वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई

                 


मातृभूमि का मस्तक ऊंचा करने वाली भारत की वीरांगनाओं में महारानी लक्ष्मीबाई का नाम विशेष रूप से महत्वपूर्ण है,उसका बचपन का नाम मनु भाई था,मनु के पिता मोरोपंत और माता भागीरथी धार्मिक प्रवृत्ति वाले थे। बचपन में बहुत चंचल नटखट होने के कारण सब लोग प्यार से मनु को छबीली पुकारते थे उसका बचपन पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नानी जी और राव साहब के साथ बीता था मनु उनके साथ घुड़सवारी करती शिकार खेलने जाती और नकली युद्ध करती थी। इस साहसिबाला का विवाह झांसी के महाराज गंगाधर राव के साथ हुआ। विवाह के बाद इसका नाम झांसी बाई रखा गया। कुछ वर्ष पश्चात लक्ष्मीबाई ने पुत्र को जन्म दिया , पर बालक सिर्फ कुछ मास तक जीवित रहकर चल बसा। गंगाधर राव पुत्र की मृत्यु से बहुत दुखी हुआ और अंत में यही दुख उसकी मृत्यु का कारण बना मरने से पहले उन्होंने दामोदर राव नामक बालक को गोद ले लिया था। उस समय भारत पर अंग्रेजों का शासन था। महाराज गंगाधर राव की मृत्यु होते ही अंग्रेजों ने झांसी को अपने राज्य में मिला लिया और उसकी रक्षा के लिए सेना भी रख दी। महारानी लक्ष्मीबाई को 5 हजार रुपए मासिक पेंशन की घोषणा कर दी गई इस अन्याय के विरोध में महारानी ने बहुत अपीले की, पर सुनवाई ना हुई। उन दिनों अंग्रेजों ने अपनी नीति से कई राज्य हड़प लिए। प्रतिज्ञा की आज्ञा होगी हम अंग्रेजों का सर्वनाश कर देंगे और भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराएंगे। सन 1856 में पूरे भारत में स्थान स्थान पर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह छिड़ गया झांसी में भी महा विद्रोह हुआ और लक्ष्मीबाई ने महारानी के रूप में राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। इस पर जनरल पर परहूरोज की कमान में अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। तात्या टोपे ने रानी की सहायता की। यह युद्ध 11 दिनों तक चला। जब महारानी को विजय की आशा न रही तो उसने अपने 8 वर्षीय दत्तक पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधा और 1000 सैनिक को साथ लेकर अंग्रेजों पर बिजली बनकर टूट पड़ी कहते हैं, महारानी ने गढ़ की दीवार के ऊपर से जिसकी ऊंचाई दो मंजिलों जितनी थी घोड़े सहित छलांग लगाई थी। भयंकर युद्ध हुआ महारानी ने अपनी वीरता और साहब से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए वह अंग्रेजों की सेना को चीरती हुई बिना कुछ खाए पिए निरंतर चलती हुई कालपी पहुंची। कालपी झांसी से एक सौ दो मील की दूरी पर है। अंग्रेज जनरल झांसी को जीतकर कालपी की और बढ़ा। मुट्ठी भर सैनिकों के साथ रानी से उसका डटकर सामना किया, पर सफल ना हो सकी। वहां से चलकर महारानी ने तांतया टोपे और राव साहब के साथ मिलकर फिर पूरे बल के साथ अंग्रेजों पर धावा बोल दिया। भयंकर युद्ध हुआ। महारानी वीरता से लड़ी पर वह शत्रुओं के बीच में घिर गई। अपने अपूर्व साहब से वह अंग्रेजों के घेरे को तोड़कर निकल चली पर एक सैनिक ने पीछे से उन पर वार किया जिससे महारानी घायल हो गई, फिर भी लड़ती रही। अब शत्रुओं ने रानी के छाती को छेद दिया। घोड़े से गिरते-गिरते बी महारानी ने अपने सामने वाले सैनिक को मार गिराया। महारानी के मार्कर गिरते हैं उसके एक सैनिक ने शव को उठाया और पास ही एक महात्मा की कुटिया में ले गया। उसकी पीठ पर बंदे उसके पुत्र को खोला गया और फिर उसी समय चिता बनाकर शव का दाह कर्म कर दिया गया, जिससे विदेशी सैनिकों के हाथ उस पवित्र शरीर को छू ना सके। आज भी भारतवासी उन्हें वीरांगना के रूप में याद करते हैं सुभद्रा कुमारी चौहान की ये पंक्तियां स्मरणीय है। 

 चमक उठी सन 57 में, वह तलवार पुरानी थी।

 बुंदेलो हरबोलो से, हमने सुनी कहानी थी। 

खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।

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