एक स्थान पर स्वामी दयानंद सरस्वती उपदेश दे रहे थे उन्होंने भक्तों को समझाया कुछ लोग धर्म के नाम पर अपना उल्लू सीधा करते और लोगों की आंखों में धूल झोंकते हैं। ऐसे पाखंडीयों के चंगुल में नहीं फंसना चाहिए।
ऐसे उपदेशों से जनता होशियार हो गई। वह प्रखंडों से बचने लगे। इससे कपटी लोग नाराज हो गए और उन्होंने कुछ बालकों को बहकायाहकाया कि स्वामीजी पर पत्थर फेंके। बालकों ने वैसे ही किया। सभी में उपस्थित भक्त उन बालकों को पकड़ लाए और स्वामीजी के सामने उन्हें खड़ा करने बोले। स्वामी जी इन्होंने आपको पत्थर मारे हैं अतः आप ही इन्हें दंड दे।
स्वामी जी ने दांडी देने के बदले बच्चों को प्यार किया और उन्हें खाने के लिए लड्डू दिए। यह देखकर भक्त लोग हैरान हुए और पूछने लगे स्वामी जी यह बालक दंड के अधिकारी हैं फिर आप इन्हें मिठाई क्यों दे रहे हैं ?
स्वामी जी बोले यदि कुछ लोग बुरी बात करें तो उनकी देखा देखी हम भी बुराई न करें। फिर सच्चाई यह है कि बच्चों को निरपराध हैं। उन्हें बहकाया और उकसाया गया है।
स्वामी जी के इन ऊंचे चरित्र को देखकर ना केवल बच्चे रो पड़े और क्षमा मांगने लगे अपितु पाखंडीयों के दिल भी बदल गए और वह स्वामीजी के चरणों में गिर पड़े। इस प्रकार चरित्र में बड़ी शक्ति है।
अपना चरित्र बनाना हमारे हाथ की बात है कोई भी बालक अच्छे या बुरे चरित्र के साथ पैदा नहीं होता हां कुछ बालकों को अच्छी परिस्थितियां मिलती है उनके प्रभाव से उनकी आदतें उनका स्वभाव और उनका चरित्र अच्छा बन जाता है कुछ बालक बुरी परिस्थितियों में पड़ जाते हैं निस्संदेह उन पर दिन-रात बुरे प्रभाव पड़ते हैं इससे उनके दिल दिमाग में बुरी आदतें फस जाती हैं प्रमाणित उनकी आदतें उनका स्वभाव और उनका चरित्र बुरा बन जाता है। अतः अच्छा चरित्र बनाने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं।
1. अच्छे लोगों की संगति में रहना और बुरे वातावरण से बचना।
2. बुरी आदतों को त्याग देना।
3. अच्छे गुणों को ग्रहण करना।
चरित्र निर्माण का यह कार्य बचपन से ही आरंभ हो जाता है। जन्म से लेकर 3 वर्ष तक तो माता-पिता और बड़े भाई बहन बच्चे को सिखाते हैं क्या अच्छा है , क्या बुरा है । साफ रहो, गंदगी मत करो आदि। इसके पश्चात अपने चरित्र का आधा भाग पालक स्वयं बनाने लगता है और आधा भाग माता पिता, अध्यापक ,पड़ोसी, साथी आदि सारे मिलकर बनाते हैं। बालक को कुछ माता-पिता सिखाते हैं कुछ अध्यापक पढ़ाते हैं। इन्हें तो विद्यार्थी पक्का सत्य मानकर ग्रहण कर लेता है।
किंतु इनके अतिरिक्त भी हमारे आस पास बहुत बड़ी दुनिया है हम अपने साथियों को कई तरह की बातें करते हुए देखते हैं हमारे पड़ोस में भांति भांति की घटनाएं घटती हैं घर से बाहर हम रंग रंग के दृश्य देखते हैं और कई तरह की बातें सुनते हैं यह सब कुछ हम ग्रहण नहीं करते उनमें से कुछ चुनाव करना पड़ता है कि कौन सी बात हमारे लिए अच्छी है, कौन सी बुरी? हमारे माता-पिता हर समय हमारे साथ नहीं रह सकते हमारे अध्यापक प्रत्येक स्थान पर हमें नहीं बता सकते ऐसा करो , वैसा ना करो। अतः भले बुरे का अंतिम निर्णय हमें स्वयं करना पड़ता है इसलिए हम अपना चरित्र स्वयं बनाते हैं। क्योंकि हम अपने मालिक आप हैं हम चाहें तो अपने आप को ऊंचा उठा सकते हैं हम चाहे तो अपने आप को नीचा गिरा सकते हैं।
भला कोई चाहता है कि हम बुरे बने? नहीं, ऐसा कोई नहीं चाहता कोई भी मनुष्य जान भुज कर बुरी आदतों में नहीं पढ़ना चाहता फिर भी हम बुराई के शिकार हो ही जाते हैं कैसे? जैसे हम साफ कपड़े पहन कर अपने घर से निकलते हैं हम नहीं चाहते कि वह गंदे हो या उन पर धब्बे लगे या कीचड़ उछले। किंतु दुनिया के हर रास्ते पर धूल भी है , गंदगी भी है। हमारे ना चाहते हुए भी इनके संघ से हमारे कपड़े थोड़े बहुत गंदे हो ही जाते हैं फिर उन्हें दो ना और साफ करना आवश्यक होता है, ठीक उसी प्रकार बचपन में हम भोले भाले, सीधे-साधे, सच्चे और अच्छे बच्चे होते हैं। किंतु आस-पड़ोस के कुछ भले, कुछ बुरे प्रभाव हम पर पढ़ते हैं इनमें से बुरे प्रभावों को हमें उसी प्रकार दोना होगा जिस प्रकार हम कपड़ों को धोते हैं इसी का नाम चरित्र निर्माण है इसी से हम अपना सुधार करते हैं।
प्रस्तुतकर्ता - साहिल केसर