―मात्र उपस्थसंयम ब्रह्मचर्य नहीं कहाता। पूर्णरूप से वीर्यरक्षा के साथ अन्य समस्त इन्द्रियों को संयत कर विषयों में निर्बाध रूप से प्रवृत्त होने से रोकना ब्रह्मचर्य है। यदि चक्षु आदि इन्द्रियों को खुला छोड़ दिया जाए तो ये सब मिलकर वीर्यनाश का कारण बन जाती हैं, अतः किसी भी इन्द्रिय की उसके विषय में आसक्ति को न उभरने देना ब्रह्मचर्यपालन के लिए आवश्यक है।
―मुण्डकोपनिषद् (३|१|५) में कहा है - 'सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्'।
अर्थात-ब्रह्मचर्य का पालन न करनेवालेको आत्मसाक्षात्कार कभी नहीं हो पाता। यह पथ अत्यन्त दुर्गम है। पूर्ण संयमी पुरुष ही इसको पार करने में सफल हो पाता है। इस साधना में लगे उपासक को सावधान करने के लिए मनु स्मृति में लिखा है
―इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयः । सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धि नियच्छति ॥ २/९३
अर्थात- इन्द्रियों के वश में होके जीवात्मा बड़े-बड़े दोषों को प्राप्त होता है और जब इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है तो सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
इसलिए मुमुक्षु को चाहिए कि
- स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् । सङ्कल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च ॥ एतन्मैथुनमष्टाङ्गं प्रवदन्ति मनोषिणः । विपरीतं ब्रह्मचर्यमनुष्ठेयं मुमुक्षुभिः ॥
ब्रह्मचर्यसाधन में रत व्यक्ति को आठों प्रकार के मैथुन से बचना चाहिए। स्त्री (पुरुष) का एकान्त दर्शन, स्पर्शन, सेवन, विषयकथा, भाषण, परस्पर कीड़ा, विषय का ध्यान और संग- यह आठ प्रकार का मैथुन है। इस सन्दर्भ में गीता का यह श्लोक ( ६।१७) द्रष्टव्य है
―युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥
अर्थात् – जिसका आहार-विहार नियमित है, कर्मों का आचरण नपा-तुला है और सोना-जागना परिमित है उसी के लिए यह योग दुःखनाशक अर्थात् सुखावह होता है ।
जीवन का उद्देश्य है- अभ्युदय तथा निःश्रेयस की सिद्धि । एतदर्थ सर्वोत्तम साधन है- निष्ठा पूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन । ब्रह्मचर्य का सीधा अर्थ है-चित्त में कामवासनाओं को न उभरने देना । न चाहते हुए भी जिस चीज से प्रेरित होकर मनुष्य पाप कर डालता है वह काम का उद्दाम वेग है । कामात् क्रोधोऽभिजायते'- कामान्ध व्यक्ति की वासना पूरी होने में बाधा आ जाने पर रजोगुण व तमोगुण की प्रबलता होने से- वही काम क्रोध में परिणत हो जाता है। फिर,
―कोधात्भवति संमोहः संमोहात् स्मृतिविनमः । स्मृतिशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥ - गीता २/६३
इस प्रकार कभी शान्त न होनेवाला यह कामानल अन्ततः मनुष्य को भस्म कर डालता है। ऐसे दुर्दान्त शत्रु—काम का समूल उन्मूलन निष्ठापूर्वक ब्रह्मचर्यपालन से ही सम्भव है। इतिहास साक्षी है कि साधकों को योगभ्रष्ट करने में सबसे बड़ा हाथ इसी का रहा है, अतः योगमार्ग को निष्कण्टक बनाने के लिए ब्रह्मचर्य पालन ही सर्वोत्तम उपाय हैं ।