार चलाने का प्रशिक्षण लिया। नियत दिन पर लिंकन और शीलड्ज़ मिसीपीसी नदी के किनारे मरने मारने को तैयार हो गए। द्वंद युद्ध हुआ और अंतिम क्षण में लिंकन के साथियों ने किसी तरह उन्हें रोका।इस घटना का लिंकन के जीवन पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने हमेशा के लिए आलोचना करना छोड़ दिया।
आर्य समाज में महात्मा हंसराज, स्वामी आत्मानंद जी महाराज और स्वामी. मुनि मुनेश्वर आनंद जी (प्रि. ज्ञान चंद्र जी) किसी के पीठ पीछे निंदा नहीं करते थे। महापुरुष बनने के लिए आवश्यक है कि दूसरों की पीठ पीछे निंदा ना करें।
इस प्रवृत्ति का एक ही उपचार है कि किसी की पीठ पीछे किसी के अवगुणों की चर्चा ना करके गुणों की चर्चा की जाए और उसके सामने, एकांत में, प्रेम पूर्वक उसके अवगुणों की चर्चा की जाए। इससे परस्पर प्रेम बढ़ेगा और व्यक्ति का सुधार भी होगा।
* बानी का एक दोस्त यह भी है -किसी के सामने कड़वे वचन बोलना। कड़वे वचन बोलने से दूसरों के मन पर गहरी चोट लगती है, अतः कोमल वचनों का ही प्रयोग करना चाहिए। वही बात कोमल वचनों में कही जा सकती है जिसे हम कठोर वचनों द्वारा कहते हैं,तो फिर क्यों ना वही कड़वी बात मीठे ढंग से कही जाए जिससे दूसरे का मन भी ना दुखे और बात भी सिद्ध हो जाए और कहने वाले के लिए भी समस्या खड़ी ना हो। मीठे ढंग से कहने के कारण यदि यह तीन लाभ हो जाएं तो कड़वे ढंग से बात कर कर 3 हानियां क्यों उठाई जाए ।
संतों का स्वभाव सामान्य व्यक्ति के विपरीत होता है -
क्षारं जलं वारिमुच: पिबन्ति तदेव कृत्वा मधुरं वमन्ति ।
सन्तस्तथा दुर्जनवचाँसि निपीय सूक्तानि मधुगिरन्ति ।।
बादल खारा जल पीते हैं, फिर उसी को मीठा बनाकर उगलते हैं। इसी प्रकार सज्जन दोस्तों के कठोर वचनों को पीकर मीठा बनाकर बोलते हैं।
* सत्य भाषण भी वाणी का एक आभूषण है । सत्य बोलने वाले का सदा सम्मान होता है। वह विश्वास और प्रतिष्ठा का पात्र बनता है, परंतु सत्य वही बोल सकता है जिसका आचरण ठीक हो। यदि कोई आचरण गलत हो गया है तो सत्य बोलने के लिए नैतिक साहस चाहिए। व्यक्ति नैतिक साहस के अभाव में झूठ को छुपाने के लिए सत्य का आश्रय लेता है। निष्कर्षतः यही कहा जाएगा कि सत्य बोलने के लिए ठीक आचरण और नैतिक साहस की आवश्यकता होती है। कई बार सत्य बोलने के कारण आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। कई बार पदवी भी गंवानी पड़ जाती है। कई बार शारीरिक हानि के साथ प्राणों से भी हाथ धोने पड़ते हैं। आर्थिक हानि, पद हानि,सर जी खानी और प्राण खाने की चिंता ना करने वाले व्यक्ति ही सच्चा सत्यवादी बन सकता है।
संस्कृत में एक श्लोक है -
प्रिय वाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यंति जन्तव: ।
तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।।
यदि प्रिय वाक्य, मधुर वचन को बोलने से सभी प्राणी संतुष्ट हो जाते हैं, जंतु ही संतुष्ट हो जाते हैं , इसीलिए ऐसे मीठी वाणी बोलने के लिए हम दरिद्रता क्यों करें ?
अर्थात हमें सदैव मीठा वचन बोलना चाहिए, सत्य बोलना चाहिए, मीठी वाणी बोलने में कभी भी दरिद्रता नहीं करनी चाहिए।
अद्भुत सराहनीय
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