हम ईश्वर से प्रार्थना क्यों करें ?

  

             


 जीवात्मा अल्पज्ञ है। इसकी शक्ति सीमित है। जन्म मरण , सुख - दुख रामविलास के चक्कर में फंसा जीव न जाने कितने जन्मों से भटक रहा है। इस जन्म में, कभी उस जन्म में, आनंद की तलाश में भटकता रहा । कभी सुख - शांति और आनंद नहीं मिला नहीं मिला। जीवात्मा इस दुख भरी भटकन से निकलना चाहता है। जब उसे बोध हो जाता है कि संसार में स
भी भोग दुख भरे हुए हैं, तब वह अपने अंतरात्मा की ओर झोंकता है। अपने स्वरूप की और देखता है। उसके अंदर की आंखें खुलती है। अंदर की आंखें खुल जाना है ज्ञान होना कहलाता है। ज्ञान होने पर ही जीव आत्मा-परमात्मा की ओर बढ़ता है जैसे कि शास्त्र ने कहा है -

 "   ‌ऋते ज्ञानान्न मुक्ति: "

 बिना  ज्ञान के  मुक्ति नहीं हो सकती। इतिहास में कई उदाहरण विद्यमान है जिन्हें ज्ञान हुआ , वे भवसागर से तर गए। कबीर, मीरा, तुलसी, सूर और अनेक संत ज्ञानी होकर संसार में अमर हो गए। ऋषि दयानंद को जिस क्षण बोध हुआ कि यह कैसा शिव है? जो एक सामान्य चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर पा रहा। उनके मन में सच्चे शिव को जानने की इच्छा प्रबल हो उठी। वह घर से चल पड़े। अंत में उन्होंने सच्चे शिव को जान ही लिया।

     ‌ जब जीव आत्मा को वह सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा को जानने और पाने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हो जाती है। हर क्षण उसी की धुन लगी जाती है। चारों ओर उसी की लीला नजर आने लगती है, प्राणी मात्र में उसी के दिव्य दर्शन होने लगते हैं। यही अभिलाषा प्रार्थना उपासना के रूप में प्रकट हो जाती है। उपासना का अर्थ भी यही है कि अच्छी प्रकार से उस परमात्मा के पास बैठकर, उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना, उसके नजदीक जाना, उस प्रभु की कृपा को प्राप्त करना।

आपकी कृपा से ही मनुष्य प्राप्त करते हैं जो उसकी आज्ञा के अनुसार जीवन में आचरण करते हैं। अपना व्यवहार सब के साथ प्रीति पूर्वक और मिलजुल कर चलाते हैं। अपना खान पान रहन सहन शुद्ध सात्विक और धार्मिक रखते हैं। काम क्रोध लोभ मोह और ईर्ष्या द्वेष आदि से बचे रहते हैं। वही परमात्मा की भक्ति के पात्र बनते हैं।

प्रार्थना से मनुष्य के जीवन का कायाकल्प हो जाता है। जीवन की अनंत शक्तियां, जिनका मनुष्य को बोध भी नहीं होता है, संगठित होकर श्रेष्ठ मार्ग की ओर चलने लगती है। मनुष्य में समर्पण की भावना आती है। किसी शक्ति के आगे झुकता है। नम्रता की भावना जागृत होती है। जब जीवन में विनम्रता आने लगती है, तब अपनी गुलों की ओर ध्यान जाता है। कुछ सीखने और जानने की चेतना आती है। नम्रता उन्नति की सीढ़ी है। प्रार्थना से एक मानव, मानव के निकट आता है। उसमें भावना जागृत होती है कि सभी जीवो का एक ही परमात्मा है, यदि हम किसी को कष्ट दुख तथा पीड़ा देते हैं तो इसका अर्थ है कि हम प्रभु को नाराज कर रहे हैं, हमारी वैदिक प्रार्थना में बहुत गुढ भाव भरे हैं। इनमें भक्ति और सब के कल्याण की कामना विद्यमान है-

जैसा कि इस सुंदर प्रार्थना में दिया गया है-

त्वमेव माता च पिता त्वमेव।

त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव ।।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव ।

त्वमेव सर्वं मम देवा देव ।।

हे देवों के देव प्रभु आप ही हमारी माता है और आप ही पिता है, आप ही बंधु हैं, आप ही सखा हैं, आप ही विद्या हैं, आप ही धन और आप ही हमारे सर्वस्व हैं।

  प्रार्थना मानव को बुराइयों से हटाती है। अच्छे विचार, संस्कार और भावों की ओर मुड़ती है। जब हम यह मान लेते हैं कि परमात्मा सर्वव्यापक है। हमारे ह्रदय में भी बैठा है, वह सब देख तथा सुन रहा है। वह सब कुछ जानता है। तब मन में विचार आया ही नहीं सकते परंतु? तुरंत परमात्मा का भय बुरे विचारों और कर्मों के रोकने में सहायक होगा तुरंत बुरी वासनाएं  भाग जाएगी। ह्रदय स्वच्छ हो जाएगा। जहां स्वच्छता और विचारों की निर्मलता रही है वही परमात्मा का आवास है। परमात्मा की भक्ति में शक्ति है। बल और वरदान है। कृपा और आशीर्वाद है। प्रेरणा और चेतना है। त्याग और सुख है। योग और मोक्ष है।

अंदर बैठा देवों का देव निरंतर मानव प्रेरणा और भावना दे रहा है बुराइयों से, अधर्म से, बुरे कर्मों से और बुरी वासनाओं से सावधान करता है। जब कोई बुरा काम करने लगते हैं , तुरंत अंदर से आवाज आती है, ऐसा ना करो? इसे पाप, निंदा और लज्जा सहन करनी पड़ेगी, जिसका हृदय निर्मल होता है वह दैवीय आवाज को सुनकर बुरे कर्म से बच जाते हैं। जिसकी आत्मा मलिन, आरती एवं कहानी होती है वह इस आवाज की परवाह न करके अधर्म एवं बुरे मार्ग की और बढ़ते जाते हैं और अपना जीवन दुखी बनाए रहते हैं।

जैसे सोना अग्नि में तपकर शुद्ध होता है, वैसे ही प्रभु भक्ति से जीव आत्मा शुद्ध, पवित्र और निर्मल बनता है। तुलसी जी का कथन है कि जिसका हृदय निर्मल है, वही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। प्रार्थना से मनुष्य की बुद्धि बढ़ती है। बुद्धि में सात्विक गुण आते हैं। श्रेष्ठ बुद्धि की कामना की गई है। गायत्री मंत्र में भी परमात्मा से श्रेष्ठ बुद्धि की कामना की गई है। मनुष्य का विनाश निकट होता है तो उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। एक नहीं अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। रावण विद्वान होकर भी विनाश को प्राप्त हुआ क्योंकि उसकी बुद्धि पर स्त्री की ओर थी और वह अहंकारी हो गया था। इसी से उसका विनाश हुआ। प्रार्थना हमें श्रेष्ठ बुद्धि बल देती है।

जब हमारी कोई वस्तु नीचे गिर जाती है। कोई उठा देता है तब हम उसका धन्यवाद करते हैं। उसका अनेकशः आभार और कृतज्ञता प्रकट करते हैं। किंतु जिस परमात्मा ने जीवन दिया, जीने की सारी सामग्री दी। शुभ होगा के साधन दिए। स्वस्थ शरीर और इंद्रिया दी। जीवन देकर उठता है क्या हमारा कर्तव्य नहीं बनता कि हम नित्य प्रातः उसका धन्यवाद करें, उसके दिए हुए पदार्थों के प्रति आभार प्रकट करें? उसके कृतज्ञ बने? यही तो संध्या प्रार्थना और उपासना बताते हैं कि वह मनुष्य! तू उस प्रभु की सत्ता स्वीकार कर, उसके पास बैठे। उससे मांग जो सबको बांट रहा है। यही प्रार्थना की प्रेरणा है।

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