क्या ईश्वर अवतार लेता है ?

 


जब आत्मा मन और मन इंद्रियों को किसी विषय में लगाता है अथवा चोरी आदि बुरी यहां परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरंभ करता है। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, मिशन कथा और आनंद उत्साह उत्साह है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किंतु परमात्मा की ओर से है।

ऐसी प्रार्थना कभी नहीं करनी चाहिए और ना परमेश्वर उसको स्वीकार करता है कि जैसे है परमेश्वर आप मेरे शत्रुओं का नाश, मुझ को सबसे बड़ा, मेरी ही प्रतिष्ठा और मेरी अधीन सब हो जाएं इत्यादि,

क्योंकि -

जब दोनों शत्रु एक दूसरे के नाश के लिए प्रार्थना करें तो क्या परमेश्वर दोनों का नाश कर दे? जो कोई कहे कि जिसका प्रेम अधिक उसकी प्रार्थना सफल हो जाए।तब हम कह सकते हैं कि जिसका प्रेम न्यून हो उसके शत्रु का भी न्यून नाश होना चाहिए। ऐसी मूर्खता की प्रार्थना करते करते कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा ही परमेश्वर! आप हमको रोटी बनाकर खिलाइए, मकान में झाड़ू लगाइए, वस्त्रेदो दीजिए और खेतीबाड़ी भी कीजिए। इस प्रकार जो परमेश्वर के भरोसे ऑल से होकर बैठे रहते हैं बे महामूर्ख हैं क्योंकि जो परमेश्वर की पुरुषार्थ के भरोसे आलसी होकर बैठे रहते हैं वे महामूर्ख हैं क्योंकि जो परमेश्वर की पुरुषार्थ करने की आज्ञा है उसको जो कोई तोड़ेगा वह सुख कभी नहीं पाएगा।परमेश्वर भी सबके उपकार करने की प्रार्थना में सहायक होता है हानिकारक कर्म में नहीं।

जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुख छूटकर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदस्य जीव आत्मा के गुण कर्म स्वभाव पवित्र हो जाते हैं, इसलिए परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिए। इससे इसका फल पृथक होगा परंतु आत्मा का बल कितना बढ़ेगा, की पर्वत के समान दुख प्राप्त होने पर भी नहीं घबरा आएगा और सब को सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है। क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत के सब पदार्थ जीवो को सुख के लिए दे रखे हैं, उसका गुण भूल जाना, ईश्वर ही को ना मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है।


प्रश्न :-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्  ।।

श्री कृष्ण जी कहते हैं कि जब जब धर्म का नाश होता है तब मैं शरीर धारण करता हूं।

उत्तर :- यह बात वेद विरुद्ध होने से प्रमाण नहीं और ऐसा हो सकता है कि से किसने धर्मात्मा और धर्म की रक्षा करना चाहते थे कि मैं युग युग में जन्म लेकर श्रेष्ठ हो की रक्षा और दुष्टों का नाश करूं तो कुछ दोष नहीं। क्योंकि "परोपकाराय सत्तां विभूतय:" परोपकार के लिए सत्पुरुष का तन ,मन ,धन होता है तथा भी इससे श्री कृष्ण ईश्वर नहीं हो सकते ।

 प्रश्न :- जो ऐसा है तो संसार में 24 ईश्वर के अवतार होते हैं और इनको अवतार क्यों मानते हैं ?

उत्तर :- वेदार्थ के ना जानने संप्रदायी लोगों के पहचाने और अपने आप विद्वान होने से भ्रम जाल में फस के ऐसी ऐसी और प्रमाणिक बातें करते हैं और मानते हैं।

प्रश्न :- जो ईश्वर अवतार नहीं लेता तो कम श्रावण आदि दुष्ट लोगों का नाश कैसे हो सके ?

उत्तर :- प्रथम तो जो जन्मा है वह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है। जो ईश्वर अवतार शरीर धारण किए बिना जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता है तो उसके सामने कौन और रावण आदि एक चिड़ी के समान भी नहीं। वह सर्वव्यापक होने से कंस रावण आदि के शरीर में भी परिपूर्ण हो रहा है। जब चाहे उसी समय मर्म छेदन करनास कर सकता है। भला इस अनंत गुण, कर्म, स्वभाव युक्त, परमात्मा को एक क्षुद्र जीव के मारने के लिए जन्म मरण युक्त कहने वाले को मूर्ख कौन से अन्य कुछ विशेष उपमा मिल सकती है क्या ?

और जो कोई कहे कि भक्त जनों के उद्धार करने के लिए जन्म लेता है तो भी सत्य नहीं।क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञा नकुल चलते हैं उनके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। या ईश्वर के पृथ्वी, सूर्य, चंद्र आदि जगत को बनाने, धारण और प्रलय करने रूप कर्मों से कंस रावण आदि का वध और गोवर्धन आदि पर्वतों का उठाना बड़े कर्म है ?

जो कोई इस सृष्टि में परमेश्वर के कर्मों का विचार करे तो "न भूतो न भविष्यति" ईश्वर के सदृश्य कोई नहीं है, ना होगा । और युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनंत आकाश को कहे कि गर्भ में आया वह मिट्टी में भर लिया, ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता। क्योंकि आकाश अनंत और सब में व्यापक है। इससे ना आकाश बाहर आता है और ना भीतर जाता, वैसे ही अनंत सर्वव्यापक परमात्मा की होने से उसका आना-जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। क्या परमेश्वर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से आया ? और बाहर नहीं था जो भीतर से निकला ? ऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्या हिंदुओं के सिवा कौन कहे और मान सकेगा। इसलिए परमेश्वर का जाना आना जन्म मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए "ईसा आदि भी ईश्वर के अवतार नहीं ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि वे राग, द्वेष, श्रुधा, तृषा, भय, शोक, दुख, सूख, जन्म, महाराणा भिगोने युक्त होने से मनुष्य थे।

जब तक आर्यावर्त  देश से शिक्षा गई नहीं थी तब तक मिस्र, यूनान और यूरोप देश आदिस्थ मनुष्यों में कुछ भी विद्या नहीं हुई थी और इंग्लैंड के कोलंबस आदि पुरुष अमेरिका मैं जब तक नहीं गए थे तब तक बे भी शहस्रों, लाखों करोड़ों वर्षों से मूर्ख अर्थात विद्या हिन थे । पुन: सुशिक्षा के पाने से विद्वान हो गए हैं, वैसे ही परमात्मा से सृष्टि की आदि में विद्या शिक्षा की प्राप्ति से उत्तरोत्तर काल में विद्वान होते आए । और सृष्टि का कल्याण करते गए।

2 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही भावी लेख आपका ये लेख विधर्मियों को अंधकार से प्रकाश की और अग्रसर करेगा ।
    आपका धन्यवाद् ।।

    जवाब देंहटाएं
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