धर्म के आधार क्या है ?

               


🙏ओ३म् 🙏

छान्दोग्योपनिषद में धर्म के तीन आधार -



पहला आधार-

"त्रयो धर्मस्कंधा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथमः ।

(द्वान्दोग्य उ द्धि० प्र०)


धर्म के तीन आधार है। इनमें से यज्ञ, अध्ययन तथा दान यह प्रथम आधार है।

यज्ञ -

धर्म पथ के पथिक को जीवन में यज्ञ को अपनाना चाहिये। जितने भी परोपकार के कार्य हैं वे सब यज्ञ के अन्तर्गत आ जाते हैं। आजकल यज्ञ शब्द साधारणत: हवन (अग्नि में द्रव्य विशेष की आहुति देने) के अर्थ में रुढ़ हो गया है। किन्तु 'यज्ञ' का बहुत विस्तृत अर्थ है। ईश्वर द्वारा रचित पंच- भौतिक सृष्टि के पदार्थों का यथावत् ज्ञान प्राप्त करके उनसे उपकार लेने का नाम यज्ञ है। चूंकि अग्निहोत्र से प्राणीमात्र को बहुत लाभ होता है। जल वायु की शुद्धि होकर निरोगता आती है तथा वातावरण सुगन्धित होता है। देव पूजा संगतिकरण और दानादि उद्देश्यों की पूर्ति यज्ञ के माध्यम से हो जाती है।

अध्ययन -

ईश्वर प्रदत्त वेद अथवा वेदानुकूल सत्य शास्त्रों के अध्ययन से मानव को अपने ज्ञान में निरन्तर वृद्धि करनी चाहिये। आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन से निरन्तर बुद्धि का विकास तथा अज्ञानान्धकार का नाश होकर आत्मा में ज्ञान का प्रकाश होता है। संस्कृतज्ञ वेद वेदाङ्ग निष्णात विद्वान तो किसी भी ग्रन्थ का कहीं से भी अध्ययन कर सकते हैं, किन्तु जो वेद का अध्ययन नहीं कर सकते, उन्हें वेद के स्वाध्याय की योग्यता प्राप्त करने के लिये महर्षि दयानन्द के ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका आर्याभिविनय, सत्यार्थ प्रकाश, व्यवहार भानु ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये दर्शन उपनिषद्, गीता, मनुस्मृति, विदुर नीति आदि ग्रन्थों का भाषानुवादों के माध्यम से अध्ययन कर सकते हैं। इसीलिये तैत्तिरीयोपनिषद में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य शिष्य को उपदेश देता है। - स्वाध्यायान्मा प्रमदः । अर्थात् स्वाध्याय-वेदादि सत्यशास्त्रों के अध्ययन में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए।

दान -

मनुष्य को अपने उपार्जित धन में से कुछ न कुछ भाग असहाय पीड़ित निर्धन अथवा कूप, तालाब, धर्मशाला, अनाथालय, गुरुकुल आदि के लिये अवश्य निकालना चाहिये देश, काल तथा पात्र का विवेक करके निस्वार्थ भावना से दिया गया दान ही श्रेष्ठ होता है। महाभारत में कहा है।

अक्रोधना धर्म पराः सत्यनित्या दमे रताः तादृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्।।( महाभा अनु० 22, श्लो• 33)


जो क्रोध न करने वाले, धर्म परायण, सदा सत्यव्यवहार करने वाले और अपने मन को वश में रखने में तल्लीन हैं, ऐसे सज्जन स्वभाव वाले ज्ञानियों को दिया गया दान महान फलदायक होता है। जिसके पास विद्या है वह विद्या का दान करे। शास्त्रों में विद्यादान को सब दानों में श्रेष्ठ बताया है। जैसा कि कहा है।


सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते । वार्यन्न गो मही वासस्तिल काञ्चन सर्पिषाम् ।। (मनु 4-233)

जल, भोजन, गौ, भूमि, वस्त्र, तिल, सोना और घृत आदि सभी दानों से बढ़ कर विद्या का दान है। अभिप्राय यह है कि जिसके पास जिस प्रकार का धन है वह सब सामर्थ्यानुसार समाज तथा राष्ट्र की उन्नति के लिये कुछ भाग अवश्य निकाले। भोज प्रबन्ध में कहा है ।


सङ्ग्रहैकपरः प्राय: समुद्रोऽपि रसातले । दातारं जलदं पश्य, गर्जन्तं भुवनोपरि ।। (भोज 65)


संग्रह मात्र में लगा हुआ सागर सदा रसातल में ही पड़ा रहता है। उधर सबको जल देने वाला दाता बादल को देखो जो कि संसार के ऊपर गर्जता रहता है।

दान से ही व्यक्ति को यश मिलता है। कृपण का कोई सम्मान नहीं करता। दान से ही स्वर्ग (सुख) मिलता है। दान के द्वारा मनुष्य शत्रुओं के हृदय में भी स्थान बना लेता है। दान से ही परम संतोष तथा आत्मिक आनन्द की प्राप्ति होती है।


दूसरा आधार -

तप एव द्वितीयो ।


तप ही धर्म का दूसरा आधार है। स्व कर्त्तव्य पालन में जो कठिनाइयाँ आती हैं, उनको सहन करने का नाम तप है। योग दर्शन में द्वन्द्वों को सहन करना ही तप कहा है। मान-अपमान, सुख-दुख, हानि-लाभ, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वन्दों को शान्तचित्त से सहन करते हुए अपने कर्त्तव्य पालन में लगे रहना तप कहलाता है।

श्रीमद्भगवद् गीता के सत्रहवें अध्याय में श्लोक 14 से 18 तक तप के कायिक, वाचिक तथा मानसिक ये तीन भेद किये हैं। फिर कायिक, वाचिक, मानसिक के सत्व-रज-तम के आधार पर तीन भेद किये हैं, जिनका भाव इस प्रकार है

"देवताओं, ब्राह्मणों, गुरुओं और विद्वानों की पूजा करना, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसापूर्वक जीवन बिताना यह सब शरीर का तप कहलाता है। ऐसे वाक्य बोलना जिनसे दूसरे लोग उद्धिग्न न हो जायें, जो सत्य होने के साथ-साथ प्रिय हों, हितकारी हों; उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय करना और स्वाध्याय किये हुए का अभ्यास रखना यह वाणी का तप कहलाता है। मन को प्रसन्न रखना, सौम्यता, मौन, आत्म-संयम और चित्त की शुद्ध भावना यह सब मन का तप कहलाता है। इन तीनों प्रकार के तपों को यदि मनुष्य फल की इच्छा छोड़कर लगन और परम श्रद्धा के साथ करे तो (कायिक, वाचिक तथा मानसिक तप) सात्विक कहलाते हैं। जो (कायिक, वाचिक तथा मानसिक) तप सत्कार, मान एवं पूजा प्राप्त करने के लिये या दम्भ के लिये पाखन्ड, दिखावे, प्रदर्शन के लिये किये जाते हैं, वे राजस कहलाते हैं, वे देर तक चलते नहीं, अस्थिर होते हैं। जो (कायिक, वाचिक तथा मानसिक) तप मूर्खतापूर्ण दुराग्रह के साथ अपने आपको कष्ट देकर या दूसरों को हानि पहुँचाने के लिये किये जाते हैं, वे तामसिक कहलाते हैं। धर्मानुरागी को द्वन्द्वों अथवा कठिनाइयों से डर कर कभी भी उत्तम कर्तव्यों का त्याग नहीं करना चाहियें। कठिनाईयों को सहन करते हुए सदा शुभ कर्मों में प्रवृत्त रहकर बुद्धिपूर्वक कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिये। कहा भी है 

समस्या को समस्या समझना ही समस्या है। समस्या को बुद्धिपूर्वक हल करना ही तपस्या है।।


तीसरा आधार -

ब्रह्मचार्याचार्य कुलवासी तृतीयोऽत्यन्तमात्मान माचार्य कुलेऽवसादयन्।


आचार्य कुल में अपने आपको अत्यन्त क्लेश देता हुआ ब्रह्मचारी आचार्य कुलवासी धर्म का तीसरा आधार है।

ब्रह्मचर्याश्रम मानव जीवन रूपी भवन की नींव है। यह नींव जितनी सुदृढ़ तथा गहरी होगी, भवन उतना ही सुदृढ़ तथा टिकाऊ होगा। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द जी कहते हैं ।

"ब्रह्मचर्याश्रम जो कि सब आश्रमों का मूल है, उसके ठीक-ठीक सुधरने से सब आश्रम सुगम और बिगड़ने से नष्ट हो जाते हैं" (ऋवेदादि) भा०भू०) अथर्ववेद के ग्यारहवें कांड में ब्रह्मचर्य की महिमा में अनेक मंत्र आये हैं, उनमें से केवल एक मंत्र यहाँ प्रस्तुत है ।


आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः । तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः ।।(अथर्व कांड 11 मं० 3 )


अर्थात् जो गर्भ में बस के माता और पिता के सम्बन्ध से मनुष्य का जन्म होता है, वह प्रथम जन्म कहाता है और दूसरा यह कि जिसमें आचार्य पिता और विद्या माता होती है। इस दूसरे जन्म के न होने से मनुष्य को मनुष्यपन नहीं प्राप्त होता इस लिये उसको प्राप्त होना मनुष्यों को अवश्य चाहिये। जब आठवें वर्ष पाठशाला में जाकर आचार्य अर्थात् विद्या पढ़ाने वाले के समीप रहते हैं तभी से उनका नाम ब्रह्मचारी वा ब्रह्मचारिणी हो जाता है। क्योंकि वे ब्रह्मवेद और परमेश्वर के विचार में तत्पर होते हैं। उनको आचार्य तीन रात्रि पर्य्यन्त गर्भ में रखता है। अर्थात् ईश्वर की उपासना, धर्म, परस्पर विद्या के पढ़ने और विचारने की युक्ति आदि जो मुख्य मुख्य बाते हैं, वे सब तीन दिन में उनको सिखाई जाती हैं। तीन दिन के उपरान्त उनको देखने के लिये अध्यापक अर्थात् विद्वान् लोग आते हैं।" (ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका)


आचार्य कुल में ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होकर कष्टों को सहता हुआ विद्यार्जन करता है। नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ अपनी शारीरिक, बौद्धिक तथा मानसिक शक्तियों का विकास करता है। भौतिक सुख-साधनों को त्याग कर सरल सादगीपूर्ण जीवन को बनाते हुए गुरुचरणों में रहकर विद्याभ्यास करते हुए वह चहुँमुखी प्रतिभा का धनी बन जाता है। आलसी, निठल्ला तथा सुखाभिलाषी विद्यार्थी कभी विद्या प्राप्त नहीं कर सकता। इस विषय में महात्मा विदुर जी कहते हैं ।


सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम् । सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम् ।। 

सुख भोगने की इच्छा करने वाले को विद्या कहाँ? और विद्या पढ़ने वाले को सुख कहाँ? क्योंकि विषय सुखार्थी विद्या को और विद्यार्थी विषय सुख को छोड़ दे। (विदुर प्रजागर अ० 40 श्लो॰ 6 )

गुरु के द्वारा बुलाये जाने पर अध्ययन में लग जाने वाला, गुरु के कार्यों में बिना प्रेरणा किये तत्पर रहने वाला, गुरु से पूर्व जागने वाला और पीछे सोने वाला, कोमल स्वभाव वाला, मन को वश में रखने वाला, धैर्यशाली, प्रमाद न करने वाला, नशा न करने वाला और स्वा याय में लीन रहने वाला ब्रह्मचारी ही अपने लक्ष्य में सफल होता है। (महा० आ.)

ऐसा ब्रह्मचारी ही वेद वेदांग निष्णात होकर संसार में सत्य धर्म की स्थापना करके जीव मात्र का कल्याण कर सकता है। इसीलिये आचार्य कुलवासी ब्रह्मचारी को यहाँ धर्म का तीसरा स्कन्ध (आधार) कहा है ।

🙏 इति ओ३म् शम् 🙏 

शास्त्री हरी आर्य:

              


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