नेताजी सुभाषचन्द्रबोस ( राष्ट्र ऋणी है जिनका )

                            


ओ३म्

"तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा "के उद्घोषक 

     नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बसु)


भारत के कोटि-कोटि हृदयों के प्रिय 'नेताजी', आजादी के कर्णधार, मातृभूमि के लिए तन-मन-धन से समर्पित, वीर सेनानी, परम देशभक्त सुभाषचन्द्र बोस आजादी के इतिहास के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। भारत की आजादी प्राप्त होने में चार प्रमुख कारण रहे हैं १. सशस्त्र क्रान्तिकारियों का आतंक २. महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन, ३. आजाद हिन्द फौज का भय और ४. इन सबके कारण भारत की जनता के हृदय में उभरी स्वाधीनता की प्रबल इच्छा। इन सब कारणों में नेता जी द्वारा संगठित आजाद हिन्द फौज का अधिक महत्त्व इस कारण है कि जिस सेना को भारतीयों के दमन का साधन बना रखा था, आजाद हिन्द फौज के वातावरण से उसी भारतीय सेना में जहां अंग्रेजों के विरुद्ध अविश्वास एवं असहयोग का भाव पनप गया वहीं सरकार के मन में भविष्य में ऐसी सेनाओं के निर्माण होने की राह पड़ने की आशंका घर कर गयी। ऐसी स्थिति में अंग्रेज सरकार को आभास हो गया कि अब उसका अधिक दिनों तक टिकना संभव नहीं है। पाठकों को याद रखना चाहिए कि कोई आक्रान्ता शासक हथियाए हुए राज्य को कभी थाली में परोसकर नहीं लौटाता जब तक कि उसे जान-माल का भय न हो, और यह भय अंग्रेज सरकार को केवल दो संगठनों से था- क्रान्तिकारी संगठनों और आजाद हिन्द फौज जैसी सेनाओं से। इसलिए नेताजी का आजादी प्राप्ति में जो योगदान है, वह अमूल्य है।इस जन-जन के दुलारे देशभक्त का जन्म २३ जनवरी १८९७ को कटक (वर्तमान उड़ीसा) में एक बंगाली परिवार में हुआ था। इनके पिताश्री का नाम जानकीनाथ था। जानकीनाथ का जीवन अभावों एवं बाधाओं से भरा था किन्तु अथक परिश्रम के बल पर इन्होंने इतनी उन्नति की कि सरकार ने इन्हें 'राय बहादुर' की उपाधि से अलंकृत किया। सुभाष के अतिरिक्त इनके शरच्चन्द्र और सुनीलचन्द्र दो पुत्र और थे। माताश्री भी देशप्रेमी और बुद्धिमती थीं। पुत्रों को उच्च शिक्षित करने में इनकी भी विशेष प्रेरणा थी। कटक के स्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के बाद इन्होंने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज में प्रवेश ले लिया। यहीं सुभाष के साथ वह ऐतिहासिक घटना घटी जिसने सुभाष को एक वीर युवा के रूप में स्थापित किया और इनकी जीवन दिशा ही बदल दी। कालेज का एक अंग्रेज प्रोफेसर सी. एफ. ओटन बड़ा जातीय अभिमानी था और भारतीयों को घृणा की दृष्टि से देखता था। इस प्रोफेसर ने सुभाष कक्षा के एक विद्यार्थी से कोई प्रश्न पूछा। वह उसका ठीक से उत्तर नहीं दे पाया। वस्तुतः उसने प्रश्न ठीक से नहीं सुना था, शीघ्रता में उत्तर दे गया। इतनी सी बात पर प्रोफेसर ने क्रोध में तड़ककर कहा "यू रास्केल " "सर, मैं आपके प्रश्न को ठीक से समझ नहीं सका।" छात्र ने विनम्रता से उत्तर दिया। "यू ब्लैक मंकी (काले बन्दर) तू प्रश्न को भी ठीक से नहीं समझ सकता?" प्रोफेसर ने विनम्रता का उत्तर जातीय गाली से दिया। कक्षा में बैठे देशभक्त वीर सुभाष को यह गाली सहन नहीं हुई। उसने खड़े होकर आक्रोश भरे शब्दों में कहा “प्रोफेसर साहब, जरा संभलकर बोला कीजिए। कौम को गाली देना अनुचित है।" "यू ब्लडी" अंग्रेज प्रोफेसर ने और अधिक अहंकार में आकर एक और गाली दे डाली।सुभाष के हृदय को इन अपमानजनक गालियों ने छलनी कर दिया। सुभाष क्रोध में तमतमाया प्रोफेसर की ओर यह कहते हुए बढ़ा कि "हमारी आजादी छीनकर हमें गुलाम बनाकर हमें गालियों से अपमानित भी करते हो ?" "शट अप, यू बास्टर" 'कहकर प्रोफेसर कक्षा से बाहर निकलने लगा। सुभाष ने उसे पकड़कर एक जोरदार तमाचा मुंह पर दे मारा। गोरे चेहरे पर पांचों अंगुलियों की कलाकृति अंकित हो गयी। गाल को सहलाता हुआ प्रोफेसर सीधा प्रिंसिपल के पास पहुंचा और सुभाष की शिकायत लगायी। सुभाष और उनके मित्र अनंग मोहनदास को कॉलेज से निकाल दिया गया। यह तमाचा अंग्रेज प्रोफेसर के मुंह पर नहीं, अंग्रेज सरकार के मुंह पर लगा था। तभी से सुभाष विद्रोही बन गया क्योंकि वह एक और बड़ा तमाचा अंग्रेज सरकार के मुंह पर जड़ना चाहता था।सर आशुतोष के प्रयासों से सुभाष को 'स्काटिश कॉलेज में प्रवेश मिल गया। वहां से उन्होंने बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर वे पिता के आदेश से आई.सी.एस. ( वर्तमान आई. ए. एस.) परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में प्रविष्ट हो गये। प्रतिभाशाली सुभाष ने १९२० में आई.सी.एस. परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया। माता-पिता, बन्धुबान्धव इस सफलता पर फूले नहीं समाये। किन्तु सुभाष का लक्ष्य आक्रान्ता अंग्रेजों की गुलामी करना नहीं था, वे तो उनसे भारत को आजाद कराना चाहते थे। उस समय आई.सी.एस. अधिकारी एक राजा के समान होते थे। सुभाष चाहते तो जीवनभर शाही ठाठ-बाट से जीवन बिता सकते थे किन्तु उन्होंने आई.सी.एस. से त्यागपत्र देकर सारे ठाठ-बाट को ठुकरा दिया। देश के लिए ठोकरें खाना अधिक कल्याणकारी समझा। विद्रोही सुभाष का जीवनवृत्त अनेक रोमांचक घटनाओं से परिपूर्ण है। यहां उसे संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है। सुभाष ने अनेक बार जेलें काटीं । अंग्रेज सरकार उनके वीरतामय व्यक्तित्व से भयभीत थी, अतः उन पर अनेक अपमानपूर्ण प्रतिबन्ध लगाये गये, किन्तु सुभाष उनसे कभी नहीं घबराये अपितु आग में तपे सोने की तरह कुन्दन बनकर निखरते चले गये। १९२१ में जब "प्रिन्स आफ वेल्स" (ब्रिटेन का युवराज) भारत में आया तो भारतभर में उसके बहिष्कार की तैयारियां होने लगीं। बंगाल में सुभाष बाबू सक्रिय थे। युवराज के आने से पूर्व दिसम्बर १९२१ में सुभाष को गिरफ्तार कर छह मास के लिए जेल में डाल दिया। वहां जेल में इन्हें देशभक्त नेता देशबन्धु चित्तरंजनदास मिले। सुभाष श्रद्धावश उनका भोजन बनाते थे। उनके सान्निध्य में रहकर सुभाष में देशभक्ति की भावना और सुदृढ़ हो गयी। जेल से छूटने पर सुभाष ने बंगाल में आई बाढ़ के अवसर पर उल्लेखनीय बचाव कार्य किया। उन्होंने 'युवक दल' की स्थापना की। अब वे युवकों के एकछत्र नेता माने जाने लगे थे। १९३३ में कलकत्ता कार्पोरेशन के चुनाव हुए तो उनमें सुभाष बाबू को निर्विरोध चुना गया। इन्हें कार्पोरेशन का 'एक्जिक्यूटिव आफिसर' बनाया गया। सुभाष का त्याग देखिए, उस समय इस पदाधिकारी को वेतन के रूप में ३००० रुपये मासिक मिलते थे। किन्तु इन्होंने वेतन के रूप में खर्च चलाने के लिए केवल १५०० रुपये मासिक ही लिये। सुभाष की ख्याति दिन-प्रतिदिन बढ़ रही थी तो अंग्रेज सरकार की दिल की धड़कन बढ़ रही थी। 'बंगाल आर्डिनेंस' की आड़ में अंग्रेज सरकार ने २५ अक्तूबर १९२४ को ८० युवकों को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया। उनके साथ बिना कारण सुभाष को भी गिरफ्तार कर बर्मा की माण्डले जेल में भेज दिया। देशबन्धु चित्तरंजनदास ने इस गिरफ्तारी का विरोध किया किन्तु शातिर अंग्रेजी सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया। माण्डले जेल में सुभाष के स्वास्थ्य पर इतना प्रतिकूल प्रभाव पड़ा कि कुछ ही समय में उनका ४० पाउंड वजन घट गया। सारे देश में इस बात को लेकर शोर मचा तब अंग्रेज सरकार ने इस शर्त के साथ सुभाष को छोड़ना स्वीकार किया कि सुभाष भारत नहीं लौटेंगे, सीधे यूरोप चले जायें। किन्तु सुभाष ने इस अपमानपूर्ण प्रतिबन्ध को छोड़ना पड़ा। ठुकरा दिया। सरकार को विवश होकर १९२६ में उनको जेल से छूटकर आप कांग्रेस के साथ मिलकर कार्य करने लगे। अनेक बार सम्मेलनों के प्रमुख अधिकारी व संयोजक बने। १९२८ में कलकत्ता में सम्पन्न कांग्रेस अधिवेशन आपके प्रबन्धकत्व में अत्यन्त सफल हुआ। इस अधिवेशन के कुछ समय बाद क्रान्तिकारी यतीन्द्रनाथ का देहान्त हो गया। शवयात्रा में लोगों की भारी भीड़ जमा थी। इस अवसर पर सुभाष ने ओजस्वी भाषण दिया। सरकार ने उसे अपराध मानते हुए इनको छह मास के लिए जेल की सजा दी। इस जेल को पूरी कर छूटे ही थे कि २६ जनवरी १९३१ को एक स्वातन्त्र्य जुलूस निकाला जिसमें सुभाष बाबू भी घोड़े पर सवार थे। पुलिस ने इस जुलूस पर लाठीचार्ज किया और लोगों को पकड़कर जेल में भेज दिया। सुभाष को फिर छह महीने की जेल हुई। किन्तु गांधी इर्विन समझौते के अन्तर्गत पहले ही छोड़ दिए गए। जेल से छूटने के बाद मथुरा में एक "नौजवान भारत सभा" का अधिवेशन आयोजित हुआ। आपको सभापति चुना गया। उस अवसर पर आपके भाषण की आड़ लेकर आपको बिना मुकद्दमा चलाये जेल में डाल दिया। लगातार जेलों में रहने से आपका स्वास्थ्य चिन्ताजनक ढंग से गिर गया। देश में सुभाष को छोड़ने के लिए आवाज उठी तो कुटिल अंग्रेज सरकार ने फिर वही शर्त रखी कि सुभाष भारत में न रहें तो इन्हें छोड़ दिया जायेगा। सुभाष ने इस शर्त को नहीं माना किन्तु गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए और देश के नेताओं के आग्रह पर उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया। उन्हें वायुयान में बिठाकर स्विटजरलैंड भेज दिया गया। कई वर्ष विदेश प्रवास के बाद पिता जानकीनाथ जब मृत्यु शय्या पर थे तो उन्होंने सुभाष से मिलने की इच्छा व्यक्त की।अंग्रेज सरकार पहले तो मानी नहीं, फिर वही शर्त रखी कि मिलकर वापस यूरोप लौटना पड़ेगा। सुभाष इस शर्त पर आये तो तब तक पिता का देहान्त हो चुका था। सुभाष को अंग्रेज सरकार के इस बर्बर व्यवहार से इतना आघात लगा कि वे १९३६ में बिना अनुमति के स्वदेश लौट आये। आते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। १९३७ में उन्हें फिर छोड़ दिया। वे कांग्रेस में फिर सक्रिय हो गये। त्रिपुरा कांग्रेस का उन्हें सभापति चुना गया। कांग्रेस में उनका महत्वपूर्ण स्थान बन गया किन्तु महात्मा गांधी और गांधी दल का सुभाष के प्रति संतोषजनक रवैय्या नहीं था अतः मतभेद उभरते गये। फिर सन् १९४० के जुलाई मास में कलकत्ता के 'हालवेल स्मारक' के विरुद्ध आन्दोलन में भाग लेने के कारण सुभाष को फिर जेल में डाल दिया। कुछ दिनों बाद उन्हें जेल से निकालकर उन्हीं के एल्गिन रोड़ पर कलकत्तास्थित मकान में नजरबंद करके रखा गया। अंग्रेज सरकार का बस यही लक्ष्य था कि यह शेर किसी प्रकार पिंजरे में ही बंद रहे। सुभाष के हृदय में आजादी की भावनाएं कसमसा रही थीं। वह समझ रहा था कि सरकार जेलों में ही सारा जीवन नष्ट करना चाहती है किन्तु सुभाष कुछ ऐसा कर दिखाना चाहता था जो प्रभावकारी हो, सफल हो, देश को गुलामी से मुक्त करने वाला हो, अंग्रेजों की जड़ें उखाड़ने वाला हो। उसने निश्चय कर लिया कि वह जीवन का अमूल्य समय यों ही बर्बाद नहीं होने देगा.....निश्चित रूप से नहीं होने देगा। २६ जनवरी १९४१ का दिन था। इतिहास एक नयी करवट बदलने चला था। सुभाष एक दाढ़ीधारी पठान का वेश बनाकर, नजरबंदी के लिए तैनात पुलिस दल की आंखों में धूल झोंककर घर से निकल गये और अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पहुंच गये। वहां से जर्मन दूतावास की सहायता से जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंचे। जर्मनी में सुभाष भारत की आजादी में सहायता के लिए हिटलर से मिले। हिटलर सुभाष के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उसने इन्हें भारत के डिप्टी “फ्युहरर” की उपाधि दे डाली। सहायतास्वरूप आपको एक हवाईजहाज और एक रेडियो ट्रांसमीटर भी दिया जिससे सुभाष अपना संदेश प्रसारित कर सकें। वहां से आप एक सबमैरीन के द्वारा सिंगापुर व जापान पहुंचे। जापान में उन दिनों क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस रह रहे थे और अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन कर रहे थे। उन्होंने वहां 'आजाद हिन्द फौज' की स्थापना की। सुभाष के जापान पहुंचने पर उसका नियन्त्रण उन्हें सौंप दिया। सुभाष ने उसे बहुत ही अच्छे और व्यापक रूप से संगठित किया। इसके साथ ही नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिन्द सरकार' की स्थापना भी कर दी गयी। लगभग दस देशों ने इस सरकार को मान्यता दे दी। २३ अक्तूबर १९४३ को इस अन्तरिम सरकार के मन्त्रिमण्डल की बैठक में ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का फैसला किया। स्वयं सुभाष ने इस फैसले की घोषणा रेडियो से प्रसारित की। इस निर्णय के बाद आजाद हिन्द फौज ने भारत को आजाद कराने के लिए प्रयाण किया। नेताजी ने सैनिकों का आह्वान किया - “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा" इसके साथ ही नेता जी के "दिल्ली चलो" इस वीरतापूर्ण उद्घोष के साथ सैनिक पूर्वी सीमान्त प्रान्त पर पहुंच गये। १९४४ में जब जापान का रंगून (बर्मा) पर कब्जा हो गया तो आजाद हिन्द फौज का दफ्तर भी सिंगापुर से रंगून चला गया। मार्च में यह फौज बर्मा की सीमा को पार कर भारत भूमि में प्रवेश कर गयी और इम्फाल समेत एक बड़ा भूभाग अपने कब्जे में ले लिया। वहां तिरंगा ध्वज लहराने लगा। अनेक वर्षों बाद भारत का वह भू-भाग अंग्रेजों के शासन से आजाद हुआ था। आजाद हिन्द फौज का भाग्य जापान के साथ जुड़ा हुआ था। जब तक जापान जीतता रहा आजाद हिन्द सेना भी आगे बढ़ती रही, जब जापान मित्र राष्ट्रों से हारने लगा तो आजाद सेना को भी पीछे हटना पड़ा। २३ अप्रैल १९४५ को जापान को रंगून छोड़ना पड़ा। उसके साथ ही आजाद फौज भी पीछे हट गयी। आजाद हिन्द सेना में ५०,००० सैनिक थे। खाद्यान्न आदि की कमी के कारण अनेक सैनिक मारे गये। १९५५ तक अनेक सैनिक अंग्रेजों की पकड़ में आ गये। यद्यपि सैनिक दृष्टि से आजाद हिन्द सेना असफल हो गयी किन्तु इसका व्यापक प्रभाव जनता में तथा भारतीय सेना में स्वाधीनता की भावना को उत्पन्न करने के रूप में पड़ा। अंग्रेज सैनिक गिरफ्तार करके भारत लाये गये। भारतीय सेना में उनको दी गयी सजाओं से आक्रोश फैला। अंग्रेज सरकार का भारतीय सेना से विश्वास उठ गया। बस, यहीं से अंग्रेज सरकार हताश हो चली और उसे लगने लगा कि अब तुम्हारा टिकना संभव नहीं है। और अंग्रेज ने अपना बिस्तर समेटना शुरू कर दिया। आजाद हिन्द सेना की सैनिक विफलता के बाद सुभाषचन्द्र बोस बर्मा को छोड़ सिंगापुर चले गये। स्वतन्त्रता आन्दोलन को नया रूप देने के लिए वे सिंगापुर से साइगोन गये १८ अगस्त १९४५ को वे कुछ जापानी अफसरों के साथ टोकियो के लिए रवाना हुए। कहा जाता है। कि लगभग दो बजे फार्मसा में स्थित ताइहोक के निकट उनके हवाई जहाज में आग लग गयी और गिर पड़ा। उन्हें अधजली हालत में अस्पताल पहुंचाया गया। जापानी सरकार की विज्ञप्ति के अनुसार उसी रात ८-९ के बीच नेताजी का देहान्त हो गया। नेता जी की अस्थियां जापान में रखी हुई हैं। किन्तु भारत की अधिकांश जनता आज भी विभिन्न कारणों से नेताजी के देहान्त के समाचार पर विश्वास नहीं करती। उनके निधन को लेकर शाहनवाज और खोसला आयोग की रिपोट अस्वीकार हुई। अब मुखर्जी आयोग जांच कर रहा है। वह डी.एन.ए. के वैज्ञानिक आधार पर नेता जी की अस्थियों की जांच कर रहा है। देखिए, उसका क्या निर्णय आता है।


नौसेना द्वारा विद्रोह 

उन दिनों देश में असहयोग और विद्रोह का वातावरण चारों ओर उभर रहा था। फरवरी १९४६ में तलवार' नामक जहाज पर तैनात नौसैनिकों ने भी विद्रोह कर दिया। इस जहाज पर नौसेना को प्रशिक्षण दिया जाता था। एक दिन किंग नामक अंग्रेज कमांडर ने शिक्षार्थी भारतीयों को "कुत्ते का बच्चा" और "कुली का बच्चा" कहकर गालियां दीं। यों तो प्रायः भारतीयों को ऐसी गालियां दी जाती थीं किन्तु बदले हुए वातावरण में सैनिकों ने उनको सहन नहीं किया और विद्रोह कर दिया। साथ ही आजाद हिन्द सैनिकों की रिहाई तथा विदेशों में तैनात भारतीय फौज की वापसी की मांग भी कर दी। फैलते-फैलते यह हड़ताल १९ फरवरी तक सारी नौ सेना में फैल गयी। इस हड़ताल में २० हजार नौसैनिक, २० बड़े जहाज तथा लगभग १०० छोटे जहाज शामिल हो गये। जहाजों पर विद्रोही नौसैनिकों का अधिकार हो गया था। उन पर किसी पर तिरंगा, किसी पर लाल और किसी पर वैदिक धर्म का ॐ झंडा फहराने लगा।

                       इति ओ३म् शम्

          🙏शास्त्री हरी आर्यः 

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