तप

 


दिवमारुहत् तपसा तपस्वी । 

(अथर्व०.१३/२/२५)

(तपस्वी) तपस्वी (तपसा) तप से (दिवम) ऊपर (आरुहत्) उठता है।

जीवन में ऊपर उठने के लिए तप की आवश्यकता होती है। संसार के सभी महापुरुषों ने तपस्या को अपनाया और ऊंचे उठे।

लोगों ने तप का अर्थ नहीं समझा। कोई अपना हाथ ऊपर उठाकर खड़े रहने को ही तप मानते हैं। कोई कांटो पर लेटे रहने को ही तप मानते हैं । कोई गड्ढा खोदकर उसी में बैठे रहने को तब मानते हैं। कोई गर्मी में चारों और अग्नि जलाकर उसमें बैठने को तो कहते हैं। यह सब तप के विकृत, दूषित और भ्रष्ट रूप हैं।

तप की कई परिभाषा की गई है। योग दर्शन और गीता के अनुसार - (द्वंदसहनंतप:) अर्थात बंधुओं को सहन करना तप कहलाता है । धर्म, सत्य और न्याय मार्ग पर चलते हुए विघ्न बाधाओं, कष्ट - क्लेशों, भूख प्यास, सर्दी गर्मी, सुख दुख , हानि लाभ, विजय पराजय, हर्ष शोक और मान अपमान, उत्थान पतन, जन्म मृत्यु को स्वभाव से सहन करना ही तप कहलाता है । महाभारत में युधिष्ठिर जी महाराज ने  तप का अर्थ किया है - 

"तप: स्वकर्मवर्तित्वम्"

पूरी निष्ठा से कर्तव्य पालन का नाम ही तप है।

चाणक्य ने तप की यह परिभाषा की है- 

" तप: सार इंद्रियनिग्रह "

तप का सार जितेंद्रियता है ।

बिलासी व्यक्ति तप की पवित्रता को बनाए नहीं रख सकते।

गीता में गुणों की दृष्टि से तीन प्रकार का तप बताया गया है - सात्विक, राजसिक और तामसिक तप। साधनों की दृष्टि से भी तब के तीन प्रकार बताए गए हैं -  

शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप ।

 हमारा अभिप्राय है यहां केवल शारीरिक रूप से है,शारीरिक   तप से यहां अभिप्राय यह है तन सुखदास नहीं बनाना चाहिए,उसमें शारीरिक कष्ट और असुविधा को  भी सहन करने का अभ्यास होना चाहिए |       

पानीपत की लड़ाई में मुगल बादशाहमोहम्मद साहब को परास्त कर जवाई नदी नादिरशाह दिल्ली पहुंचा तो उसका भव्य स्वागत किया गया|नादिर शाह ने पानी पीने की इच्छा चाहिए की|मोहम्मद शाह ने पानी लाने का संकेत किया काफी देर ही गई,परंतु पानी नहीं आया थोड़ा देर बाद नादिर साहब को  नगाड़े  और तुरई की आवाज सुनाई दी|उसने समझा शायद कोई उत्सव आरंभ हो गया| देखो तो अनु चोरों की भीड़ सोने चांदी के थैलों में सजाए, चँवर डुलाते पाने की सुराही और गिलास, पानदान और पीकदान लिए चली आ रही है|नादिरशाह ने देखा कि यह सारा आडंबर पानी पिलाने के लिए किया जा रहा है। 

          उसने इस विलासितापूर्ण आडंबर को देखकर कहा,'मोहम्मदशाह! अब मैं समझा कि तुम्हारे पास इतनी विशाल सेना होते हुए तुम क्यों हारे|'

         उसने अपने भिश्ती को संकेत किया जो मश्क भरकर पानी ले आया| तब मोहम्मद शाह से बोला,'यदि हम भी तुम्हारी तरह विलासी होते तो ईरान से हिंदुस्तान तक नहीं आ सकते थे|'

 दिल्ली में नादिरशाह ने सैनिकों एवं सूबेदारो के लिए भोज का कार्यक्रम बनाया| रसोइए ने एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट व्यंजन बनाए| नादिरशाह ने स्वयं भोजन का निरीक्षण किया तो देखा- भोजन मसालेदार, चटपटा व स्वादिष्ट बना है| उसने सारे भोजन में पानी डलवा दिया| सारा भोजन खराब हो गया| वह रसोइयों से बोला,'मेरे सिपाहियों और सूबेदारो को ऐसा राज्य से भोजन खिला कर उन्हें स्वाद का गुलाम बनाना चाहते हो| विजय प्राप्त करने के लिए युद्ध करना है| यदि सैनिक ऐसा भोजन ग्रहण करेंगे तो विजय प्राप्त करने से पहले ही धराशाही हो जाएँगे| सैनिकों को सदा सात्विक एवं पौष्टिक भोजन देकर उनकी दृढ़ता बढ़ाओ, ना कि उन्हें स्वाद का गुलाम बनाओ|'

दूसरा तप होता है वाचिक तप ।

वेद ने कहा है - 

ब्रह्मन्मा त्वं वदो बहु । (यजुर्वेद.२३/२५)

हे ब्राह्मण! तू अधिक मत बोल ।

 

बहुभाषिणो न श्रद्दधाति लोक: ।

बहुत बोलने वालों का संसार में अधिक सम्मान नहीं होता।

मितं च सारं  वचो हि वाग्मिता ।

नपी तुली और सार युक्त बात ही बात पटुता कहलाती है ।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप्प ।

अति का भला ना बरसना, अति की भली न घुप्प ।।

महात्मा आनंद स्वामी जी ने इस घटना का वर्णन किया है -

गंगोत्री के पास एक साधु रहते थे। वे वर्ष भर में 11 महीने मौन व्रत रखते थे। बाहरवें महीने में मोहन की सारी कसर निकाल लेते थे । उसकी निंदा, उसकी चुगली, उसकी बुराई और एक दूसरे को लड़ाना बिराना बस उनके यही काम थे। 1 दिन वहां के सब साधु इकट्ठे होकर आनंद स्वामी जी के पास आए और कहने लगे, आनंद स्वामी जी! आप हमारा नेतृत्व करें और चुप्पी बाबा जी से प्रार्थना करें, चुप्पी बाबा जी! कृपया बाहरवें महीने  में भी मौन ही रखा करें ताकि सर्वत्र शांति रहे। आनंद स्वामी जी उनके पास गए और उन्हें यह सुझाव देते हुए कहा,

अच्छा है कि 12वें महीने भी आप मौन ही धारण करें ताकि सब का कल्याण हो जाए।

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जहां तक मानसिक तप का संबंध है, गीता में इस प्रकार कहा गया है - 

मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: ।

भाव संशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ।।

(गीता.१७/१६)

मन की निर्मलता, शांति, मौन रहकर ईश्वर भक्ति आत्मा का संयम और विचारों की पवित्रता यह मन के तप हैं ।

प्रकृति के 3 गुण होते हैं -सत्व गुण, राजो गुण और तमोगुण। इन तीनों गुणों के आधार पर तीन प्रकार के तप होते हैं - सात्विक, राजसिक और तामसिक।

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्रिविधं नरै: ।

अफलाकांक्षिभिर्युक्तै: सात्विकं परिचक्षते ।।

(गीता.१७/१७)

फल की इच्छा ना करने वाले,  योग में लगे हुए मनुष्यों से और उत्कृष्ट श्रद्धा से तपाया गया - यह तीन प्रकार का सत्व गुणी तप कहलाता है ।

सत्कारमानपूजार्थ तपो दम्भेन चैव यत् ।

क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ।।

(गीता.१७/१८)

जो तप आदर, बढ़ाई और पूजा के लिए और कपट से किया जाता है, वह रजो गुण तप कहा गया है ।

मूढग्राहेणात्मनो यत् पीडया क्रियते तप: ।

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ।।

(गीता.१७/१९)

जो तपमूर्खता के आग्रह से आत्मा को नष्ट देकर अथवा दूसरे को उखाड़ने के लिए किया जाता है, वह तमोगुणी तप कहा गया है ।


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