धर्म की अनिवार्यता
मानव जीवन के सर्वाङ्गीण विकास के लिये धर्म की अत्यन्त आवश्यकता है। जिस प्रकार गन्ध रहित पुष्प का, तेल बिन दीपक का, जल बिन नदी का, होना निरर्थक है, इसी प्रकार धर्म-रहित मानव का जीवन भी निरर्थक है। धर्म के बिना मानव समाज कभी भी सुखी तथा समुन्नत नहीं हो सकता। आज का मानव भौतिकता की चकाचौंध में फँस कर केवल अपने शरीर को सजाने सँवारने तक सीमित रह गया है। धर्म को उसने भुला दिया है। सुख की खोज में इधर-उधर भटकता फिरता है। किन्तु महर्षि पतञ्जलि ने कहा है ।
सुखार्था सर्व भूतानां मता सर्वाः प्रवृत्तयः । सुखं च न विना धर्मात् तस्माद्धर्म परोभवः ।।
संसार के सभी प्राणी सुख की इच्छा से ही कर्म में प्रवृत्त होते हैं। पर यह निश्चित है कि बिना धर्म के सुख की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। अत: हे मनुष्य तू सुख की प्राप्ति के लिये निश्चित रूप से धर्म में प्रवृत्त हो।
महर्षि वेद व्यास जी कहते हैं
ऊर्ध्व बाहुर्विरोम्येष न कश्चिच्छृणोति
माम्। धर्मादर्थश्च सधर्म किंन सेव्यते ।।
मैं दोनों भुजाओं को उठाकर निश्चयपूर्वक घोषणा करता हूँ कि धर्म से अर्थ और काम की सिद्धि होती है। इस लिये संसार के पुरुष! तुम धर्माचरण क्यों नहीं करते? धर्म से ही मानव में मानवता आती है। धर्म के बिना मनुष्य व पशु में कोई भेद नहीं रहता। संस्कृत के किसी कवि ने ठीक ही कहा है
आहार निद्रा भय मैथुनञ्च,
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मों हि तेषामधिको विशेषो,
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।
खाना, सोना, भयभीत होना और मैथुन करना, ये बातें मनुष्यों और पशुओं में समान रूप से पाई जाती हैं। धर्म का आचरण ही मनुष्यों को अन्य प्राणियों से विशेष सिद्ध करता है। जो मनुष्य धर्म का आचरण नहीं करते, उनमें और पशुओं में कोई भेद नहीं है।
धर्म ही मानव जीवन को ऊँचा उठाता है। धर्म ही मानव का सच्चा साथी है। महर्षि मनु कहते हैं
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे,
नारी गृह द्वारि जनाः श्मशाने
देहश्चितायां परलोक मार्गे,
धर्मानुगो गच्छति जीव एक
मृत्यु के समय धन-दौलत सब भूमि में गड़ी रह जाती है। पत्नी गृहद्वार पर ही रह जाती है। दाह करने वाले बन्धु बान्धव श्मशान तक मृत शरीर के साथ जाते हैं। मृत देह भी चिता में भस्म हो जाता है। (इनमें से कोई भी साथ नहीं जाता) परलोक के मार्ग में तो जीवात्मा को अकेले ही जाना पड़ता है। केवल धर्म ही उसके साथ जाता है।
धर्मं शनै: संचिनुयाद् वल्मीकमिव पुत्तिकाः । परलोक सहायार्थं सर्वभूतान्यपीडयन्
परलोक में सहायता के लिये किसी भी प्राणी को पौड़ा न पहुँचाते हुए उसी प्रकार धीरे-धीरे धर्म का सञ्चय करे, जैसे दीमक अपनी बाँबी को धीरे-धीरे बनाती है।
महाभारत शान्ति पर्व में कहा है-
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति ।
युवैव धर्मशीलः स्यादनित्यं खलु जीवितम् ।।
कौन जानता है कि आज किसकी मृत्यु का समय उपस्थित होगा। अतः मनुष्य युवावस्था से ही धार्मिक बने, क्योंकि यह जीवन निश्चय ही अनित्य है।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः । तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मानो धर्मो हतो वधीत् ।। मनु 8/95
मारा हुआ धर्म मारने वाले को मार देता है और रक्षा किया हुआ धर्म अपने रक्षक की रक्षा करता है इस लिये धर्म का हनन नहीं करना चाहिये, ऐसा न हो कि हनन किया हुआ धर्म हमें नष्ट कर दे। प्रत्येक जीव की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि मैं दुःखों से छूट कर मुख प्राप्त करूँ, किन्तु देखा गया है कि कभी तो न चाहते हुए भी वह दुख भोगता है और कभी चाहने पर भी वह सुख प्राप्त नहीं कर पाता। इसका क्या कारण है? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द इन शब्दों में देते हैं- "सब जीव स्वभाव से सुख प्राप्ति की इच्छा और दुख का वियोगी होना चाहते हैं, परन्तु जब तक धर्म नहीं करते और पाप नहीं छोड़ते तब तक उनको सुख का मिलना और दुख का छूटना न होगा क्योंकि जिसका कारण अर्थात् मूल होता है वह नष्ट कभी नहीं होता। जैसे छिन्ने मूले वृक्षो नश्यति तथा पापे क्षीणे दुखं नश्यति। जैसे मूल कट जाने से वृक्ष नष्ट होता है वैसे पाप के छोड़ने से दुख नष्ट होता है। " (सत्यार्थ प्रकाश नवम् समुल्लास) स्पष्ट है कि दुखों से बचने के लिये पापों से बचना आवश्यक है। किन्तु प्रायः होता यह है कि लोग पाप के फल से तो बचना चाहते हैं किन्तु पाप कर्म से नहीं। इसके विपरीत लोग पुण्य के फल को तो चाहते हैं पर पुण्य करते नहीं।
धर्म का विकृत रूप
धर्म के बिना मानव जीवन पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता, परन्तु मानव जब धर्म के विकृत रूप (बाह्याडम्बर) को अपना लेता है तो उसका जीवन ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा आदि नाना प्रकार की दुर्बलताओं से ग्रसित हो जाता है। अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अपनी आत्मकथा “कल्याण मार्ग का पथिक" में लिखा है - उनके पिता की बदली कोतवाल के रूप में मिर्जापुर में हो गई। मिर्जापुर में पहुँचते ही चैत्र के नवरात्र में विन्ध्यवासिनी देवी का मेला था। पिताजी का खेमा विन्ध्याचल पर जा लगा और मैं उनके साथ ही मेले का आनन्द लूटता रहा। उसी स्थान में पिताजी के अर्दली सार्जन्ट जोखू मिसिर की लीला देखी। देवी पर जो बकरे चढ़ते उनमें से सात की सिरियाँ मिसिर जी की पेट पूजा के लिये भेंट में आतीं। सात बकरों के सिर मुफ्त, कण्डों (उपलों) की आग मुफ्त, मिट्टी की हंडिया मुफ्त, नमक व हल्दी भी मुफ्त। हाँ पाव भर चून (आटा) मोल लेना पड़ता। जोखू मिसिर जितने लम्बे उतने ही चौड़े थे। सातों सिरियों का सफाया करके शेष थाली पाव भर चून की मिट्टी से पोंछ और कुल्ला करके पेट की तेंदड़ी पर हाथ फेर दिया करते थे। एक दिन हँडिया पकते-पकते पिताजी का नौकर चिमटे से चिलम में आग धर लाया। मिसिर जी आग बबूला हो गये और जब कारण पूछा गया तो बोले- अरे सरकार ! हम अपना धर्म कबहुँ नाही छोड़ा, अरे झूठ बुआला, जुआ खेला, गाँजा का दम लगावा, दारू चढ़ावा, रिश्वत लिहा, चोरी दगाबाजी किहा, कौन फन फरेब वाटे जौन हम नाही किहा, मुल सरकार! आपन धर्म कबहुँ नाही छोड़ा।"
अब देखिये इन्हें झूठ बोलने, जुआ खेलने, गाँजे का दम लगाने, दारू पीने, रिश्वत लेने, चोरी, दगाबाजी करने, बकरों के सिर पकाने में अधर्म नज़र नहीं आया, किन्तु चौके में किसी अन्य का प्रवेश करना ही धर्म भ्रष्ट होना मान लिया। किसी ने नदी में स्नान करना ही धर्म समझा। किसी ने माला के मनके घुमाना ही धर्म समझा। किसी ने मन्दिर में दो फूल चढ़ाकर ही अपना धर्म पूरा कर लिया। कुछ लोग पानी छान कर पीना ही धर्म समझते हैं, किन्तु गरीबों का खून पीने से परहेज़ नहीं करते। कुछ लोग नवरात्रों में अन्न न खाना धर्म समझते हैं, किन्तु लाखों रुपयों की रिश्वत खाने में संकोच नहीं करते। किसी ने विस्तर उठाकर तीर्थों में घूमना ही धर्म समझा। किसी ने लम्बी चोटी व दाढ़ी रखना ही धर्म समझा। किसी ने तिलक, कंठी व माला धारण करना ही धर्म समझा। किसी ने भगवती जागरण कराना ही धर्म समझा। आजकल प्रत्येक नगर के गली मुहल्लों में विशाल भगवती जागरण हो रहे हैं। इनमें पेशेवर गायक लोग ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर गीतों को फिल्मी धुनों पर ऊँची आवाज में गाते रहते हैं। पड़ोस में चाहे कोई विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी कर रहा हो अथवा कोई बीमार हो, इसकी इन्हें कोई चिन्ता नहीं। इनकी कान फोड़ ध्वनि से आस-पास के निवासियों की रात भर की नींद गायब हो जाती है। कुछ भोले-भाले अंधविश्वासी नर-नारी इनके सामने बैठे हुए गीतों पर झूमते रहते हैं। अन्त में जागरण करने वाले ऐसी मनगढन्त कथा सुनाते हैं जिसका वेद शास्त्रों उपनिषदों दर्शनों आदि में कहीं उल्लेख नहीं है। कथा संक्षेप में इस प्रकार है--
एक बार तारा रानी की बहिन रुक्मिणी ने देवी के मन्दिर में हो रहे जागरण में दो पैसे देवी को भेंट कर के अरदास करवाई कि यदि मेरे पुत्र हुआ तो मैं भी जागरण करवाऊँगी। कुछ समय बाद उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसने जागरण करवाया, जिसमें देवी को माँस-मदिरा का भोग लगाया गया। वहाँ पहुँची हुई तारा ने भी इसे प्रसाद रूप में खाया तथा वही माँस-मदिरा प्रसाद अपनी झोली में लेकर घर को चल देती है परन्तु रास्ते में राजा ने जब झोली देखी तो माँस, मदिरा पान, सुपारी, बताशे, नारियल में बदल गये यह देख कर राजा भी चौंक गया और देवी का जागरण करवाने के लिये तैयार हो गया। राजा ने उस जागरण में अपने प्रिय घोड़े तथा पुत्र के टुकड़े-2 करवा कर बर्तन में डालकर पकवाये। पकने पर उन टुकड़ों से देवी माता को भोग लगाया गया तथा राजा को खिलाया गया। माँ को याद करने पर माता ने बेटे व घोड़े को जीवित कर दिया।
अब आप विचारिये यह कथा कितनी निराधार, तर्क शून्य तथा सृष्टि क्रम के विरुद्ध है क्योंकि यदि किसी प्राणी के टुकड़े कर दिये जावें तो उसे कोई भी जीवित नहीं कर सकता। इस कपोल कल्पित देवी की तो बात ही क्या इन कपोल कल्पित कथाओं को भोले-भाले नर-नारी हाथ जोड़े सुनते रहते हैं। कोई कुछ नहीं कहता क्योंकि यह धर्म का मामला है। इन अनर्गल कथाओं को सुनकर कितने ही अंधविश्वासी व्यक्तियों ने अनेक बालकों की हत्यायें कर डाली हैं। कुछ प्रमाण यहाँ प्रस्तुत हैं
1. 2 अप्रैल 1962 को दीनानगर जिला गुरदासपुर (पंजाब) में प्रकाश चन्द नामक व्यक्ति ने देवी को प्रसन्न करने के लिये अपने साढ़े तीन वर्षीय पुत्र की निर्मम हत्या कर दी। कहा जाता है कि प्रकाश चन्द ने अपने पुत्र का सिर पकड़ा और उसकी बहन कौशल्या ने बालक की एक टाँग और दूसरी बहन माया ने दूसरी टाँग पकड़ी। बालक के चाचा परस राम ने दरांती से उसका गला काट दिया। ( सार्वदेशिक साप्ताहिक 3/4/72)
प्रकाश के अन्य दो पुत्रों को भी उसी समय बलि देने की योजना थी परन्तु उसी समय बड़ा पुत्र तो बाहर भाग गया तथा एक बीच वाले को साईंदास नामक व्यक्ति ने पुलिस में रिपोर्ट कराने के लिये जाते समय अपने साथ ले जाकर बचा लिया था। इस केस में श्री वेद प्रकाश शर्मा, सेशन जज ने बालक पृथ्वी के चाचा परसराम को मृत्युदण्ड तथा प्रकाश चन्द व दोनों बुआओं तथा भजन मंडली के चार सदस्यों धनीराम, बिशम्बर, अमर नाथ और प्रकाश को आजन्म कारावास दिया था। इन पंक्तियों का लेखक इस घटना के समय निकट ही किसी ग्राम में धर्म प्रचार कार्यरत था। प्रातः घटनास्थल पर आकर इसकी जानकारी ली थी।
2. बरेली से 48 मील दूर एक व्यक्ति ने देवी की अन्धभक्ति के कारण अपने परिवार के 6 सदस्यों की बलि चढ़ाई। तब उसी के पुत्र ने उसे मौत के घाट उतार दिया। (दैनिक हिन्दुस्तान 6/4/1984)
3. कर्नाटक के हसन जिले के बनकरा गाँव में शनिवार को एक पैंतालीस वर्षीय व्यक्ति ने देवी चामुण्डेश्वरी को अपनी तीन पुत्रियों की बलि चढ़ा दी तथा पत्नी एवं पुत्र को गम्भीर रूप से घायल कर दिया। आज यहाँ प्राप्त समाचार के अनुसार कथित हत्यारे लच्छ नायक ने पहले एक मुर्गा काटा तथा शराब की बोतल सहित मुर्गे का माँस देवी को अर्पित किया। उसके बाद उसने पूजा की तथा अपनी पत्नी ललितम्मा पर गंडासे से वार किया जिससे वह गम्भीर रूप से घायल हो गई। उसकी एक पुत्री अपनी माँ को बचाने भागी, जिसे उसने गंडासे से कत्ल कर दिया। उसके बाद उसने दो अन्य पुत्रियों की भी इसी तरह बलि दे दी। लच्छ नायक ने अपने दस वर्षीय पुत्र राज कुमार पर गंडासे से वार किया, जिससे वह जख्मी हो गया। लच्छ नायक फरार है। चीखें सुनकर एक पड़ौसी अन्दर आया, जिसने पाँच व्यक्तियों को खून से लथपथ पाया। सूचना मिलते ही पुलिस ने घायलों को अस्पताल पहुंचाया। ललितम्मा के सिर में गम्भीर चोट आई है। उसकी कुछ अँगुलियाँ कट गई हैं। राज कुमार का दाँया हाथ कट गया है। (दैनिक पंजाब केसरी, दिल्ली 12 अप्रैल 1988)
4. जिला सुल्तान पुर की एक स्त्री ने काली देवी को प्रसन्न करने के लिये अपने पड़ौसी के छः वर्षीय बालक की हत्या कर दी। (दैनिक प्रताप उर्दू 29/6/1963)
5. जबलपुर के रूपचन्द नामक व्यक्ति ने जुए में हार से बचने के लिए 18 मास के पुत्र के शरीर के टुकड़े 2 करके उसका रक्त शारदा देवी पर चढ़ाया। (दैनिक वीर अर्जुन 8/4/1985)
इस प्रकार के अनेकों प्रमाण है, किन्तु विस्तार भय से उन सबको देना सम्भव नहीं है। आज के इस वर्तमान युग में जबकि शिक्षा का इतना प्रचार व प्रसार हो रहा है अनेक अंधविश्वासी लोग यह नहीं सोचते कि जो काल्पनिक देवी की जड़ मूर्ति अपने ऊपर से बैठी मक्खी तक नहीं उड़ा सकती, वह मरे हुओं को कैसे जीवित कर सकती है?
ये तथाकथित देवी के भक्त मनगढन्त अनर्गल कथाओं के द्वारा माँस खाने तथा मद्यपान करने का भी धार्मिक जनता में खुलेआम प्रचार कर रहे हैं। जिसका प्रसाद ही शराब व माँस हो उसके भक्त मांसादि भक्षण से कैसे बचे रह सकते हैं? इन्हें ईश्वर के स्वरूप और उसकी भक्ति के बारे में तनिक भी ज्ञान नहीं है। जब स्वयं ही ईश्वर के स्वरूप तथा उसकी भक्ति से अनभिज्ञ हैं तो अन्यों को क्या सिखायेंगे? इनसे लोगों में अज्ञान, अन्धविश्वास तथा पाखन्ड का खूब प्रचार व प्रसार हो रहा है जो कि हिन्दु (आर्य) जाति के पतन का कारण है।
कितने ही तन, मन, धन गुरू के अर्पण करके उनके पैरों का मैल धोकर पीना तथा झूठा खाना ही मुक्ति (धर्म) का साधन समझते हैं। अपने स्तीत्व की रक्षा के लिये राजपूत क्षत्राणियों ने जौहर व्रत किया था। यह आपद् धर्म था। किन्तु नीच, स्वार्थी, पाखण्डी लोगों ने इसे शाश्वत धर्म का स्थान दिला दिया और सती प्रथा के नाम से महिमा मंडित किया। अस्पृश्यता का रोग इस हिन्दु (आर्य) जाति को ऐसा लगा कि अनेकों जाति के लाल हमसे अलग होकर विधर्मी बन गये। गौ, गीता, गायत्री, गंगा, श्री राम, श्री कृष्ण को मानने वाले मन्दिरों के बाहर खड़े मूर्ति के दर्शनों को तरसते रहे, किन्तु पुजारी उन्हें अछूत कह कर दुत्कारते रहे। कहीं हमारा पवित्र भगवान अपनी संतानों के स्पर्श से अपवित्र न हो जाये।
आजकल दूरदर्शन पर पौराणिक कथाओं के आधार पर धार्मिक फिल्मों की आड़ में खूब अश्लीलता का प्रसार किया जाता है जिन्हें देखकर युवक वर्ग दिग्भ्रमित हो रहा है। परन्तु कोई विरोध इस लिये नहीं करता क्योंकि यह भी धर्म है।
मेरे एक परिचित सज्जन हैं। उनके चार पुत्रियाँ हैं। उनमें से दो का विवाह हो चुका है। वे सज्जन अपनी अविवाहित पुत्रियों के हाथों से बना भोजन खाना अधर्म मानते हैं। उनकी पत्नी जब कभी किसी कार्यवश घर से बाहर जाती है तो भोजन बनाने के लिए विवाहित कन्या को बुलाना पड़ता है। इस प्रकार धर्म के नाम पर मानव समाज में न जाने कितनी विकृतियाँ आ गई हैं, जिन्हें देख कर बुद्धिजीवी वर्ग धर्म के नाम से घृणा करता है। परन्तु क्या वास्तव में धर्म यही है? आगे इसी सम्बन्ध में प्रकाश डाला जायेगा।
धर्म का वास्तविक स्वरूप
धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए सर्वप्रथम धर्म शब्द के अर्थ पर विचार करना होगा। 'धृञ् धारणे' इस धातु से धर्म शब्द सिद्ध होता है। जिसका अर्थ है धारण करना। इसी से यह स्पष्ट है कि धर्म धारण करने की वस्तु है। महाभारत में भी कहा गया है-
“धारणाद्धर्ममित्याहु'
धर्म को धर्म इस लिये कहते हैं कि वह धारण किया जाता है। धारण करने योग्य गुणों का नाम ही धर्म है।
वैसे सृष्टि के सभी पदार्थों में उनका अपना एक विशिष्ट गुण धर्म छुपा हुआ होता है। जैसे अग्नि में दहकता, जल में शीतलता वायु में स्पर्शता तथा पृथ्वी में गन्ध आदि। यदि अग्नि से उसका गुण, धर्म, दाहकता निकल जाये तो वह राख मात्र रह जाती है। चींटी आदि क्षूद्र प्राणी भी उससे निर्भय होकर पार हो जाते हैं।
इसी प्रकार पशु-पक्षी, वृक्ष, वनस्पति औषधि आदि में भी उन के स्वाभाविक गुण-धर्म होते हैं। किन्तु मानव में यह बात लागू नहीं होती।
मनुष्य के अपने गुण धर्म स्वाभाविक रूप से जन्म से ही प्रकट नहीं होते, अपितु इन्हें प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना होता है। उसकी यह प्राप्ति परंपरागत ज्ञान से ही संभव है। यद्यपि प्रत्येक आत्मा जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारवश कुछ विशिष्ट गुण लिये होती है पर उन गुणों का सुसंस्कार ज्ञान के माध्यम से ही संभव होता है। इसी लिये परम पिता परमात्मा ने सृष्टि के आदि में जब सबसे पहले मनुष्य का निर्माण किया तब उसकी उन्नति के लिए ज्ञान भी प्रदान किया। जिन्हें वेद कहा जाता है इन्हीं ज्ञान के पुञ्ज वेदों में परम पिता परमात्मा ने अन्य विद्याओं के साथ-साथ मानवीय धर्म का भी बहुत सुन्दर उपदेश किया है। इसी लिये महर्षि मनु ने कहा है
वेदोऽखिलो धर्म मूलम् (मनु० 2/6)
सम्पूर्ण वेद धर्म का मूल (स्रोत) है।
धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः । (मनु. 2/13)
धर्म को जानने की इच्छा वालों के लिये वेद ही परम प्रमाण है। आर्य समाज के संस्थापक युग प्रवर्तक महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थ ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के वेदोक्त धर्म विषय में वेद मंत्रों के आधार पर बहुत ही सुन्दर मानवीय धर्म का प्रतिपादन किया है। उनमें से यहाँ केवल दो मन्त्र प्रस्तुत
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।ऋमं 10 सू°181 मन्त्र 2
अब वेदों की रीति से धर्म के लक्षणों का वर्णन किया जाता है।
"संगच्छध्वं -
हे मनुष्य लोगों! जो पक्षपात रहित, न्याय, सत्याचरण से युक्त धर्म है, तुम लोग उसी को ग्रहण करो, उससे विपरीत कभी मत चलो, किन्तु उसी की प्राप्ति के लिये विरो को छोड़ के परस्पर सम्मति में रहो, जिससे तुम्हारा उत्तम सुख सब दिन बढ़ता जाय और किसी प्रकार का दुख न हो।
संवदध्वं -
तुम लोग विरुद्धवाद को छोड़ के परस्पर अर्थात् आपस में प्रीति के साथ पढ़ना, पढ़ाना, प्रश्न उत्तर सहित संवाद करो, जिससे तुम्हारी सत्य विद्या नित्य बढ़ती रहे।
सं वो मनांसि ज्ञानताम् -
तुम लोग अपने यथार्थ ज्ञान को नित्य बढ़ाते रहो, जिससे तुम्हारा मन प्रकाश युक्त होकर पुरुषार्थ को नित्य बढ़ावे जिससे तुम लोग ज्ञानी हो कर नित्य आनन्द में बने रहो और तुम लोगों को धर्म का ही सेवन करना चाहिये अधर्म का नहीं।
देवा भागं यथा पूर्वे -
जैसे पक्षपात रहित धर्मात्मा विद्वान लोग वेद रीति से सत्य धर्म का आचरण करते हैं, उसी प्रकार से तुम भी करो। क्योंकि धर्म का ज्ञान तीन प्रकार से होता है एक तो धर्मात्मा विद्वानों की शिक्षा, दूसरा आत्मा की शुद्धि तथा सत्य को जानने की इच्छा तथा तीसरा परमेश्वर की कही वेद विद्या को जानने से ही मनुष्यों को सत्य असत्य का यथावत् बोध होता है अन्यथा नहीं ।।1 ।।
यह मंत्र ऋग्वेद के दशम मंडल के अन्तिम सुक्त का दूसरा है। पृथ्वी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त सभी पदार्थों का ज्ञान ऋवेद द्वारा मंत्र प्राप्त होता है। प्रकृति क्या है? पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पंचमहाभूता के गुण धर्म क्या है? जीव क्या है? जीवात्मा का लक्ष्य क्या है? इसके लक्ष्य की पूर्ति कैसे हो सकती है। ईश्वर क्या है? उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? इत्यादि बातों का वर्णन ऋग्वेद में है।
इस मंत्र में यह बताया गया है कि मानव समाज सुखी कैसे रह सकता है। ईश्वर हमें उपदेश करता है कि हे मनुष्यों ! तुम लोग मिल कर चलो। प्रेमपूर्वक आपस में बातें करो। विचारों का आदान-प्रदान करते हुए विद्वानों के सानिध्य में ज्ञान की प्राप्ति करो। तुम्हारे मन मिलकर सत्यासत्य का निर्णय करने के लिये सदा विचार करें। जैसे प्राचीन काल के विद्वान लोग परस्पर विचार करके सत्यासत्य का निर्णय करके अपने-अपने भाग को प्राप्त करते आते हैं।
दृते गृह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् । मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ।।
यजु अ 36 म 18 "
इस मंत्र का अभिप्राय यह है कि मनुष्य लोग आपस में सब प्रकार के प्रेम भाव से सब दिन वर्ते और सब मनुष्यों को उचित है कि जो वेदों में ईश्वरोक्त धर्म है, उसी को ग्रहण करें और वेद रीति से ही ईश्वर की उपासना करें कि जिससे मनुष्यों की धर्म में ही प्रवृत्ति हो ।
(दृते ) हे सब दुःखों के नाश करने वाले परमेश्वर! आप हम पर ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे हम लोग आपस में वैर को छोड़ के एक दूसरे के साथ प्रेम भाव से वर्ते। (मित्रस्य मा०) और सब प्राणी मुझको अपना मित्र जानकर बन्धु के समान वर्ते। ऐसी इच्छा से युक्त हम लोगों को (दूँह) सत्य सुख और शुभ गुणों से सदा बढ़ाइये। (मित्रस्याहं ) इसी प्रकार से मैं भी सब मनुष्यादि प्राणियों को अपना मित्र जानूँ और हानि, लाभ, सुख और दुख में अपने आत्मा के समतुल्य ही सब जीवों को मानूँ।
(मित्रस्य च०) हम सब लोग आपस में मिलके सदा मित्र भाव रखें और सत्य धर्म के आचरण से सत्य सुखों को नित्य बढ़ावें। जो ईश्वर का कहा धर्म है यही एक सब मनुष्यों को मानने के योग्य हैं।" यजुर्वेद का यह मंत्र वेद के उन अनेक मंत्रों में से है जिसमें मानव धर्म का अत्यन्त सुन्दर रीति से प्रतिपादन किया गया है। महर्षि ने वेद के माध्यम से दिये गये इस अनुपम उपदेश को बहुत ही उत्तमता से सार्वभौमिक धर्म के रूप में निरूपित किया है।
मंत्र के पहले भाग में प्रत्येक प्राणी की उस इच्छा को व्यक्त किया है कि संसार के सभी प्राणी मुझको मित्र की दृष्टि से देखें। प्रत्येक मनुष्य की यह इच्छा होती है कि कोई भी उसको कुपित, लोलुप, हिंसक दृष्टि से न देखें। दूसरों के नेत्रों में करुणा, मैत्री, प्रेम का सागर छलकता हो, यही सबकी कामना होती है। यहाँ तक कि जंगली हिंसक प्राणियों से भी मनुष्य यही अपेक्षा करता है कि वे मुझे कुछ न कहें। परन्तु यह कैसी विडम्बना है कि मनुष्य अपने प्रति तो सभी प्राणियों से स्नेहं, करुणा, मैत्री चाहता है परन्तु स्वयं अन्य प्राणियों के प्रति क्रूरता तथा हिंसा का बर्ताव करता है। अपने को सर्वश्रेष्ठ कहलाने वाला यह मनुष्य उन निरपराध मूक प्राणियों का अपनी रसना की तृप्ति के लिए वध करता है। कहीं धर्म के नाम पर उनकी बलि दी जाती है। प्रस्तुत वेद मंत्र के माध्यम से हमें यह शिक्षा दी गई है कि यदि हम अन्य प्राणियों से मैत्री, करुणा तथा प्यार पाना चाहते हैं तो हमें भी स्वयं दूसरे प्राणियों के प्रति ऐसा ही सौहार्दता का व्यवहार करना होगा। जिससे मैं अन्य प्राणियों के द्वारा मित्र की दृष्टि से देखा जा सकूँ। इसी प्रकार वेदों के अनेक मंत्रों में धर्म का स्वरूप बतलाया गया है। उपनिषदों में भी अनेक मंत्र ऐसे हैं जो धर्म के स्वरूप का स्पष्टतः प्रतिपादन करते हैं, परन्तु यहाँ उन सबको उद्धृत करना सम्भव नहीं। मनुस्मृति में महर्षि मनु महाराज ने धर्म के इस प्रकार दस लक्षण लिखे हैं -
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः । धी:विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।मनु 6/92
धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध अर्थात् क्रोध न करना ये दस लक्षण धर्म के हैं।
धृति
अर्थात् विपत्ति में भी धैर्य धारण करना। प्रतिकूल परिस्थिति में भी धर्म से कभी विचलित नहीं होना चाहिये। विपत्ति में ही मनुष्य के धैर्य की परीक्षा होती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है
धीरज धर्म मित्र अरु नारी आपद् काल परखियहिं चारी
राज्याभिषेक के समय और वनवास के समय श्री राम की धीरता की प्रशंसा करते हुए गुरु वशिष्ठ जी कहते हैं
आहूतस्याभिषेकाय विसृष्टस्य वनाय च । न मया लक्षितरन्तस्य स्वल्पोप्याकार विभ्रमः ।।
अर्थात् मैने श्री राम के अभिषेक के समय बुलाये जाने पर तथा वनवास जाते समय किंचित भी अन्तर नहीं देखा। याद रखिये "विपत्ति में धैर्य ही हमारा सच्चा मित्र है। "
क्षमा
पूर्ण सामर्थ्य होने पर भी अपने प्रति किसी निर्बल से अपकार होने पर बदला न लेना क्षमा कहाती है। परन्तु यदि कोई सामर्थ्यवान निर्बल के प्रति अन्याय करता है तो उसे सहन करने का नाम क्षमा नहीं है। यह तो उसकी विवशता है। इसीलिये कहा है "क्षमा वीरस्य भूषणम्" क्षमा वीरों का भूषण है, किन्तु निर्बलों का दूषण है। वीर रस के कवि दिनकर जी ने कहा है
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दन्तहीन विषहीन विनीत सरल हो सहनशीलता क्षमा दया को तभी पूजता जग है। बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है
दम
मन की चंचल वृत्तियों को अधर्म से रोक कर धर्म मार्ग में चलाने का नाम ही दम है। यह मन बड़ा चंचल है। संसार के नाना प्रकार के प्रलोभनों में फँस कर यह व्यक्ति को कर्त्तव्य पथ से विमुख कर देता है। परन्तु याद रखना चाहिये कि यह मन जड़ है, और मैं (आत्मा) चेतन हूँ। मुझे इसे अपने आधीन रखना है, न कि मैं इसके आधीन हो जाऊँ। जिसने मन जीत लिया उसने जग जीत लिया। मन को नियन्त्रित करके ही व्यक्ति प्रत्येक कार्य क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकता है। बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही है। स्व० कवि रत्न प्रकाश जी ने लिखा है
मन सा न जग में प्रकाश कोई सच्चा मित्र मन सा न और कोई शत्रु हुड़दंगा है। मन से ही शाँति गीत, मन से ही प्रीति रीति मन से ही कलह, कपट, द्वेष, दंगा है। मन ही मिलाता ईश मन ही दिलाता मुक्ति मन ही तो डालता सुकर्म में अडंगा है। मन है मरीज तो लज़ीज़ कोई चीज़ नहीं मन यदि चंगा तो कठौती में ही गंगा है
अस्तेय
अस्तेय का अर्थ है चोरी का त्याग। बिना मालिक की आज्ञा के किसी वस्तु को उठा लेना, छल-कपट, विश्वासघात या अन्य उपायों से किसी के धनादि पदार्थ को हड़पना स्तेय है और इसे छोड़ देना अस्तेय कहलाता है। यदि व्यक्ति को धार्मिक बनना है तो उसे अस्तेय भाव को जीवन में लाना होगा। वेद का आदेश है। "मा गृध कस्य स्विद्धनम्" किसी के धन का लालच मत करो। आज का व्यक्ति शीघ्र धनवान बनने की लालसा में येन केन प्रकारेण धन बटोरने में लगा रहता है। याद रखिये अन्यायोपार्जित धन अनर्थ का कारण बन जाता है। अपने परिश्रमपूर्वक न्याय से उपार्जित किया धन ही टिकाऊ तथा सुखशान्तिकारक होता है।
शौच
शारीरिक और मानसिक यह दो प्रकार का शौच कहाता.है। वस्त्र प्रक्षालन तथा स्नानादि से शरीर को शुद्ध रखना शारीरिक शौच है तथा राग, द्वेष, पक्षपात आदि दुष्प्रवृत्तियों को मन में न आने देना, यह मानसिक शौच कहलाता है। धर्माचरण में बाहर और अन्दर की पवित्रता रखनी अत्यन्त आवश्यक है। महर्षि मनु ने शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा को पवित्र रखने का उपाय इस प्रकार बतलाया है
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति । विद्या तपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिज्ञानेन शुध्यति ।। (मनु० 5/109)
शरीर की शुद्धि जल से, मन की शुद्धि सत्य से, आत्मा की शुद्धि विद्या और तप से तथा बुद्धि की शुद्धि ज्ञान से होती है।
धर्म मार्ग में अग्रसर होने के लिये अर्थ की शुचिता का ध्यान रखना भी आवश्यक है। अर्थ शुचिता के बिना जीवन में धार्मिकता नहीं आ सकती।
इन्द्रिय निग्रह -
इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोककर धर्म मार्ग में ही चलाना। अर्थात् शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध आदि विषियों में इन्द्रियों को मर्यादानुकूल ही चलने देना इन्द्रिय निग्रह कहाता है। इस विषय में मनु महाराज कहते हैं
श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः । न हृष्यति ग्लायति वा, स विज्ञेयो जितेन्द्रियः ।।(मनु- 2/98)
जो मनुष्य सुनकर, स्पर्श करके, देखकर, खाकर और सूंघ कर न तो प्रसन्न होता है और न ही अप्रसन्न होता है उसे ही जितेन्द्रिय जानना चाहिये।
याद रखिये विष को खाने से मनुष्य मरता है, किन्तु विषियों के स्मरण मात्र से ही मानव का विनाश हो जाता है।
धी :
बुद्धि। सब कार्य बुद्धिपूर्वक सोच समझ कर करने चाहिये <-> और इस प्रकार का प्रयत्न करना चाहिये कि जिससे बुद्धि का विकास हो। बुद्धिनाशक मादक पदार्थों का त्याग, सात्विक, बुद्धिवर्धक पदार्थों का सेवन, सतपुरुषों का संग, स्वाध्याय, योगाभ्यास आदि से श्रेष्ठ बुद्धि का विकास होता है। बुद्धिहीन व्यक्ति धर्माधर्म उचितानुचित का ज्ञान नहीं कर सकता। संस्कृत के किसी कवि ने कहा है
" यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञ, शास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणः किं करिष्यति ।।
जिसकी स्वयं बुद्धि नहीं है, उसका शास्त्र कोई उपकार नहीं कर सकता (जैसे कि) नेत्रों से विहीन व्यक्ति का दर्पण क्या उपकार कर सकेगा ?
विद्या
अनित्याशुचि दुःखानात्मसु नित्य शुचि सुखात्म ख्यातिरविद्या ।।योग दर्शन 2/5
जो अनित्य संसार और देहादि में नित्य, अर्थात् जो कार्य जगत देखा सुना जाता है, सदा रहेगा सदा से है और योग बल से यही देवों का शरीर सदा रहता है वैसी विपरीत बुद्धि होना अविद्या का प्रथम भाग है। अशुचि अर्थात् मलमय स्त्रयादि के और मिथ्या भाषण, चोरी आदि अपवित्र में पवित्र बुद्धि दूसरा अत्यन्त विषय सेवन रूप दुःख में सुख बुद्धि आदि तीसरा, अनात्मा में आत्म बुद्धि करना अविद्या का चौथा भाग है। यह चार प्रकार का विपरीत ज्ञान अविद्या कहाती है। इससे विपरीत अर्थात् अनित्य में अनित्य और नित्य में नित्य, अपवित्र में अपवित्र और पवित्र में पवित्र, दुःख में दुःख, सुख में सुख, अनात्मा में अनात्मा, आत्मा में आत्मा का ज्ञान होना विद्या है। अर्थात् जिससे पदार्थों का यथार्थ स्वरूप बोध होवे वह विद्या है। (सत्यार्थ प्रकाश नवम समुल्लास)
सोना, चाँदी, रुपया, पैसा आदि सांसारिक धन तो आता जाता रहता है। आज एक के पास है कल दूसरे के पास चला जाता है किन्तु विद्या का धन कभी नष्ट नहीं होता। विद्या को जितना व्यय करते हैं उतनी ही बढ़ती चली जाती है। विद्या से ही मनुष्य महान बनता है। विद्वानों की सभा में उसका सम्मान होता है। विद्वान कहीं भी चला जाये सर्वत्र उसकी पूजा होती है। विद्या से ही मनुष्य मोक्ष की प्राप्ति करता है।
(विद्ययाऽमृतमश्नुते यजु० 40 / 14 )
सत्य- मन, वचन, कर्म से एक होना ही सत्य कहाता है। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द जी महाराज अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में लिखते हैं जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना - लिखना और मानना सत्य कहाता है। "सत्य भाषण और आचरण से उत्तम धर्म का लक्षण कोई भी नहीं है क्योंकि सतपुरुषों में भी सत्य ही सत्पुरुषपन है। सत्य से ही मनुष्यों को व्यवहार और मुक्ति का उत्तम सुख मिलता है। जिससे छूट के वे दुःख में कभी नहीं गिरते। इस लिये सब मनुष्यों को सत्य में ही रमण करना चाहिये " (ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका)
महाभारत में लिखा है- 'नास्ति सत्यात्परो धर्मः' (शान्ति पर्व 162-24)
सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं। ऋवेद (10-85-1) में आया है "सत्येनोत्तभिता भूमि" अर्थात् यह भूमि सत्य के सहारे टिकी हुई है। प्राचीन काल में ब्रह्मचारी जब गुरुकुल से शिक्षा समाप्त करके कार्यक्षेत्र में पदार्पण करता था तो उसे सबसे प्रथम आचार्य सत्यं वद" सच बोलो यह उपदेश देता था। आर्य समाज का यह चौथा नियम तो सारा सत्य के ऊपर ही है सत्य के ग्रहण करने और असत्यं के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।
अक्रोध
क्रोध न करना। क्रोध में मनुष्य विवेक खो बैठता है। मानसिक सन्तुलन स्थिर नहीं रह पाता। क्रोध के कारण मानव उत्तेजित हो जाता है, जिससे शरीर पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। क्रोधी मनुष्य धर्माचरण नहीं कर सकता। कई कारणों से क्रोध उत्पन्न होता है। जब हम दूसरों की भावनाओं, विचारों को समझने का प्रयास नहीं करते। बिना सोचे समझे उनकी आलोचना शुरू कर देते हैं तो दूसरा भी आवेश में आकर कटु वाणी का प्रयोग करता है। इससे क्रोध बढ़ता जाता है। यदि कोई आलोचक हमारी बुराई को उजागर कर रहा है तो उससे क्रोध करने के स्थान पर हमें अपनी बुराईयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिये। भक्त कबीर दास जी ने कहा है
निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय । बिन साबुन पानी बिना निर्मल करे सुभाय ।।
वाल्मीकि रामायण में आया है
धन्या खलु महात्मानो, ये बुद्धया कोपमुत्थितम् । निरून्धन्ति यतात्मानो दीप्तमग्निमिवाम्भसा ।।
(वाल्मी०सु०सर्ग 55 श्लो॰ 3)
वे महान आत्मा वाले लोग धन्य हैं। उत्पन्न हुए क्रोध को बुद्धि से वैसे ही शान्त कर देते हैं जैसे प्रज्ज्वलित अग्नि को जल से। ऐसे सज्जन ही अपने आपको वश में रखने वाले होते हैं। क्रोध मनुष्य पर अकेला नहीं आता, इसके साथ हिंसा, घृणा, घबराहट, मानसिक परेशानी, शारीरिक उत्तेजना आदि जो कि इसके परिवार के सदस्य हैं, साथ आते हैं। यह क्रोध रूपी अग्नि ऐसी है जो मानव को जलाकर भस्म कर देती है और अन्त में मानव पश्चाताप करता है। जैसा कि हितोपदेश में कहा है
योऽर्थ तत्वमविज्ञाय क्रोधस्यैव वशं गतः । स तथा तप्यते मूढो, ब्राह्मणो नकुलाद् यथा ।।
जो वास्तविक अभिप्राय को न समझ कर एक मात्र क्रोध के वशीभूत हो जाता है, वह अन्त में उसी प्रकार पश्चाताप करता है जैसे उपकारी नेवले को मारने के बाद एक ब्राह्मण ने किया था। इस लिये ठीक ही कहा है
अक्रोधेन जयेत् क्रोधम्
अक्रोध से क्रोध को जीते। यहाँ पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जहाँ क्रोध मानव जीवन के लिये हानिकारक है वहाँ 'मन्यु' भी मनुष्य के अन्दर होना आवश्यक है। इसी लिये यजुर्वेद में प्रार्थना की गई है
मन्युरसि मन्युं मयि धेहि (यजु° 19/9)
ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में इस मंत्रांश का भाष्य करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं - हे दुष्टों पर क्रोध करने हारे! आप दुष्ट कामों और दुष्ट जीवों पर क्रोध का स्वभाव मुझ में भी रखिये। मन्यु और क्रोध में अन्तर यह है कि मन्यु में हित अर्थात् सुधार की भावना होती है तथा क्रोध में हानि की भावना छुपी होती है। जैसे कुम्भकार घड़ा बनाते समय ऊपर से थपकी मारता है और अन्दर हाथ रखता है कि कहीं घड़ा टूट ही न जाये। इसी प्रकार माँ अपने बच्चे को कभी-कभी ताड़ना करती है परन्तु उस ताड़ना में ममता तथा सुधार अन्तर्निहित होता है अध्यापक विद्यालय में शिष्य को सुधार के लिये ही मन्यु (ताड़न) का प्रयोग करता है। परन्तु जब यह मन्यु क्रोध अथवा प्रतिशोध में परिणित हो जाता है तो परेशानियों का कारण बन जाता है।
धर्म के इन दस लक्षणों के अतिरिक्त भी मनुस्मृति तथा अन्य शास्त्रों में धर्म के लक्षणों का निरूपण किया गया है। यथा
आचार: परमोधर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च । तस्मादस्मिन्त्सदायुक्तो नित्य स्यादात्मवान् द्विजुः ।। मनु 1/108
वेद और वेदानुकूल स्मृतियों में बताये गये धर्म का आचरण करना ही परम धर्म है। इसलिये द्विज सदा धर्माचरण में प्रवृत्त रहे ।
वेदः स्मृतिः सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् (मनु 2-12)
जो वेदानुकूल है, वेदानुकूल स्मृतियों के अनुकूल है, सदाचारी धर्मात्माओं के आचरण के अनुकूल है और अपने को प्रिय लगने वाला व्यवहार है, वह धर्म है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ।।
धर्म का सार सुनो और सुनकर मन में धारण करो, जो व्यवहार तुम्हें अपने लिये अच्छा नहीं लगता, वह दूसरों के लिये भी कभी मत करो।
यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स: धर्मः । (वैशेषिक दर्शन) जिससे इह लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के सुखों की प्राप्ति हो सके वह धर्म है। महर्षि कणाद जी ने वैशेषिक दर्शन में यह धर्म की कितनी सुन्दर व्याख्या की है। केवल साँसारिक सुखों की ही प्राप्ति नहीं अपितु मानव जीवन का जो चरम उद्देश्य मोक्ष है उसकी प्राप्ति भी करनी है। जो धर्म केवल संसार तक सीमित है वह भी अधूरा है तथा जो केवल परलोक के सरसब्ज़ बाग दिखाता है वह भी अधूरा है। युग प्रवर्तक महर्षि दयानन्द जी महाराज ने इस सत्य को समझा था। उन्होंने हमें सोचने समझने की एक दिशा दी और कहा कि संसार से भागो नहीं जागो। संसार के अन्दर अपने-अपने कर्त्तव्य कर्मों को करते हुए इहलौकिक और पारलौकिक सुख को प्राप्त करो।
इति ओ३म् शम्
🙏शास्त्री हरी आर्यः