ओ३म्
गुरु विरजानन्द सरस्वती
जीवन परिचय
लेखक - Dr.बलविंदर शास्त्री
पंजाब भारतीय संस्कृति का वट वृक्ष । इस के विशाल आंगन में वेदवाणी गूँजी थी। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में योगिराज श्री कृष्ण जी ने गीता का उपदेश दिया था । इस प्रान्त के अनेक ऋषि मुनियों ने अपने ज्ञान और बन्धुत्व भावना का प्रचार प्रसार कर के इस पावन धरती पर मानवीय अस्मिता एवं गरिमा को स्थापित किया । जब तक भारत में वैदिक धर्म का प्रचार रहा, तब तक मानवता का सम्मान बना रहा । वैदिक प्रकाश के तिरोहित होते ही भारत में चार्वक, जैन, बौद्ध, तान्त्रिक, पौराणिक आदि अनेक अवैदिक मतों के प्रचलन से वेद विद्या का शनैः शनैः लोप होने लगा था । विदेशों में उत्पन्न विमतों के अनुयायी जब इस देश के स्वामी बन गए तो राज्य शक्ति सहारे न केवल इस देश के वासियों को स्वधर्म से च्युत करने लगे, बल्कि उन के मूल ग्रन्थों को भी अग्नि भेंट करने लगे थे । वैदिक संस्कृति के ग्रन्थों एवं साधनों को ध्वंस कर के इस देश को संस्कृति विहीन करने लगे थे । भारतीय समाज इतना जर्जर एवं शक्तिहीन हो गया था । वह विदेशियों की इस बर्बरता को रोकने में अपने आप को असमर्थ मानने लगा था । देश की केन्द्रीय राजनीतिक शक्ति नष्ट हो गई और सारा देश छोटे छोटे राज्य खण्डों में बंट चुका था । उनमें ईष्या और द्वेष इतना था कि वे अपने से बाहर कुछ देख ही नहीं पाते थे । छोटी छोटी बातों में अपनी शक्ति क्षीण करते चले जाते थे और विदेशी आक्रान्ता अपना मन्तव्य सिद्ध करते जाते थे । देश के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से मुगल अलोप हो रहे थे और अंग्रेज धीरे धीरे अपने कदम आगे बढ़ा रहे थे । ऐसी स्थिति में सारा देश आदर्श विहीन हो मरणासक्त हो रहा था । इस दशा में पड़ा देश किसी उद्धारक किसी संजीवन संचारक की प्रतीक्षा में था, जो उसे उस के समस्त दुखों से निजात दिला कर उसे पहले जैसा गौरव दिला सके, वह समय भारतीय जनता में धार्मिक और राजनीतिक चेतना की शून्य सीमा था और इन स्थितियों और परिस्थितियों में विरजानन्द का जन्म हुआ ।
स्वामी विरजानन्द जी ऐसे विरक्त संन्यासी थे और उन्होनें संन्यासी सुलभ मर्यादा का पालन करते हुए और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त को अपनाते हुए उन्होनें अपने परिवार ग्राम - धाम का कोई परिचय नही दिया । किन्तु जिज्ञासुओं ने उनका कुछ न कुछ परिचय प्राप्त कर ही लिया है । इस के अनुसार स्वामी विरजानन्द जी का जन्म पंजाब के जालन्धर जिले के करतारपुर कस्बे के निकट गंगापुर गांव में शारद शाखा के भारद्वाज गोत्रय परिवार में हुआ । कुछ विद्वानों ने स्वामी जी का जन्म स्थान नूरमहल माना है । इससे भ्रम की स्थिति पैदा हो गई थी, जिसे दूर करने के लिए 1925 ई. में आर्य समाज करतारपुर ने स्वामी विरजानन्द के जन्म स्थान का निर्माण करने के लिए एक समिति बनाई थी । इस समिति के सदस्यों ने नूरमहल और करतारपुर के निकटवर्ती गांवों में वृद्धों से पूछताछ कर के गंगापुर को ही स्वामी जी का जन्म स्थान माना था। आर्य समाज से सम्बन्धित अधिकांश विद्वानों ने गंगापुर को ही । स्वामी विरजानन्द जी का जन्म स्थान मान लिया है। आज गंगापुर नामक किसी गांव का उल्लेख जालन्धर जिले के राजस्व रिकार्ड में उपलब्ध नहीं हैं। यह गांव 1797 ई. में नष्ट हो गया था और 1850 ई. के बाद के रिर्काड में गंगापुर का नाम नहीं है । डा. राम प्रकाश ने राजस्व रिकार्ड में मिले अनेक संकेतों के आधार पर गंगापुर को खोजने का कार्य किया। रिकार्ड में धीरपुर गांव का वर्णन है । डा. राम प्रकाश ने गांव के वर्तमान निवासियों से बातचीत कर के पता लगाया कि गंगापुर थेह निज्जरों के कुएं के आस पास था । इस क्षेत्र के किसानों ने डा. रामप्रकाश को बताया कि हल चलाते समय उन्हें धरती में से पुराने सिक्के, बर्तन तथा कई अन्य पुरातन वस्तुएं मिली थी । इन वस्तुओं की प्राप्ति उस क्षेत्र की प्राचीनता सिद्ध करती है । डा. राम प्रकाश की शोध ने एक विस्तृत गांव को लोगों के दिलों में साकार कर के एक श्लाघापूर्ण कार्य किया है ।
शास्त्रार्थ के समय स्वामी जी के शिष्यों से उन के गुरु के कुल जाति एवं आश्रम के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे जाते थे । वे कुछ उत्तर नहीं दे पाते थे। उनकी परेशानी को दूर करने के लिए स्वामी जी ने एक बार कहा था "सियालकोटा- अमृतसर नाम नगर योरन्तराले इरावती सन्निहिते...ग्रामे सारस्वातवैशारदव शाशवतस पण्डित श्री नारायणदत्त तनुज इदानीं दण्डित्वेन प्रसिद्ध इति' अर्थात सियालकोट अमृतसर के मध्य इरावती मे निकट ___ग्राम में सारस्वत शारद शाखा के ब्राह्मण नारायणदत्त का एक पुत्र दण्डी नाम से जाना जाता है ' इस कथन के आधार पर डा. राम प्रकाश का विचार है कि सियालकोट तथा अमृतसर के मध्य रावी नदी के निकट गुरदासपुर जिला है। इस के एक कस्बे श्री हरगोबिन्दपुर ग्राम में विरजानन्द के पूर्वज दयालदास रहते थे । दयालदास से प्रसन्न होकर मुगल सम्राट धरवासयर ने करतारपुर के पास निज्जरों के कुएं के पास कुछ जमीन जागीर के रूप में दी थी । यह भूमि बेई नदी के समीप थी । दयालदास की मुत्यु के पश्चात उन का पुत्र गंगा राम श्री हरगोबिन्दपुर को छोड़ कर अपनी जागीर पर आ गया, यही पर उस के पुत्र धर्मचंद का जन्म हुआ। धर्म चंद के दो बेटे थे । एक का नाम नारायण दत्त था और दूसरे का नाम भानुदत्त था । भानुदत्त जीवन पर्यन्त ब्रह्मचारी रहा और बेई के किनारे एक कुटिया में रहकर प्रभु भक्ति में लीन रहता था । वह लोगों को नदी पार करने में सहायता भी करता था । वह स्थान 'भाने का पत्तन' के नाम से प्रसिद्ध हो गया । भानुदत्त का दूसरा भाई नारायण दत्त लोक व्यवहार में कुशल था और सामाजिक कार्यों में निपुण था । वह संस्कृत का अच्छा ज्ञाता था । वह विवाहित था और नूरमहल में उसकी ससुराल थी । नारायण दत्त के दो बेटे हुए । बड़े बेटे का नाम धर्मचंद था और छोटे का नाम ब्रज लाल था। कालान्तर में यही ब्रज लाल विरजानंद के नाम से प्रख्यात हुआ । स्वामी विरजानन्द जी के जन्म स्थान की भान्ति उन का जन्म वर्ष भी विवादास्पद है। स्वामी दयानन्द जी ने कहा था कि जब वह अपने गुरु स्वामी विरजानन्द जी के चरणों में बैठे तब उन की आयु इक्यासी वर्ष की थी। यह सर्व विदित है कि स्वामी दयानन्द जी नवम्बर 1860 ई. में स्वामी विरजानन्द जी के पास मथुरा में गए थे। इस गणना के अनुसार स्वामी विरजानन्द जी का जन्म वर्ष 1779 बैठता है। प. लेखराज जी जिन्होनें स्वामी दयानन्द का जीवन चरित्र लिखा है उन्होनें स्वामी विरजानन्द जी का जन्म 1797 ई. माना है । देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय के अनुसार उन का जन्म वर्ष 1778,79 ई. बीच माना है। भीमसेन शास्त्री ने उन का जन्मवर्ष 1778 ई. माना है । एक अन्य विद्वान जार्डन्स 1778 ई. को स्वामी जी का जन्म वर्ष मानते हैं । इस प्रकार विभिन्न विद्वानों के विचारों का विश्लेषण करने के पश्चात हम इस निर्णय पर पहुँचते है कि स्वामी विरजानन्द जी का जन्म 1779 में हुआ था और उस समय जालन्धर के फैजलपुरियां मिसल के आधीन था ।
आयु स्वामी विरजानन्द की आंखों की ज्योति बहुत छोटी में चेचक के कारण चली गई थी । ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि दृष्टि विहीन होने के समय उन की आयु दो अढ़ाई वर्ष से लेकर पांच वर्ष के बीच रही होगी, क्योंकि स्वामी विरजानन्द जी को रंगो का ज्ञान नहीं था और न ही उन्हें वस्तुओं के आकार का पता था, यह भी निश्चित है कि वे जन्मांध नहीं थे। विधाता का विधान बड़ा विचित्र है । किसी इन्द्रिय की विकलता से होने वाली अपुटता से समुत्पन्न क्षति की पूर्ति ईश्वर किसी दूसरे कारण में अपेक्षाकृत अधिक परख प्रदान कर के कर देता है, ईश्वर ने विरजानन्द के नेत्रों के अभाव की पूर्ति, उस की मेघा बुद्धि की तीव्रता, विलक्षण के द्वारा पूरी कर ही स्मृति शक्ति ऐसी प्रचण्ड उसे दी एक बार सुनकर उसे स्वायत कर लेते थे । उनकी इस चमत्कारिणी धारण शक्ति ने आगे चल कर उनका भूरि- भरि उपकार किया है।
पुराने ब्राह्मण परिवारों में यज्ञोपवीत से पहले एक और संस्कार का प्रचलन था। उसका नाम था विद्यारम्भ तब ब्राह्मण परिवार अपनी सन्तान को चार पांच वर्ष की आयु में ही अक्षराभ्यास आरम्भ करा देते थे । इस लिए नारायण दत्त ने भी अपने पुत्र का विद्यारम्भ यथा समय कराया होगा। विरजानन्द जी के जीवन चरित लेखकों का विचार है कि आठ वर्ष की आयु में पिता ने विरजानन्द को स्वयं पढ़ाना आरम्भ किया था। इस का अभिप्राय यह है कि विरजानन्द का यज्ञोपवीत धारण करने से पूर्व उस ने अनेक श्लोकादि कण्ठस्थ कर लिए होगें और तत्पश्चात यज्ञोपवीत एवं गायत्री की दीक्षा के पश्चात विरजानन्द ने कौमुदी का पाठ पढ़ा होगा क्योंकि उस समय भारत के सभी प्रदेशों में कौमुदी का प्रचार प्रसार पर्याप्त हो चुका था, बालक को संस्कृत वांग्मय में प्रवेश कराने के कि लिए शब्द रूपावली तथा धातु रूपावली का अभ्यास का अनिवार्य समझा जाता था । अतः विरजानन्द को इनका अभ्यास अवश्य कराया गया होगा। इसके अतिरिक्त उस समय में पंचतन्त्र तथा हितोपदेश भी पढ़ाने का चलन था । विरजानन्द ने अध्ययन में परिचलित परिपाटियों का पालन करते हुए उसे संस्कृत का अच्छा ज्ञान हो गया होगा। तीन चार वर्षों के परिश्रम से उसे संस्कृत बोलने का अच्छा अभ्यास भी हो गया होगा। इस प्रकार उस की सामान्य बोल चाल की भाषा संस्कृत बन गई होगी ।
कुछ विद्वानों का मत है कि स्वामी विरजानन्द जी को उर्दू - फारसी लेखन पठन का सम्यक् ज्ञान था किन्तु डा. राम प्रकाश इसे निराधार मानते है । उन के विचार में तब मौलवी ही मदरसों में उर्दू फारसी पढ़ाया करते थे । गंगापुर में तब ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। इस लिए इन भाषाओं का ज्ञान उन्हें कैसे हुआ ? इस का कोई प्रमाण उपलब्ध
नहीं ।
ग्यारह वर्ष तक विरजानन्द को अपने माता-पिता का संरक्षण प्राप्त रहा। बाहरवें वर्ष में पहले पिता फिर माता का देहान्त हो गया । वह नेत्र विहीन ही नहीं अनाथ भी हो गया था । अब एक सहारा ही शेष था और वह था बड़े भाई का । बड़ा भाई पितृतुल्य होता है, बाप के न रहने पर छोटे भाई का लालन-पालन का उत्तरदायित्व बड़े भाई पर ही होता है । पितृ वियोग के पश्चात कुछ दिन तो बड़े भाई धर्म चंद का व्यवहार स्नेह भरा रहा किन्तु बाद में उस ने लालन पालन के स्थान पर उस का ताड़ना आरम्भ कर दिया । उस की धर्म पत्नी भी अपने पति की अनुव्रता होकर उस कार्य में पति से पीछे न रहती थी । उसे अन्न-वस्त्रादि देना भी उन्हें भार लगने लगा । जब भोजन के स्थान पर उसे गाली और प्रताड़ना मिलने लगी तो वह दुखी एवं भविष्य के प्रति चिन्तित रहने लगा ।
विरजानन्द बचपन से ही स्वाभिमानी तथा तेजस्वी था। उस से अपने भाई भाभी का अत्याचार सहन नहीं होता था। कभी कभी वह उन की कटु आलोचना भी कर देता था। गांव का कोई व्यक्ति उस की बात नहीं सुनता था। वह उस संघर्ष को अकेला निपट रहा था। लोगों के इस प्रकार के व्यवहार ने उसे अपने प्रति इतना कठोर बना दिया कि उसने जीवन भर कभी भी अपने कष्टों की बात किसी से कही नहीं थी ।
इस प्रकार की विषम परिस्थितियों में उस का भाई-भाभी के साथ रहना कठिन हो गया । बहुत सोच विचार के बाद विरजानन्द ने अपने पितृ गृह को सदा के लिए त्याग दिया । भाई भाभी का तिरस्कार पूर्ण व्यवहार और विरजानन्द के गृह त्याग नियति द्वारा लिखे नाटक का एक अंश था । नियति ने उसके लिए एक विशाल मंच निश्चित किया हुआ था । जिस पर उसे अनेक सामाजिक सुधारों और प्राचीन भारतीय ज्ञान को प्रचारित एवं प्रसारित करना था। यदि ऐसा न होता तो बज लाल से दण्डी स्वामी | विरजानन्द सरस्वती के नाम से कैसे विख्यात होता और कैसे आर्य ज्ञान की ज्योति से संसार को जगमगाता। तत्पश्चात धर्म चंद और उस का परिवार भी लोक निन्दा से तंग आकर करतारपुर छोड़ कर कहीं अन्यत्र चले गए और उनकी जागीर भी छिन्न भिन्न हो गई।
जब विरजानन्द जी ने गृह त्याग किया था उस समय सिक्खों और मुगलों के बीच संघर्ष चल रहा था इस लिए कोई भी व्यक्ति अपने आप को सुरक्षित नहीं समझता था। मुगलों की पक्षपात पूर्ण, अदूरदर्शितामय प्रजाघातिनी वृत्ति से शासन की नींव हिल चुकी थी। चारों ओर अराजकता फैल रही थी। जिसके कारण सर्वत्र संत्रास फैला हुआ था। ऐसे विकट तथा भीषण समय में एक निपट अकेला बालक घर को सदा के लिए त्याग कर अनन्त की तलाश में निकल पड़ा, सचमुच यह साहस का कार्य था । जब यह तथ्य सामने आता है कि वह गृह त्यागने वाला बालक अन्धा है जिसे मार्ग भी कोई दूसरा ही दिखाएगा तब उसकी शूरवीरता की धाक हृदयों में बैठे बिना नहीं रहती ।
विरजानन्द ऋषिकेश की ओर चल पड़ा। प्राचीन काल में ऋषिकेश की प्रतिष्ठा एक पुण्य क्षेत्र के रूप में हो गई थी । तब ऋषिकेश तक जाने के लिए यातायात के साधन उपलब्ध नहीं थे। मार्ग में नाना प्रकार के कलेशों को सहन करता हुआ विविध दुःख बाधाओं का आलिंगन करते हुए अविकल्प भाव से अग्रसर होता गया और अढ़ाई तीन वर्षो में वह ऋषिकेश पहुँच गया।
विरजानन्द को रास्ते में अनेक महात्मा एवं धार्मिक जन मिले। ऐसा कहा जाता है कि एक साधु, सन्यासी, सन्यासी के साथ इन्होनें कई धार्मिक स्थानों का भ्रमण किया तथा अपने अध्ययन एवं ज्ञान में बढ़ोतरी की थी । कई स्थानों पर विरजानन्द को ग्रामीणों ने अन्न और भोजन भी दिया और आर्थिक सहायता भी दी । संस्कृत का उसे अच्छा ज्ञान था और रास्ते में वह संस्कृत ही बोलते थे, आखिर एक पन्द्रह वर्ष का युवक ऋषिकेश पहुंच गया, मन को साधने के लिए वह अपना ध्यान प्रभु चरणों में लगाने लगा ।
ऋषिकेश प्रवास अति प्राचीन काल से ऋषिकेश तपस्थली रहा है। यहां वे लोग ही आते थे जिन्होंने अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली हो अथवा जिन के मन में इन्द्रियों को पूर्णतः वंश में करने की आंकाक्षा हो । इसे आंकाक्षा को लेकर पन्द्रह वर्ष का बालक ऋषिकेश में आया था। तब ऋषिकेश का स्वरूप आज के ऋषिकेश से पूर्वत: भिन्न था । तब वहां पर्वत और जंगल के सिवाय कुछ भी नहीं था । तपस्वी और संन्यासी इन्हीं जंगलों में घास फूस की कुटी बना कर रहते थे । जंगली जानवर इन पर्ण कुटिया को तोड़ भी देते थे। ये लोग फिर उस का निर्माण करते और उसे नियति पर छोड़ देते। विरजानन्द के लिए भी यही स्थितियां थी । वह भी पर्ण कुटी में रहते थे और कन्दमूल खा कर उदर पूर्ति करते थे । कई बार जंगल में कुछ भी न मिलता । वह भूखा ही रह जाते। कभी कभी किसी मन्दिर में कोई भक्तजन उन्हें भोजन करवा देता किन्तु वे भिक्षा नहीं मांगते थे। बृज लाल (विरजानन्द का पिता प्रदत्त नाम) को किसी भी प्रकार की तपस्या की विधि का ज्ञान नहीं था। यज्ञोपवीत धारण करते समय गायत्री मंत्र का उन्हें उपदेश देकर वेदारम्भ करवाया गया था इसलिए गायत्री मंत्र में उन की आस्था गहन थी । इसी आस्था और गायत्री के अनुष्ठान बृज लाल का अधिक समय व्यतीत होता गया । बृज में लाल गंगा स्नान के समय बहुत देर तक खड़े होकर गायत्री का जाप करता रहता। बालक बृजलाल भूख प्यास की परवाह किए बिना दिन रात गायत्री मंत्र के जाप में लगा रहता। बृज लाल का ऋषिकेश में तीन वर्ष प्रवास रहा । इन तीन वर्षों में उन्होनें एक लाख गायत्री का अनुष्ठान कर दूसरे संन्यासी बन्धुओं को हैरान कर दिया। एक रात जब वह सोए हुए थे उन्हें स्वप्न आया और एक आवाज सुनाई दी "जो तुम को होना था वह हो गया, अब तुम यहां से चले जाओ' । तब उन्हें यह अनुभव हुआ कि यह उन का अर्न्तनाद है, ईश्वरीय कृपा है। इस पर विचार करने कर आवश्यकता नहीं थी । उन्होनें ऋषिकेश छोड़ने का मन बना लिया । दूसरे दिन सुबह सवेरे ही यह नेत्र हीन तरूण ब्रह्मचारी हरिद्वार के लिए प्रस्थान कर गया।
ऋषिकेश में विरजानन्द के तप की धूम थी। सभी तपस्वी उन के तप की भूरि भूरि प्रशंसा करते थे। इस तपश्चर्य ने उनके विवेक कपाट खोल दिए उन की बुद्धि पहले ही तीव्र थी। इस साधना ने उन को और भी अधिक प्रतिभा सम्पन्न बना दिया। उनके बुद्धि वैभव के कारण लोग उन्हें प्रज्ञाचक्षु कहने लगे थे। अर्न्तमन के नाद अथवा ईश्वर की प्रेरणा से ब्रज लाल नदी नाले और जंगलों को पार करते हुए तीन वर्ष के पश्चात हरिद्वार पहुँच गए। तब उन की आयु अठारह वर्ष की थी। यहां आकर उन की भेंट दण्डी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से हुई । स्वामी पूर्णानन्द हरियाणा निवासी गौड़ ब्राह्मण थे और आनन्द स्वामी दण्डी के शिष्य थे । स्वामी पूर्णानन्द से बृज लाल ने सन्यास की दीक्षा ली थी और उन्हीं से वे विद्या ग्रहण करने लगे । स्वामी पूर्णानन्द सिद्धान्त कौमुदी के उच्च कोटि के विद्वान थे तथा अष्टाध्यायी आदि आर्ष ग्रंथो के परम श्रद्धालु थे । कुछ ऐसे प्रमाण है जिनसे यह निश्चय करना पड़ता है कि दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती को अष्टाध्यायी के संस्कार दीक्षा दाता तथा विद्या प्रदाता स्वामी पूर्णानन्द से मिले थे। स्वामी पूर्णानन्द जी ने सौन्दर्य लहरी की एक संस्कृत टीका भी लिखी थी । जिस की पाण्डुलिपि मथुरा निवासी प. विदुरदत्त के पास सुरक्षित थी । दण्डी स्वामी पूर्णानन्द जी जहां कुटिया बनाकर रहते थे और तपस्या करते थे । वह स्थान दण्डी घाट के से प्रसिद्ध हो गया था। स्वामी जी के एक शिष्य किशन सिंह चतुर्वेदी महल वाले ने वहां पक्का दण्डी घाट बनवा दिया था । स्वामी पूर्णानन्द के संसर्ग में स्वामी विरजानन्द के 'हृदय' में अष्टाध्यायी के प्रति श्रद्धा जागृत हुई । ब्रह्मचर्य साधना तथा गायत्री जप के कारण उन की मेधा वृद्धि विकसित हो चुकी थी। उन दिनों की काव्य प्रतिभा भी जागृत हो उठी थी और उन्होनें राम चरित सम्बन्धी अनेक श्लोक रचे थे । स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती ने स्वामी विरजानन्द दण्डी को कौमुदी पढ़ाकर काशी में महा भाष्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया । गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर स्वामी विरजानन्द एक छात्र के साथ अगले दिन हरिद्वार से चल पड़े ।
हरिद्वार से चल कर स्वामी विरजानन्द कुछ समय कनखल में रहें। वहां भी किसी की सहायता से सिद्धान्त कौमुदी पर चिन्तन मनन करते रहे तथा छात्रों को पढ़ाते रहे । दण्डी जी की योग्यता से प्रभावित होकर यहां के पण्डितों ने उन्हें वहीं रोकने की बहुत कोशिश की किन्तु स्वामी जी तो किसी उच्च उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निकले थे इस लिए आदर सत्कार सम्मान सब कुछ व्यर्थ थे ।
कुछ विद्वानों का विचार है कि स्वामी विरजानन्द पुराने साधुओं की परम्परा का पालन करते हुए गंगा के एक किनारे से गंगा सागर तक गए और दूसरे तट से लौट कर गंगोतरी अथवा हरिद्वार तक वापिस आए थे। परन्तु डा. राम प्रकाश इस मत को पूर्ण रूप से कल्पना मानते है । प. लेखराज तथा मुकुन्द देव ने अपनी पुस्तकों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया । यह सत्य है कि तत्कालिन साधु एवं पण्डित गंगा किनारे बसे नगरों में निवास करते थे । अतः जिज्ञासु लोग गंगा तट के साथ साथ भ्रमण करते और साधु सन्यासियों से ज्ञान वार्ता कर के अपने ज्ञान में वृद्धि करते थे । स्वामी विरजानन्द ने भी गंगा तट के साथ भ्रमण अवश्य किया था । किन्तु उस का उद्देश्य गंगा परिक्रमा करना नहीं था।
काशी प्रवास -
हरिद्वार से चल कर गंगा तट के साथ साथ ग्राम - ग्राम विचरते विचरते लगभग एक वर्ष में स्वामी विरजानन्द काशी पहुँचे । तब उन की आयु इक्कीस वर्ष थी । यात्रा में भी उन का अध्ययन एवं अध्यापन का कार्य चलता रहा । विद्यार्थी मिलते कुछ दूर तक उन के साथ चलते, विद्या ग्रहण करते और लौट जाते । इस यात्रा के दौरान उन की वार्तालाप संस्कृत में ही होता ।
स्वामी जी महा भाष्य पढ़ने की इच्छा लेकर इस नगरी में आए थे परन्तु छ: सात महीने के अथक प्रयास उन्हें महाभाष्य की पाण्डुलिपि उपलब्ध हुई, वह भी अधुरी एवं अशुद्ध थी । काशी के पण्डित अपनी पाण्डुलिपियों को किसी को दिखाते भी नहीं थे । इस प्रकार उन्होनें अपने काशी प्रवास में अष्टाध्यायी एवं महाभाष्य उतना ही पढ़ा होगा जितना उस समय वहां पढ़ाया जाता था। उस समय काशी में विद्याधर नामक विद्वान थे । विरजानन्द उन से पढ़ने लगे । अपने सौम्य स्वभाव, तीव्र मेधा अनुपम धारण शक्ति के कारण उन्होनें अपने गुरु को इतना रिझाया कि कई ईष्यालु लोगों के रोकने पर भी प. विद्याधर ने विरजानन्द को पढ़ाना बंद नहीं किया ।
स्वामी विरजानन्द ने अलवर नरेश विनय सिंह को पढ़ाने के लिए अलवर में रहते हुए शब्द बोध पुस्तक लिखी थी । इस पुस्तक में उन्होनें गौरी शंकर को अपना गुरु | घोषित किया है, यह गौरी शंकर कौन थे और उन्होंने विरजानन्द को क्या कुछ पढ़ाया । इस सम्बन्ध में इतिहासकार और विरजानन्द की जीवनी के लेखक प्राय: खामोश है । इस लिए इस सम्बन्ध कुछ कहां नहीं जा में सकता।
काशी में रहते हुए विरजानन्द पठन-पाठन से जुड़े रहे । उनकी अध्यापन शैली काशी के अन्य पण्डितों से भिन्न थी, इसी लिए उन की कुटिया में छात्रों की भीड़ लगी रहती । एक युवा अन्धा संन्यासी किस प्रकार पढ़ाता है इसे देखकर लोग विस्मित थे | उन की चर्चा काशी की सभी पाठशालायों तथा मठों में होने लगी। काशी में विरजानन्द ने व्याकरण के साथ वेदान्त आदि दर्शनों का अध्ययन भी किया ।
दण्डी स्वामी विरजानन्द ने अपने व्याकरण के ज्ञान से तथा शास्त्र विषयक अपूर्व सूझ से काशी में खूब प्रसिद्धि हुई। तीस वर्ष की आयु में स्वामी जी की गिनती काशी के प्रसिद्ध विद्वान पण्डितों में होने लगी थी। काशी में स्वामी जी को प्रज्ञा चक्षु स्वामी की उपाधि से विभूषित किया गया । अब उन्हें विद्वानों की सभा में आमन्त्रित किया जाने लगा । उन्हें पालकी व्यय तथा पर्याप्त दक्षिणा भी मिलने लगी । उन्हें जो कुछ भी मिलता उसे वह अपने शिष्यों में बांट देते ।
स्वामी विरजानन्द काशी में कितना समय और किस स्थान पर रहे इसका विवरण आज उपलब्ध नही है। उपलब्ध सामग्री से इतना ज्ञात होता है कि उन्होनें काशी से गया के लिए पैदल प्रस्थान किया । घोड़ा गाड़ी का भाड़ा देने के लिए उस के पास रुपया पैसा नहीं था। उन के पास केवल पुस्तकें थी जिन्हें उठाने के लिए उन्होंने एक व्यक्ति को साथ ले लिया । उन दिनों देश में अराजकता फैली हुई थी। चोर लुटेरों का चारों ओर बोलबाला था। गया जाते हुए मार्ग में स्वामी जी को कुछ लुटेरों ने घेर लिया। वे उनसे द्रव्य माँगने लगे । स्वामी जी ने संस्कृत में उन्हें समझाने का यत्न किया कि उन के पास पुस्तकों के सिवाय और कुछ नहीं हैं वे माने नहीं और उन्हें तंग करने लगे । स्वामी जी जोर जोर चिल्लाने लगे और लोगों को अपनी सहायता के लिए पुकारने लगे। सौभाग्य से वहां ग्वालियर राज्य के एक सामन्त का डेरा था। स्वामी जी की चीख पुकार सुन कर उस का सुरक्षा कर्मी स्वामी जी के पास आया। वह उनकी भाषा नहीं समझ पाया। बाद में सामन्त ने अपने ब्रह्माण को भेजा । उसने स्वामी जी से पूरी बात सुनी और वहीं प सामन्त को सुना दी । सामन्त के कर्मचारी ने सामन्त को स्वामी जी पर पड़ी विपत्ति के सम्बन्ध में बताया और कहा कि वह एक चक्षुविहीन युवा संन्यासी भी है । सामन्त ने कहा आदर सहित उस ब्राह्मण संन्यासी को ले आओ । सामन्त ने अपने सामने एक अन्धे किन्तु महा विद्वान संन्यासी को देख कर आश्चर्य का अनुभव किया, उनकी विद्या, बुद्धि तथा शालीनता से अभिभूत हो कर सामन्त अपने कर्मचारियों को अतिथि की सर्व प्रकार से देखभाल करने का आदेश दिया और स्वयं भी उन की सेवा में जुट गया । स्वामी जी कुछ इस दिन उस सामन्त के साथ रहे फिर उन्होनें गया की ओर प्रस्थान किया। पड़ाव पड़ाव विश्राम करते वे गया जा पहुँचे । गया में भी स्वामी जी का पढ़ने पढ़ाने का कार्य चलता रहा। गया में किस से पढ़े और क्या पढ़े यह ज्ञात नहीं हैं
दण्डी स्वामी विरजानन्द गया से कलकत्ता के लिए चल पड़े। कलकत्ता तब ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शासित बंगाल प्रान्त की राजधानी थी। कलकत्ता संस्कृत विद्वानों के लिए विख्यात नगर था । यही पर रह कर स्वामी विरजानन्द ने साहित्य दर्पण, काव्य प्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन किया । यहीं पर उन्होनें दर्शन, आयुर्वेद, संगीत एवं वीणा वादन में कुशलता प्राप्त की। ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी दयानन्द ने संगीत की शिक्षा स्वामी विरजानन्द से ही ग्रहण की होगी । स्वामी विरजानन्द शतरंज के कुशल खिलाड़ी थे ।
स्वामी विरजानन्द जी को कलकत्ता में पर्याप्त सम्मान मिला। यहां पर इन के छात्रों की संख्या में बहुत बढ़ोतरी हुई और अनेक विद्वान अपनी शंकाओं के समाधान के लिए इन के पास आते थे। अनेक उच्च पदों पर आसीन लोगों से इन की भेंट हुई और इनके ठहरने और आने जाने की सुव्यवस्था भी हो गई थी ।
कलकत्ता में कुछ वर्ष रहने के पश्चात एक रात स्वामी जी ने कलकत्ता छोड़ दिया । भले ही कलकत्ता ने उन्हें बहुत सम्मान दिया फिर भी यह सम्मान और सुविधाएं उन्हें रोक नहीं सकी । वे चलते चलते सोरो पहुँच गए और वहां उन्होनें अपना डेरा जमा लिया सोरो (सूकर क्षेत्र) एक प्रसिद्ध तीर्थ है। यहां विष्णु के सूकर अवतार का मन्दिर हैं । कलकत्ता से सोरों जाते हुए रास्ते में किस किस पण्डित से मिले, उन से क्या पढ़ा और छात्रों को क्या पढ़ाया और कितने समय में वे कलकत्ता से सोरों पहुँचे कुछ ज्ञात नहीं है।
सोरो प्रवास
सोरो मन्दिरों की नगरी है। कभी गंगा सोरों से तट पर गुजरती थी अब गंगा यहां से लगभग आठ किलोमीटर दूर है। सोरों उत्तर प्रदेश के एटा जिले की व्यासगंज तहसील का कस्बा है। स्वामी विरजानन्द जी का सोरो पधारने का समय निश्चित नहीं है। स्वामी जी सोरों आकर वहां न ठहर सोरों के समीप गढ़िया घाट पर ठहरें, सोरों की अपेक्षा यहां ठहरने के कई कारण हो सकते हैं । अवतारवाद से अरूचि ने उनके मन को सोरों से विरक्त किया हो सकता है। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि सोरों में साधु-संतो की भिक्षा का सुप्रबन्ध नहीं था जो भी हो विरजानन्द ने सोरों की अपेक्षा गढ़िया घाट को अधिक पसन्द किया था।
अपने निवास और भोजनादि की यथायोग्य व्यवस्था कर के दण्डी जी वहां भी पठन-पाठन में प्रवृत्त हो गए । अश्रुत एवं अपठित ग्रंथो को दूसरे मनुष्य से सुनकर कण्ठस्थ करते और उनका विचार मनन करते । यहां उन के पास अंगदराम, बुधसेन आदि कई विद्यार्थियों ने पढ़ा । काशी की भान्ति यहां भी उन की यशोलहरी सर्वत्र लहराने लगी । मन्दिरों एवं घाटों पर विरजानन्द की कीर्ति के ठाठ वजने लगे । विरजानन्द की बुद्धि कुशाग्र थी। उनकी अध्यापन शैली अद्भुत थी । जिससे चर्चा होनी अनिवार्य थी । विरजानन्द अपने छात्रों के साथ अध्यापन के साथ साथ अपनत्व का सम्बन्ध भी जोड़ते थे। वे अपने शिष्यों के सुख दुख में उनका साथ देते थे। उनके सदाचार का विशेष ध्यान रखते थे। विरजानन्द मनुष्य का सर्वाधिक प्रकर्ष विद्या का उद्देश्य मानते थे। वे अपने शिष्यों के साथ माता पिता सा व्यवहार करते थे। इसी का परिणाम था कि सोरों के छात्र विशेषकार अंगदराम इस बात का विशेष ध्यान रखता था कि उस के चक्षुहीन गुरु को किसी प्रकार की असुविधा न हो । | इस प्रकार उन्होनें अवसाद रहित होकर भगवद् भजन योग | साधना और विद्या दान में सलंग्न रहकर सोरों में दिन व्यतीत किए।
अलवर नरेश से मिलाप - एक दिन स्वामी जी गंगा स्नान के पश्चात पानी में खड़े होकर विष्णु पाठ कर रहे थे तब घाट पर अलवर नरेश विनय सिंह भी उपस्थित थे । वे स्वामी जी उच्चारण से प्रभावित हुए जब तक स्वामी विरजानन्द पाठ करते रहे वे ध्यान मग्न हो सुनते रहे । पाठ समाप्त कर स्वामी जी अपने निवास स्थान की ओर चलने लगे तो अलवर नरेश उन के सामने आ गए। उन्होनें स्वामी को यथा योग्य प्रणाम आदि करने के पश्चात निवेदन किया कि 'आप मेरे साथ अलवर पधारिए' । स्वामी जी ने निवदेन कर्त्ता से उस का | परिचय पूछा । अलवर नरेश ने अपना परिचय दिया कि तो स्वामी जी ने कहा, आप का और हमारा संग कैसा ? आप गृहस्थ और राजा हैं हम विरक्त एवं अकिन्चन है' इतना कह स्वामी जी अपनी कुटिया की ओर चल पड़े । अभी स्वामी जी अपने कुटिया द्वार पर पहुँचे ही थे कि अलवर नरेश ने वहाँ पहुँच की उन से पुनः अनुरोध किया। स्वामी जी ने उन के अनुरोध को स्वीकार करते हुए कहा कि यदि आप प्रतिदिन हम से पढ़ना स्वीकार करे तो हम आप के साथ अलवर चल सकते हैं अलवर नरेश ने स्वामी जी की शर्त को स्वीकार कर लिया और स्वामी जी कुछ समय के पश्चात अलवर पहुँच गए।
अलवर नरेश संस्कृत प्रेमी थे। उन्होनें स्वयं संस्कृत सीखने के लिए स्वामी जी को अलवर आने की प्रार्थना नहीं की थी। यह शर्त तो स्वामी जी ने लगाई थी। राजा विनय सिंह ने अलवर में एक 'अनुपम पुस्तकालय' स्थापित किया था जिस में संस्कृत, अरबी, फारसी की अमूल्य पुस्तकें संग्रहीत की गई थी । उन्होनें कुरान शरीफ तथा शेख शादी द्वारा रचित पुस्तक को क्रमश: पचास हजार एवं दो लाख रूपये खरीदने के लिए खर्च किए। यह उन के विद्या प्रेम का शिखर था । अलवर को काशी की भान्ति विदुष्मान बनाने के लिए | प्रयत्न शील थे। इसी लिए उन्होनें दण्डी स्वामी विरजानन्द को अलवर पधारने के लिए राजी किया ।
स्वामी विरजानन्द अलवर कब आए इस का उल्लेख नहीं मिलता परन्तु देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय की धारणा है कि विरजानन्द सन 1901 से कुछ पहले अलवर आये थे। भीम सेन शास्त्री अलवर आगमन सन 1899 (1832 ई.) मानते है। प्राग्वचन में अलवर आगमन सन 1879 (1822 ई०) लिखा है । इन में से कोई वर्ष ठीक नहीं लगता । डा. राम प्रकाश ने राज महल के स्त्रोतों से पता लगाया है कि राजा है विनय सिंह सन 1889 को गंगा स्नान के लिए सोरों गए थे उस वर्ष दो चैत्र थे और वैशाख यदि सप्रति (6 जून 1832 ई.) को गंगा जयंती का मेला । अतः स्वामी जी अलवर नरेश के साथ जून 1832 ई. में अलवर आए थे । यही वर्ष उचित प्रतीत होता है। हर विलास शारदा ने 1844-45 ई. में स्वामी जी का अलवर छोड़ना लिखा है। यह भी ठीक प्रतीत नहीं होता । स्वामी विरजानन्द अलवर भरतपुर गए से थे । तब बलवंत सिंह वहां का राजा था । बलवंत सिंह का राज्य काल सन् 1835-1853 तक था। स्वामी जी बलवंत सिंह के सत्तारूढ़ होने से पूर्व वहां नहीं गए थे। इस प्रकार अलवर को छोड़ने का समय 1835 - 36 ई ही उपयुक्त लगता
है ।
स्वामी जी की रहने की व्यवस्था जगन्नाथ मन्दिर के निकट एक सुन्दर भवन में हुई । उनके कहानुसार पुस्तकों की व्यवस्था भी राज्य की ओर से करवा दी गई थी। वे नियत समय पर राजकीय सवारी में राज महल पढ़ाने के लिए जाने लगे । वे राजा को लघु सिद्धान्त कौमुदी पढ़ाने । लगे । एक दिन महाराज विनय सिंह ने कहा, गुरु जी, ऐसा कोई उपाय होना चाहिए जिससे थोड़े से परिश्रम से व्याकरण का पर्याप्त ज्ञान हो जाये । दयामूर्ति दण्डी स्वामी ने अपने शिष्य की कामना को उचित समझा और इस की इच्छा पूर्ति के लिए थोड़े ही दिनों में 'शब्द बोध' नामक पुस्तक रच दी । इस शब्द बोध के द्वारा स्वामी जी अपने शिष्यों को व्याकरण का बोध कराने लगे । यह पुस्तक अलवर के राज्य पुस्तकालय में अभी भी सुरक्षित है।
अलवर नरेश विनय सिंह का स्वामी जी के प्रति श्रद्धामय लगाव को देख कर स्थानीय पण्डित समाज उन से द्वेष करने लगा था। शास्त्र चर्चा में स्वामी जी उन पण्डितों को निरुत्तर कर देते थे जो उन के ज्ञान की थाह लेने के लिए आते थे। इस शास्त्र चर्चा में उनके पराजित होने का कहीं चर्चा नहीं होती यदि कहीं स्वामी जी से चूक हो जाती तो लोग उन्हें खूब भला बुरा कहते । इस पर स्वामी जी कभी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते थे। वे “साधवः समदर्शिन'' की उक्ति को चरितार्थ कर दिखाते थे ।
अलवर प्रवास में स्वामी जी ने राजा विनय सिंह को शब्द बोध लघु कौमुदी, विदुर पुजागर, तर्क संग्रह तथा रघुवंश आदि ग्रंथ पढ़ाएं जिससे वे सहज संस्कृत बोलने के योग्य हो गए । राजा को अपना वचन याद था वह एक सामान्य छात्र की भान्ति नित्य नियम पूर्वक पढ़ने के लिए आते। उनके श्रद्धामय विनम्र व्यवहार से यह कभी एहसास नहीं होता था कि वह एक तेजस्वी राजा थे।
सन् 1826 ई. में अंग्रेजों ने अलवर के उत्तर भाग एक नए राज्य का गठन किया था। जिस की राजधानी तिजारा थी। बलवंत सिंह को अंग्रेजों ने वहां का शासक नियुक्त किया। इसे अलवर नरेश बहुत दुखी एवं चिन्तित थे । दूसरे इन्हें अपने पुत्र विहीन होने का भी बहुत दुख था । कुछ स्वार्थी पण्डितों ने राजा की इन दुखद परिस्थितियों का खूब लाभ उठाया । विरजानन्द वीतरागी संन्यासी थे। अपने आप में मग्न रहते थे। नित्य समय पर राजा स्वामी जी के पास आते और स्वामी जी उन्हें पढ़ाते । यह नित्यकर्म था । परन्तु एक दिन स्वामी जी निश्चित समय पर पढ़ाने गए तो राजा अनुपस्थित थे । स्वामी जी ने कुछ समय शिष्य की प्रतीक्षा की फिर महल से चल पड़े और उन्होनें अलवर त्यागने का मन बना लिया। कुछ लोग कहते है कि राजा नाच तमाशे में मग्न था इसलिए नहीं आया किन्तु कुछ लोगों का कहना है कि किसी आवश्यक राजकीय कार्य से राजा को बाहर जाना पड़ा था। कारण कोई भी हो । वचन भंग हो गया था । अनिष्ट की आंशका से चिन्तित अलवर नरेश ने स्वामी के पास जाकर विनम्रतापूर्वक क्षमा याचना की । बहुत अनुपम विनय किया । उत्तर में स्वामी ने बहुत स्नेह पूर्वक कहा, "राजन् ! स्मरण है कि मेरे यहां आने से पूर्व गंगा तट पर आपने क्या कहा था ? नरेश ने कहा, अच्छी प्रकार से स्मरण है। मैंने यह अध्ययन नियमपूर्वक हो' के उत्तर में वचन दिया था कि ऐसा ही होगा' 'क्या आपने वचन भंग नहीं किया ?' स्वामी जी ने पूछा । स्वामी जी महाराज मैं दोषी हूँ। मुझे क्षमा करे'- राजन ने उत्तर दिया । स्वामी ने कहा, 'आप वचन भंग कर सकते हैं मैं नहीं । वचन भंग होने पर न मैं रुक सकता हूँ, न आप को रुकने के लिए कहना चाहिए । आपके स्नेह के कारण में आज नहीं जाऊँगा । कल प्रातः चला जाऊँगा। आप कल पधारने का कष्ट न करना । अभी आशीर्वाद दिए देता हूँ। स्वामी जी ने सेवक से अन्दर रखे फल लाने को कहा। राजा को आशीर्वाद देकर उन्होनें फल उस के आगे रख दिए । राजा ने तत्काल 2500/- रू की स्वर्ण मुद्राएं मंगवा कर स्वामी जी के चरणों में भेंट कर दी ।
कुछ विद्वानों का मत है कि स्वामी जी अलवर नरेश को बिना बताए चले गए थे। ऐसा कहना ठीक प्रतीत नहीं । होता। स्वामी जी का अलवर नरेश के प्रति स्नेही भाव कम नहीं हुआ था। राजा के जब पुत्र उत्पन्न हुआ तो उन्होनें स्वामी जी की सेवा में एक हजार रुपये भेजे थे। राजा ने स्वामी जी को पुन: अलवर आने के लिए एक लिखित निवदेन परमसुख के हाथ मथुरा भी भेजा था। स्वामी जी ने भेंट तो स्वीकार कर ली थी किन्तु मथुरा छोड़ कर पुनः अलवर आने की प्रार्थना अस्वीकार कर दी थी।
स्वामी विरजानन्द जी ने अलवर को छोड़ दिया किन्तु विद्वानों के मन में एक शंका उत्पन्न कर दी। क्या स्वामी जी में ने वचन भंग के कारण अलवर का त्याग किया । अथवा किसी अयोग्य पण्डित को उसकी योग्यता से अधिक सम्मान देने के कारण उन्हानें अलवर छोड़ा । प्रथम शंका का समाधान तो प्रत्यक्ष ही है जब कि दूसरी शंका के सम्बन्ध में विद्वानों के भिन्न भिन्न विचार है। उन पर मनन करने पर हम किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते। लेकिन इतना स्पष्ट है। कि स्वामी जी की विचार धारा और मान्याताएं स्पष्ट रूप में | आकार ग्रहण करने लगी थी । स्वामी विरजानन्द अलवर से चल कर भरतपुर पहुँचे। भरतपुर के राजा बलवंत सिंह ने उन की बहुत सेवा की और स्थायी रूप से भरतपुर में ठहरने का अनुरोध किया । परन्तु दण्डी विरजानन्द वहाँ छ: महीने रहे। विदाई के समय राजा ने उन्हें चार सौ रूपये तथा एक दोशाला दिया । भरत से मथुरा जाते हुए वे मुरसान रुके। वहां के राजा का आतिथ्य स्वीकार किया। कुछ देर वहाँ रहे फिर बेसवा चले गए वहां के राजा गिरधर सिंह के अतिथि रहे फिर उन्हानें सोरों के लिए प्रस्थान किया ।
सोरो में अलवर से लौटने के पश्चात स्वामी विराजानन्द ने गढ़िया घाट पर मथुरादाय द्वारा बनवाई एक कुटिया में आसन लगाया। यही पर उन्होनें अंगदराज आदि शिष्यों को कौमुदी आदि व्याकरण ग्रंथों को पढ़ाने लगे । अध्यापक के रूप में उन की ख्याति चारों दिशायों में फैल रही थी। इस लिए उन के इर्द-गिर्द अनेक शिष्यों का जमावाड़ा होने लगा । स्वामी जी अध्यापन के साथ साथ शास्त्र चिन्तन और ईश्वर भक्ति के लिए भी समय निकालने लगे थे। लोग उन के दर्शनार्थ आने लगे थे जिस से उन की व्यवस्था ठीक चलने लगी थी।
जीवन के इस मोड़ पर आकर उन्होनें समाज में फैली अज्ञानता धार्मिक पाखण्ड और धर्म के ठेकेदारों द्वारा सर्व साधारण के शोषण को देखा। निर्धनता ने चारों ओर अपने पांव पसारें हुए थे। देश में अराजकता फैली हुई थी। अंग्रेज इस देश के धीरे-धीरे शासक बन रहे थे । दण्डी स्वामी विरजानन्द यह सब कुछ बदलना चाहते थे। इस बदलाव हेतु वे कई राजा-महाराजाओं से मिलें । साधु सन्यासियों से सम्पर्क साधा किन्तु कोई कुछ भी करने के लिए तैयार नहीं था। नेत्रहीन होने के कारण वह स्वयं कुछ कर पाने में असमर्थ थे। वह एक ऐसा शिष्य चाहते थे जो उस के भीतरी भावों को समझ सके और समाज का उद्धारक बन सके । उन के पास ऐसा कोई शिष्य नहीं था जिसे वे अपना उत्तराधिकारी बना सके । वे मानसिक रूप से दुखी रहने लगे ।
इसी दुख एवं चिन्ता के कारण वे उदर रोग से पीड़ित हो गए। एक बार तेज ज्वर के कारण वे कई दिन बहोश पड़े रहे। जब वे होश में आए तो उन्होनें पुनः पढ़ाना शुरू कर दिया। परिणाम स्वरूप के पुनः बेहोश हो गए । शिष्यों ने उनकी बहुत सेवा की । कई दिनों के पश्चात उन्हें पुन: होश आया। बचने की आशा शेष नहीं थी। उन्होनें अपनी चीजें अपने शिष्यों में बाँट दी और शिष्यों को कहा कि उन के मृत शरीर को गंगा में बहा देना । इतना कह कर वे पुनः मौन हो गये। स्थिति निरन्तर बिगड़ती गई कोई उपचार कारगर नहीं हो रहा था। गुरु आदेशानुसार एक शिष्य किराये पर एक के गाड़ी ले आया और उस में स्वामी जी को लिटा कर गंगा तट पर ले गए । उन्होनें वहां बैठे साधु सन्यासियों से कहा यदि इनके श्वास खत्म हो जाए तो इन्हें गंगा में बहा देना । शाम तक कोई निर्णय नहीं कर पाया कि उन के प्राण चल रहे हैं या नहीं । वे सारा दिन बेसुध घाट पर पड़े रहे ।
सौभाग्य वश गढ़ी के एक साधु ने उन्हें इस अवस्था में देखा । तब उसने तुरंत महन्त मथुरा दास वैरागी को सूचित किया । वे अपने कुछ सेवकों के साथ वहां आए । उन्होने स्वामी विरजानन्द को पहचान लिया । वे उन्हें गढ़ी ले गए ।। रात भर साधुओं ने सेवा की। सुबह स्वामी जी को होश आया । वे उठकर बैठ गए । ओ३म् का उच्चारण किया। हाथ मुहँ धोकर उन्हें मूंग की दाल का पानी दिया गया। उन्होनें अपने आप में अच्छा अनुभव हुआ। स्वामी जी कुछ दिन वहां ठहरे । फिर अपने स्थान पर लौटना चाहा । महन्त उन्हें रोकना। चाहते थे। किन्तु स्वामी जी के आग्रह को टाल नहीं सके । महन्त ने स्वामी जी को पूरे सम्मान साथ विदा किया ।
स्वामी जी जब अपने स्थान पर लौटे तो उनका सब कुछ लुट चुका था। उन्हानें इसकी किसी से चर्चा नही की अब उन का मन सोरों से पूरी तरह उकता गया था। उन्होनें सोरों को छोड़ मथुरा जाने का निश्चय किया। ईश्वर के सहारे । उन्होनें सोरों को छोड़ा । उनके पास गाड़ी का भाड़ा देने को भी कोई पैसा नहीं था । प्रभु कृपा से उन्हें रास्ते में दिलसुख राय मिल गए। उन्होनें स्वामी जी को प्रणाम किया और उन के चरणों पर पांच अशर्फिया चढ़ाई। स्वामी जी ने अशर्फी के बदले व्यय के लिए कुछ रूपये चाहे तो दिलसुखराय जी ने उन्हें आठ रूपये दिए किन्तु आशर्फी वापस नहीं ली । इस प्रकार कई दिनों की यात्रा के पश्चात स्वामी जी मथुरा पहुँच गए।
मथुरा में वास
प.लेख राज, मेहता राधा किशन, बाबा छज्जू सिंह तथा लछमण आर्योपदेशक आदि विद्वान स. 1893 (1836ई. में स्वामी जी का मथुरा आगमन बताते हैं। देवेन्द्र मुखोपाध्याय अलवर नरेश के पुत्र जन्म के पश्चात स 1903-04 (1846-47ई.) में स्वामी जी का मथुरा में आना लिखते हैं । दण्डी जी के शिष्य प. उदय प्रकाश के पौत्र सुधाकर देव का मत है कि स्वामी जी सन् 1845 ई. में मथुरा पधारे थे। स्वामी जी के नाम लिखा गया एक पत्र है जिस पर 14 जनवरी 1851 ई. लिखा हुआ था। इस का अर्थ है कि स्वामी जी 1851 ई. से पूर्व मथुरा में पधारे चुके थे । ऊपर लिखित दोनों मतो को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि स्वामी जी ने अलवर छोड़ने के पश्चात भरत के राजा बलवंत सिंह के यहां आतिथ्य स्वीकार किया था । बलवंत सिंह 1835 ई. में सिंहासनरुढ़ हुए । स्वामी जी उनके सिंहासनरुड़ होने के पश्चात ही स्वामी जी उन के पास गए होगें और वह छ: मास रहे थे । भरतपुर से वे मुरसान पहुँचे । वहां के राजा टीकम सिंह का आतिथ्य स्वीकार किया था । इस का अर्थ है कि स्वामी जी 1836 ई. तक मथुरा पहुँच नहीं सकते थे। इसी प्रकार दूसरे तर्क को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि अलवर नरेश के घर पुत्र होने से पहिले ही स्वामी जी अलवर छोड़ आए थे। इस लिए स्वामी जी का मथुरा आगमन मई 1846 ई. के आसपास ही हुआ था । अब विद्वान इस वर्ष को ही मथुरा आगमन का वर्ष मानते हैं । स्वामी जी अब अध्ययन की अपेक्षा अध्यापन पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहते थे। वे अब एक ऐसे शिष्य की तलाश में थे जो उन के चिन्तन को भविष्य में भी जीवित । रख सके । इसीलिए स्वामी जी ने मथुरा का अपने आवास रूप में चुना था। यहां पर संस्कृत पठन-पाठन की एक स्थापित परम्परा थी । तीर्थ यात्री, सेठ साहूकार, राजा, जागीरदार पण्डितों और छात्रों को श्रद्धापूर्वक दान दक्षिणा भी देते थे यह सब विचार कर के ही स्वामी जी ने मथुरा गतिविधियों का केन्द्र बनाया था ।
मथुरा में आकर मथुरा के चौक में रहने वाले अलवर के जागीरदार गुजरमल के गृह में ठहरे। वहां पर छात्र आने लग गए थे। परन्तु स्वामी जी डेढ दो महीने से अधिक वहा नहीं ठहरे। तत्पश्चात स्वामी जी ने अपनी पाठशाला नारायण मन्दिर में खोली । वहां खोलने का अनुरोध मन्दिर के प्रबन्धक प्रसादी लाल आचार्य का था । मन्दिर में प्रवेश करते ही कुछ 'कमरें हैं जिन्हें कचहरी कहा जाता था। वही स्वामी जी रहने लगे। यहां पाठशाला केवल दो मास तक चली स्वामी जी को अब अध्यापन के लिए एक स्वतन्त्र स्थान की आवश्यकता थी । स्वामी जी ने मथुरा के होली द्वार से विश्रान्त घाट की ओर जाती सड़क पर एक दो तल्ला घर किराये पर लिया । यह सरीनों का घर कहलाता था। यहां पर पाठशाला खोली जो जीवन के अन्त तक वही चलती रही ।
पाठशाला को व्यवस्थित रूप देने के लिए उन्हाने छात्रों के लिए भोजन की व्यवस्था की । पाठशाला में सिद्धान्त कौमुदी, शेखर, मनोरम आदि व्याकरण ग्रंथ, अमरकोश तथा वेद विषयक निघण्टु आदि पढ़ाये जाते थे । स्वामी जी इतने सुन्दर ढंग से पढ़ाते थे कि उन की ख्याति खूब दूर तक फैल गई थी । मथुरा के विद्यार्थियों के अतिरिक्त काशी की विद्यार्थी भी उन के पास पढ़ने के लिए आने लगे थे । स्वामी विरजानन्द की पाठशाला का व्यय भार अलवर नरेश, भरत के महाराज तथा जयपुराधिपति वहन करते थे । निर्धन विद्यार्थियों के लिए पुस्तकों की व्यवस्था भी पाठशाला द्वारा की जाती । देवेन्द्र नाथ मुखोपध्याय ने इस भवन के सम्बन्ध में लिखा है कि यह मकान न तो आकार ही में और न संगठन ही में और न शिल्पकारी ही में रमणीय व चित्राकर्षक है तथापि वैदिक धर्म के पुनरुत्थान के प्रसंग में | भारत के धर्म संशोधन व इतिहास में यह मकान चिरस्मरणीय रहेगा। स्वामी जी ने न केवल इस भवन बल्कि मथुरा को भी गौरवान्वित किया है।
स्वामी विरजानन्द की पाठशाला भी संस्कृत की अन्य पाठशालाओं की भान्ति ही चल रही थी और शायद उसी प्रकार चलती भी रहती यदि ऐसी घटना न घटती । इस घटना ने पाठशाला को एक स्वतन्त्र रूपता प्रदान कर दी ।
मथुरा के एक सेठ राधाकृष्ण ने एक विशाल स्वर्णमय मन्दिर बनवाया और उसे रंगाचारी को समर्पित कर दिया । स्वामी जी की पाठशाला की स्थापना के पश्चात रंगाचारी के गुरु कृष्णशास्त्री मथुरा पधारे । कृष्णा शास्त्री न्याय तथा व्याकरण के विशिष्ट पण्डित थे । एक दिन स्वामी जी के दो विद्यार्थियों रंगदत्त चौबे तथा गंगादत्त चौबे का लक्ष्मण ज्योतिषी तथा मुड़मुड़िया पाण्डेय के साथ 'अजाद्युक्ति' पद के समास विषय में विवाद हो गया । स्वामी जी के शिष्यों का कहना था कि यहां षष्ठी तत्पुरुष समास है। इसके विरुद्ध लक्ष्मण ज्योतिषी तथा मुड़मुड़िया का आग्रह था कि इस में सपत्मी तत्पुरुष समास है । पक्ष प्रतिपक्ष वाले आपस में निर्णय नहीं कर सके । फिर मध्यस्थ बने पक्ष कृष्ण शास्त्री ने लक्ष्मण ज्यातिषी तथा मुड़मुड़िया के पक्ष में निर्णय दिया। उधर स्वामी जी को जब इस घटना का पता चला तो उन्हानें अपने शिष्यों का पक्ष लिया । यह विवाद शायद आगे न बढ़ता यदि सेठ राधा कृष्ण प्रपंच न रचता । वह अपने गुरु के गुरु को और अधिक गौरवमय बनाना चाहता था। इसलिए उसने स्वामी जी को कहला भेजा इस विवाद में किसी तीसरे को निर्णायक बना लेते हैं । इसलिए दो सौ रूपये आप दें और दो सौ कृष्णा शास्त्री और एक सौ रूपया मैं अपनी ओर से दूंगा। निर्णायक जिस के पक्ष में निर्णय दे उसे पांच सौ पारितोषक दे दिया जाएगा । स्वामी जी ने जैसे तैसे धन राशि का प्रबन्ध कर के निर्दिष्ट स्थान पर भिजवा दी । शास्त्रार्थ का दिन और समय निश्चित हो गया ।
इस शास्त्रार्थ की मथुरा में बड़ी चर्चा थी । निश्चित समय पर लोग नारायण के मन्दिर में पहुँच गए । मन्दिर में न कृष्णाशास्त्री आए और न ही सेठ आया । लोग अधीर होने लगे और उनमें कोलाहल होने लगा । सेठ को इसी अवसर की तलाश थी । वह स्वयं मध्यस्थ बन बया और उसने कृष्णाशास्त्री के पक्ष में निर्णय दिया । कृष्णा शास्त्री को बुलाकर उसके गले में फूलमालाएं डाली गई और दण्डी स्वामी विरजानन्द जी को पराजित घोषित किया गया । इतना ही नहीं सेठ ने पैसे के बल पर काशी के पण्डितों से व्यवस्था पत्र मंगवाया। स्वामी जी को जब सारी स्थिति का पता चला तो उन्हें बहुत दुख हुआ। वे सेठ की धूर्तता से उदिग्न हुए और पण्डितों के बिकाऊ पन से दुखी हुए।
स्वामी जी देश के अग्रणी समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखकर चिन्तित रहने लगे। उन्हें अनार्ष ग्रन्थों से अप्रीति हो गई उन्होनें आर्ष ग्रंथों के उत्कर्ष और अनार्ष ग्रंथों के अपकर्ष का दृढ़ निश्चिय कर लिया। इस निश्चिय को कार्य में परिणत करने में उन्हें विलम्ब न हुआ। अब दण्ड़ी जी की पाठशाला से कौमुदी, शेखर, मनोरमा आदि अनार्ष ग्रंथों का बहिष्कार हो गया और उस के स्थान पर अष्टाध्यायी तथा पतन्जली महामुनि का महाभाष्य पढ़ाये जाने लगे। स्वामी जी पाणिनी प्रणीत अष्टाध्यायी तथा उस पर महामुनि पंतन्जलि का महाभाष्य को ही व्याकरण के प्रमाणिक ग्रंथ मानते थे । इसके अतिरिक्त कौमुदी आदि ग्रंथों को धूर्तों की रचना कहते थे
स्वामी जी अपनी पाठशाला से इन ग्रंथों के बहिष्कार से ही सन्तुष्ट नहीं हुए बल्कि वे सारे भारत में अष्टाध्यायी महाभाष्य के अध्ययन के लिए योजनाएं बनाने लगे थे । वे प्रत्येक व्यक्ति से कौमुदी आदि ग्रंथों के पठन पाठन की हानियों और आर्ष ग्रंथों से मिलने वाले लाभों की चर्चा करते। यदि कोई पण्डित सामान्य चर्चा में स्वामी जी से सहमति प्रकट न करता तो दण्डी जी प्रमाणों की झड़ी लगा देते। जब उन्हें कहीं ज्ञात होता कि कोई विद्वान मथुरा आया तो वे ऐसा यत्न करते कि जिस समय वह विद्वान उन के पास आए और वे उसे इस विषय पर चर्चा कर के उसे अपने विचार का बनाये । स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि वेद का यथार्थ | ज्ञान उसका आर्ष शैली से अनुशीलन करने से ही हो सकता है । इस के लिए ऐसा उपाय होना चाहिए कि अनार्ष ग्रंथों का उन्मूलन कर के उन के स्थान में आर्ष ग्रंथों का अध्ययन अध्यापन तथा प्रचार होना चाहिए ।
ग्रंथों की स्थापना - •
स्वामी विरजानन्द सरस्वती ने सम्पूर्ण | संस्कृत वाङ्मय को दो भागों में विभाजित किया है ।
(1) आर्ष साहित्य
(2) अनार्ष साहित्य
वैदिक काल के ऋषियों । द्वारा लिखें गए ग्रंथ आर्ष ग्रंथ है और महाभारत काल के | पश्चात साधारण मनुष्यों द्वारा रचा गया साहित्य अनार्ष | साहित्य है। आर्ष ग्रंथ सार्वभौम सत्य को प्रतिष्ठित करते हैं वे मानव मन की शंकाओं को दूर करने वाले हैं तथा लोकोपकार का सन्देश देते हैं । इस के विपरीत अनार्ष भ्रमोत्पादक तथा साम्प्रदायिकता, संकीर्णता, द्वेष, घृणा एवं प्रमाद से भरें हुए हैं। आर्ष ग्रंथों की टीकाएं भी युग की प्रमुख ऋषियों द्वारा की गई हैं और अनार्ष पुस्तकों की टीकाएं साधारण व्यक्तियों द्वारा की गई है । आर्ष और अनार्ष ग्रंथों की पहचान का सर्वसाधारण के लिए एक सीधा सादा मंत्र बताया गया था । वह यह था कि आर्ष ग्रंथों का आरम्भ 'अथ' अथवा 'ओ३म्' शब्द से होता है और अनार्ष ग्रंथों का आरम्भ किसी हिन्दु देवी देवता की स्तुति में लिखें गए मंगलाचरण से होता है। स्वामी जी ने सभी आर्ष ग्रंथों को प्रामाणिक माना है और अनार्ष ग्रंथों को अप्रामाणिक ग्रंथों की कोटि में रखा है । इन ग्रंथों में शब्दाडम्बर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । मनुष्य कृत इन ग्रंथों के चलन से धर्म की बहुत हानि हुई है । इन ग्रंथों पर अनेक भाष्य लिखें गए | जिससे अनेक सम्प्रदाय पैदा हुए, अनेक मत मतान्तर फैले तथा मूर्ति पूजा जैसी कई प्रथाओं का चलन हुआ । जिससे धर्म की बहुत क्षति हुई । अनेक धर्मावलम्बियों ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए और अपने महत्व को और अधिक बढ़ाने के लिए आर्ष ग्रन्थों का लोप करवा दिया और अनार्ष ग्रंथों का खूब चलन करवाया । जिस से धर्म के नाम पर बाह्यय आडम्बर बढ़ने लगे और वास्तविक धर्म अलोप होने लगा। इस स्थिति से निपटने के लिए स्वामी जी ने आर्ष ग्रंथों को स्थापित करने का यत्न किया । यह यत्न भारतीय इतिहास में पहली बार किया गया था । इस के बड़े दूरगामी प्रभाव हुए । स्वामी विरजानन्द जी से पहले भी इस देश में अनेक विद्वान और धर्माचार्य हुए थे किन्तु किसी ने इस ओर ध्यान ही नही किया ।
स्वामी जी दूरदर्शी चिन्तक थे । उन्होनें आर्ष ग्रन्थों के साथ अनार्ष ग्रंथों का अध्ययन किया था और वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि ऋषियों द्वारा रचे गए ग्रंथों का | अनुपालन कर के ही भारतवासी विश्व में अपनी पहचान बचाए रख सकते हैं। प्राचीन काल में आज की भान्ति कोई संविधान नहीं था तब ऋषियों द्वारा लिखें गए ग्रंथ ही देश का विधान थे । इन ग्रंथों में राजा तथा प्रजा के अधिकारों और कर्त्तव्यों का वर्णन था । देश के धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक कार्यो का लेखाजोखा भी इन्हीं ग्रंथों के आधार पर होता था। सारे देश का दण्ड विधान भी लगभग एक जैसा था । इन्ही आर्ष ग्रंथों का पूर्ण रूप में स्वीकार कर के ही हम विश्व गुरु बने थे। हमारी एक अनोखी पहचान थी किन्तु अनार्ष ग्रंथों ने हमारा सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा आर्थिक तानाबाना छिन्न भिन्न कर दिया । जिन ग्रंथों के कारण भारत सांस्कृतिक रूप से एक सूत्र में बंधा हुआ था । परन्तु अनार्ष ग्रंथों के प्रचार प्रसार से वह सूत्र टूट गए और हम जहां राजनीतिक रूप में खण्डित हुए, वहीं हम धार्मिक रूप में भी बाह्यय आडम्बरों जाति पाति के चक्करों में फंस कर टूटने लगे थे। स्वामी विरजानन्द ने इस कठोर यर्थाथ को अनुभव किया और उन्होनें अवैदिक ग्रंथों का पठन-पाठन छुड़वाकर ऋषिकृत ग्रंथों के प्रचार का संकल्प लिया । डा. राम प्रकाश का कथन है। ज्ञान का यह एक ऐसा यज्ञ था जो विश्व में सम्भवतः दण्डी जी ने ही रचा था। उन्होनें इस के लिए अपनी मान- कीर्ति, सुख- आराम सब कुछ इस यज्ञ को अर्पित कर दिया । स्वरचित दो पुस्तकों की भी आहुति दे डाली ' अपने ग्रंथों की आहुति उन्होनें तो इस लिए दी थी कि कहीं लोग इन ग्रंथों को उदाहरण बना कर अनार्ष ग्रंथो की रचना पुन: प्रारम्भ स्वामी विरजानन्द ने अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण आर्ष साहित्य का परिमार्जन किया। उन्होनें जिस सत्य का अनुभव किया उस सत्य को देखने और परखने का अवसर अन्य लोगो को भी दिया । यह उन का एक महानतम् कार्य था । इसी से आज उन की गणना पतंजलि और यास्क आदि व्याकरणर्चायों की कोटि में होती है। भारतवर्ष में व्याप्त सभी बुराईयों का समाधान स्वामी जी आर्ष ग्रंथ में पाते थे। उन को विश्वास था कि आर्ष ग्रंथों के प्रचार से मूर्तिपूजा और अवतारवाद स्वयमेव बन्द हो जाएगा ।
स्वामी जी को इस बात का ज्ञान था कि अपनी पाठशाला में पाणिनी की अष्टाध्यायी और महाभाष्य को पढ़ाने से देश में परिवर्तन नहीं आएगा। इस के लिए इन्हें बहुत बड़े सम्पर्क अभियान की आवश्यकता थी, जिसे बिना राजकीय सहायता के रचनात्मक आकार नहीं दिया जा सकता। इसलिए उन्होंने अनेक राजघरानों से सम्पर्क किया और उन्हें एक पण्डितों की सभा का आयोजन करने की प्रेरणा दी किन्तु इस का कोई फल नहीं निकला। स्वामी जी राजशक्ति से पूरी तरह निराश हो गए थे। अब उन की एक मात्र आशा उन के शिष्य थे, परन्तु आर्ष ज्ञान को ग्रहण करने वाला कोई सामान्य शिष्य नहीं हो सकता था। इस ज्ञान ज्योति को धारण करने वाला कोई अलौकिक शिष्य ही होना
चाहिए ।
स्वामी दयानन्द का आगमन -
सौराष्ट्र के टंकारा ग्राम में उत्पन्न मृत्यु महारोग की औषध और सच्चे शिव की तलाश मे सन्यासी बन कर, वन पर्वत घूमता सन् 1855 ई. में कनखल में स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती के चरणों में उपस्थित हुआ, इन्ही स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती जी से दण्डी स्वामी विरजानन्द ने दीक्षा और शिक्षा ग्रहण की थी । स्वामी पूर्णानंद जी तब तक बहुत वृद्ध हो चुके थे । उन्होंने स्वामी दयानंद से कहा 'हम बहुत वृद्ध है। मथुरा में हमारे योग्य शिष्य दण्डी विरजानंद रहे हैं। वे तुम्हारा मनोरथ पूरा करेंगे । मनोरथ प्राप्ति के स्थान का ज्ञान हो जाने के पश्चात भी वे तुरन्त वहां नहीं गए । कुछ इतिहासकारों का विचार है कि अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति होने वाले विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार करने के लिए उन्होंने उत्तराखण्ड होते हुए कानपुर तथा कानपुर से नर्मदा के कांठे में रहे और स्वतन्त्रता सैनानियों को इस संषर्घ के लिए प्रेरित करते रहे। अन्त में 14 नवम्बर 1860 को स्वामी | दयानन्द ने दण्डी स्वामी विरजानन्द का द्वार खटखटाया । यह इस देश के इतिहास का स्वर्णिम दिवस था, जब एक संन्यासी एक विशेष उद्देश्य से इस नगर में आया था । मथुरा में आने से पूर्व स्वामी दयानन्द अनेक योगियों से मिला था, अनेक साधु सन्यासियों के दर्शन कर चुका था। अनेक वनों एवं कन्दराओं की खाक छान चुका था। परन्तु उसे न तो सच्चा शिव मिला और न ही उसे मृत्यु का रहस्य ज्ञात हुआ था। उसकी ज्ञान पिपासा भी शान्त नहीं हुई थी। जिन दिनों स्वामी दयानन्द सच्चे गुरु की तलाश में भटक रहे थे, उन दिनों में उन्हें समाज में फैले धार्मिक आडम्बरों, अन्धविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों को देखने और समझने का समय मिला। इन सारे पाखण्डों में वास्तवकि धर्म क्या है? इस धर्म को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता। इसी जिज्ञासा की पूर्ति के लिए स्वामी दयानन्द स्वामी विरजानन्द के पास आए, तब दण्डी विरजानन्द का द्वार बंद था। धीमें से दयानन्द ने द्वार खटखटाया। अन्दर से स्वामी विरजानन्द ने पूछा," कौन हो” । दयानन्द ने बड़े विनय भाव से कहा, यही जानने के लिए आप की शरण में आया हूँ। द्वार अब भी न खुला बल्कि एक प्रश्न और हुआ, कुछ व्याकरण भी पढ़े हो, हाँ, महाराज सारस्वत आदि व्याकरण ग्रंथ पढ़े हैं, दयानन्द ने उत्तर दिया । द्वार खुल गया और दयानन्द ने प्रवेश पाकर सादर प्रणाम किया और अपना मन्तव्य कह सुनाया। स्वामी जी ने दयानन्द से कहा, जो कुछ तुमने पढ़ा है वह मनुष्यकृत है और अनार्ष ग्रंथ है। अत: त्याज्य है । अत: इसे भुला दो, हृदय की पट्टी को उज्जवल कर दो, जिससे उस पर आर्ष ग्रंथों के संस्कार अंकित किए जा सके। तुम्हारे पास इस प्रकार के जो | ग्रंथ हो उन्हें यमुना में बहा आओ' । हां, एक बात और सुन लो, मैं संन्यासी को नहीं पढ़ाया करता । क्योंकि उसके भोजन तथा निवास आदि की निश्चित व्यवस्था नहीं होती । इसलिए वह निश्चिन्त होकर पढ़ने में एकाग्रचित नहीं हो सकता। तुम पहले अपने निवास व भोजनादि की व्यवस्था करके आओ । दयानन्द को एहसास हुआ कि यही वह व्यक्ति है जिसकी उसे खोज थी। अपनी यात्राओं में वह अनेक विद्वानों से मिला था, किन्तु उसे स्वामी विरजानन्द जैसा वेदों का ज्ञाता और प्रचलित धार्मिक विश्वासों की सत्यता परखने वाला कोई नहीं था। स्वामी विरजानन्द को मिलने के लिए जब दयानन्द आ रहे थे तो मुरसान में उनकी अनन्ताचार्य से भेंट हुई । अनन्ताचार्य शास्त्रार्थ में स्वामी में उनकी विरजानन्द जी से पराजित हुए थे। दयानन्द ने उन्ही से विरजानन्द का पता पूछा। उन्होंने दयानन्द को स्वामी विरजानन्द का मथुरा का पता भी दिया और कहा कि विरजानन्द कोई साधारण विद्वान नहीं है। उन्हे अष्टाध्यायी और महाभाष्य पर पूर्ण अधिकार है। उसमें अपने शिष्यों में चेतना को जागृत करने की अद्भुत क्षमता है। यह सब कहने का अर्थ है कि विपक्षी भी उन की योग्यता के कायल थे और उन के अध्यापन के गुण के प्रशंसक थे। ऐसे गुरु के आदेश को सुनकर दयानन्द ने तथास्तु कहा और आदेश की पालना के लिए चल पड़े । दयानन्द ने अपनी सभी पुस्तकें गंगा में बहा दी। अब तक जो कुछ भी पढ़ा था उसे विस्मृत करना है। यह सब पात्र को खाली करने के समान ताकि उसमें यर्थाथ ज्ञान समा सके। दयानन्द ने अपने निवास और भोजन की व्यवस्था की और गुरु के चरणों में पुन: उपस्थित हो गया।
दण्डी जी की पाठशाला में दयानन्द को प्रवेश मिल गया। किन्तु अभी अगली परीक्षा शेष थी । विरजानन्द नए विद्यार्थी को पढ़ाने से पूर्व उस की परीक्षा लिया करते थे। वे पहले विद्यार्थी की बुद्धि, धारण शक्ति की जांच करते थे। वे सुक्ष्म प्रकार से जानने का यत्न करते थे कि आगन्तुक छात्र कही बात को ग्रहण करने में समर्थ है भी या नहीं। उसे सुना हुआ स्मरण रहता भी है या नहीं। यदि उन्हें इस परीक्षा से निश्चय हो जाता कि विद्यार्थी बुद्धिहीन है।, मेघा शून्य है तो वे उसे अपना शिष्य नहीं मानते थे। किसी किसी की बुद्धि की परीक्षा के पश्चात वह यहां तक कह दिया करते कि अमुक विद्यार्थी इतने समय में अष्टाध्यायी को अधिकृत कर लेगा । उन का अनुमान कभी गलत सिद्ध नहीं होता था। दयानन्द की भी परीक्षा ली गई थी । दयानन्द को विरजानन्द ने अपनी कसौटी पर खरा पाया और मन ही मन अपने भाग्य का सराहा। वास्तविकता तो यह थी, अब तक न विरजानन्द को ऐसा शिष्य मिला था और न ही दयानन्द को ऐसा गुरु । यदि शिष्य मेधावी था तो गुरु व्याकरण का पूर्ण पण्डित था। 'गुरु शिष्य दोनो ही अखण्ड ब्रह्मचारी, दोनो वीतरागी संन्यासी, दोनों सत्यान्वेषी, दोनों योगाभ्यासी, ईश्वर भक्त दोनों स्पष्टवादी, दोनों रूढियों एवं पाखण्डों के विरोधी दोनों वेद मार्ग के साधक थे। बड़ा विचित्र मिलन था ।
अब तक जितने भी विद्यार्थियों ने विरजानन्द से शिक्षा ग्रहण की थी वे सभी अल्पसंख्यक, अपठित एवं अल्पपठित थे । दयानन्द एक ऐसा विद्यार्थी था जो केवल पठित ही नहीं था बल्कि योगी भी था। वह बहुत बुद्धिमान था और कई बार वे पाठ के प्रति अनेक शंकाऐ कर देते थे और गुरु विरजानन्द उन शंकाओं का समाधान करते । इस प्रकार कभी कभी गुरु शिष्य में शास्त्रार्थ भी हो जाता । दयानन्द अपने गुरु से वार्तालाप में वैष्णवों की तिलक कण्ठी को निषिद्ध बनाते । विभिन्न सम्प्रदायों के धर्मकाष्ठों का खण्डन करते । ब्रह्मचर्य पालन का महत्व सिद्ध करते और संध्या अग्निहोत्रादि नित्यकर्मों की उपयोगिता की चर्चा करते । मूर्ति पूजा में उन का कोई विश्वास नहीं था । दयानन्द के इन विचारों को गुरु विरजानन्द का पूर्ण समर्थन मिला। स्वामी विरजानन्द प्राणपन से दयानन्द को ज्ञानदान देने लगे। उन की प्रबल इच्छा थी की जो कुछ ज्ञान-धन उन के पास संचित एवं सुरक्षित है वह सारा दयानन्द को दे डालें । दयानन्द का भी यही यत्न था कि महान गुरु के ज्ञान निधि के सभी रत्न ले लिए जाएं। इस पकार गुरु-शिष्य दोनों आदान प्रदान में संलग्न थे। "पढ़ाते पढ़ाते दण्ड़ी जी को यह ज्ञात हो गया था कि दयानन्द केवल विद्यार्थी ही नहीं है, अपितु भारत का सुधार पार्थी भी है। वे यह भी समझ गए थे कि जैसे कोई योद्धा समर भूमि में पदार्पण करने से पहले अस्त्र ग्रहण करने के लिए अस्त्रागार में आता हैं, ऐसे ही शास्त्र के रण क्षेत्र में अवतीर्ण होने से पहने दयानन्द योद्धा शास्त्रागार रूपी पाठशाला में आया है" स्वामी विरजानन्द को लगता था कि केवल दयानन्द ही इन्हें समझ पाया है और वही उन का मनोरथ पूरा करेगा। दयानन्द के हृदय में भी स्वामी विरजानन्द के प्रति अगाध श्रद्धा थी । उन्होनें उन्हें परम । विद्वान एवं महा विद्वान घोषित किया है।
स्वामी दयानन्द ने स्वामी विरजानन्द की पाठशाला में क्या कुछ पढ़ा यह निश्चित रूप में नहीं कहा जा सकता । बाबा अर्जुन सिंह का विचार है कि 'दण्डी जी वर्णोच्चारण शिक्षा से आरम्भ कर स्वामी दयानन्द को पदे- पदे वेद तक ले गए' । देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय ने लिखा है कि वे अष्टाध्यायी और महाभाष्य पढने के पश्चात उपनिषद्, मनुस्मृति, ब्रह्मसूत्र और पंतजलि के योग सूत्र प्रभृति दर्शन शास्त्रों का अध्ययन करने लगे और क्रमशः वेद और वेदांगो के भी पाठ में प्रवृत हुए' । डा. राम प्रकाश का मत है कि यहाँ पर रहते हुए उन्होनें किस वेद संहिता का आद्योपान्त अध्ययन किया हो - ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है' कुछ लेखकों का विचार है कि स्वामी दयानन्द ने स्वामी विरजानन्द से केवल संस्कृत सीखी थी और कुछ नहीं । स्वामी विरजानन्द संस्कृत का अध्ययन वेदादि साहित्य के लिए ही करवाते थे। यह सम्भव है उन्होनें वैदिक साहित्य का वहां अध्ययन न किया हो परन्तु यहां उन्हें आर्ष, अनार्ष ग्रन्थों की सूझ अवश्य प्राप्त हुई थी।
स्वामी दयानन्द ने स्वामी विरजानन्द जी के शिष्यत्व में धर्म की मौखिक प्रकृति तथा अन्य सम्प्रदायों के विषय में कुछ निश्चित मत ग्रहण किए थे स्वामी दयानन्द के । व्यक्तित्व निमार्ण की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है विश्राम घाट पर रहते हुए उन्हें हिन्दु धर्म की पतितावस्था को देखने और समझने का अवसर मिला। इस अवस्था से उभरने के लिए आर्ष ग्रंथों के अनुरूप भारतवासियों की जीवन पद्धति बननी चाहिए। इसी पाठशाला में दयानन्द की यह धारणा बनी कि चारों वेद संहिताएं ही स्वत प्रमाण है और प्राचीन धर्म के वास्तविक स्त्रोत वेद ऋषि प्रणीत ग्रंथ है। इसलिए प्रत्येक ग्रंथ को वेद प्रमाण की कसौटी पर कसा जाना चाहिए और उन की पुनः व्याख्या होनी चाहिए। तभी देश के वर्तमान को बचाया जा सकता है और भविष्य को सुरक्षित किया जा सकता है। दण्डी स्वामी विरजानन्द ने दयानन्द को यह चार सूत्रीय सिद्धान्त भी दिया,,
1) मूर्ति पूजा वेद विरुद्ध है।
2) मृत श्राद्ध वेद विहित नहीं है।
3) विधवा विवाह वेद वर्जित नहीं है।
4) कैसा भी पतित क्यों न हो वह यज्ञयागादि प्रायश्यित से शुद्ध हो सकता है। यह सूत्र आर्य समाज के सिद्धांतों की। आधारभूमि बने ।
प्राचीन भारतीय आश्रम परम्परा में विद्या की समाप्ति पर शिष्य अपने गुरु के चरणों में अपनी सामर्थ्य के अनुसार भेंट चढ़ाता था। गुरु दक्षिणा के इस पर्व को समावर्तन संस्कार कहा जाता था। स्वामी दयानन्द की विद्या भी पूर्ण हो गई और उन के लिए भी इस संस्कार की बेला भी आ गई थी। स्वामी दयानन्द अपने गुरु के चरणों पर भेंट चढ़ाने के लिए कुछ लौंग ले आए। स्वामी विरजानन्द लौंग को बहुत प्रयोग करते थें। इसीलिए अपने गुरु को अर्पित करने के लिए लौंग लाए थे।
स्वामी विरजानन्द जी सामान्यतः अपने शिष्यों से कोई भेंट अथवा दक्षिणा स्वीकार नहीं करते थे। उन्हें आशीर्वाद देकर विदा कर देते थे। किन्तु आज वे बदले हुए थे। उन्होनें दयानन्द से पूछा " दयानन्द क्या लाये हो ?' उनके इस प्रश्न को सुन कर उनके अन्य शिष्य भी घबरा गए। वे सोचने लगे कि आज गुरु जी को क्या हो गया है ? उन के गुरु तो दक्षिणा के नाम पर एक कण भी ग्रहण नहीं करते थे। आज उन के संन्यासी गुरु को क्या हो गया हैं ? दयानन्द ने जरा साहसपूर्वक स्वर में कहा,' गुरुदेव, मैं आप के लिए थोड़े से लौंग लाया हूँ। गुरु विरजानन्द ने तेजस्वी स्वर में कहा, हमारे घोर परिश्रम का यही पारिश्रमिक है ? दयानन्द ने अत्यन्त शान्त एवं विनीत स्वर में निवेदन किया 'मैं अकिंचन संन्यासी, ये लौंग भी, भिक्षा में मांग कर लाया हूँ । गुरुदेव मेरा विश्वास कीजिए, मेरे पास है ही क्या जिसे मैं आप के चरणों पर भेंट है चढ़ाऊ' । दयानन्द के इस उत्तर को सुनकर स्वामी विराजनान्द ने कहा, दयानन्द क्या तुम समझते हो कि मैं तुम से वह वस्तु मांग लूंगा जो तुम्हारे पास नहीं है? नहीं, मैं तुम से गुरु दक्षिणा में वह वस्तु मागूँगा जो तुम्हारे पास है ?'
इतना सुन कर स्वामी दयानन्द ने अपना शीश गुरु चरणों पर रख दिया और विनयपूर्वक कहने लगे, गुरु जी मेरा तन और मन आपके चरणों पर अर्पित है' । स्वामी विरजानन्द गद् गद् हो गए। उन्होनें उठ कर दयानन्द को गले से लगा लिया । उसे सामने बैठाकर कहा, " बेटा दयानन्द, वैदिक धर्म का लोप हो चुका है। उस का स्थान नाना मत मतान्तरों ने छीन लिया है। वेद तथा आर्ष ग्रन्थों के प्रचार के अभाव का |एक मात्र कारण अनार्ष ग्रन्थों का प्रचार है। तुम जाओं, वैदिक धर्म, वेद तथा आर्षग्रंथों का पुनः प्रचार कर के उन का उद्धार करो। यही मेरी गुरु दक्षिणा है। दे सकते हो तो प्रतिज्ञा करो कि जब तक जीवित रहोगे तब तक वैदिक धर्म को प्रतिष्ठित करने और भारत से मत मतान्तरों एवं अनार्ष ग्रन्थों के अन्धकार को नष्ट करने का प्रयत्न करोगे।"
दयानन्द ने इस आदेश पर कुछ क्षण गम्भीरता से विचार किया। फिर कहा आप की आज्ञा शिरोधार्य है। जीवन भर इस आदेश का पालन करूँगा । ऐसा कह कर दयानन्द ने अपने गुरु के चरणों पर अपना शीश रख दिया"।
गुरु विरजानन्द ने अपने प्रिय शिष्य के सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया और ईश्वर से प्रार्थना की वह उसे उसके प्रण पालन की शक्ति दें । इतना याद रखना कि ऋषि प्रणीत ग्रन्थों में ईश और वेद निन्दा नही मिलेगी। यही एक कसौटी है। इस का जीवन भर उपयोग करना । इतना कह गुरु ने आंखों में आए जल को रोक लिया और अपने प्रिय शिष्य को विदा दी । और दयानन्द आर्ष ग्रन्थों के प्रचार एवं देश में फैले अनेक सम्प्रदायों के पाखण्ड को तोड़ने का संकल्प ले कर वहां से चुपचाप चल पड़े।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व -
स्वामी विरजानन्द पंजाब के दोआबा क्षेत्र से सम्बंधित थे और साधारण पजांबियों की भान्ति उन का रंग गोरा था । इकहरा शरीर था और बुद्धि बड़ी तीव्र तथा स्मरण शक्ति विलक्षण थी । चिन्तन उन का मौलिक था और स्पष्ट वादिता, निर्भीक एवं दबंग उन के व्यक्तित्व की विशेषताएं थी । विरोध के बावजूद उन्होनें कभी भी अपने सिद्धातों से समझौता नही किया इस के लिए उन्हें कई बार | भारी कीमत भी चुकानी पड़ी। अपने अभावों एवं कष्टों का बखान कभी किसी से नही किया। सहानुभूति शब्द और अर्थ दोनों से उन्हें बहुत चिढ़ थी । उन्होनें ईश्वर की कृपा से जीवन को अपनी शर्तो पर जिया ।
वे वीणा बजाने में अति निपुण थे । नेत्र हीने होते हुए भी शतरंज के खेल में पूर्ण निपुण थे। कोई आंखों वाला भी उन की इस विषय में बराबरी नहीं कर सकता था । शतरंज की सैकड़ों चाले चली जाने पर भी उन का अनुक्रम ठीक ठीक बता देते थे। मथुरा में बहुत दिनों तक उन का वास रहा, वहां के लोग उन्हें सम्मानपूर्वक दण्डी जी, दण्डी स्वामी जी, प्रज्ञा चक्षु अथवा बड़े महाराज कह कर सम्बोधित करते थे। कुछ लोग उन्हें महात्मा सूरदास भी कहते थे । विश्व में प्रंशसको के साथ विरोधियों की भी कमी नहीं होती। जो लोग उन के चिन्तन का विरोध करते थे और उन की विद्वता से ईष्या करते थे। वे उनके चिन्तन का विरोध धृतराष्ट्र कह कर अपने मन की आग को शान्त करते थे।
स्वामी विरजानन्द ब्रह्ममूर्हत में उठ कर अपने नित्य कर्मों से निवृत होकर प्राणायाम तथा समाधि लगाते । फिर अध्यापन कार्य में लग जाते। दोपहर के समय कभी सोते नहीं थे। किन्तु वृद्धावस्थ में दोपहर में कभी कभी लेटकर विश्राम भी कर लेते थे। तत्पश्चात वे पुन: पढ़ाने लग जाते थे। शाम के समय स्नान करने के पश्चात वे पुनः समाधि में बैठ जाते । रात को भी कम ही सोते थे। उन का सारा दिन पठन-पाठन एवं शास्त्र मनन में व्यतीत होता ।
स्वामी जी का भोजन विचित्र था । प्रतिदिन उन का भोजन एक जैसा नहीं होता था। कभी कभी उन्हें बिना भोजन के निर्वाह करना पड़ता था। वे अच्छे वैद्य थे तथा आयुर्वेद के अनुसार वे अपना भोजन निश्चित करते थे। कभी वे आदेश देते कि आज उन्हें दूध में छुहारे उबाल कर दें । कभी फलाहार से दिन काटते । अन्नाहार बहुत कम करते थे। बालूशाही और जमीकन्द उन्हें बहुत पसन्द था । लौंग उन को बहुत प्रिय थी। कभी मेथी के साग में घी डाल कर खाते थे । उन का भोजन महंगा तथा उत्तम कोटि का होता था। बासी भोजन कभी नहीं करते थे। स्वामी विरजानन्द बहुत कम वस्त्र पहनते थे और प्रायः पादुकायों का प्रयोग करते थे।
स्वामी जी ने एक बार गलती से संखिया खा लिया । जब विष ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया तब उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ। उन्होनें पाठशाला में रखे मटके के पानी को धीरे धीरे सिर पर डालते रहे और कुक्काटस एवं मयूर आसन करते रहे। शाम तक विष का प्रभाव कम होने लगा और रात तक उन्हें आराम आ गया। उन के शिष्यों ने उन की बहुत सेवा की। आयुर्वेद का उन्हें ज्ञान था और इसी ज्ञान ने एक बार उन के जीवन की रक्षा की थी। कहते है कि एक बार गंगा तट पर वास के दिनों उन को देह सूज गई। उन्होनें एक विशेष प्रकार की औषधि का प्रयोग अपने ऊपर किया जिससे रोग का निदान हो गया किन्तु शरीर के कई भागों से त्वचा उतर गई थी और उस के स्थान पर नई त्वचा आनी शुरू हो गई थी। उन का कायाकल्प हो गया था।
स्वामी जी सफाई का बहुत ध्यान रखते थे। उन के पलंग की चादरें तथा कमरे का फर्श बहुत अच्छी प्रकार से साफ सुथरा रहता था । वे अपने शिष्यों से अपने कमरे की सफाई के सम्बन्ध पूछते रहते थे। स्वामी जी सीढ़ियों पर चढ़ते उतरते समय किसी अन्य व्यक्ति अथवा वस्तु का आश्रय नहीं। लेते थे। वे साधारण सनेत्र व्यक्तियों की भान्ति सीढ़ियों से उतरते तथा चढ़ते थे। अलवर के एक पण्डित ने एक उदाहरण देकर इस कथन को प्रामाणिकता प्रदान की है । स्वामी जी अपने एक शिष्य के साथ नगर घूमने के लिए जाते थे। मार्ग में एक नहर पड़ती थी। शिष्य ने अवगत कराने के लिए कहा," गुरु जी आगे नहर है। " नहर से गुरु जी को बुरा लगा। उन्होंने उस का हाथ छोड़ दिया और उस की सहायता के बिना उन्होनें कई बार नहर को पार किया। उन का शिष्य आश्चर्य चकित खड़ा उन्हें देखता रहा। ब्राह्मणों के नाम के साथ 'दास' शब्द से उन्हें सख्त घृणा थी। वे इसे दासत्व का प्रतीक मानते थे और इसे हटाने की प्रेरणा दिया करते थे। वे आत्म विश्वास से भरपूर रहते थे। वे स्वाभिमानी तथा विनयी थे। वे प्रकृति से शांत एवं विरक्त थे। वे शमदम आदि गुणों से भरपूर थे। अपने गुरु के प्रति उन के मन में अगाथ श्रद्धा थी। उन की इस भक्ति के कारण। उन के गुरु इन्हें ऋषिप्राण तथा ऋषियां वाला कहा करते थे। । आर्ष ग्रंथों में उन की निष्ठा जब से पनपी वह अटूट बनी रही। जब भी कोई उन्हें मूर्ति पूजा के सम्बन्ध में कहता तो उन का उत्तर होता कि आर्य ग्रंथों के प्रचार से मूर्ति पूजा स्वयं दूर हो जाएगी, अवतार वाद का अन्त भी वे आर्ष ग्रंथों के प्रचार में देखते थे। सामाजिक कुरीतियों के सम्बन्ध में कहते, ऋषियों के ज्ञान की ज्योति को निर्वाध रूप प्रसूत करों, ये में कुरीतियां स्वयमेव नष्ट हो जाएगी।
स्वामी विरजानन्द की देश भक्ति अक्षुण्य थी। देश मे जब स्वतन्त्रता संग्राम प्रारम्भ हुआ तब देश की धार्मिक तथा सामाजिक स्थितियां बहुत अच्छी नहीं थी। सारा देश अनेक मत मतान्तरों में बंटा हुआ था और प्रत्येक मत एवं सम्प्रदाय अपने आप को श्रेष्ठ कहता और दूसरे सम्प्रदायों को हीन एवं ताज्य समझता । जाति पाति प्रथा ने हमारी सामाजिकता को नष्ट भ्रष्ट कर दिया था। स्वामी विरजानन्द का विश्वास था कि देश की ऐसी अवस्था के लिए विदेशी शासन तथा अनार्ष ग्रंथों का प्रचार प्रसार है। वे देश के भाग्य को बदलना चाहते थे और इस के लिए प्रयत्नशील भी थे । उन्होनें एक ओर सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए प्रयास आरम्भ किया तथा दूसरी ओर उन्होनें अंग्रेजों के विरुद्ध जन सूमह को तैयार किया। इस का प्रमाण स. 1913 में मथुरा के किसी मन्दिर में हुई एक सभा में समर्पित के रूप में दिया गया । स्वामी जी का भाषण है जिस में उन्होंने देशवासियों के सम्बोधित करते हुए कहा था इस मुल्क के हर इन्सान का फर्ज है कि वह वतनपरस्त बने और मुल्क के हर वाशिन्दें को भाई भाई जैसी मुहब्बत करे जब हमारे अंदर वतन परस्ती आ जाएगी तो मुल्क की गुलामी यहां से खुद व खुद जुदा हो जाएगी। हिन्द में रहने वाले सब आपस में हिन्दी भाई हैं। उस सभा में यह उन का अध्यक्षीय भाषण था। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि स्वतन्त्रता में भाग लेने वाले अधिकांश स्वतन्त्रता सेनानी स्वामी जी के प्रभा मण्डल से प्रभावित थे और उन की प्रेरणा से ही वे उन विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध लड़े थे। इस कथन को सिद्ध करने के लिए उन के पास कोई प्रमाण नहीं हैं लेकिन स्वामी जी के सिद्धान्तों और व्यवहारिकता को देखते हुए उन की देशभक्ति पर कोई अंगुली नहीं उठा सकते । दण्डी स्वामी विरजानन्द जी उस युग में प्रचलित अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। संस्कृत के तो वे प्रकाण्ड विद्वान थे ही, फारसी के भी अच्छे ज्ञाता थे। उन्होनें श्री जुगल किशोर जी से अंग्रेजी भाषा सीखने का प्रयास किया था । अंग्रेजी के कुछ शब्द आते भी थे। अंग्रेजी सीखने का क्रम अधिक दिन तक न चल सका । इतनी भाषाओं के ज्ञाता स्वामी विरजान्नद की रचित कोई विशेष रचना उपलब्ध नहीं होती। इस का कारण यह भी हो सकता है कि वे मानव प्रणीत रचनाओं को अनार्ष रचनाएं कहते थे । फिर भी स्वामी जी ने यदाकथा कुछ श्लोकों की रचना की थी। वे श्लोक आज अन उपलब्ध है। वे सब समय की धारा में बह गऐ। व्याकरण स्वामी जी का प्रिय विषय था । उन्होनें अपने जीवनकाल में अनेक लोगों से पत्र व्यवहार किया है। वे सब पत्र उन के चिंतन की निरन्तरता तथा विकास के साक्षी है। व्याकरण से सम्बन्धित उन की एक पुस्तक शब्दकोश संस्कृत वाङ्मय में एक मील पत्थर है।
स्वामी जी अलवर नरेश के निमन्त्रण पर अलवर नरेश विनय सिंह को संस्कृत पढ़ाने के लिए गए थे तब उन्होनें उन लोगों के लिए पुस्तक लिखी थी जो कम प्रयास में बहुत शब्द सीखने की इच्छा रखते हैं। स्वामी जी ने स्वंय पुस्तक के मंगलाचरण मे इस आशय की पुष्टि की है। वे कहते है, " जो अनुभूति के साथ संकेत किया गया है। और जो भगवान पाणिनि का कथन है, शब्द प्रयोगों की सिद्धि करते समय इन दोनों को सरल अर्थ इस में स्पष्ट किया गया है तथा आगे कहते हैं, " जो शब्दों की व्युत्पति की इच्छा रखते हैं । विस्तार में नहीं जाना चाहते, वे इस ग्रंथ को ही पढ़े और सज्जन इस ग्रंथ का अनुमोदन करें' । ग्रंथ का आरम्भ ओं श्री 'रामचन्द्राय नमः'' से किया गया है। यह उन की कौमुदी अध्यापन काल की रचना है। अभी उन के चिन्तन में स्थिरता आना बाकी था । जब उन के विचारों ने सिद्धान्तों का रूप धारण कर लिया तब यह रचना स्वामी जी के लिए महत्वहीन हो गई
थी ।
नागेश भटट् द्वारा प्रणीत 'शब्देन्दु शेखर' का खण्डन करने के लिए स्वामी जी ने वाक्य मीमासां लिखी। इस पुस्तक का रचनाकाल सन 1916 है। इस समय तक स्वामी जी ने अनार्ष ग्रन्थों का विरोध प्रारम्भ कर दिया था। वाक्य मीमासा के मंगलाचरण में स्वामी जी कहते हैं, 'हे पाणिनि हे कात्यायन ! हे पंतजलि ! तुम सबको मेरा बार-बार प्रणाम है । कृपा कर के मुझे वह ज्ञान सिद्ध कराओं, जिससे में घूर्त वैयाकरणों को निराकरण कर सँकू । इन के ग्रंथ अशुद्ध इन्हें ये बुद्धिहीन वैयाकरण शुद्ध मानकर मुझे कष्ट पहुँचा रहे है। मेरे द्वारा यत्न पूर्वक भाष्य- व्याख्या किए जाने पर उसे पूर्ण तथा पर्यालोचन कर ही तथा मेरे वाक्यों पर विचार कर लिए जाने पर ही धूर्तो का निराकरण सम्भव है। इसलिए वाक्य मीमांसा नामक ग्रंथ प्रवर्तित होगा।"
वाक्य मीमांसा के पश्चात रचित पाणिनीय सूत्रार्थ प्रकाश का उद्देश्य अष्टाध्यायी पर बल देना लगता है। इस पुस्तक का आरम्भ 'ओइम' तथा अथ शब्दानुशासनम् से हुआ है। कुछ विद्वान इस पुस्तक को स्वामी विरजानन्द द्वारा रचित नहीं मानते । देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय का मत है कि विरजानन्द सरस्वती ने पाणिनि के प्रायः आधे भाग का एक भाष्य प्रकाशन किया था। हर विलास शारदा का भी सही मत है फिर यह ग्रंथ पूरा किस ने किया ।
स्वामी विरजानन्द ने अपने शिष्य गोपी नाथ को अपने ग्रंथो को यमुना में बहा देने का आदेश दिया था। गोपी | नाथ ने ग्रंथो को यमुना में न बहा कर अपने घर रख लिया था । कुछ समय के पश्चात ये पुस्तके युगल किशोर के पास चल गई। उनसे ये पुस्तके उन के शिष्य अखिलानंद ने प्राप्त की । तब कुछ भाग पण्डित अखिलानन्द ने लिख दिया। ऐसे डा. राम प्रकाश के विचार है। इस के पश्चात स्वामी जी ने कोई पुस्तक नहीं लिखी और न ही अपने शिष्यों को लिखने के लिए प्रेरित किया। स्वामी जी ने राजा राम सिंह को सार्वभौम सभा करने का सुझाव दिया था। उसने उन्हें इस सम्बन्ध में पूर्ण सहयोग देने की बात की थी किन्तु स्वामी जी को उनका कोई उत्तर नहीं आया । वास्तव में स्वामी जी को एक मंच चाहिए था जहां से वे अपने विचारों एवं सिद्धान्तों का प्रचार करते और सभी विद्वानों को वैदिक धर्म की महत्ता सिद्ध करते । यह मंच बिना राजकीय सहायता से सम्भव नहीं था । इसलिए आगरा आ कर राजा राम सिंह को पुनः पत्र लिखा । यह पत्र स्वामी जी के आयु पर्यन्त तक के ग्रंथ विष्यक अनुभव, अध्ययन, चिन्तन एवं मनन का सार है।
वास्तव में स्वामी जी अपने युग के विद्वानों से बहुत आगे थे। उन्होनें तत्कालीन परिस्थितियों के लिए विदेशी शासन और अनार्ष ग्रंथों का प्रचार माना । तब भले ही लोगों ने उन के विचारों को स्वीकार न किया हो परन्तु वर्तमान युग के इतिहासकार स्वामी जी के विचारों से पूर्ण रूपेण सहमत है। इसी लिए वे युग पुरुष है।
गुरु विरजानन्द जी ने आयु पर्यन्त अध्यापन का कार्य किया है। समय के इस प्रवाह में उन के सम्पर्क में अनेक शिष्य आए थे। इन शिष्यों का पूरा विवरण उपलब्ध नहीं है । स्वामी जी अपने शिष्यों को संस्कृत पढ़ाते थे और संस्कृत पढ़ाने का उनका एक मात्र उद्देश्य था, वेद पाठ करना और वेदों की नित्यता स्थापित करना । स्वामी जी के अध्यापन काल को दो भागों में बांट सकते हैं- 1) कौमुदी अध्यापन काल 2) आर्ष ग्रन्थों का अध्यापन काल । कौमुदी काल के शिष्यों में वासुदेव, युगल किशोर, जगन्नथ चौबे, दामोदर दत्त, बनमाली चौबे, सोमनाथ, पुरूषोत्तम लाल गोस्वामी, रमण लाल गोस्वामी तथा केशव देव । दूसरे काल में दयानन्द सरस्वती, उदय प्रकाश, गरुडध्वज, दीन बन्धु हरिकृष्ण, केशवदेव, गया प्रसाद, ब्रज किशोर शास्त्री आदि शिष्य उन से अष्टाध्यायी पढ़ने के लिए उन के आश्रम में आये
थे ।
गंगा दत्त तथा रंग दत्त चौबे काशी में अध्यापन कार्य करते थे किन्तु वे अपना व्यवसाय छोड़ कर दण्डी विरजानन्द जी से पढ़ने के लिए मथुरा आए थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती का अपने सहपाठी गंगादत्त के साथ विशेष स्नेह था । दण्डी जी के अनेक शिष्य भागवत् धर्म में आस्था रखने वाले थे और उन का शास्त्रार्थ स्वामी दयानन्द सरस्वती से भी होता रहता था। कई शिष्यों ने दयानन्द सरस्वती की उच्चता को स्वीकार कर के मूर्ति पूजा का त्याग कर दिया और कई लोगों ने लोक लाज के कारण अपने पैतृक स्थानों को छोड़ कर अपेक्षाकृत कम जाने वाले नगरों एवं कस्बों में आश्रय लिया ।
स्वामी विरजानन्द अपने शिष्यों को पढ़ाते-पढ़ाते कभी कभी देश की दशा धर्म की हीन स्थिति तथा उसके। कारणों का निर्देश कर के उसके वारण के उपाय भी बताया करते थे। वे अपने छात्रों को केवल पण्डित न बना कर व्यवहार कुशल तथा बुद्धिमान बनाने का यत्न करते थे । स्वामी जी को पता होता था कि प्रत्येक विद्यार्थी की योग्यता एक जैसी नहीं होती इसलिए वे प्रत्येक छात्र को पृथक-पृथक पढ़ाते थे और प्रत्येक छात्र के लिए उन की विधि भिन्न होती थी । वे तब तक पढ़ाते रहते थे जब तक छात्र पढ़ना चाहते थे । गुरु विरजानन्द जी अपने शिष्यों के आचरण पर भी ध्यान देते थे ताकि उन का कोई भी छात्र निन्दा का पात्र न बने ।
स्वामी जी अपने शिष्यों की शंकाओं का समाधान करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती समय समय पर अपनी शंकाओ के निवारण के लिए अनेक बार गुरु चरणों में उपस्थित हुआ करते थे। कभी कभी पत्रों के द्वारा अपने संशय दूर करते रहते थे।
अनेक राजा लोग भी अपनी शंकाओं का समाधान करने के लिए स्वामी जी से पत्र व्यवहार करते रहते थे । स्वामी जी अपने छात्रों से पत्रों के उत्तर लिखवाते थे। उन पत्रों को सुनकर उन की अशुद्धियां दूर करते थे। स्वामी जी ने आर्ष ग्रन्थों तथा विभिन्न मत मतान्तरों के सम्बन्ध में अनेक लोगों को पत्र लिखते रहते थे। आज वे पत्र इतिहास का अंग है ।
देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय न दण्डी जी की
पाठशाला की तुलना बोटोम्बर्ग के विश्व विद्यालय से की है। मार्टिन लूथर वहां अध्यापन करते थे। उन्होनें अपने अध्यापन के माध्यम से ईसाई धर्म की नींव को हिला दिया था। लूथर की विद्वता और अध्यापन शैली के कारण अनेक लोग उस विश्व विद्यालय में प्रवेश लेने लगे थे । यही स्थिति विरजानन्द की कुटिया की
थी ।उस युग की परिस्थितियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि स्वामी जी ने अपने अध्यापन के माध्यम से देश में क्रांन्ति ला दी थी । लोग पुनः ऋषि द्वारा रचित ग्रंथो की ओर आकर्षित होने लगे थे और एक बार फिर देश वासी वास्तविक धर्म की ओर प्रवृत्त होने लगे थे ।
स्वामी विरजानन्द जी अनार्ष ग्रन्थों का खण्डन बहुत निर्भीकता से करते थे और विभिन्न व्यक्तियों द्वारा चलाए गए सम्प्रदायों और पंथों के घोर विरोधी थे । अपना विरोध प्रकट करने का कोई भी अवसर वे हाथ से जाने न देते । उन्होनें कितने ही तथाकथित विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें समार्ग पर लाने का यत्न किया । उन का दृढ़ निश्चय था कि आर्ष ग्रंथों के पठन-पाठन के बिना धर्म के वास्तविक स्वरूप को पाया नहीं जा सकता। मथुरा में आने वाले प्रत्येक विद्वान को वे अपने पास बुलाते उन्हें अपनी बात समझाने का यत्न करते । यदि वे न समझते तो उन्हें शास्त्रार्थ की चुनौती देते । 1860ई. पश्चात उन्होनें वासुदेव स्वामी को वृन्दावन में पराजित किया । 1863 ई. में बम्बई के कवि गहूलाल गोकुल में आए। उन का स्वामी जी से शास्त्रार्थ हुआ । किन्तु गहूलाल स्वामी जी सामने ठहर नहीं पाये। स्वामी विरजानन्द जी ने उस युग के सभी विद्वानों और धार्मिक आचार्यो को शास्त्रार्थ में पराजित कर के अष्टाध्यायी पढ़ाने का परामर्श दिया और आर्षग्रंथों में आस्था लाने का उपदेश दिया।
स्वामी विरजानन्द की इस परम्परा को उन के शिष्य स्वामी दयानन्द ने जारी रखा। स्वामी दयानन्द सरस्वती गुरु विरजानन्द जी से विदा लेकर आगरा आ गए थे। वहां उन्हानें खूब अध्ययन किया। वहां लोगों को अष्टाध्यायी तथा गीता पढ़ा दिया करते थे। वे अपने भावी कार्यक्रम की रूप रेखा बनाने में व्यस्त थे और अपने आप को आने वाले समय के लिए तैयार भी कर रहे थे। 24 जनवरी 1865 ई. को स्वामी दयानन्द सरस्वती ग्वालियर पहुँचे। वहां के राजा जया जी राव ने एक सौ आठ भागवत का पाठ 4 फरवरी से रखा था । उसमें अनेक पण्डितों के भाग लेने की सम्भावना था। भागवत पर शास्त्रार्थ करने के लिए इस से अच्छा अवसर और कोई नहीं मिलना था । वे वहां पहुँच गए। परन्तु पण्डित मण्डली उन से शास्त्रार्थ के लिए तैयार नहीं हुई । राजा ने स्वामी जी से भागवत बचवाने के महातम के सम्बन्ध में पूछा। स्वामी जी ने कहा कि सिवाय दुःख और क्लेश के और कुछ नहीं होगा । जयपुर की पण्डित मण्डली भी उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार नहीं हुई तब जयपुर में शैव और वैष्णव सम्प्रदायों में घोर संग्राम छिड़ा हुआ था । स्वामी जी ने भी इस शास्त्रार्थ में भाग लिया। इस शास्त्रार्थ से स्वामी दयानन्द जी का जयपुर राज दरबार में भी सिक्का बैठ गया।
स्वामी दयानन्द ने पुष्कर पहुँच कर मूर्ति पूजा, वैष्णव मत तथा रामानुज सम्प्रदाय का खण्डन आरम्भ कर दिया । यहां स्वामी जी ने शिव तथा विष्णु की पूजा छुड़वा कर एक ईश्वर की उपासना का मंत्र पाठ लोगों को पढ़ाया। अजमेर में भी पण्डितों, मौलवियों, राम स्नेहियों एवं पादरियों को भी शास्त्रार्थ में पराजित किया। इन्ही दिनों दयानन्द ने एक सात पृष्ठ की संस्कृत में पुस्तिका प्रकाशित की और इसे लाई लारेंस द्वारा आयोजित आगरा दरबार में हजारों की संख्या में बांटा यह उन का उनके द्वारा उपलब्ध प्रथम लेख है।
गुरु विरजानन्द की कुटिया छोड़ने के पश्चात स्वामी दयानन्द मथुरा, आगरा, अजमेर, ग्वालियर के मध्य घूमते रहे। इन वर्षों में उन मे बहुत परिवर्तन आ गया था। मार्गशीर्ष 1923 वि. में स्वामी दयानन्द स्वामी विरजानन्द की सेवा में उपस्थित हुए। यह गुरु शिष्य की अन्तिम भेंट थी । गुरु विरजानन्द अपने प्रिय शिष्य की उपलब्धियों पर निंसदेह प्रसन्न थे।
स्वामी दयानन्द ने इन्हें अपनी रचित पुस्तिका भी सुनाई और अनेक शंकाओं का समाधान भी किया। फिर गुरु का आशीर्वाद एवं अनुमति लेकर व पुनः धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े । दयानन्द ने स्वामी जी की विचार धारा को व्यावहारिक रूप देकर संसार में यश कर प्राप्ति की थी। यही उन की तपस्या थी। उन की तपस्या फलीभूत हो रही थी। वे पूर्ण रूप से सन्तुष्ट एवं प्रसन्न थे ।
अब स्वामी विरजानन्द जी की आयु भी काफी हो गई। थी और वे उदर शूल से पीड़ित रहते थे। वैद्यक का उन्हें ज्ञान था और अपनी चिकित्सा स्वयं करते थे। प्रायः कहा करते थे कि जिस दिन वे अपनी चिकित्सा करने में असमर्थ होगें । उस दिन उन की मृत्यु हो जाएगी। फिर भी वैद्य दीन बन्धु तथा वैद्य रामरत्न उनकी देखभाल करते थे। मृत्यु से दो वर्ष पूर्व ही उन्होनें यह घोषणा कर दी थी कि उन की मृत्यु उदर शूल से होगी। अपने शिष्यों और स्नेहियों को भी उन्होनें मृत्यु से पूर्व संकेत में कह दिया था कि वे अब न आया करे। उन्हें अपनी पुस्तके, वस्त्र तथा तीन सौ रूपये पण्डित जुगल किशोर के नाम उत्तराधिकार पत्र लिख कर रजिस्ट्री करवा दी थी।
आखिर वह दिन आ गया जिसे नियति ने उन के लिए निश्चित किया हुआ था। उन के शिष्य रोने लगे । स्वामी जी ने उन्हें कहा कि मुझे उस स्थान पर बैठाओ जहां मैं बैठकर आप को पढ़ाता था। वहां बैठाया गया जब उन्होनें अपने शिष्यों से पूछा," तुम क्यों रोते हो ? ' शिष्यों ने कहा कि अब वे अपनी शंकाओं का समाधान किस से करेंगें । उत्तर में स्वामी जी ने कहा, " लो मैं अष्टाध्यायी में प्रविष्ट होता हूँ । जो कुछ पूछना हो इस से पूछ लिया करना। इस पश्चात उन का हाथ एक ओर झुक गया। यह दिन था 14 सितम्बर 1868 । जीवन भर संघर्षरत रही महान आत्मा अपना कार्य सम्पन्न कर के इस नश्वर संसार को छोड़ कर अपने निज धाम चली गई। स्वामी दयानन्द को जब उनके भक्तों ने स्वामी विरजानन्द की मृत्यु का समाचार दिया तो उन का मुख मण्डल मुरझा गया। यह उन के लिए व्यक्तिगत क्षति थी । उनके मुख से अनायास निकला। आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया' उस दिन सरस्वती ने उपवास रखा ।
(पुस्तक के लेखक =dr.बल्विन्दर शास्त्री)
इति ओ३म् शम्
प्रस्तुतकर्ता = शास्त्री हरी आर्यः