यन्मे छिद्रं चक्षुषो ह्रदयस्य मनसो वातितृण्णं बृहस्पतिमे तद्दधातु शन्नो भवतु भुवनस्य यस्पति: ।।
जो मेरे नेत्र की व अंतः करण की न्यूनता वा मन की व्याकुलता है उसको बड़े आकाशादी का पालक परमेश्वर मेरे लिए पुष्ट वा पूर्ण करे जो सब संसार का रक्षक है वह हमारे लिए कल्याणकारी होवे।
जो मेरे मन का और जो वाणी का दोष है जिससे सरस्वती अर्थात उत्तम वेद विद्या क्रोध युक्त व्यवहार को प्राप्त हुई है।उसको सब दिव्य गुणों के साथ मिलता हुआ बड़े आकाशआदि का पालक परमेश्वर संधि युक्त करें।
उक्त उस मंत्र में नेत्र अंत:करण और वाणी जो दोस्त हैं , उनको दूर करने की प्रेरणा दी गई। यह मंत्र प्रेरणा दे रहा है कि आत्मनिरीक्षण अर्थात अपनी पड़ताल करो और अपना सुधार करो।
अपनी पड़ताल जो करता है दिन पाकर वह बन जाता है । है ठीक हिसाब सदा जिसका नहीं अंत समय पछताता है।
एक बुढ़िया का बेटा गुड बहुत खाता था। बुढिया उसको लेकर एक महात्मा के पास गई और कहने लगी, आप इसे उपदेश दे ताकि अधिक मात्रा में गुड ना खाया करें। महात्मा ने कहा इसे कर ले आना। अगले दिन बुढ़िया उसे फिर महात्मा के पास लाई । महात्मा जी ने उपदेश दिया, बेटे! अधिक गुड खाना अच्छी बात नहीं । यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इस पर बुढ़िया कहने लगे कि यह बात तो आप कल भी बता सकते थे। मुझे दोबारा आने का कष्ट ना उठाना पड़ता है। इस महात्मा ने कहा, कल मैंने स्वयं गुड़ खा रखा था अतः मैंने उपदेश देना उचित नहीं समझा था। इसी संदर्भ मैं किसी कवि ने कहा है-:
अरे सुधारक जगत की की मत करी चिंता भार।
यह मन तेरा जगत है पहले इसे सुधार ।।
एक भी छिद्र व्यक्ति के नाश का कारण बन सकता है। वर्धमान महावीर के शिष्यों में बहस चल रही थी कि मनुष्य के अध: पतन का क्या कारण है?
किसी ने कामवासना के कारण बतलाया तो किसी ने लोभ को और किसी ने अहंकार को । अंत में वे सभी शंका समाधान करने महावीर के पास आए। महावीर ने पूछा,'पहले यह बताओ कि मेरे पास एक अच्छा खासा कमंडल है यदि उसे नदी में छोड़ा जाए तो क्या वह डूबेगा?
कदापि नहीं ,शिष्यों ने उत्तर दिया। और यदि उसमें छिद्र हो जाए तो। तब तो डूबे का ही। यदि वही दाएं और हो तो? दाई और हो या बाएं तरफ छिद्र कहीं भी हो पानी उसमें प्रवेश करने पर वह डूबने लगेगा।
तो वत्स जान लेना कि मानव जीवन भी उस कमंडल के समान है उसमें दुर्गुण आरोपी कोई भी छिद्र हुआ बस समझो डूबने वाला है।
अपनी पड़ताल प्रतिदिन करते रहना चाहिए।
* राजा विक्रमादित्य की स्मृति में विक्रम संवत आज भी प्रचलित है। महाराज विक्रमादित्य का काल अत्यंत गौरवपूर्ण रहा है। उन्होंने दरबार में अपने सामने एक प्रेरक श्लोक लिखवा कर टांग रखा था ।
प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरित्रमात्मन: ।
किन्नू में पशुभि स्तुल्यं, किन्नू सत्पुरुषैरिव।।
मेरे इस बहुमूल्य जीवन का जो दिन व्यतीत हो रहा है, वह पुनः लौटकर नहीं आएगा। अतः प्रतिदिन यह चिंतन कर कि आज का दिन पशुवत् गुजारा अथवा शत पुरुषों की तरह गुजारा ।
* अपनी आलोचना को सहन करना महान व्यक्तियों का लक्षण होता है। रिडिक महान की सवारी की जा रही थी। उसने देखा एक दीवार पर पोस्टर लगा हुआ था बहुत से लोग उसे पढ़ रहे हैं । पूछने पर मालूम हुआ कि वह पोस्टर फ्रेडी के विरोध में है प्रिडिक्ट ने आदेश दिया कि पोस्टर को ऊंचे स्थान से उतारकर जरा नीचे लगा दिया जाए जिसे पढ़ने वाले को कष्ट ना हो। किसी ने पूछा यह अपने क्या विचार किया। इसे तो नष्ट कर देना चाहिए। प्रिडिक ने कहा प्रजा को अपने भाव प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। और मुझे अपनी अंतरात्मा की आवाज के अनुसार आचरण की स्वतंत्रता है। पोस्टर नष्ट कर आने से अधिक हानिकारक हो जाएगा।
जब हम किसी की आलोचना करते हुए उसकी और उंगली उठाते हैं तो 3 उंगलियां हमारी और होती है। गांधी जी के किसी आश्रम वासी से कोई दुराचार हो गया। किसी अन्य ने इसकी शिकायत गांधी जी से अज्ञात पत्र लिखकर की पत्र पढ़कर गांधी जी कुछ खिन्न हो गए। उसी शाम प्रार्थना के पश्चात गांधीजी गंभीर स्वर में बोले ऐसे विषय में गुमनाम तथा अज्ञात पत्र लिखना गलत है हमें सदा यह याद रखना चाहिए कि जब हम किसी के पाप की और उंगली उठाते हैं तो तीन उंगलियां अपनी और रहती हैं।
गौर करके देख ले दूसरों पर अंगुश्तनुमा वाले । ।
क्योंकि झुकती है तीन उंगलियां अपनी ही तरफ। ।
दोनों मंत्रों में नेत्र अंतःकरण और वाणी के दोषों को दूर करने की ओर संकेत किया है। नेत्रों का दोस्त है कामवासना को भटकाने वाला दृश्य का देखना। हम अपनी आंखों से कामवासना भड़काने वाले दृश्यों को ना देखें। कामवासना को उत्तेजित करने वाले साहित्य को भी ना पड़े ताकि हमारे मन पर कामवासना का दुष्प्रभाव अंकित ना हो इसलिए वेद में कहा है :-
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: (ऋ.१/८९/८)
हे पूजनीय विद्वानों! हम आंखों से भद्र अर्थात कल्याणकारी दृश्यों को देखें।
वेद मंत्रों में दूसरा संकेत हृदय की ओर किया गया है। ह्रदय की त्रुटि से अभिप्राय ह्रदय की संकीर्णता और संकुचित से है। ह्रदय की विशालता ही इस त्रुटि को दूर कर सकती है।
तीसरा संकेत वाणी की त्रुटि की ओर किया गया है। इस संदर्भ में एक और विशेष बात है जिसकी और ध्यान देना आवश्यक है।
वह है वेद की शिक्षा :-
मां नींदति
निंदा मत करो ।
नींदा शब्द 'निदि कुत्सायाम्' और "निदृ कुत्सासन्निकषर्यो:" धातु से बनता है। इसका अर्थ है दोष लगाना। यहां अभिप्राय है किसी के दोषों की किसी की पीठ पीछे चर्चा ना क करना किसीके पीठ पीछे उसके दोषों की चर्चा करने की प्रवृत्ति सर्वथा समाप्त तो नहीं हो सकती किंतु जो आध्यात्मिक दृष्टि से उचें उठना चाहे उन्हें चाहिए कि वह यथासंभव दूसरों के दोषों की चर्चा उसकी पीठ पीछे ना करें।
निंदा की परिभाषा करते हुए महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज ने लिखा है जो मिथ्या जान मिथ्या भाषण झूठ में आग्रह आदि क्रिया हैं जिससे कि गुण छोड़कर उसके स्थान में अवगुण लगाना होता है।
महर्षि दयानंद जी महाराज ने सत्यार्थ प्रकाश के चौथे समुल्लास में इस प्रकार लिखा है, सत पुरुषों को योग्य है कि मुख के सामने दूसरे का दोष कहना और अपना दोष सुनना , परोक्ष में दूसरों के गुण सदा कहना । और दुष्टों की ही रीति है की सम्मुख में गुण कहना और परोक्ष में दोषों का प्रकाश करना । जब तक मनुष्य दूसरे से अपने दोष नहीं सुनता व कहने वाला नहीं कहता तब तक मनुष्य दोषों से छूटकर गुणी नहीं हो सकता।
इसके अनुसार किसी के अवगुणों की चर्चा उस व्यक्ति के सम्मुख ही करनी चाहिए गुणों की चर्चा पीठ पीछे करनी चाहिए। इससे समाज मैं पारस्परिक प्रेम बढ़ता है, घृणा, द्वेष और कलह समाप्त होते हैं। शिक्षा पर आचरण करने का यही व्यापारिक लाभ है।
निंदा और स्तुति की परिभाषा देते हुए स्वामी दयानंद जी महाराज ने कहा है कि किसी के गुणों को दोष देना और किसी के दोषों को गुण कहना निंदा कहलाती है। गुणों को गुण कहना और दोष को दोष कहना स्तुति कहलाती है।
दूसरों के दोस्त देखने की प्रवृत्ति लोगों में प्राय पाई जाती है परंतु लोग अपने दोस्त नहीं देखते।
लोगों को अपने दुर्गुणों का आभास नहीं होता वह दूसरों के अवगुण देखने में बहुत कुशाग्र होते हैं ।
मनुष्य अपने अवगुण से परिचित नहीं होता जैसे अपने मुंह से नाक में कम सुगंध आती है।
जो मूर्ख विद्वान की निंदा करता है तो उस से उस की हानि होती है विद्वान कि नहीं ।
* एक व्यक्ति के बारे में मशहूर हो गया कि उसका चेहरा बहुत मनहूस है। लोगों ने उसके मनहूस होने की शिकायत राजा से की। राजा ने लोगों की इस धारणा पर विश्वास नहीं किया लेकिन इस बात की जांच खुद करने का फैसला किया। राजा ने उस व्यक्ति को बुलाकर अपने महल में रखा और एक सुबह स्वयं उसका मुख देखने पहुंचा। सहयोग से व्यस्तता के कारण उस दिन राजा भोजन नहीं कर सका। अतः इस नतीजे पर पहुंचा कि उस व्यक्ति का चेहरा सचमुच मनहूस है । उसने जल्लाद को बुलाकर उस व्यक्ति को मृत्युदंड देने का हुक्म सुना दिया। जब मंत्री ने राजा का हुक्म सुना तो पूछा महाराज इस निर्दोष को क्यों मृत्यु दंड दे रहे हैं राजा ने कहा है मंत्री यह व्यक्ति वास्तव में मनहूस है आज सर्वप्रथम मैंने इसका मुख देखा तो मुझे दिन भर भोजन भी नसीब नहीं हुआ। इस पर मंत्री ने कहा, महाराज क्षमा करें , प्रातः इस व्यक्ति ने भी सर्वप्रथम आपका मुख देखा आपको तो भोजन नहीं मिला लेकिन आपके मुख दर्शन से तो इसे मृत्यु दंड मिल रहा है अब आप निर्णय करें कौन अधिक मनहूस है । राजा चुप रह गया। उसने इस दृष्टि से तो सोचा ही नहीं था राजा को" किंकर्तव्यविमूढ़" देकर मंत्री ने कहा राजेंद्र किसी भी व्यक्ति का चेहरा मनहूस नहीं होता यह तो भगवान की देन है। मनहूसियत हमारे देखनी है सोचने के ढंग में होती है। आप कृपा कर इस व्यक्ति को मुक्त कर दें। राजा ने उसे मुक्त कर दिया। उसे सही सलाह मिली।
हम अपने दोस्तों को देखते हुए मन को स्वस्थ और उज्ज्वल बना सकते हैं।
एक संत अपने काफिले के साथ एक जंगल से गुजर रहे थे। दोपहर हुई। संत ने सुरक्षित स्थान पर पड़ाव डाला। खाना बनाने की तैयारी शुरू हो गई। इंधन चाहिए था। आसपास झाड़ियां नहीं थी। लकड़ियों का मिलना मुश्किल था। कुछ सोच विचार कर संत ने सभी साथियों को आदेश दिया इधर उधर जाओ और लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़े तिनके बगैरह इकट्ठे कर लाओ। सभी सदस्य जंगल में यहां-वहां लकड़ियां बटोरने में लगे। फिर लौटे और अपनी-अपनी बटोरी लकड़ियां संत के सामने डाल दी। लकड़ियों का ढेर लग गया। ढेर की ओर संकेत करते हुए संत बोले देखो ध्यान पूर्वक खोजने से लकड़ियों का ढेर लग गया है इसी प्रकार अगर व्यक्ति अपनी छोटी-छोटी बातों पर गौर करें तो वह ढेर-सी नजर आएंगी। जैसे इन लकड़ियों को जलाकर हम भोजन तैयार कर सकते हैं, उसी प्रकार इन भूलों को नष्ट कर हम अपने मन को स्वस्थ और उज्जवल भी बना सकते हैं ।