वीर सावरकर जी (राष्ट्र ऋणी है जिनका)


                             🙏ओ३म्  🙏           

                     क्रान्ति के सूत्रधार

 जेलों की क्रूर यातनाओं के शिकार तीन सगे भाई

                 क्रान्तिकारी वीर सावरकर बन्धु



(चापेकर बन्धुओं की तरह आजादी के लिये अपने जीवन को देश के प्रति समर्पित कर देने वाले तीन सगे भाइयों में थे-बड़े भाई गणेशपन्त सावरकर और दूसरे विनायक सावरकर तथा छोटे नारायण सावरकर महाराष्ट्र में, नासिक जिले के भगूर ग्राम में एक चितपावन ब्राह्मण दामोदर पन्त सावरकर के घर इनका जन्म क्रमश: १८७९, १८८३ और १८९९ में हुआ। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध देश-विदेश में प्रचार करने, आजादी सम्बन्धी कविताएं एवं साहित्य लिखने और उन्हें प्रकाशित कराने, क्रान्ति के सूत्रधार होने तथा अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के अपराधों में संलिप्त मानने के कारण अंग्रेजों ने दो बड़े भाइयों को काले पानी की सजा दी। विनायक सावरकर को तो खतरनाक क्रान्तिकारी मानकर ५० वर्ष की सजा दी गयी। कालेपानी की जेल में उनके साथ पशुओं से भी बुरा व्यवहार किया गया, क्रूर यातनाएं दी गयीं, तिल-तिल करके शरीर को जीर्ण-शीर्ण कर दिया गया। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में उन घृणित, क्रूर एवम् अमानुषिक यातनाओं का विवरण दिया है, जिन्हें पढ़कर आज भी पाठकों की रूह कांप जाती है। सावरकर बन्धुओं के कारावास की कहानी अंग्रेज़-साम्राज्यवाद के अन्याय-अत्याचार की ज्वलन्त कहानी है। इनकी कथा से अंग्रेज़ों के ही नहीं, हेग अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय तक के तथाकथित न्याय के ढोंग और पाखण्ड का पर्दाफाश हो जाता है। (सम्पादक)


दो आजन्म कारावासों की सजा " आपको पचास वर्ष की कालेपानी की सजा दी गई है। हेग के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने यही निर्णय दिया है कि अंग्रेज़ों को बाध्य नहीं किया जा सकता कि वे आपको फ्रांस के हाथों सौंप दें। " मुझे जेल में आकर एक सरकारी अधिकारी ने यह जानकारी दी। ठाणे के कारागृह में छोटा भाई (नारायण सावरकर) २० वर्ष का तरुण ! अहमदाबाद में लार्ड मिन्टो पर फेंके गये बम के प्रकरण में पकड़े जाने पर वह यहां कष्टमय जीवन बिता रहा है। मातृभूमि की स्वाधीनता के लिये कष्टों का धैर्य से सामना करने की उसकी जो बारी आई सो भी आयु के अठारहवें वर्ष में जेल से मुक्त होकर घर पहुंचकर बिछौने पर लेटकर निद्रामग्न हुआ ही था कि उसे राजद्रोह व हत्या के भयंकर अभियोग में पुनः जेल में डाल दिया गया। एक वर्ष तक उसे अमानवीय यातनाओं, तरह-तरह की धमकियों तथा क्रूरता का शिकार होना पड़ा। फिर भी जिसने इस अल्पायु में न अपना दृढ़ निश्चय त्यागा, न अपने संकल्प से लेशमात्र भी डिगा वही मेरा छोटा भाई  । माता-पिता बचपन में ही चल बसे थे, जिससे मैं ही उसके लिये सब कुछ था क्षण भर भी मुझसे बिछुड़ जाता तो मैं रो उठता। वही मेरा छोटा भाई यहीं बेड़ियों से जकड़ा, मुझ जैसा ही चक्की पीसने का कठिनतम कार्य कर रहा है !! वह बेचारा स्वयं इतना दुःखी है, ऐसे में मैं अपने आजन्म कारावास की सजा का हाल उसे कैसे सुना दूं. उसे और अधिक दुःखी बनाने के लिये ? आजन्म कारावास के दण्ड की बात वे सब जानते तो थे, मगर उन सब को विश्वास था कि हेग के न्यायालय के निर्णय से मुझे रिहा कर फ्रांस भेज दिया जायेगा, इसी आशा में वे तमाम दुःख भूल जाते। अब यदि उन्हें मेरे दो आजन्म कारावासों के दण्ड का समाचार मिल गया तो उन पर क्या बीतेगी ?

बड़ा भाई आजन्म कारावास का दण्ड पाकर कालेपानी चला हो गया था। अब मैं उसी रास्ते पर हूं। जब छोटा भाई यह जान जायेगा कि मैं अण्डमान स्थायी रूप से, जीवन भर के लिये जा रहा हूं. मेरी उसकी भेंट दुर्लभ होगी तो उसके अपरिपक्व मन की क्या हालत होगी? उसे शिक्षा कौन देगा? वह लड़का जहां-जहां जायेगा, वहां-वहां के लोग माथे पर त्यौरियां चढ़ाकर उसके लिए दरवाजे बन्द कर देंगे। वह सच में अनाथ बन जायेगा। मानस पटल पर दुःख भरे ये विचार अचानक छा से गये। पुनः डूब गये।


चलो भैया, कालेपानी



ठाणे के बन्दीगृह में केवल अण्डमान जाने वाले कैदियों को बन्द करने के लिये जो एक स्वतन्त्र विभाग है, उसमें कदम धरते ही मुझे एक कोठरी में बन्द कर दिया गया।" ""दो ही चार दिनों में उन कैदियों को बाहर निकाला गया, जिन्हें अण्डमान भेजना था। अन्य बन्दियों के साथ मैं भी पैरों में बेड़ी डाले, एक-एक चादर और एक बण्डी, जो बन्दियों की पोशाक होती है, लिये पहने खड़ा था। सभी को कहा जा रहा था- चलो भैया, कालेपानी को। हमारी अग्निबोट अण्डमान के बन्दरगाह पर पहुंच गयी। वह समुद्र के खल-खल करते पानी में लंगर डाले खड़ी हो गयी। बन्दियों को साथ लाने वाले अधिकारी उनमें से उतर गये। नीचे उतरने के लिये हमें वोट पर काफी समय तक खड़े रहना पड़ा।


चलो उठाओ बिछौना

मैं उठा, बिछौना सिर पर रखा, हाथ में बर्तन लिया। पैरों की भारी बेड़ियां कमर में कस लीं और खड़ा रहा। "कल्पना में खोया था कि सिपाही के 'चलो उठाओ बिछौना' के शब्दों ने मुझे आहत ही कर डाला। थोड़े ही समय में सेलुलर जेल का दरवाजा आ गया। लोहे के विशाल दरवाजे की कब्जियां तीक्ष्ण दाढ़ों की तरह चरमराने लगीं और कर्कश आवाज के साथ जेलखाने का दरवाजा मुंह बाये सामने खुल पड़ा- मैं उसमें घुस गया और मुंह बन्द हो गया, जो अगले ग्यारह वर्ष बाद ही पुनः खुला।जमादार मुझे लेकर सात नम्बर की बैरक की ओर चल दिया। मार्ग में काले पानी से भरा एक हौद मिला। जमादार ने कहा, “इसमें स्नान करो।" मैंने चार-पांच दिन से स्नान नहीं किया था। समुद्र यात्रा से शरीर एकदम मलिन तथा पसीनामय हो गया था। इससे स्नान की अनुमति मिलते ही मन में अपार आनन्द हुआ। लेकिन समस्या थी कि किस वस्त्र को पहनकर नहाया जाये ? जमादार मेरी दुविधा को भांप गया। उसने कहा- “यह लंगोटी लो और स्नान करो। अब स्नान करते समय तथा काम करते समय इसी को पहनना होगा।" पहले तो लंगोटी पहनते हुए मन हिचकिचाया-मगर झट ही बोल उठा, "अरे पगले, स्वामी समर्थ रामदास भी तो लंगोटी ही पहनते थे।'''''''''

• लंगोटी पहनकर मैं कटोरीनुमा थाली से हौद से स्नान के लिए पानी लेने लगा कि इतने में जमादार ने चिल्लाकर कहा, "ऐसा नहीं  करना, यह कालापानी है। पहले खड़े रहना, फिर मैं आज्ञा दूंगा लो पानी। फिर झुक कर आप पानी लेंगे-एक कटोरा भर। फिर मैं कहूंगा 'अंग मलो', तो आप अंग मलेंगे। तब फिर मैं कहूंगा और पानी लो तब आप दो कटोरे पानी लेंगे। केवल तीन कटोरे पानी में स्नान करना बस, समझे ?

उस मुसलमान पठान का यह आदेश सुनते ही मैं चौंक' पड़ा। नासिक क्षेत्र का निवासी होने के कारण मुझे संकल्प के अनुशासन की आदत थी। मन में हंस कर कहा- तो फिर यह भी एक संकल्प सही। वह गोरे पानी का था, इसे कालेपानी का समझ लिया जाये। मैं स्नान करने लगा। मुंह पर पानी का छपका लगाते ही मेरे नेत्र एकदम बन्द हो गये और अंधेरा छा गया। आंखों में आग सी लगने लगी। आखिर हुआ क्या? इतने में आदत वश चुल्लू-भर पानी मुंह में गया। मुंह कड़वा व जीभ नमकीन हो गयी तथा पूरा पानी थूक दिया। साहस करके जमादार से पूछा- 'यह पानी नमकीन क्यों है?" उसने कहा-'वाह, समुद्र का पानी भी क्या मीठा होता है? पीने के पानी का अभाव रहने से अण्डमान में स्नान, कपड़े धोने तथा अन्य उपयोग के लिये समुद्र के पानी का उपयोग करना होता है। वह भी समुद्र से लाकर हौद में संचित हुआ होता है।' स्नान तो कर लिया पर पूरा शरीर कसमसा उठा। बाल खड़े हो गये। लगा कि स्नान नहीं करता तो अच्छा था। मगर फिर विचार किया कि अब इसकी आदत तो डालनी ही होगी। लन्दन तथा पेरिस के 'टर्किशी-बाथ' का आनन्द लिया है, अब थोड़ा 'अण्डमानिश-बाथ' का भी अभ्यास हो जाये। राष्ट्रीय पाप का क्षालन उच्चकोटि के साबुन तथा सुगंधित तैल लगाकर गरम पानी के फव्वारों से संस्कृत-संकल्प करके थोड़े ही होगा? वह होगा खारे पानी से, जमादार के 'लो पानी' के संकल्प से जो कि कठोर आज्ञा के समान है और होगा केवल तीन कटोरे भर पानी से समझे?' कपड़े पहनकर आगे बढ़ा। तीसरी मंजिल की बैरक तक पहुंच गया। मेरे कारण वह पूरी बैरक, जिसमें १५० लोग रखे जाते थे, पूरी खाली करवा दी गई थी। वहां चुगलखोर, कुकर्मी तथा उलट खोपड़ी, कलेजे वाले तीन वार्डरों की तैनाती की गई थी। वे तीनों बलूची तथा पठान मुसलमान थे।" इन मुसलमानों में पठान, सिन्धी तथा बलूची में व्यक्तिगत अपवाद को छोड़ कर प्रायः सभी अत्यन्त क्रूर तथा हिन्दू द्वेषी थे। उनमें भी व्यक्तिगत  अपवाद छोड़कर वे इतने दुष्ट थे, न कि हिन्दू द्वेषी ही, किन्तु अव्वल दर्जे के धर्मान्ध व क्रूर मुसलमानों की दृष्टि में भी वे मुसलमान 'काफिर' थे। वे उन्हें 'आधा काफिर' कह कर पुकारते जिसमें अन्य मुसलमान भी उन पठानों व बलूचियों के समान क्रूरतर व हिन्दू विरोधी बनने लगे। वहां के अधिकारी उसी पर ज्यादा विश्वास करते जो ज्यादा क्रूर होता।इसीलिए मुझ पर निगरानी के लिए न केवल मुसलमानों में अपितु पठानों में भी जो सब से अधिक क्रूरतम था, उसे 'वार्डर' अथवा 'पेटी अफसर' के रूप में रखा गया था। वह इन्हीं गुणों, क्रूरता, चुगली व हिन्दू द्वेष के आधार पर चढ़ते-चढ़ते अधिकारी बन बैठा था।


तैल की घानी

राजबन्दियों को अलग-अलग बैरकों में अकेले-अकेले रखा गया। उनकी परस्पर की बातचीत अब हथकड़ी या बेड़ी की सजा पाती। स्नान के हौद पर या भोजन करते समय यदि कोई इशारे से भी कुशलक्षेम पूछता देख लिया जाता तो सात-सात दिन दण्डा बेड़ी पहने खड़े रहने की सजा रसीद हो जाती। उन सुशिक्षित राजबन्दियों से अब छिलका कुटाई का काम लेना पक्षपात माना जाने लगा तथा उन्हें तैल के कोल्हू चलाने का काम सौंप दिया गया जो बैल के ही योग्य माना जाता है तथा जेल का सब से कठिनतम मशक्कत का कार्य माना जाता है। सवेरे उठते ही लंगोटी पहनकर कमरे में बन्द हो जाना तथा अन्दर कोल्हू का डण्डा हाथ से घुमाते रहना। कोल्हू में नारियल की गरी के पड़ते ही वह इतना भारी चलने लग जाता कि कसे हुए शरीर के बन्दी भी उसकी बीस फेरियां करते रोने लग जाते। बीस-बीस वर्ष तक की आयु के चोर-डाकुओं तक को इस भारी मशक्कत के काम से वंचित कर दिया जाता किन्तु राजबन्दी, चाहे वह जिस आयु का हो, उसे यह कठिन व कष्टतर कार्य करने से अण्डमान का वैद्यक शास्त्र भी नहीं रोक पाता। कोल्हू के उस डण्डे को हाथों से उठाकर आधे रास्ते तक चला जाता और उसके बाद का अर्ध गोला पूरा करने के लिए डण्डे पर लटकना पड़ता, क्योंकि हाथों में बल नहीं रहता था। तब कहीं कोल्हू की गोल दांडी पूरा चक्कर काटती।

बीस वर्ष तक आयु के वे सब कोमल राजबन्दी कष्टों से अपरिचित परन्तु सुशिक्षित थे। सवेरे दस बजे तक लगातार कोल्हू के चक्कर लगाने से श्वास भारी हो जाती और प्रायः सभी को चक्कर आ जाता। कोई-कोई तो पसीने से लथपथ होकर बेहोश तक हो जाते। नियमानुसार दस बजे काम बन्द कर दिया जाता दो घण्टे के लिए। परन्तु कोल्हू का काम निरन्तर का था। भोजन आते ही दरवाजा खुल पड़ता। बन्दीवान भात, रोटी व सब्जी लेकर, थाली भर लेता और उसके अन्दर जाते ही दरवाजा बन्द। यदि कोई बन्दी पसीने से तर शरीर को साफ करते रहने या हाथ-पैर धोते रहने के कारण एकाध मिनट विलम्ब कर देता, तो जेल वार्डर उसे जोर-जोर से मां-बहन की गन्दी गालियां देने लगता। जहाँ पीने के पानी के लिए आग्रह करना पड़ता वहाँ हाथ धोने के लिए पानी कहां से मिले? कोल्हू में काम करते-करते भीषण प्यास लगने लगती। पानी वाला पानी देने से इन्कार कर देता। यदि किसी को तम्बाकू खिला दी तो पानी मिल जाता। जमादार से पानी के लिए कहा जाता तो उसका उत्तर होता-'कैदी को दो कटोरी पानी देने का हुक्म है, तुम तो तीन पी गये। और पानी क्या तुम्हारे बाप के घर से लायें' पानी पीना या हाथ धोना जहां इतना दुश्वार था वहां स्नान के लिए पानी कहां?


तैल पूरा करना होगा

भोजन परोसकर जमादार को कोठरी का दरवाजा बन्द करने के बाद यह चिन्ता न थी कि कैदी ने भोजन किया कि नहीं बल्कि उसे यह चिन्ता रहती कि फिर से कोल्हू पिराने लगे कि नहीं? वह बैरक में से, कोठरियों के सामने निरन्तर चक्कर लगाकर चिल्लाता रहता-'बैठो मत, शाम तक तैल पूरा करना पड़ेगा। नहीं तो पिटाई होगी, सजा मिलेगी सो अलग।' उसका यह चिल्लाना इतनी कर्कश आवाज में होता कि बन्दियों को उसे सुनकर खाना निगलना भी मुश्किल हो जाता। क्योंकि प्रत्येक का अनुभव था कि तैल कम निकलने पर शाम के समय बन्दियों को पैरों तले कुचला जाता था। लाठी से पीटा जाता। इस डर से पेट में चूहों के कूदते रहने पर भी, कोल्हू पेरते-पेरते, खड़े-खड़े थालियों में पसीना डालते-डालते उसी के कौर उठा-उठाकर बन्दियों को मुंह में भरने को मजबूर होना पड़ता। इस प्रकार भोजन करके शाम के पांच बजे तक कोल्हू पेरना पड़ता। आदत पड़ जाने के कारण कुछ लोग चार बजे ही अपना काम समाप्त कर देते। सौ में एकाध ही आदमी नित्य का पूरा काम अर्थात् ३० पौण्ड तैल निकाल पाता। अन्य सभी पूरा प्रयास करने के भयंकर कष्ट उठाने के बावजूद उसे पूरा करने में असमर्थ रहते। उनमें जो नवसिखिये, सीधे-सादे तथा कर्त्तव्यनिष्ठ होते, उन्हीं पर जमादार वार्डर की मार पड़ती। भोजन पूरा न करके भी निरन्तर काम करते रहने पर भी तैल पूरा न हो पाता।  तब क्या कहना? अभी भी ऐसे बन्दियों का अति कारुणिक दृश्य मेरी आंखों के आगे घूम रहा है। तैल पूरा नहीं हुआ है, ऊपर से थप्पड़े पड़ रहीं हैं। बाजू से लाठियां खा रहे है, आंखों से आंसू की धाराएं बह रही हैं। मूक रुदन इस ओर से उस ओर तक लहराता चला जा रहा है। स्वाभिमानी व सरल हृदय वाले बन्दियों की यह दुर्दशा  ? कैदी जरा निडर हो तो उसे हथकड़ी, तेज हो तो बेड़ी आदि की सजा दिला दी जाती। इन बातों को देखकर बन्दीगृह में कदम रखते ही आदमी को निश्छलता, सरलता व लज्जा त्यागने को विवश होना पड़ता। यह अनुभव की बात है कि जो लज्जा त्याग देते, गाली का जवाब और बड़ी गाली से देने को उद्यत रहते, ऐसे ही लोग वहां अन्त तक जीवित रहते हैं। भले व सीधे-सादे आदमी का वहां क्या काम?


रात में भी कोल्हू

जेलर बारी बाबा किसी को भी ढीला नहीं छोड़ते थे, चाहे वह निडर हो या अव्वल दर्जे का बदमाश। सरल व सीधों से तो आते-जाते मारपीट होती थी, क्योंकि भुनगों को कुचलना तो 'वीर पुरुषों' के लिए बहुत आसान होता है। इसका एक लाभ यह भी होता था कि सीधे, सरल व दुर्बलों पर मार पड़ते देखकर, बदमाश भी आतंकित होकर पिटने के भय से अपना तैल पूरा करने में जी-जान से तुल जाते थे। इतने पर भी यदि किसी दिन गरी कच्ची होती और किसी का भी तैल शाम तक पूरा न हो पाता तो बारी बाबा दंड देने का एक और नया तरीका जानते थे। शाम को लगभग पांच बजे भोजन परोसे जाते समय वे आकर गर्जना करते "बन्दीवान षड्यन्त्र रचते हैं, काम जानबूझ कर पूरा नहीं करते।" वे घोषणा कर देते “जिनका तैल उन्हें आज भोजन नहीं दिया जायेगा।” पूरा नहीं हुआ बन्दी सवेरे छह बजे से काम शुरू करते। खड़े-खड़े भोजन करते, फिर शाम तक लगातार बिना एक पल सांस लिये कोल्हू चलाते-चलाते थक कर चूर हो जाते। फिर बारी बाबा शाम को पूरी जेल का काम समाप्त करा कर, बन्दियों को बैरकों में भिजवाकर राजबन्दियों की काम की कोठरी में आ पहुंचते। बाहर कुर्सी पर जम जाते और रात के काम की खबर बाहर व्यक्त करने की हिम्मत न सिपाही की होती न किसी अन्य की। क्या मजाल कि जो मुंह से एक शब्द भी बाहर निकाले? यदि कोई ऐसा दुस्साहस कर देता तो बारी षड्यन्त्र रचकर उसे ऐसा मजा चखाता कि वह एक ही हफ्ते में पानी मांगने लगता। राजबंदियो से रात को सात, आठ, नौ, दस बजे तक भी कोल्हू चलवाया जाता। जमादार आते-जाते मार-पीट कर जाते। रात में जेल के घण्टे पर घण्टे बज रहे हैं, तमाम बन्दी सो रहे हैं, केवल कोल्हू की बैरक कर्रकर कर रही है। बारी बाबा बैरक के सामने कुर्सी पर बैठे ऊंघ रहे हैं। बीच में नींद उचटते ही गाली-गलौज करने लगते हैं। “अब तक तैल पूरा न हुआ तो मारो साले को, कल मारना है तो आज ही मारो।" वह कहते-कहते फिर से ऊंघने लग जाता।


बीमारी का ढोंग

जिनके हाथ को कभी कष्ट ने स्पर्श तक नहीं किया, जिनमें कालेज में अध्ययन-अध्यापन करने वाले थे, ऐसे सत्रह-अठारह साल के बन्दीवानों को महीनों तक कोल्हू का कष्टप्रद काम दिया जाता। उन तरुणों के कष्टों की कोई सीमा ही नहीं थी। उनमें जब कोई बीमार पड़ जाता तो उससे तो अच्छा मृत्यु की ही कामना करने लगता। इसका कारण यह था कि वहां बीमारी के भयंकर स्वरूप को भी ढोंग करार दे दिया जाता। यदि बुखार हो गया तो १०१ के ऊपर होने पर ही माना जाता कि बुखार है। बुखार होने पर बन्दी को अस्पताल न भेजकर काम बन्द कराकर कोठरी में ही रखा जाता। चोरी, आगजनी, डाके आदि के कैदियों को ज्वर जैसी बीमारी होने पर भी रुग्णालय में सोने के लिए चारपाई मिल जाती। परन्तु राजवन्दियों को कोठरी में ही डाले रखा जाता। सिर दर्द, हृदय रोग, जी घबड़ाना आदि अप्रत्यक्ष बीमारी से जो पीड़ित हो जाता, उन पर 'ढोंग' करने या 'काम से जी चुराने का बहाना' जैसे आरोप. लगा दिये जाते अवसर पाकर उन्हें सजा भी दे दी जाती। हां, यह भी सत्य है कि कुछ चतुर बन्दियों के पास ऐसी युक्तियां या औषधियां हो जाती कि वे चाहे जितना ताप, कै. खून की उल्टी, दस्त करके अपनी बीमारी का प्रदर्शन करने में सफल हो जाते। इस प्रकार की अनापशनाप औषधियां खाने से उन्हें चाहे जितना ताप चढ़ जाये, चाहे जितना पेट दर्द हो जाये, भले ही खून के दस्त हो जाएं, परन्तु इन सब के समक्ष कोल्हू पेरना कहीं ज्यादा कष्टदायक माना जाता था। न केवल कैदी, अपितु अव्वल दर्जे के खूंखार बदमाश भी कोल्हू से घबड़ा उठते, उसके मारे उनकी नाक में दम आ जाता तथा इस घोर यातना से बचने के लिए बीमारी का बहाना बनाने का वे नाटक करते। यदि कोई ढोंग कर बीमार बनता तो उसे फिर कष्टतर काम में जुटा दिया जाता। इस प्रकार के सहिष्णु तथ कष्टभोगी पुरुषों में मेरे ज्येष्ठ भाई (गणेश दामोदर सावरकर) की गिनती प्रमुखतया होती थी।


भाई का सिर दर्द

मेरे बड़े भ्राता को बचपन से ही आधा शीशी (आधे सिर का दर्द) का रोग था। इस पर भी उन्हें बन्दीगृह के अपार कष्ट, मानसिक व शारीरिक यातनाएं तथा कोल्हू में जोते जाने से कष्टों की मालिका ही मानो हरदम उनके सामने खड़ी रहती। इन सब के ऊपर उनका अपराध यह था कि अन्य राजबन्दियों के समान वह अभी तक सब से हिलमिल नहीं पाये थे। उनके मुख से झूठी बातें या सुख-सुविधा के लिए गिड़गिड़ाना जैसा एक शब्द भी कभी नहीं निकल पाया था। बारी बाबा तो अपने को सर्कस का मालिक तथा राजबन्दियों को हिंसक पशु समझता था। अतः उन्हें हिला देने, आतंकित कर झुकने को मजबूर करने का रोज प्रयास किया करता। इस तनावपूर्ण स्थिति ने उनके आधा शीशी के असहनीय दर्द को और भयंकर बना दिया था ।सुबह उठते ही भ्राता को कोल्हू में जोत दिया जाता। जैसे-जैसे दिन चढ़ता उनका सिर दर्द अत्यधिक तीव्र होता जाता। वेदनाएं फूट निकलतीं। गरमी असह्य हो उठती। उधर मस्तक शूल तीव्रतर होता जाता। उसी के साथ-साथ “कोल्हू चलाओ, हम और कुछ नहीं जानता" की जमादार की बेसुरी व कर्कश गर्जना गूंजती रहती। यदि गोरा अधिकारी कोठरी में आता तो वे बताते 'मेरे सिर में असा दर्द है' तो उसका उत्तर होता- 'ये मेरा प्रश्न नहीं है. डॉक्टर से पूछो'। डॉक्टर कोई भारतीय ही होता। जब वह आता तो ताप देखकर कह देता-'इसे कोई बीमारी नहीं है, साहब की ओर ले जाओ।' सिर दर्द से तापमान तो चढ़ता नहीं था, अतः वह प्रमाणित कैसे हो? अर्थात् यही माना जाता कि बदमाशी है, ढोंग है बन्दीवान का और गणेश सावरकर का ।


वही बीमार है जिसे मैं कहूं

डॉक्टर यह जानते थे कि वे इन बन्दियों के साथ जो अत्याचार करा रहे हैं वह गलत है किन्तु उन्हें भी बारी बाबा का डर था। बारी बाबा आते-जाते डॉक्टर से कहता रहता-“देखो डॉक्टर, तुम हिन्दू हो और ये राजबन्दी भी हिन्दू हैं। इनके कारण न जाने तुम्हारा गला कैसे और कब फंस जाये? उनके साथ यदि आप बोलते भी पाये गये तो  उसका पूरा वर्णन अधिकारी के पास पहुंचने में देर नहीं लगेगी। इसलिए कहता हूं कि यदि नौकरी चाहते हो तो सम्भलकर रहना।"वह  कहता  तुम पढ़े-लिखे व अनुभवी हो, मगर मैं जानता हूं कि इन ढोंगी लोगों का सत्य क्या है और झूठ क्या है? याद रखना कि वही बीमार है जिसे मैं कहूं।" कहते-कहते अपने ही विनोद पर हंसते-हसते बारी बाबा आगे बढ़ जाता।एक दिन कोल्हू पेरते समय डॉक्टर ने मेरे भाई की दयनीय हालत देखी। वेदनाएं जब असह्य हो उठतीं, शूल जब सीमा से अधिक रूप धारण कर लेता तब भाई दीवार पर तड़ातड़ सिर से टक्करें मारता और कुछ ही क्षणों में फिर से कोल्हू पेरने लग जाता। डॉक्टर ने यह कारुणिक दृश्य देखा तो उसका हृदय पसीज गया। साहस कर डॉक्टर बोला- 'चलो मैं अपने अधिकार से तुम्हें दो दिन तक अपने उपचार में रखूंगा। काम छोड़ो और बिछौना उठाओ। डॉक्टर के आदेशानुसार मेरे भाई ने काम छोड़ दिया और बिछौना उठाकर चलने लगा। इतने में बारी बाबा आ धमका। वह जमीन पर लाठी पटकर जोर से गरज उठा-'ऐ बम भोले वाला ! किधर जाता है?' उसने गणेश पंत को साथ ले जा रहे जमादार को धमकाया जमादार कांपते कांपते बोला-"डॉक्टर के आदेश से काम छुड़वाकर इन्हें बीमारी की जांच के लिए अस्पताल ले जा रहा हूँ।""कौन है साला डॉक्टर मुझ से क्यों नहीं पूछा?" साला कहते-कहते उसने पूरी जेल को गुंजा दिया। वह और जोर से चिल्लाया-" ले जाओ वापस, इसे काम में लगा दो। मैं डॉक्टर को भी देखता हूँ और तुम्हें भी। साला मुझ से पूछा नहीं और इसे कोठरी से बाहर निकाल दिया? यहां मेरा हुक्म चलता है कि डॉक्टर का?" चीखते-चिल्लाते बारी बाबा ने गणेश पंत को फिर से कोठरी में बन्द करवा दिया और कोल्हू में लगवा दिया ।नियमानुसार डॉक्टर का अधिकार बारी बाबा से कहीं ज्यादा तथा जेल सुपरिटेण्डेण्ट से नीचे का होता था। मगर राजबन्दियों से सम्बन्धित चाहे जो मामला हो उसे सुपरिण्टेण्डेण्ट तक न पहुंचने देने के लिए तमाम अधिकारी सतर्क रहा करते थे। उस डॉक्टर ने बारी से डरकर अपना अपमान तो निगल ही लिया, उलटे बारी से क्षमायाचना तक की। इसके बाद उसने बिना सुपरिण्टेण्डेण्ट की आज्ञा के किसी भी राजबन्दी को एक क्षण के लिए भी कोठरी से बाहर नहीं निकाला।

जो दस-दस बार जेल से भागे या उसे तोड़कर आते-जाते रहते थे, उन्हें वहां रखना या न रखना, डॉक्टर के हाथ में था। उनके मामले में बन्दीपाल दखल न देता था। किन्तु राजबन्दियों के लिए चिकित्सालय में प्रवेश निषिद्ध था। उस आधा शीशी का असह्य शूल सहन करते हुए, दिनभर कोल्हू चलाते हुए, शाम के समय मेरे ज्येष्ठ बन्धु तैल नापकर-आह खींचकर उस लकड़ी पर शरीर लिटा देते तो सारा शरीर वेदनाओं से भर जाया करता। आंख झपक ही नहीं पाती कि सवेरा हो जाता? सुबह उठने पर सूर्य के चढ़ते-चढ़ते फिर से सिर दर्द के सामने डटकर खड़े हो जाते-कोल्हू भी सामने डटकर खड़ा रहता। इस रूप से सप्ताह, महीने ही क्यों, वर्ष और वर्ष के साथ-साथ पूरा जन्म कितना कष्टकर कितना अपमानित ? कष्टों का कितना वर्णन किया जाये? अण्डमान में बन्दियों को कठोर से कठोर काम लिये जाने, उन्हें तरह-तरह की यातनाएं देने, मार-पीट करने, खराब भोजन देने आदि कष्ट तो उठाने पड़ते ही थे, परन्तु दिखाई देने में अत्यन्त मामूली और कहने में अत्यन्त संकोचास्पद ऐसी यातना थी, मल-मूत्रादि पर भी रोक सुबह, दोपहर तथा शाम को छोड़कर अन्य समय पर शौच जाना अपराध माना जाता था। शाम को छह बजे बन्दी कोठरी में बन्द करवा दिये जाते। सुबह सात बजे तक के लिए उस अवधि में बन्दी को पेशाब करने के लिए मटका रखा जाता था। अण्डमान की जेल में सब कोठरियां अलग-अलग थीं तथा प्रत्येक कोठरी में एक बन्दी रखा जाता। इसीलिए उसे 'सेल्युलर' जेल अर्थात् कोठरी का कारागृह कहते हैं। बारी का आदेश था कि रात के इन बारह घण्टों में कोई शौच न करे। पेशाब के लिए रखा गया घड़ा अत्यन्त छोटा होता था अतः उसमें शौच किया ही नहीं जा सकता था। यदि  किसी शौच किये बिना न रहा जा रहा हो तो वह वार्डर से कहता। यदि वार्डर डांट-फटकार दे तो मल को पेट में ही दाबे रातभर कोठरी में पड़े रहो। यदि वार्डर जमादार को सूचित करे तो जमादार बन्दी को बुरी बुरी गालियां देने लगता, मानो शौच करना उसकी दृष्टि में अपराध था। यदि जमादार दया करके डॉक्टर तक यह बात पहुंचा दे, डॉक्टर सौ में से एक को इस बात की लिखित आज्ञा देता। उसे लेकर बारी के यहां जाना पड़ता और तब कहीं बारी उस बन्दी को शौच के लिए जाने देता. और कोठरी का दरवाजा खुलता। दूसरे दिन सवेरे बारी साहब उससे पूछ बैठता-“तुमने रात को शोरगुल क्यों किया?" बन्दी उत्तर देता-" साहब टट्टी को जाना था, माफ करो।" तब लाठी पटक गाली दे बारी बोलता-“टट्टी रात ही को क्यों आने लगी?" घबड़ाया बन्दी उत्तर देता–“लगी सो लगी।” इस पर जमादार उसे दो-एक तमाचे जड़ते हुए कहता–“ए साला, साहब से मखौल उड़ाता है।" यदि बारी को गुस्सा आ जाता तो उस कैदी को एक दिन का अधिक कोल्हू का काम देने की सजा सुना कर वहां से चल पड़ता। कुछ बन्दी मलावरोध असम्भव होने की स्थिति में कोठरी की जमीन पर शौच कर लेते। उस आठ-दस फुट के कमरे में रातभर उस मल को सिरहाने रखे दुर्गन्ध में पड़े रहते। सवेरे भंगी आता तो उसे तमाखू का लालच देकर मल को उठाने की विनती करते। यदि भंगी मान गया तो ठीक, वरना तमाखू न मिलने पर भंगी शोर मचाकर जमादार से कह देता-'इसने कमरा गन्दा कर रखा है।' जमादार उस बन्दी को ठोकरें लगाता या बारी के पास लिये चलता। वहां उसे सजा दी जाती- या तो अपने हाथों से मल धोना पड़ता या तीन-चार खोड़े में खड़े रहने की सजा दी जाती। खोड़े में खड़े रहने की सजा बहुत कष्टदायक होती। मल-मूत्र का अवरोध करना पड़ता। सवेरे छह से दस बजे तक दोपहर को बारह से पांच तक हथकड़ी में खड़ा होना पड़ता। उस दौरान शौच तो दूर, पेशाब तक करना मना होता।


कोल्हू के काम पर

मैंने लगभग एक माह तक छिलका कूटने का काम किया। सब लोग आश्चर्य करने लगे कि मुझे कोल्हू का काम क्यों नहीं दिया गया। कुछ लोग बोले–“ बैरिस्टर को कोल्हू का कष्टकारक काम किस मुंह से देंगे?" मैं उनसे कहता-“जिस मुंह से बैरिस्टर को कालेपानी भेजकर, लंगोटी पहनाकर छिलका कूटने काम दिया गया, उसी मुंह से।" अन्त में एक दिन सुपरिण्टेण्डेण्ट ने कहा, "कल से तुम को कोल्हू पर जाना है। छिलका कूटने से तुम्हारे हाथ अवश्य सख्त बन गये होंगे। अब पहले से अधिक सख्त काम करने में कोई हर्ज नहीं है। " बारी भी हंसकर बोला-" आपकी बढ़ती ऊपर के वर्ग में कर दी गई है। "...दूसरे ही दिन सवेरे ही मुझ को कोल्हू में जोत दिया गया। मेरी सात नम्बर की बैरक के छठवें विभाग में कोल्हू का काम था।" लंगोटी पहनकर सवेरे दस बजे तक काम करना पड़ता। निरन्तर फिरते रहने से चक्कर आने लगते। शरीर बुरी तरह थककर चूर हो जाता, दुःखने लगता। रात को जमीन पर लेटते ही नींद का आना तो बेचैनी में करवटें बदलते रात बीतती। दूसरे दिन सवेरे वही कोल्हू सामने खड़ा होता। इस प्रकार छह-सात दिन निकाल लिये। भारी परिश्रम के बावजूद मैं तैल पूरा नहीं कर पाता था। एक दिन बारी आया। जरा तुरें में बोला- “देखो, पड़ोस का बन्दी तीस पौंड तैल दो बजे पूरा नाप कर दे देता है और आप शाम तक काम करते रहने पर भी दो-एक पौंड तैल कम ही दे रहे हो। इस पर आपको शरम आनी चाहिए।"


मन का विद्रोह-आत्महत्या का आकर्षण

उस कोल्हू को पेरते समय पसीने से तर हुए शरीर पर जब धूल उड़कर उसे सान देती। बाहर से आते हुए कूड़े-कचरे की तह उस पर जम जाती, तब कुरूप बने उस नंग-धड़ंग शरीर को देखकर मन बार-बार विद्रोह कर उठता-ऐसा दुःख क्यों झेल रहे हो, जिससे स्वयं पर घृणा पैदा हो। इस शरीर तथा कर्तव्य का उपयोग राष्ट्र को स्वाधीन कराने में होने को था। मगर अब वह मिट्टी के मोल का बन गया है। फिर इस अन्धकार में कष्ट क्यों झेल रहे हो? इसका कार्य के लिए, मातृभूमि के उद्धार के लिए, कौड़ी का मूल्य नहीं है। वहां तुम्हारी यातनाओं का ज्ञान तक किसी को भी न होगा, फिर उसका नैतिक परिणाम तो दूर की बात है। इसका न कार्य के लिये उपयोग है, न स्वयं के लिए। जब इतना भी नहीं, तो केवल भारभूत बनकर रहने में क्या रखा है? तो फिर यह जीवन व्यर्थ में क्यों धारण कर रहे हो। बस, जो कुछ उसका उपयोग होना था, हो चुका। अब चलो फांसी का एक ही झटका देकर जीवन का अन्त कर डालो।मन बार-बार यही कहा करता 'अब जीना व्यर्थ है। अब आत्मघात ही आत्मसम्मान होगा।' नोवलिस आदि नीति विशारदों के तथा ऐतिहासिक उदाहरणों की याद हो आती कि कभी-कभी आत्मघात ही आत्मकर्तव्य बन जाता है। एक दिन दोपहर को बाहर लू चल रही थी। मैं अन्दर कोल्हू चला रहा था। अचानक हांफने लगा, चक्कर आ गया और धम-से-नीचे बैठ गया। अतिश्रम के कारण पेट में बल पड़ गया। पेट पकड़ कर दीवार के सहारे मस्तक रखकर आंखे मूंद ली न जाने क्या हुआ? मगर जब मैं होश में आया तो मेरी समझ में न आ सका कि कहां हूँ, कौन हूँ, किस स्थान पर हूँ? शान्त तथा निर्विकार, न जाने किस सुखद अवस्था में निमग्न बना रहा। थोड़े समय में एक-एक वस्तु आंखों के सामने आने लगी। फिर से उठा और काम में जुट गया। मन अब निरन्तर कहता गया, यह अन्तिम कार्य (मृत्यु) क्यों नहीं होने देते? अभी जो शून्यता प्रतीत हुई थी वही तो मृत्यु है। सैकड़ों बन्दी जिस पोर्टब्लेअर में जिस रस्सी के आधार से मृत्यु पार कर गए, तर गए, उसी रस्सी के टुकड़े की फांसी लगा लो और करो जीवन का अन्त कष्टों का अन्त । उस दिन आत्महत्या का आकर्षण मुझ को बार-बार आकर्षित करता रहा। वही शून्यता ही मृत्यु ! वह तो इस जीवन से कहीं अधिक मीठी है, निःसंशय मधुर है। मुझे दो-चार बार, यातनाओं के असह्य हो जाने पर आत्महत्या करने के लिए विचार आकर्षित करते रहे।


बन्दियों का भोजन

सन् १९१२ के प्रारम्भ में मुझे अण्डमान में आये लगभग एक वर्ष हो गया था। उस पूरे वर्ष जेल की यातनाएं व कठिन से कठिन कष्ट सहते रहने पर भी तथा जेल का खराब भोजन लेते रहने पर भी मेरा स्वास्थ्य ठीक था। जेल में बन्दियों को जो भोजन दिया जाता, यदि जेल के नियमानुसार दिया जाये तो वह अपर्याप्त नहीं कहा जा सकता। बन्दियों को एक समय में दो कटोरा चावल, गेहूं की दो चपातियां तथा दाल-सब्जी दी जाती थी। साधारणतः एक आदमी के लिए यह पर्याप्त ही था। कोल्हू का या चक्की पीसने का काम मिले बन्दियों को कठोर शारीरिक श्रम के बदले भोजन में अनाज की मात्रा बढ़ा दी जाती थी। कुछ बन्दी ऐसे भी होते थे कि इस भोजन से उनकी क्षुधा शान्त नहीं हो पाती थी। परन्तु यह परिस्थिति साल-दो साल में बदल जाती थी।'''' '९९ प्रतिशत वार्डर पंजाबी, सिन्धी या पठान मुसलमान थे तथा वे हिन्दुओं को ज्यादा से ज्यादा यातनाएं देना या दिलवाना अपना 'मजहबी फर्ज' मानते थे। जेल के ९९ प्रतिशत हिन्दू बन्दी उनके अत्याचारों के शिकार बनते थे। जेल से बाहर नियुक्त पेटी अधिकारी तथा जमादार को बाहर अपने पैसे से भोजन करना चाहिए। किन्तु वे भी मुफ्तखोरों के समान भोजन के समय प्रायः बन्दीशाला में आ पहुँचते थे। इन मुफ्तखोरों को भी बन्दियों को ही अपनी चपातियां देने को विवश होना पड़ता था। यदि कोई बन्दी इनकार कर देता है तो उसे किसी न किसी बहाने से दो डण्डे खाने पड़ जाते हैं। मिर्ज़ा ख़ान नामक एक जमादार था। वह 'छोटा बारी' के नाम से प्रसिद्ध था। वह किसी भी पठान को आंखों से इशारा कर देता था कि वह उसके लिए दस-बारह चपातियां इकट्ठी कर लाये। मिर्जा खान भोजन परोसते समय परोसने वाले के साथ चला करता था तथा वार्डर बन्दियों की चपातियों में से उसके लिए चपाती उठा लेता था। यदि कोई बन्दी चपाती देने में आनाकानी करता दिखाई दे जाता तो मिर्जा खान 'पंक्ति में ठीक से क्यों नहीं बैठा' कहकर उस हिन्दू बन्दी पर दो-चार डण्डे जमा ही देता।”


अधपका चावल-जली रोटियां

भोजन में सब से कमी यह रहती थी कि उसे तैयार करते समय लापरवाही बरती जाती थी। चावल अधपका होता तो रोटी अधसिकी या आधी जली। कभी-कभी तो रोटी की जगह मानो कच्चा आटा ही सामने रख दिया गया हो। जेल के रसोइये अत्यन्त गन्दे रहा करते थे। उनके कपड़े पसीने से तर रहा करते थे। गर्मी में जब चे भोजन बनाते होते तो उनके मस्तक से निकली पसीने की बूंदे दाल या आटे में गिरती दिखाई देती। वे प्रायः संक्रामक रोग से पीड़ित रहा करते।"

सब्ज़ी में मिट्टी का तैल

कई बार भोजन में दी जाने वाली कांजी में मिट्टी का तैल पड़ा मिलता। दुर्गन्ध आती तो पता चलता होता यह था कि बड़ी हांडी में कांजी पड़ती थी। वह हांडी चूल्हे पर चढ़ी होती। पकते समय उसे देखने के लिए रसोइया मिट्टी के तैल का दीया लेकर उसमें झांकता। दीया टेड़ा हो जाता और मिट्टी का तैल उस हांडी में गिर जाता।"


सब्ज़ी में सांप और केंचुली

अण्डमान में दो फुट लम्बी तथा अत्यन्त विषैली केंचुली बहुत होती थी। सवेरे बन्दी जंगल से सब्जी लेने भेज दिये जाते थे। वे हाथों में हंसिया लेकर जंगलों में घुस जाते और ढेर की ढेर सब्जियां काटकर, पत्तीदार शाक काटकर गाड़ियों में भरकर जेल ले आते। उन्हें जूड़ियों में बांधकर, काटकर पकने के लिए इंडियों में डालकर चूल्हों पर चढ़ा दिया जाता था। उन्हें बीनने, साफ करने या धोने की कोई आवश्यकता नहीं समझी जाती थी। कई बार भोजन करते समय सब्जी में कभी केंचुली का टुकड़ा हाथ में आ जाता तो कभी-कभी सांप तक के शरीर की बोटी दिखाई दे जाती। मैंने तथा कुछ अन्य बन्दियों ने जब सब्जी में केंचुली और सांप का टुकड़ा उठाया और उसे दिखाने सुपरिण्टेण्डेण्ट या बारी के पास ले गए तो वे हंसकर कह देते-“इनका स्वाद तो बहुत अच्छा होता है! " कई बार केचुली या सांप का टुकड़ा निकलने पर या तो उन्हें निकालकर बाकी सब्जी से रोटी खानी ही पड़ती या सब्जी फेंककर सूखी रोटी चबानी पड़ती।



संघर्ष के कारण सुधार

कुछ दिनों बाद हमारे सतत प्रयास से राजनीतिक बन्दियों के लिए चपातियां तथा सब्जी अच्छी बनाई जाने लगी। कभी-कभी सर्वेक्षक आकर स्वाद चखकर देखने लगा। और आगे चलकर जब समाचार पत्रों व कौंसिल में अण्डमान में राजनीतिक बन्दियों की चर्चा छिड़ी, उन्हें दिये जाने वाले खराब भोजन की आलोचना हुई तो भोजन का स्तर धीरे-धीरे सुधरता गया और साधारण कैदियों के भोजन-स्तर में भी काफी सुधार हुआ। भोजन में तो सुधार हो गया किन्तु भोजन के लिए कड़ी धूप या बरसात में पंक्ति में बैठाये जाने के हठ से उन्हें भारी परेशानी उठानी पड़ती थी। यदि कोई बन्दी भोजन लेकर छाया में जा बैठता तो उसे सजा दी जाती। बरसात में भीगते रहते, ठण्ड में ठिठुरते हुए भोजन करते रहते। वर्षा में भीगने से बचने के लिए इधर-उधर जाने का प्रयास करते तो गालियां सुननी पड़तीं। वर्षों के संघर्ष के बाद बन्दियों को छाया में बैठकर भोजन करने की अनुमति भी आखिर मिल ही गई।" कष्टों से बचने को बीमार बन्दी कष्टदायक कामों से बचने के लिए रोग पैदा करने वाली औषधियों का प्रयोग करना सीख गये थे। सफेद कनेहरी की जड़ियां पानी में घोलकर पीने से बुखार चढ़ जाता है। मूंज को पानी में घोलकर पीने से रक्त के साथ दस्त आने लगते हैं, जख्म में एक वस्तु लगाने से घाव महीनों तक सड़ता रहता है। वे सब युक्तियां बन्दी जानते थे तथा कठिन काम से बचने के लिए वे इन औषधियों का प्रयोग कर बीमार बन जाते थे। जेल के अन्दर कोल्हू के कठिनतर कष्टसाध्य काम के डर से बाहर लकड़ी तोड़ने तथा जंगल काटने जैसे कष्टकारक कामों के डर से जड़ियों, औषधियों को खाकर अपने पैरों पर स्वयं घाव बनाकर, उनमें घाव सड़ाने वाले धागे डालकर, सुई से अपनी गर्दनों से रक्त  निकालकर वे यही बताने का प्रयास करते थे कि घाव सड़ने से पैरों से चला नहीं जा रहा या मुंह से खून आ रहा है कुछ शातिर किस्म के बन्दी अपने को 'पागल' सिद्ध करने के लिए मुंह पर विष्ठा का लेप तक कर लेते। कुछ सब के सामने उसे खा तक डालते जिससे उन्हें 'पागल' मानकर काम से मुक्ति मिल जाये।...... अश्लील गालियां एक दिन की घटना है। सवेरे से शाम तक कोल्हू चलाते रहने से शरीर काष्ठवत् बन गया। हाथों में छाले पड़ गये, परन्तु तीस पौंड तैल पूरा न हो सका। चलाते-चलाते चक्कर आ रहे थे। बीच-बीच में पेटी अफसर अश्लील गालियों से प्रहार करते थे जो सीधे हृदय में चुभते थे। वे गालियां चाबुक के प्रहार के समान थी।''.... इन्दुभूषण राय पर अत्याचार और आत्महत्या इन्दुभूषण राय नामक क्रान्तिकारी युवक को माणिकटोला बम काण्ड में दस वर्ष की सजा हुई थी। अण्डमान जेल में उसे कोल्हू तथा अन्य काम दिये गये। वह भी उन बन्दियों में था जिन्हें बाहर भेज दिया गया था। इन्दुभूषण ने देखा कि बाहर भी जेल की तरह कठोर से कठोर काम दिया गया है। उसने देखा कि बाहर यदि कोई अपराधी बन्दी बीमार पड़ जाये तो उसे बाहर के ही आरामदायक अस्पताल भेज दिया जाता है। परन्तु किसी राजनीतिक बन्दी के बीमार पड़ने पर उसे आराम व दवा की जगह दण्ड दिया जाता है। राजबन्दी को ज्वर हुआ या दस्त, उसे अपना बिस्तर सिर पर रखकर थाली हाथ में लेकर चार-पांच मील पैदल चलकर सेल्युलर जेल का दरवाजा देखना पड़ता था। जेल में आते ही अस्पताल की जगह कोठरी में बन्द होना पड़ता था। इन्दुभूषण बाहर के अपार कष्टों से ऊब चुका था। अन्त में तंग आकर निरुपाय होकर उसने जेल के अन्दर के कष्टों को ही स्वीकार कर लिया। उसने दंडा-बेड़ी-हथकड़ी पसन्द की परन्तु काम करने से साफ इन्कार कर दिया। बारी उसके पास आया और पूछा- “तुम बाहर से लौट आये? तुम यही समझ बैठे थे कि बाहर काम करने से इन्कार करने पर, अन्दर आकर सुख-चैन से सो सकोगे?" बारी ने वार्डर को आदेश दिया-'जाओ, इसे कोल्हू में जोतो। उसे उसी समय ले जाकर कोल्हू में जोत दिया गया। शाम को तैल ले जाते समय मौका मिलते ही मैं उससे मिला तथा धीरज बंधाते हुए कहा-“तुम्हें तो केवल दस वर्ष की सजा हुई है, मुझे तो आजीवन यहां रहना है। मेरी ओर देखकर कम से कम अपने मन को धीरज दो।" मैं केवल चार ही शब्द बोल पाया था कि वह बोला-" अपमानजनक स्थिति में जीवित रहने की अपेक्षा मृत्यु कहीं अधिक उत्तम है। "मैंने फिर से उसे समझाया, "स्वदेश के लिए अपने हितों, सुख-सम्पत्ति व प्राणों तक का त्याग करना जिस प्रकार कर्त्तव्य है, वैसे ही मान-अपमान का त्याग करना भी तो एक कर्त्तव्य हो जाता है। तुम मेरी तरह ही २५ वर्ष के हो। तुम मुझ से बहुत पहले, ज्यादा से ज्यादा आठ-दस वर्ष में यहाँ से मुक्त होकर आगे जाओगे। धीरे-धीरे कष्ट सह कर भी जीवित रहो। जिससे यहां से मुक्त होकर आगे देश की मातृभूमि की सेवा कर सको।"जल्दी-जल्दी में ये बातें हो पाई थीं। रोज शाम को पसीने से तर, खोपड़े (नारियल) के चूरे में सिर से पैरों तक सना, कन्धे पर भूसे का बोरा, पैरों में पड़ी बेड़ी और हाथ में तीस पौंड तैल की बाल्टी लिये झूमते हुए, नंगे शरीर जाते हुए इन्दु को मैं देखा करता। हम सब भी उसी की तरह कोल्हू का काम पूरा करके लौटा करते थे। आखिर आत्महत्या कर ली। एक दिन सवेरे कोठरियां खुलीं और हम निकले ही थे कि वार्डर ने मेरे कान में कहा-'इन्दु कल फांसी लगाकर मर गया। मैंने यह बताया है, किसी को न कहना।'

ये दु:खद शब्द सुनते ही मैं हक्का-बक्का सा खड़ा रह गया। सायंकाल ही जिस तरुण को बोलते-बोलते कोठरी में बन्द होते देखा था, सवेरे उठकर देखता हूं तो अपने ही कपड़े की बनाई रस्सी से वह फांसी पर लटका हुआ है। गर्दन मुड़ी हुई, जीभ निकली, हुई. दोनों पैर ढीले नीचे लटकते हुए। ऊपर की खिड़की से नीचे लटकते देख-मैं अवाक् रह गया। मैं अचानक बोल उठा-'उस स्वाभिमानी तरुण ने अपमानास्पद जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा मृत्यु को सुखकर माना।'


मृत्यु शय्या पर

उधर युद्ध समाप्त होने को था, इधर मेरा स्वास्थ्य बुरी तरह गिरने लगा था। मुझे निरन्तर सौ डिग्री बुखार रहने लगा था तथा पेचिश के कारण शरीर हड्डियों का ढांचा बन चुका था। अन्त में मेरी बिगड़ती हालत को देखते हुए अधिकारियों ने मुझे जेल की कोठरी से निकाल कर हस्पताल में भर्ती कराया तथा मेरी अच्छी प्रकार से देखभाल शुरू की गई। बन्दी को हस्पताल में भर्ती कराते ही आराम होने लगता है. किन्तु मुझे तो आठ वर्षों में पहली बार, जब शरीर रोगों-व्याधियों का घर बन चुका था, तब जाकर हस्पताल भेजा गया था। इससे पहले मुझे कितनी भयानक बीमारी क्यों न हुई हो, किन्तु जेल की कोठरी से बाहर ही नहीं निकाला गया था।हस्पताल में भर्ती किये जाते ही सुपरिण्टेण्डेण्ट ने मेरी पूर्ण देखभाल का आदेश दिया। हस्पताल में मुझे समय-समय पर अच्छा भोजन दिया जाने लगा तथा मुझे क्या पच सकता है इसे देखकर भोजन में परिवर्तन भी किया जाता रहा। हिन्दुस्तान के समाचार-पत्रों तथा अन्य क्षेत्रों में जेल की दुर्व्यवस्था, राजनीतिक बन्दियों का उत्पीड़न किये जाने तथा मेरे निरन्तर गिरते स्वास्थ्य के बारे में काफी कुछ छप व प्रचारित हो चुका था। इसलिए ऊपर से आये कड़े आदेश के परिणाम स्वरूप मुझे कोठरी से निकाल कर हस्पताल पहुंचाया गया था। और कैसे भी मेरे स्वास्थ्य में सुधार हो, इस ओर पूर्ण ध्यान दिया जा रहा था। किन्तु यह अवस्था इतने विलम्ब से की गई थी कि मेरी तबियत सुधरने का नाम नहीं ले रही थी। ज्वर को उतरने के लिए 'कुनीन' की गोलियों पर गोलियाँ दी जाती किन्तु वह लाभ की जगह हानि करती और उसके कुप्रभाव से खूनी पेचिश होने लगती। पेचिश ने मेरी पाचन शक्ति इतनी बिगाड़ कर रख दी थी कि चावल और दूध सीधे शौच मार्ग से निकलने लगा था। उसे पचाने की प्रक्रिया पूरी तरह नष्टप्रायः हो चुकी थी। अँण्डमान में टी०बी०, मलेरिया तथा पेचिश रोगी पर एक साथ धावा बोलते थे। इन तीन-तीन घातक रोगों के सम्मिलित आक्रमण से शरीर की पूरी शक्ति क्षीण हो जाती थी।


टी० बी० की आशंका

मुझे मलेरिया तथा रक्तिम पेचिश तो थी ही, छह माह के दौरान डाक्टरों को शंका होने लगी कि कहीं मुझे टी०बी० (क्षय) न हो गई हो? जेल में पहले ही अच्छे सुदृढ़ शरीर वाले अनेक बन्दी भी रोगों की इस त्रिमूर्ति मलेरिया, पेचिश और क्षय के शिकार हो ही चुके थे। फिर मुझ जैसे कृशकाय, आठ वर्षों तक विषाक्त जलवायु, कठोर परिश्रम तथा उत्पीड़न के बीच रहने वाले व्यक्ति की तो क्या बसात हो सकती थी? आठ वर्षों के दौरान मैं पेचिश के कारण पाचन शक्ति खोकर अन्न से वंचित होता जा रहा था। अन्न के अभाव के कारण शरीर अशक्त होना स्वाभाविक था। मज्जातन्तु क्षीण होते गये। अब केवल एक अन्तिम शत्रु के आक्रमण या शरीर प्रवेश की आशंका बची थी, और वह था 'क्षय' (टी०बी०) । कारागार के हस्पताल में मनोरंजन या समय व्यतीत करने का एक ही मात्र साधन था 'अध्ययन' (पढ़ना)। अध्ययन ही मेरे जेल जीवन का आधार रहा था, किन्तु निरन्तर रहने वाले ज्वर के कारण मेरी पढ़ने की शक्ति भी क्षीण हो चुकी थी। थोड़ा-बहुत पढ़ने से भी तापमान बढ़ जाता था, आंखों के आगे अंधेरा छा जाता था। परिणामतः पढ़ना पूरी तरह छोड़ देना पड़ा। पास में पुस्तकें रखनी ही बन्द कर देनी पड़ी। बिछौने पर पड़े-पड़े समय काटना दूभर हो जाता था। पेचिश के कारण पेट में मरोड़ उठता तो उसकी वेदना असह्य हो जाती। शरीर में बढ़ते तापमान के कारण दर्द होने लगता।....



हस्पताल से पुनः कोठरी में

जेल हस्पताल में एक वर्ष व्यतीत करने के बाद पुन: पांच नम्बर की बैरक की तीसरी मंजिल की कोठरी में बिल्कुल एकान्त में ले जाकर रख दिया गया। अब वहां मन के उद्वेग से तथा शरीर की क्षीणता से निरन्तर झगड़ना पड़ा। एक के बाद दूसरी बीमारी के पीछे पड़ते रहने से लगने लगता कि यह देह रूपी वस्त्र अब इतना जीर्ण-शीर्ण हो चुका है कि यह ठीक होना असम्भव है। महीने दो महीने, छह महीने, वर्ष, डेढ़ वर्ष बीत गया-आज पेचिश, कल खूनी पेचिश, परसों तीव्र ज्वर, नरसों भीषण सर्दी. सब सहन करता रहा। अन्त में लगने लगा कि यह कारागार न मुझे जीवित रहने की स्थिति में आने देता है, न जीवन-मुक्ति को प्राप्त होने देता है। अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए अभी आगे और कार्य करने की लालसा से शरीर को धारण करना पड़ रहा था, परन्तु शरीर की गिरती हालत को देखते हुए अब जीवन-मुक्ति की आकांक्षा होने लगी। मैंने त्रास और बीमारी का लेखा-जोखा करने के लिए दीवार पर गिनती लिखनी शुरू कर दी। त्रास या बीमारी होते ही दीवार पर अंकित कर देता। यह क्रम दो महीने तक चलता रहा। अन्त में जोड़ लगाया तो पता चला कि १५ दिन कुछ चैन के थे तो ४५ दिन दुःख के थे। अब सोचने लगा कि अभी जीवित रहने, शरीर को बचाये रखने की चतुर्थांश आशा है।"

मैं एकान्त कोठरी में भले ही था, किन्तु अण्डमान द्वीप में संगठन, हिन्दी प्रचार, शिक्षा तथा शुद्धि कार्य के साथ-साथ बन्दियों व नागरिकों में राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करने का अभियान बढ़ ही रहा था। मुझे इस बात का आत्मिक सन्तोष था कि जागृति अभियान निर्बाध रूप से जारी है। राजनीतिक तथा साधारण बन्दी मेरे स्वास्थ्य को लेकर चिन्तित रहते थे। अधिकारियों का कोपभाजन बनकर भी, हथकड़ी में खड़े रहने की सजा पाकर भी वे मुझ से मिलने तथा स्वास्थ्य की जानकारी लेने को तत्पर रहते थे। ऐसे बन्दियों के प्रति मैं सदैव कृतज्ञ ही रहूंगा।

मेरे गिरते हुए स्वास्थ्य को लेकर पूरे देश में जो चर्चा चली थी, उसी कारण से मुझे शुद्ध वायु तथा धूप आदि उपलब्ध कराने के उद्देश्य से तीसरी मंजिल में रखा गया था। अच्छा भोजन तथा उपयुक्त औषधियां भी दी जाने लगी थी। इस बदलाव के कारण मेरा स्वास्थ्य तेजी से सुधरने लगा। भोजन भी पचना शुरू हो गया, शरीर का वजन बढ़ने लगा। क्षय के चिह्न स्वतः नष्ट होने लगे। दो वर्षों में मैंने अपनी मृत्यु शय्या को लपेटकर एक कोने में रख दिया।


ज्येष्ठ बन्धु टी० बी० की चपेट में (गणेश सावरकर)

अपनी मृत्यु शय्या को लपेटकर रखा ही था कि उसे ज्येष्ठ भ्राता (गणेश सावरकर) के लिए पुनः बिछाना पड़ गया। उनका स्वास्थ्य गिरते-गिरते दयनीय स्थिति को पहुंच चुका था। उनका शरीर अनेक बीमारियों का केन्द्र बन चुका था, फिर भी अधिकारियों को उनके स्वास्थ्य की कोई चिन्ता नहीं थी। उनकी चिकित्सा की उचित व्यवस्था नहीं की गई थी। एक दिन मुझे यह देखकर बहुत धक्का लगा कि वे काला कोट पहने और कम्बल ओढ़े पित्ताशय की असहनीय पीड़ा से कराहते हुए अस्पताल जा रहे हैं। उनकी कमर झुकी हुई है। अस्पताल पहुंचकर मद्रासी डाक्टर को दिखाया तो उसने अपने बूट फटकारे और आंखें निकाल कर कहा- 'कहां है दर्द, यहां तो कुछ नहीं है, सब ठीक है। तुम झूठा बहाना करते हो।' इस अपमानजनक व्यवहार ने उस महान् राष्ट्रभक्त बन्धु के स्वाभिमान को ऐसा आघात पहुंचाया कि वह फिर से अस्पताल का मुंह न देखने का संकल्प करके, खांसते-खांसते, कराहते कराहते अपनी कोठरी में वापस आ गये। वह करुणाजनक दृश्य आज भी मेरी आंखों के सामने आ जाता है तो मेरा हृदय चीत्कार कर उठता है।

हमने उस मद्रासी डाक्टर के घोर अमानवीय व्यवहार की शिकायत की तो उसकी जांच भी हुई। सुपरिण्टेण्डेण्ट ने ज्येष्ठ बन्धु के थूक की जांच कराई तो उसमें क्षय (टी० बी०) के रोगाणु पाये गए। बाद में वरिष्ठ चिकित्सक से उनकी पूरी जांच कराई गई तथा क्षय ही पाया गया। पीठ की रीढ़ को क्षय ने अपना शिकार बना डाला था। वे खांसते तो आस-पास की कोठरियों के बन्दी भी घबरा उठते थे। उनकी सांस रुक सी जाती थी और लगने लगता था कि जैसे प्राणपखेरू उड़ना चाह रहे हों। प्रतिदिन १०० से १०२ डिग्री ज्वर रहता था। पित्ताशय की बीमारी के कारण उनका खड़ा होना भी दूभर हो जाता था। खांसी, खूनी पेचिश, पित्ताशय का भीषण दर्द डेढ़ वर्ष से सहते-सहते भी वह कर्मवीर मृत्यु की चुनौती स्वीकार कर उसे पछाड़ता आ रहा था। उस डेढ़ वर्ष के दौरान न जाने कितने सौ राजनीतिक बन्दी मुक्त कर दिये गए, सैकड़ों कुख्यात अपराधियों को रिहा कर दिया गया, विश्व युद्ध में विजय प्राप्ति के उपलक्ष्य में भी अनेक बन्दियों की सजा माफ कर दी गई। परन्तु दस वर्षों से इन अपार कष्टों, उत्पीड़न और भीषण बीमारियों का शिकार बन तिल-तिल कर अपने शरीर को क्षीण करने वाले कर्मवीर, राष्ट्रवीर बन्दी को आज तक मुक्ति नहीं मिली। कैसी विडम्बना है यह?


आख़िर अपराध क्या था?

अखिर ज्येष्ठ बन्धु ( श्री गणेश सावरकर) ने ऐसा कौन-सा भंयकर अपराध किया था कि उन्हें इतनी भयंकर यातनाएं भोगने को मजबूर किया जा रहा था? केवल दस पृष्ठ का एक पत्रक (पैम्पलेट) प्रकाशित करने के 'अपराध' में उन्हें राजद्रोही करार देकर आजीवन कारावास का दण्ड देकर अण्डमान भेजा गया था। उनका दूसरा अपराध यह था कि वे मेरे ज्येष्ठ बन्धु थे। इन्हीं अपराधों के कारण उन्हें क्षय रोग से ग्रस्त होकर मृत्यु के द्वार तक पहुंच जाने पर भी कारागार से मुक्ति नहीं मिल पा रही थी। इतना सहन करने पर भी वह कर्मयोगी अपने सिद्धान्तों पर अडिग था। घोर अमानवीय यातनाएं, उत्पीडन और रोगों का सामूहिक प्रहार भी उनको राष्ट्रभक्ति के पथ से विचलित नहीं कर पाये थे। मृत्यु के द्वार पर पहुंचने पर भी वे अपने सिद्धान्तों से तिल-भर भी नहीं भटके।" ('मेरा आजन्म कारवास' से)


बलिदानी वीर का अन्तिम प्रयाण



२६ जनवरी १९६६ के बाद वीर सावरकर का स्वास्थ्य धीरे-धीरे क्षीण होने लगा। डाक्टर चिन्ता में पड़ गये। स्वातन्त्र्य-वीर दवा नहीं लेते, तो क्या करें? दूसरे किसी उपाय से यदि दवा पेट में जाये, तो अत्यन्त उत्तम होगा, यह सोचकर २९ से ३१ तारीख तक चाय में दवा दी गई। इससे स्वातन्त्र्य वीर को सन्देह हो गया। एक दिन उन्होंने पूछ लिया कि क्या चाय का चूरा बदल दिया है? पर उत्तर नकारात्मक ही मिला। वस्तुतः पाचनशक्ति की क्षीणता को छोड़कर और कोई विकार उनमें नहीं था। सभी ज्ञानेन्द्रियां उत्तम थीं। अतः उनके मन में यह सन्देह पैदा हो गया कि डाक्टर उनसे कुछ छिपा रहे हैं। तर्कनिष्ठ और बुद्धिवादी मनुष्य को फंसाना बड़ा कठिन काम है। वही बात यहां भी हुई। ३ फरवरी से स्वातन्त्र्य वीर ने चाय पीनी बन्द कर दी। केवल थोड़ा-सा पानी पीना, अखबार पढ़ना या सुनना, रोज की तरह दाढ़ी बनाना, शरीर पोंछवा लेना, आई डाक देखना, अपने सचिव को उत्तर देना लिखवाना, और थोड़ी बहुत चर्चा करना यह उनका दिनक्रम था। आने वालों की खोज खबर लेना वे कभी नहीं भूलते थे। उनकी बीमारी का समाचार रेडियो और अखबारों में आने से पत्रों और तारों की झड़ी सी लग गई, जो दिनों-दिन बढ़ती ही चली गई। इन सब का उत्तर देना भी कठिन होने लगा। दर्शकों की भी भीड़ इतनी होने लगी कि सावरकर सदन में जगह की कमी महसूस होने लगी। शनिवार दिनांक २६ फरवरी १९६६ को सवेरे ८ बजे सावरकर जागे। मुंह धोया, पर चम्मच भर पानी भी नहीं पी सके। रात को बुखार आया था जो अभी तक उतरा नहीं था, सब चिन्तित हो गए। स्वातन्त्र्य वीर के जीवन में भव्यता रही, अतः उनके मरण में भी भव्यता स्वाभाविक ही थी, पर यम मानो उनके पास आने से डरता था। वे मृत्यु को निमन्त्रण देते थे; पर मृत्यु उनके पास आने से डरती थी। अन्त में मृत्यु हार गई। और स्वातन्त्र्य वीर अमर हो गये। डाक्टरों की भागदौड़ शुरू हो गई। १० बजे उन्हें प्राण वायु दिया गया। कई इज्जेक्शन भी दिये गए, पर स्वातन्त्र्य वीर शान्ति से पड़े रहे। उनकी उंगलियां हिलती रहीं। चमत्कार यह कि उनके शरीर का कुछ भाग गरम और कुछ ठण्डा था। सभी के आंसू बह रहे थे, कुछ भरी आंखों से एक दूसरे को देख रहे थे। सौ० प्रभाताई (पुत्री) पायताने बैठ कर रो रही थी। माधवराव (दामाद) भी बराबर रो रहे थे। सावरकर के पुत्र विश्वासराव की मनः स्थिति का वर्णन असम्भव ही है। सभी दुःखी थे। मां के चरणों में लीन हुए अन्त में ११ बजे के बाद पंछी उड़ गया, सब शरीर ठण्डा हो गया। डाक्टरों ने पत्रक तैयार किया। टेलिफोन टनटनाने लगे, आकाशवाणी,पी०टी०आई० आदि समाचार संस्थाओं ने स्वातन्त्र्य वीर की मृत्यु का समाचार जगत् भर में फैला दिया। देश के स्वातन्त्र्य एवं राष्ट्रोन्नति की सतत चिन्ता करने वाला एक महान् राष्ट्रभक्त भारत मां के चरणों में लीन हो गया।

              इति ओ३म् शम्

शास्त्री हरी आर्य:               

          

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