शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह (राष्ट्र ऋणी है जिनका)

 


क्रान्तिकारी शिरोमणि और क्रान्ति लेखक 

      शहीद सरदार भगत सिंह

भगतसिंह उन क्रान्तिकारियों में से एक हैं जिनका नाम और काम व्यापक स्तर पर प्रसिद्ध हुआ। इसके कारण थे-सरदार भगतसिंह की क्रान्तिकारी पारिवारिक पृष्ठभूमि का होना, क्रान्तिकारी लेखक होना और उत्साही क्रान्तिकारी होना।

भगतसिंह ने जब से होश संभाला, उन्हें अपने परिवार में आर्यसमाजी संस्कार, देशभक्ति और क्रान्तिकारी वातावरण मिला। भगतसिंह का जन्म जिला-लायलपुर के 'बंगा' नामक गांव में हुआ था। उनके दादा जी का नाम सरदार अर्जुनसिंह था। सरदार अर्जुनसिंह सिख परिवार के होते हुए भी संस्कारों से दृढ़ आर्यसमाजी थे। वे जहां भी जाते, अपने साथ एक पोटली रखते थे जिसमें यज्ञकुण्ड और यज्ञ सम्बन्धी सामान रहता था। वे प्रतिदिन यज्ञ करते थे। वे पूरी निष्ठा और गम्भीरता से महर्षि दयानन्द रचित 'सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय किया करते थे। सत्यार्थ प्रकाश के प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी। उस ग्रन्थ से उन्होंने स्वराज्य प्रेम की प्रेरणा ली थी। यही स्वराज्य भावना उनके तीनों पुत्रों श्री किशनसिंह, श्री अजीतसिंह और श्री स्वर्णसिंह में कूट-कूट कर भरी गयी थी। स्वराज्य के लिए तीनों पुत्रों ने कारावास भोगा, जेल की यातनाएं सहीं। स्वर्णसिंह तो जेल की यातनाओं से जर्जर शरीर के कारण युवावस्था में ही वीरगति को प्राप्त हो गये थे। भगतसिंह के पिता श्री किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह को मांडले (बर्मा) की जेल में बंद किया हुआ था। ये जब छूटकर आये उसी दिन भगतसिंह का जन्म हुआ था।

भगतसिंह के दादा अर्जुनसिंह एक बार अपने गांव से ६० मील दूर किसी विवाह में शामिल होने के लिए गये। विवाह के अवसर पर सिख पुरोहित महर्षि दयानन्द रचित सत्यार्थप्रकाश के उदाहरण दे दे कर उसकी कटु आलोचना कर रहा था। अर्जुनसिंह ने देखा कि वह व्यक्ति झूठे उदाहरण सुना-सुना कर लोगों को भड़का रहा था।अर्जुन सिंह ने उसको टोकते हुए कहा कि 'आप लोगों को मिथ्या और कल्पित उद्धरण सत्यार्थप्रकाश के नाम पर सुना रहे हैं, ये बातें सत्यार्थप्रकाश में नहीं हैं। आप सत्यार्थप्रकाश को व्यर्थ बदनाम न करें, उसने कहा कि 'सत्यार्थप्रकाश लाओ, मैं सारे उद्धरण दिखा दूंगा।' उस समय कहीं-कहीं कोई-कोई पुस्तक मिलती थी पुरोहित ने सोचा था कि तेरी बात ऊपर रह जायेगी। यहां किसके पास सत्यार्थप्रकाश मिलेगा ?

सत्यार्थप्रकाश के प्रति श्रद्धा रखने वाले श्री अर्जुनसिंह रात में ही ६० मील पैदल चलकर घर आये और सत्यार्थप्रकाश लेकर सबेरे तक पैदल ही वापस विवाहस्थल पर पहुंच गये। जब पुरोहित को सत्यार्थप्रकाश हाथ में थमा कर उद्धरण दिखाने के लिए कहा तो वह बगलें झांकने लगा। आखिर पुरोहित ने अपनी गलती के लिए माफी मांगकर पीछा छुड़ाया। इसी प्रकार भगतसिंह की दादी भी एक धार्मिक महिला थीं। यही संस्कार एवं परम्पराएँ भगतसिंह तक आयीं। तीन वर्ष की अवस्था में आपने गायत्री मन्त्र स्मरण कर लिया था। भगतसिंह का यज्ञोपवीत संस्कार आर्यसमाज के शास्त्रार्थ महारथी पं. लोकनाथ जी वाचस्पति ने कराया था। शिक्षा प्राप्त करने के लिए आपके पिता जी ने आपको डी. ए.वी. स्कूल लाहौर में प्रवेश दिलाया। अन्तिम वर्षों में आपकी विचारधारा क्रान्तिकारी के साथ-साथ साम्यवादी हो गयी थी। देशहित और समाजहित के लिए आपने अपना जीवन लगा दिया। शेष जीवन परिचय क्रान्तिकारी श्री मन्मथनाथ गुप्त के शब्दों में प्रस्तुत है। (सम्पादक)

" सरदार भगतसिंह के विषय में लिखते हुए जो सब से पहली बात सामने आती है, वह यह कि उनके खानदान में देशभक्ति कोई अपरिचित वस्तु नहीं थी। उनके पिता सरदार किशनसिंह बड़े धीर, स्थिर और ज्ञानी व्यक्ति थे, फिर भी उन्हें पुलिस से बचने के लिए नेपाल जाना पड़ा था। उनके चाचा सरदार अजीतसिंह को क्रान्तिकारी आन्दोलन के सिलसिले में बहुत दिनों तक नजरबन्द किया जा चुका था। इसी प्रकार उनके एक अन्य चाचा सुवर्णसिंह भी किसी न किसी प्रकार से क्रान्तिकारी आन्दोलन से सम्बद्ध थे। जिस दिन सरदार भगतसिंह पैदा हुए. उसी दिन उनके चाचा अजीतसिंह और सुवर्णसिंह जेल से छूटे। इसी से खुश होकर उनकी दादी ने उनको भागों वाला या भाग्यवान् कहा और उनका नाम भगतसिंह पड़ा। सरदार भगतसिंह ने डी०ए०वी० स्कूल से मैट्रीकुलेशन पास किया। उसके बाद वे नेशनल कॉलेज में पढ़ने लगे, जहां उनका परिचय सुखदेव, भगवतीचरण, यशपाल आदि से हुआ जो बाद में चलकर बहुत प्रमुख क्रान्तिकारी हुए। इस कॉलेज में जयचन्द्र विद्यालंकार नाम के एक अध्यापक थे जो बहुत पहले शचीन्द्रनाथ सान्याल के प्रभाव में आ चुके थे। जयचन्द्र जी ने शचीन्द्रनाथ सान्याल के 'बन्दी जीवन' के दूसरे भाग का अनुवाद भी किया था, जो बहुत कम लोगों को मालूम है। जयचन्द्र हिन्दू विचारों के थे, पर क्रान्ति का प्रचार करते थे। कुछ भी हो, इन्हीं के जरिए से भगतसिंह और उनकी मित्र मण्डली का प्रवेश क्रान्तिकारी दल में हो गया। गुरु गुड़ ही रह गए और चेले चीनी हो गए। जयचन्द्र का एक प्रभाव फिर भी इन लोगों पर यह रह गया कि सब के सब विद्याप्रेमी हुए। यद्यपि भगतसिंह सिख परिवार में पैदा हुए थे, पर उन्होंने हिन्दी भी सीख ली और हिन्दी में लिखने लगे। जब भगतसिंह ने एफ०ए० पास कर लिया, तब घर वाले जो दूध के जले थे और फूंक फूंककर छाछ पीते थे, वह चाहने लगे कि भगतसिंह की शादी हो जाए। भगतसिंह ने समझा कि यह यों ही बात है, जैसे हुआ करती है टल जाएगी। इसलिए उन्होंने टालना शुरू किया, पर जब देखा कि बात टलने वाली नहीं है और घर वाले शादी करने पर उतारू हैं तो उन्होंने समझा कि शादी करके एक नवयुवती का जीवन नष्ट करने के बजाय घर से भाग चलना ही अच्छा है। तदनुसार वे वहां से भागे और भाग कर दिल्ली पहुंचे और अर्जुन' पत्र में काम करने लगे। इसके बाद वे कानपुर गए, क्योंकि दिल्ली का पता घरवालों को मालूम हो चुका था। कानपुर में उन्होंने गणेशशंकर विद्यार्थी द्वारा प्रवर्तित्त और सम्पादित 'प्रताप' में कुछ काम करना शुरू किया और वहां वे अपना परिचय बलवन्तसिंह देने लगे। यही उनके दल का नाम भी बन गया। जो कुछ भी हो, जब सरदार भगतसिंह कानपुर में थे, तब फिर एक बार घर वालों को पता लग गया कि वे कानपुर में हैं। यह खबर एक मित्र के जरिए से लगी थी। तब मित्र को सन्देश आया कि भगतसिंह की मां बहुत बीमार है और उसे कहो कि वह जल्दी घर चला आए। भगतसिंह को अपनी मां से बहुत प्यार था। वे फौरन घर चले गए। वहां फिर उन से शादी की बात नहीं कही गई। वहां उन दिनों सारे पंजाब में गुरु का बाग वाला अन्दोलन चल रहा था, जिसका उद्देश्य बहुत ही उचित था। वह यह था कि सिख महन्तों ने जो बड़ी-बड़ी जायदादों पर कब्जा कर रखा है, वे उनसे ले ली जाएं और सिख समाज को सौंपी जाएं। कहना न होगा कि यह आन्दोलन भगतसिंह को बहुत पसन्द आया और उन्होंने उन लोगों की बड़ी सेवा की जो उनके गांव बंगा से होकर सत्याग्रह करने के लिए जत्थे ले जा रहे थे। ये जत्थे शहीदी जत्थे कहलाते थे। भगतसिंह ने इस आन्दोलन में भाग लेने वालों को पूरी मदद दी, पर वे स्वयं किसी जत्थे में शरीक नहीं हुए, क्योंकि वे जिस शहीदी जत्थे में शरीक हुए थे, उस जत्थे के पांव में बाकी सब जत्थे के पांव आ जाते थे। क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्देश्य सब तरह से महन्तों और महन्ती का अन्त करके जनता के हाथ में राष्ट्र और सारे उत्पादन के साधन सौंपना था। अफसोस है कि भारत स्वतन्त्र हुए इतने दिन हो गए, पर हिन्दू-मुस्लिम-सिख ईसाई महन्तों का खात्मा नहीं हुआ और वे धर्म के नाम पर साधारण जनता को उल्लू बनाकर खूब गुलछरें उड़ा रहे हैं। धर्म निरपेक्ष राष्ट्र का यह अर्थ नहीं इन्हीं दिनों की बात है कि बंगाल में गोपीमोहन शाहा एक अंग्रेज को मारकर शहीद हो गये। गांधी जी ने इस पर गोपीमोहन शाहा की बड़ी निन्दा की, पर बंगाल के नेता देशबन्धु चित्तरंजन दास ने न केवल गोपीमोहन की प्रशंसा की, बल्कि सिरागंज प्रान्तीय सम्मेलन में गोपीमोहन की प्रशंसा के लिए एक प्रस्ताव पास कराया। गांधी और दास में इस बार सार्वजनिक रूप से बहुत लम्बा तर्क-वितर्क हुआ। सरदार भगतसिंह के कानों तक भी इसकी खबर पहुंची। उन्होंने लायलपुर में इस सम्बन्ध में एक भाषण किया। जिसमें क्रान्तिकारी पक्ष का जोरदार समर्थन किया और कहा कि प्रत्येक गुलाम जाति को अधिकार है कि वह जिस भी प्रकार चाहे और जिस भी प्रकार सम्भव हो अपनी गुलामी की जंजीर को तोड़ डाले। इस पर पुलिस ने भगतसिंह पर राजद्रोह का मुकदमा चलाना चाहा, पर मुकदमा चल नहीं सका और भगतसिंह के नेतृत्व में और भी नवजवान आ गए। काकोरी षड्यन्त्र के जमाने में ही भगतसिंह पंजाब के क्रान्तिकारी नेता के रूप में मान लिये गए थे और काकोरी षड्यन्त्र में पेश किए गए गुप्त कागजात में लाहौर के उपदेशक नाम से जिस व्यक्ति का उल्लेख आया करता था, वे भगतसिंह ही थे। यद्यपि पुलिस को उस समय इसका पता नहीं था। भगतसिंह एक बार काकोरी षड्यन्त्र के मुकदमे का तमाशा देखने लखनऊ भी आए थे। उस समय मुकदमा सैयद ऐनुद्दीन की निम्न अदालत में चल रहा था।

जब तक काकोरी षड्यन्त्र चलता रहा तब तक क्रान्तिकारी दल के अन्दर का नरम पक्ष साथ ही गिरफ्तार लोगों के रिश्तेदार बाहर के क्रान्तिकारियों और फरारों पर यह प्रभाव डालते रहे कि कोई ऐसा कार्य न किया जाए जिससे मुकदमे पर बुरा प्रभाव पड़े और सरकार बदला लेने के लिए तैयार हो जाए। भीतर-भीतर पुलिस के साथ एक समझौते की भी बातचीत चल रही थी, जिसका उद्देश्य यह था कि कुछ अभियुक्त एकदम छोड़ दिए जाएं किसी को फांसी न हो इत्यादि इत्यादि पर पुलिस ने अन्त तक समझौता करना स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उसे काफी प्रमाण मिल गए और रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी, अशफाकउल्ला और रोशनसिंह को फांसी की सजा दे दी गई। तब चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह और काकोरी षड्यन्त्र के दण्डित राजकुमारसिंह के छोटे भाई विजयकुमारसिंह खुलकर आन्दोलन में तेजी लाने के लिए तैयार हो गए। जब अपने साथियों को फांसी हो ही गई, तो फिर समझौता या रियायत का प्रश्न कहाँ उठता था। सब से पहले यह चेष्टा की गई कि जेल में पड़े क्रान्तिकारियों को जेल से निकाला जाए। पर इस कार्य में भी सफलता नहीं मिली। सफलता मिल तो सकती थी, पर उसके लिए बहुत दाम देने की जरूरत थी, जो उचित न होती। यदि एक व्यक्ति को जेल से छुड़ाने के लिए दस क्रान्तिकारी मारे जाते, तो यह उचित बात न होती। इसलिए यह कार्यक्रम भी छोड़ दिया गया। दल का नाम हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन था। शचीन्द्रनाथ सान्याल ने यह नाम रखा था। दल का उद्देश्य प्रजातन्त्र की स्थापना था। संविधान में यह बता दिया गया था कि दल ऐसे समाज की स्थापना करना चाहता है जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असम्भव हो, साथ ही दल के एक पर्चे में जो गुप्त रूप से पेशावर से लेकर रंगून तक बांटा गया था, यह कहा गया था कि दल के सामने ऋषि-मुनियों के आदर्श के साथ ही रूस का आदर्श भी है। फिर भी स्पष्ट रूप से समाजवाद का नाम नहीं लिया गया था। अब चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, विजयकुमारसिंह, सुरेन्द्र पाण्डेय आदि ने यह जरूरी समझा कि दल का उद्देश्य स्पष्ट रूप से समाजवाद बता दिया जाए। तदनुसार दल का नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोशिएशन यानी हिन्दुस्तान सामाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ कर दिया गया। इसके उद्देश्य में और स्पष्ट कर दिया गया कि दल समाजवाद के लिए लड़ रहा है। यह स्मरण रहे कि उस समय तक कांग्रेस ने ध्येय के रूप में पूर्ण स्वतन्त्रता भी नहीं अपनायी थी, समाजवाद की बात तो दूर रही। कांग्रेस ने समाजवाद के ध्येय को स्वतन्त्रता के बाद लाने को अगाड़ी में अपनाया है। इससे यह स्पष्ट है कि विचारों के क्षेत्र में भी क्रान्तिकारी दल कांग्रेस से बहुत आगे रहा। कांग्रेस ने समाजवाद के ध्येय को कहां तक नारे के रूप में ही अपनाया है और कहां तक वास्तविक रूप में, अभी यह देखना है। दल की ओर से उत्तर भारत में कई जगह बम के कारखाने खोले गए। साथ ही नौजवान भारत सभाओं की भी स्थापना हुई। यदि क्रान्तिकारी दल पर सरकार का उस प्रकार से प्रहार न होता, जिस प्रकार कि आगे चलकर हुआ, तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि नौजवान भारत सभा कांग्रेस से अधिक शक्तिशाली और जनप्रिय हो जाती। क्रान्तिकारी दल बराबर जनता को साथ लेकर चलने की चेष्टा करता रहा। इसका प्रमाण यह है कि जब १९२८ में साइमन कमीशन का ऐलान हुआ कि वह आकर भारत के भविष्य के ढांचे का निर्णय करे, तो कांग्रेस ने तो केवल बायकाट का ही नारा दिया, पर क्रान्तिकारी इससे आगे बढ़ गए और वे कमीशन के सदस्यों को ही मार डालना चाहते थे। उस सम्बन्ध में एक प्रयत्न भी हुआ जिसमें मार्कण्डेय, हरेन्द्र भट्टाचार्य और मनमोहन ने भाग लिया, पर वह सफल नहीं हुआ।

 कांग्रेस के नेतृत्व में ब्रिटेन से भेजे हुए साइमन का बायकाट चालू रहा। जब कमीशन लाहौर में १० अक्तूबर १९२८ को पहुंचा तो उसका बायकाट करते समय एक भीड़ का नेतृत्व करते हुए लाला लाजपतराय पर लाठियां पड़ीं। चोटें बहुत अधिक थीं। लाला जी ने तभी विस्तरा पकड़ लिया और १७ नवम्बर १९२८ को इस चोट के कारण उनका देहान्त हो गया। इस खबर से सारे देश में बहुत खलबली मच गई।

क्रान्तिकारियों ने यह सोचा कि यदि इस राष्ट्रीय अपमान का बदला न लिया गया, तो जनता को बहुत धक्का लगेगा और साइमन कमीशन के बायकाट से जो जोश उत्पन्न हुआ था, वह समाप्त हो जाएगा। तदनुसार यह निश्चय हुआ कि लाला लाजपतराय की हत्या के लिए जिम्मेदार पुलिस अफसर को मारा जाए। इसके लिए चार व्यक्ति नियुक्त हुए (१) चन्द्रशेखर आजाद, (२) भगतसिंह, (३) शिवराम राजगुरु और (४) जयगोपाल ।)

(जब साण्डर्स नामक पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट अपनी मोटर साइकल पर पुलिस के दफ्तर से निकल रहा था, तो उस पर हमला हुआ। साण्डर्स वहीं गिर पड़ा और क्रान्तिकारी भाग गए। इस मौके पर विजयकुमार सिन्हा भी आसपास रिजर्व के रूप में मौजूद थे। साण्डर्स की हत्या से सारे भारत में खुशी की लहर दौड़ गई, क्योंकि लोगों के सामने यह स्पष्ट हो गया कि एक न्यायालय ऐसा है जहां भारतीयों के लिए भी न्याय हो सकता है। पर ब्रिटिश सरकार एकदम पागल हो गई और बड़ी कठिनाई से क्रान्तिकारी लाहौर से बाहर निकल पाए । चन्द्रशेखर आजाद को भागने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई, पर भगतसिंह को कौशल से बाहर निकलना पड़ा। वे शहीद भगवतीचरण की पत्नी दुर्गादेवी और उनके शिशु पुत्र की सहायता से बाहर निकल पाए । इसके बाद भगतसिंह चाहते तो रूस आदि में भाग सकते थे, पर उन्होंने ऐसा उचित नहीं समझा। इस समय तक परिस्थिति ऐसी थी कि राष्ट्रीय यज्ञ जारी था और वह आहुति मांग रहा था। आहुतियाँ तो बहुत हो चुकी थीं, पर इस आहुति के साथ-साथ बहरों को सुनाने के लिए धड़ाके के साथ बीजमन्त्र देने की जरूरत थी। ऐसा मन्त्र जो कान में पड़कर शाखा प्रशाखा फैलाकर नस-नस के रक्तकण में लालिमा के रूप में फैल जाए। यह बीज मन्त्र था इन्कलाब जिन्दाबाद और उसके साथ-साथ समाजवाद का ध्येय। जब बंकिमचन्द्र ने अपने उपन्यास 'आनन्द मठ' में 'वन्देमातरम्' शब्द का प्रयोग किया था तब उन्हें शायद पता न हो कि वह एक बीजमन्त्र के रूप में लगभग अर्द्धशताब्दी तक अपना कार्य करेगा और उसका कवच पहनकर कितने ही देशभक्त फांसी पर लटक जाएंगे या काले पानी की कालकोठरियों में कुलबुलाते रहेंगे, फिर भी घुटना नहीं टेकेंगे। अब यह मन्त्र कुछ घिस पिट चुका था इतना कि अब सिक्के पर क्या लिखा है, पढ़ा नहीं जाता था। इस बीच गांधी जी आये, पर उन्होंने सत्य और अहिंसा का जो नारा दिया) वह जन-जन की गइराइयों में पैठ नहीं सका था। एक विनोबा भावे के अतिरिक्त (किसी ने इस नारे को सिवा एक राजनैतिक पेच के रूप में ग्रहण नहीं किया था। )

( अब भगतसिंह के सामने प्रश्न यह था कि यह नया बीज मन्त्र कैसे भारत को दिया जाए ताकि वह तब तक गूंजे और उसमें से लपटें और धुआं निकलता रहे जब तक कि सही अर्थों में समाजवाद की स्थापना न हो जाए यह तय हुआ कि ऐसी नाटकीय स्थिति में इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा बुलन्द किया जाए कि वह फौरन हजारों-लाखों के मन में आग छुआ दे। केवल नाटक या नाटकीयता से कुछ नहीं होने का था। इतिहास नाटकों से नहीं बदला करता उसके लिए रक्त की आवश्यकता होती है। भगतसिंह ने इसके लिए अपना रक्त देने का निश्चय किया उनको बहुत समझाया गया कि तुम पर तो लाहौर वाली हत्या का मुकद्दमा है, पर वे नहीं माने और कानपुर के बटुकेश्वर दत्त को साथ लेकर उन्होंने १९२९ की ८ अप्रैल को दिल्ली में असेम्बली भवन में बम डाला। बम मारने का उद्देश्य किसी को मारना नहीं था, बल्कि जैसा कि उस समय के बांटे गये पर्चे में बताया गया था उद्देश्य था 'बहरों को सुनाना।' इस पर्चे में यह स्पष्ट रूप से लिखा था कि भारतीय क्रान्तिकारी दल का उद्देश्य समाजवाद की स्थापना है और हमारा नारा है 'इन्कलाब जिन्दाबाद।

उसी दिन से सारे भारत में इन दो युवकों का नाम प्रसिद्ध हो गया। 17 एक नेता ने इनके विरुद्ध एक बयान प्रकाशित किया, पर जनता ने उन पर थू थू की मुकदमा चला और भगतसिंह ने फिर एक बार पूरी तरह से बताया कि दल किन उद्देश्यों को लेकर चल रहा है और क्या चाहता है। जब लोगों ने यह वक्तव्य पढ़ा, तब पता लगा कि क्रान्तिकारी किन उद्देश्यों को लेकर अब लड़ रहे हैं। उनका उद्देश्य न तो हिन्दू राज्य था, न मुस्लिम राज्य, बल्कि मेहनत करने वाले वर्ग का राज्य था।

दोनों अभियुक्तों को आजन्म कालापानी की सजा दे दी गई और भगतसिंह को लाहौर षड्यन्त्र के मुकदमे में ले जाया गया। (भगतसिंह के अतिरिक्त सुखदेव, किशोरीलाल, विजयकुमार सिन्हा, कुन्दनलाल, शिवराम राजगुरु, शिव वर्मा, गयाप्रसाद, यतीन्द्रनाथ दास, जयदेव कपूर, कमलनाथ तिवारी, जितेन्द्र सान्याल, आशाराम, देशराज, प्रेमदत्त, महावीरसिंह, सुरेन्द्र पाण्डेय, अजय घोष पर मुकदमा चला। ७ अक्तूबर १९३० तक यह मुकदमा चलता रहा। इस मुकदमे का इतिहास स्वयं ही एक बहुत बड़ा इतिहास है। बीच में कई बार अनशन हुए। अभियुक्त बराबर अदालत के सामने नारे लगाते रहे और वक्तव्य देते रहे जो सारे अखबारों में प्रकाशित होते रहे भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी वाल तथा विजयकुमार सिन्हा, महावीरसिंह, किशोरीलाल, शिववर्मा, गयाप्रसाद, की जयदेव और कमलनाथ त्रिवेदी को आजन्म कालेपानी, कुन्दनलाल को सात वर्ष और प्रेमदत्त को तीन साल की सजा हुई। मुकदमे की अपील प्रीवी कौंसिल तक की गई, पर फांसी की सजा बहाल रही और २३ मार्च १९३१ को भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी गई।

चल चुका था और स्थगित हो चुका था। भगतसिंह की फांसी से लोगों पर यह प्रकट हो चुका था कि सरकार किसी तरह समझौता करना नहीं चाहती। फिर भी कुछ लोग समझौते की आशा लेकर चल रहे थे। 1) भगतसिंह ने अन्तिम समय तक साहस का परिचय दिया। उन्होंने अपने भाई को एक पत्र में ये शेर लिखे थे उसे फ़िक्र है हरदम नया तर्जे जफ़ा क्या है, हमें यह शौक है देखें सितम का इन्तहा क्या है। घर से क्यों खफा रहे खर्च का क्यों गिला करे, सारा जहां अदू यही आओ मुकाबला करें। कोई दम का मेहमां हूं ऐ अहले महफ़िल, चिरागे सहर हूं बुझा चाहता हूं। मेरी हवा में रहेगी ख्याल की बिजली, यह मुश्ते ख़ाक है फानी रहे या न रहे। "

(मन्मथनाथ रचित 'भारत के क्रान्तिकारी' से )


शहीद भगतसिंह के कुछ ऐतिहासिक पत्र अपने मित्र अमरचन्द (जो उस समय अमरीका में पढ़ रहे थे) को लिखा भगतसिंह का सन् १९२७ का पत्र प्यारे भाई अमरचन्द जी,

नमस्ते।

अर्ज है कि इस दफा अचानक मां के बीमार होने पर इधर आया और आपकी मोहतरिमा वाल्दा (आदरणीया मां) के दर्शन हुए। आपका खत पढ़ा। इसके लिए यह (साथ वाला) खत लिखा। साथ ही चार अल्फाज (शब्द) लिखने का मौका मिल गया। क्या लिखूं करमसिंह विलायत गया है, उसका पता भेजा जा रहा है। अभी तो उसने लिखा है कि लॉ पढ़ेगा, मगर कैसे चल रहा है सो खुदा जाने। खर्च बहुत ज्यादा हो रहा है।

भाई हमारी मुमालिक गैर (विदेश) में जाकर तालीम (शिक्षा) हासिल करने की ख्वाहिस खूब पासमाल (बर्बाद) हुई। अच्छा तुम्हीं लोगों को सब मुबारक। कभी मौका मिले तो कोई अच्छी-अच्छी कुतक (पुस्तक) भेजने की तकलीफ उठाना। आखिर अमेरिका में लिट्रेचर तो बहुत है। खैर अभी तो अपनी तालीम में बुरी तरह फंसे हुए हो । सान्फ्रांसिस्को वगैरह की तरफ से सरदार जी (अजीतसिंह) का शायद कुछ पता मिल सके। कोशिश करना। कम-अज-कम जिन्दगी का यकीन तो हो जाये। मैं अभी लाहौर जा रहा हूँ, कभी मौका मिले तो खत तहरीर फरमाइयेगा। पता सूत्र मण्डी लाहौर होगा और क्या लिखूं? कुछ लिखने को नहीं है। मेरा हाल भी खूब है। बारहा (कई बार) मुसायब (मुसीबतों) का शिकार होना पड़ा। आखिर में वापस ले लिया गया। बादवां (बाद में) फिर गिरफ्तार हुआ। साठ हजार की जमानत पर रिहा हूं। अभी तक कोई मुकदमा मेरे खिलाफ तैयार नहीं हो सका और ईश्वर ने चाहा तो नहीं भी हो सकेगा। आज एक बरस होने को आया, मगर जमानत वापस नहीं ली गयी। जिस तरह ईश्वर को मंजूर होगा। ख्वाहमखाह तंग करते हैं। भाई खूब दिल लगाकर तालीम हासिल करते चले जाओ।

आपका ताबेदार

भगतसिंह

सेण्ट्रल जेल लाहौर

अक्तूबर १९३०


बटुकेश्वर दत्त को पत्र

प्रिय भाई.

मुझे सजा सुना दी गयी है और फांसी का हुक्म हुआ है। इन कोठरियों में मेरे अलावा फांसी का इन्तजार करने वाले बहुत से मुजरिम हैं। यह लोग यही प्रार्थनाएं कर रहे हैं कि किसी तरह वे फांसी से बच जायें। लेकिन उनमें से शायद मैं अकेला ऐसा आदमी हूं जो बड़ी बेसब्री से उस दिन का इन्तजार कर रहा हूं, जब मुझे अपने आदर्श के लिए फांसी के तख्ते पर चढ़ने का सौभाग्य मिलेगा। मैं खुशी से फांसी के तख्ते पर चढ़कर दुनियां को दिखा दूंगा कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए कितनी वीरता से कुर्बानी दे सकते हैं। मुझे फांसी की सजा मिली है, मगर तुम्हें उम्र कैद । तुम जिन्दा रहो और जिन्दा रहकर तुम्हें दुनिया को यह दिखाना है कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए सिर्फ मर ही नहीं सकते बल्कि जिन्दा रहकर हर तरह की यातनाओं का मुकाबला भी कर सकते हैं। मौत सांसारिक मुसीबतों से छुटकारा पाने का साधन नहीं बननी चाहिए बल्कि जो क्रान्तिकारी संयोगवश फांसी के फन्दे से बच गये हैं उन्हें जिन्दा रहकर दुनिया को यह दिखा देना चाहिए कि वे न सिर्फ अपने आदर्शों के लिए फांसी पर चढ़ सकते हैं बल्कि जेलों की अन्धेरी कोठरियों में घुट-घुटकर हद दर्जे के अत्याचारों को भी सहन कर सकते हैं।

तुम्हारा भगतसिंह

सेण्ट्रल जेल लाहौर

१६ सितम्बर, १९३०


छोटे भाई कुलवीर को पत्र

प्यारे भाई कुलवीर जी

सतश्री अकाल!

तुम्हें मालूम ही होगा कि उच्च अधिकारियों के आदेशानुसार मुझसे मुलाकातों पर पाबन्दी लगा दी गयी है। इन स्थितियों में फिलहाल मुलाकात न हो सकेगी और मेरा विचार है कि जल्द ही फैसला सुना दिया जायेगा। इसके कुछ दिनों बाद किसी दूसरी जेल भेज दिया जायेगा। इसलिए किसी दिन जेल में आकर मेरी किताबें और कागजात आदि चीजें ले जाना। मैं बर्तन, कपड़े, किताबें और अन्य कागजात जेल के डिप्टी सुपरिण्टेण्डेण्ट के दफ्तर में भेज दूंगा। आकर ले जाना पता नहीं क्यों मेरे मन में बार-बार यह विचार आ रहा है कि इसी हफ्ते के किसी दिन या अधिक से अधिक इसी माह में फैसला और चालान हो जायेगा। इन स्थितियों में अब तो किसी अन्य जेल में मुलाकात होगी। यहां तो उम्मीद नहीं।

वकील को भेज सको तो भेजना। मैं प्रीवी कौंसिल के सिलसिले में एक जरूरी मशविरा करना चाहता हूं। मां जी को दिलासा देना, घबराएं नहीं।

तुम्हारा भाई भगतसिंह


सेण्ट्रल जेल लाहौर २५ सितम्बर, १९३०


कुलवीर को एक और पत्र

प्रिय भाई कुलवीरसिंह जी, सतश्री अकाल !

मुझे यह जानकर कि एक दिन तुम मां जी को साथ लेकर आये और मुलाकात का आदेश न मिलने से निराश होकर लौट गये, बहुत दुःख हुआ। तुम्हें तो पता चल चुका था कि जेल में मुलाकात की इजाजत नहीं देते। फिर मां जी को साथ क्यों लाये? मैं जानता हूं कि इस समय वे बहुत घबरायी हुई हैं लेकिन इस घबराहट और परेशानी का क्या फायदा ? नुकसान जरूर है, क्योंकि जब से मुझे पता चला कि वे बहुत रो रही हैं, मैं स्वयं बेचैन हो रहा हूँ। घबराने की कोई बात नहीं, फिर इससे कुछ मिलता भी नहीं। सभी साहस से हालात का मुकाबला करें। आखिरकार दुनिया में दूसरे लोग भी तो हजारों मुसीबतों में फंसे हुए हैं। और फिर अगर लगातार एक बरस तक मुलाकातें करके भी तबीयत नहीं भरी तो और दो चार मुलाकातों से भी तसल्ली न होगी। मेरा ख्याल है कि फैसले और चालान के बाद मुलाकातों से पाबन्दी हट जायेगी लेकिन माना कि इसके बावजूद मुलाकात की इजाजत न मिले तो...... इसलिए घबराने से क्या फायदा ?

तुम्हारा भाई भगत सिंह


कुलवीर के नाम अन्तिम पत्र



सेण्ट्रल जेल लाहौर

३ मार्च १९३१ 

तुमने मेरे लिए बहुत कुछ किया। मुलाकात के समय तुमने अपने ख़त के जवाब में कुछ लिख देने के लिए कहा था। कुछ शब्द लिख दूं बस देख मैंने किसी के लिए कुछ न किया। तुम्हारे लिए भी न कर सका। आज तुम सब को विपदाओं में छोड़कर जा रहा हूं। तुम्हारी जिन्दगी का क्या होगा? गुजर किस तरह करोगे? यही सब सोच कर कांप जाता हूं। लेकिन भाई हौसला रखना। विपदाओं में कभी न घबराना। इसके सिवाय और क्या कह सकता हूं। अमेरिका जा सकते तो बहुत अच्छा होता। लेकिन अब तो यह नामुमकिन जान पड़ता है। धीरे धीरे हिम्मत से पढ़ लो। अगर कोई काम सीख सको तो बेहतर होगा। लेकिन सब कुछ पिताजी की सलाह से करना। जहां तक सम्भव हो प्यार-मुहब्बत से रहना। इसके सिवाय और क्या कहूं? जानता हूं कि आज तुम्हारे दिल में गम का समुद्र ठाठें मार रहा है। तुम्हारे बारे में सोच कर मेरी आंखों से आंसू आ रहे हैं, लेकिन क्या किया जा सकता है? हौसला रख मेरे अजीज! मेरे प्यारे भाई, जिन्दगी बड़ी सख्त है और दुनियां बड़ी बेरहम है, लोग भी बहुत बेरहम हैं। सिर्फ हिम्मत और प्यार से गुजारा हो सकेगा। कुलतार की पढ़ाई की चिन्ता भी तुम्हीं करना। बहुत शर्म आती है और अफसोस के सिवाय मैं कर भी क्या सकता हूं। साथ वाला खत हिन्दी में लिखा है। खत बी०के० बहन को दे देना। अच्छा नमस्कार, अजीज भाई अलविदा... रुखसत

तुम्हारा शुभाकांक्षी

भगतसिंह


कुलतार के नाम अन्तिम पत्र


सेण्ट्रल जेल लाहौर,

३ मार्च १९३१

प्यारे कुलतार,

आज तुम्हारी आंखों में आंसू देख कर बहुत दुःख पहुंचा। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था। तुम्हारे आंसू मुझ से सहन नहीं होते। बरखुरदार हिम्मत से विद्या प्राप्त करना और स्वास्थ्य का ध्यान रखना। हौसला रखना और क्या कहूं उसे बस फिक्र है सरदम नया तर्जे जफा क्या है, हमें यह शौक है देखें सितम की इन्तहा क्या है। घर से क्यों ख़फ़ा रहे खर्च का क्यों गिला करे, सारा जहां अदू यही आओ मुकाबला करें। कोई दम का मेहमां हूं ऐ अहले महफिल, चिरागे सहर हूं बुझा चाहता हूं। मेरी हवा में रहेगी ख्याल की बिजली, यह मुश्ते ख़ाक है फानी रहे या न रहे। अच्छा रुखसत खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं। हिम्मत से रहना। नमस्ते !

 तुम्हारा भाई

भगत सिंह


बलिदान से पहले साथियों को अन्तिम पत्र


साथियो !

२२ मार्च १९३१

स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझ में भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हूं कि मैं मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रान्ति का प्रतीक बन चुका है और क्रान्तिकारी दल के आदशों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है। इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता।

आज मेरी कमजोरियां जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फांसी से बच गया तो वे जाहिर हो जायेंगी और क्रान्ति का प्रतीक चिह्न मद्धिम पड़ जायेगा या सम्भवतः मिट ही जाये। लेकिन दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते मेरे फांसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जायगी कि क्रान्ति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।

हां! एक विचार आज मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थी, उनका हजारवां भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतन्त्र जिन्दा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता।

इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फांसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझ से अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अन्तिम परीक्षा का इन्तजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाय।

आपका साथी.

भगतसिंह।।

उस अमर शहीद के चरणों में शत शत नमन ।

                      इति ओ३म् शम्

                   🙏🙏शास्त्री हरी आर्यः 

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