🙏ओ३म् 🙏
धर्म और राजनीति
हमारे देश के कुछ सत्तासीन नेता तथा अन्य भी कई महानुभाव यह कहते हुए नहीं थकते कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिये। ऐसे नेताओं तथा अन्य महानुभावों से मेरा यह प्रश्न है कि आजकल राजनीति में धर्म है ही कहाँ जिसे अलग करने के लिये वे इतना शोर मचाते हैं।
आज विडंबना यह है कि अधिकाँश धर्म के ठेकेदारों तथा धर्म का विरोध करने वालों को यही पता नहीं कि धर्म किसे कहते हैं। केवल बाह्याड़म्बरों, पूजा-पद्धतियों, सम्प्रदाय विशेष के नियमों को ही धर्म मान कर विषमता का विष फैलाने में लगे रहते हैं। महर्षि मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म के दस लक्षण धैर्य, क्षमा, मन को वश में रखना, चोरी न करना, अन्तःकरण तथा बाहर से शरीर को शुद्ध रखना, इन्द्रियों का निग्रह, बुद्धिपूर्वक कार्य करना, विद्या की वृद्धि करना, सत्य बोलना, क्रोध न करना, किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्ध नहीं रखते। ये गुण प्रत्येक मानव को धारण करने योग्य हैं। वास्तव में मानवता की इन्हीं गुणों से पहचान होती है। ये गुण सार्वभौमिक हैं, देश, जाति, मज़हब से इनका कोई सम्बन्ध नहीं। किन्तु हमारे देश के कुछ राजनेता सम्प्रदायों की पूजा पद्धति को ही धर्म का नाम देकर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये जन भावनाएँ भड़काने से नहीं चूकते। विभिन्न उपासना पद्धति को धर्म का नाम देने वाले पद लोलुप नेता आज अपने को धर्म निरपेक्ष कहलाने में गौरव समझते हैं। धर्म निरपेक्षता का अर्थ है- धैर्य न रखना, क्षमा शील न होना, मन को वश में न रखना, सत्य न बोलना, चोरी को बुरा न समझना, क्रोध करना, वैर भाव रखना, लालची होना इत्यादि। सत्य तो यह है कि धर्म निरपेक्षता की यहपरिभाषा आज के अधिकाँश राजनीतिज्ञों तथा राजनीति पर चरितार्थ हो रही है जो राजनेता मंच पर खड़े होकर देश हित की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं आज वही आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। कहीं चारा घोटाला, कहीं चीनी घोटाला, कहीं शेयर घोटाला, कहीं बोफोर्स कांड, कहीं टेलीकाम काँड, सत्ताधारी लोग कर रहे हैं। जब शासक वर्ग ही स्वार्थ लिप्सा में अंधा होकर देश को लूटने में लगा हो तो 'यथा राजा तथा प्रजा' के अनुसार प्रजा भी वैसी ही होगी। यही कारण है कि आज हमारा राष्ट्र संकटों से घिरा हुआ है। देश के अन्दर विधर्मी मज़बूत मोर्चा बनाये हुए हैं। देश की रक्षा के गम्भीर राज़ बेचने वाले देशद्रोही जहाँ-तहाँ गुप्त स्थानों पर छुपे बैठे हैं। कोई देशद्रोही पकड़ा भी जाता है तो उस पर वर्षों तक मुकदमे चलते हैं, तत्काल कोई दण्ड नहीं मिलता। कुछ दिनों तक समाचार पत्रों में चर्चा चलती है, फिर बात ठण्डी पड़ जाती है, जिसके कारण देशद्रोही गद्दारों का हौसला बढ़ता है। घुसपैठियों के लिये भारत देश एक सस्ती सराय बना हुआ है। इस धर्मनिरपेक्ष राज्य में हर व्यक्ति को अपने धर्म का प्रचार करने की खुली छूट है। धर्म परिवर्तन के लिये बेइन्तहा पेट्रोडालर धन कई नाजायज रूपों से भारत आता रहता है। ये बातें सरकार अच्छी तरह जानती हैं परन्तु वोट व कुर्सी के लालच में आँख मूँदे रखती है। विद्रोही ताकतें सरकार को धमकियाँ देती रहती हैं। सरकार राष्ट्रविरोधी शक्तियों को कुचल देने के बयान देकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेती है।
उधर भारत की सीमाओं पर चहुँओर खतरे मंडरा रहे हैं। उत्तर पश्चिम में पाकिस्तान अमेरिका की शह पर दनदना रहा है। धड़ाधड़ आधुनिकतम हथियारों के भंडार वह इकट्ठे कर रहा है। आतंकवादियों को पैसा प्रशिक्षण तथा हथियार वह दे रहा है। काश्मीर की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। साम्प्रादियक दंगे और हिंसा जगह-जगह रह-रह कर भड़क रही है। इन दंगों में हिंसा भड़काने वाले तत्व साफ बच निकलते हैं और निर्दोष मारे जाते हैं जैसा कि अभी गुजरात में हुआ है।
हिन्दुओं का धर्म व पुरुषार्थ धन इकट्ठा करने के सिवा कुछ नहीं। मकान तो बहुत सुन्दर आलीशान बना लिये, परन्तु रक्षा का साधन कुछ नहीं। परिणामस्वरूप जहाँ विधर्मी ताकत में होते हैं वहीं आये दिन दंगे होते हैं। मंदिर तोड़े जाते हैं, आगजनी व कत्ल होते हैं और फिर पलायन करते हैं। बैंक लूटे जाते हैं। बस के यात्रियों को गोली से भून दिया जाता है। पुलिस अधिकारी तथा उसकी संतान तक को मार दिया जाता हैं फिर भी अपराधी पकड़ में नहीं आते। चहुँ ओर अराजकता फैली हुई है। अबसे 50-60 वर्ष पहले कोई महिला सोने चाँदी के आभूषणों से सुसज्जित होकर रात्रि में भी यदि कहीं चली जाती तो उसे कोई भय नहीं था, किन्तु आज दिन में ही नारी की इज्जत सुरक्षित नहीं है। चारों ओर छीना झपटी लूट खसोट मची हुई है। मानव जीवन का कोई मूल्य नहीं रह गया है। सरकारी उच्च पदों पर बैठे हिन्दु केवल नाम के हिन्दु हैं। उन्हें अपने गौरवमय इतिहास का ज्ञान नहीं। अपनी संस्कृति का ज्ञान नहीं। अपने सिद्धान्तों पर कभी चिन्तन मनन नहीं किया। यह कान्वेंट्स (Convents) की उपज हैं। पश्चिमी सभ्यता के साँचे में ढ़ले अपने देश, धर्म तथा संस्कृति की रक्षा नहीं कर सकते। जब तक वैदिक संस्कृति, सभ्यता तथा धर्म से अनुप्राणित राज्याधिकारी नहीं होंगे तब तक हमारा राष्ट्र कदापि समुन्नत नहीं हो सकेगा। वेद कहता है
इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। अपघ्नन्तो अराव्णः
हे कर्मठ ज्ञानी जनों! (इन्द्रं ) राज्य ऐश्वर्य को (वर्धतः) बढ़ाते हुए एवं (अराव्णः) कृपण, मिथ्या भाषण एवं छल कपटादि करने वाले जनों को (अपघ्नन्तः) नष्ट करते हुए (विश्वं) संसार को ( आर्य) श्रेष्ठ (कृणवन्तः) करो ।
इस मन्त्र में ऐश्वर्य को बढ़ाते हुए श्रेष्ठ पुरुषों की वृद्धि तथा दुष्ट जनों के विनाश का विधान किया है। किन्तु आज दुष्ट जनों की वृद्धि हो रही है। आज भारत में चहुँ ओर भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, चोर बाज़ारी, अण्डे, माँस, मदिरा, बीड़ी, सिगरेट, गुटखा, चरस, अफीम, भांग, गांजा आदि स्वास्थ्य एवं बुद्धि नाशक पदार्थों का सेवन, निर्दोष मूक गौ आदि पशुओं का वध, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-बहन के परस्पर मुकद्दमे, महिलाओं से बलात्कार, दूरदर्शन पर नग्न चित्र, अश्लील गान, भौंडे प्रदर्शन आदि दुष्कर्म हो रहे हैं। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे देश ने भौतिक स्तर पर बहुत उन्नति की है किन्तु नैतिकता का निरन्तर हास होता जा रहा है।
महर्षि दयानन्द और राजनीति
युग प्रवर्तक महर्षि दयानन्द जी महाराज ने कभी कहीं राजनीति की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने राजनीति को धर्म का एक अंग माना है। राजनीति को उन्होंने राजधर्म कहा है और इसके लिये उन्होंने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में एक पूरा राजनीति विषयक छटा समुल्लास लिखा है। वे एक तन्त्र निरंकुश राज्य शासन को स्वीकार नहीं करते हैं। उन्होंने वेद मंत्रों का उद्धरण देते हुए लिखा है
त्रीणि राजाना विदथे पुत्रण परि विश्वानि भूषथः सदांसि ।(ऋ मं० 3 सू° 38 मन्त्र 6 )
तीन सभाएँ अर्थात् विद्यार्य सभा, धर्मार्य सभा, राजार्य सभा होनी चाहिये। राजा जो सभापति, तदाधीन सभा, सभाधीन राजा और सभा प्रजा के आधीन और प्रजा राज सभा के आधीन रहे। इस प्रकार महर्षि द्वारा प्रस्तुत राज्य व्यवस्था में प्रजातन्त्र के दोषों की सम्भावना नहीं है। महर्षि ने राजा और प्रजा की परिभाषा इस प्रकार की है।
"राजा उसको कहते हैं जो शुभ गुण कर्म स्वभाव से प्रकाश मान, पक्षपात रहित न्याय धर्म की सेवा, प्रजाओं में पितृवत् वर्ते और उनको पुत्रवत् मान के उनकी उन्नति और सुख बढ़ाने में सदा यत्न किया करे।" ( स०प्र० स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश 16 )
"प्रजा उसको कहते हैं कि जो पवित्र गुण कर्म स्वभाव को धारण करके पक्षपात रहित न्याय धर्म के सेवन से राजा और प्रजा की उन्नति चाहती हुई राज विद्रोह रहित राजा के साथ पुत्रवत् वर्ते।" (स०प्र० स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश 18 )
सभासदों की योग्यता
महाविद्वानों को विद्यासभाऽधिकारी, धार्मिक विद्वानों को धर्म सभाऽधिकारी, प्रशंसनीय धार्मिक पुरुषों को राज सभा के सभासद और जो उन सब में सर्वोत्तम गुण, कर्म, स्वभाव युक्त महान पुरुष हो उसको राजसभा का पतिरूप मान के सब प्रकार से उन्नति करें। तीनो सभाओं की सम्मति से राजनीति के उत्तम नियम और नियमों के आधीन सब लोग वर्ते, सबके हित कारक कामों में सम्मति करें सर्व हित करने के लिये परतन्त्र और धर्म युक्त कामों में अर्थात् जो जो निज के काम हैं उनमें स्वतंत्र रहें। (स०प्र० षष्ठ समुल्लास)
मन्त्रियों की योग्यता
स्व राज्य स्व देश में उत्पन्न हुए, वेदादि शास्त्रों के जानने वाले, शूर वीर, जिनका लक्ष्य अर्थात् विचार निष्फल न हो और कुलीन अच्छे प्रकार सुपरीक्षित सात वा आठ उत्तम धार्मिक चतुर "सचिवान्' अर्थात् मन्त्री करे। (मनु० 6/24)
प्रजा पालन राजा का धर्म
राजा का परम धर्म प्रजा का पालन करना है सभा जैसा कर नियत करे उसका भोक्ता राजा धर्म से युक्त होकर सुख पाता है, इससे विपरीत दुख को प्राप्त होता है। जैसे जोंक, बछड़ा और भँवरा थोड़े-2 योग्य पदार्थ को ग्रहण करते हैं वैसे राजा प्रजा से थोड़ा-2 वार्षिक कर लेवे। जो राजा मोह से, अविचार से अपने राज्य को दुर्बल करता है वह राज्य और अपने बन्धु सहित जीवन से पूर्व ही शीघ्र नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। प्रजा के धनाढ्य आरोग्य खान पान आदि से सम्पन्न रहने पर राजा की बड़ी उन्नति होती है। प्रजा को अपने सन्तान के सदृश सुख देवे और प्रजा अपने पिता सदृश राजा और राज पुरुषों को जाने। यह बात ठीक है कि राजाओं के राजा, किसान आदि परिश्रम करने वाले हैं और राजा उनका रक्षक है जो प्रजा न हो तो राजा किसका?
और राजा न हो तो प्रजा किसकी कहावे? दोनों अपने 2 काम में स्वतंत्र और मिले हुए प्रीति युक्त काम परतन्त्र रहें। प्रजा की साधारण सम्मति के विरुद्ध राजा वा राज पुरुष नहीं, राजा की आज्ञा के विरुद्ध राज पुरुष न चलें
स्वराज्य महिमा
महर्षि दयानन्द जी ने सर्वप्रथम स्वराज्य का उद्घोष करते हुए लिखा है- कोई कितना ही करें परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत मतान्तर के आग्रह रहित अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।
राजा धार्मिक हो
राजा के जीवन में धर्माचरण भी होना चाहिये। क्योंकि जब तक मनुष्य धार्मिक रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता है और जब दुष्टाचारी होते हैं तब नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। अतः राजा, सभा जन तथा प्रजा के साथ धर्म युक्त व्यवहार करें। जो विद्वान अत्यन्त बलशाली भुजाओं वाला, महाबुद्धिमान और विशेष रूप से धार्मिक होता हुआ ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये निरन्तर पुरुषार्थ करता है, वह ऐश्वर्य पाकर फिर सारी प्रजा को धर्म में प्रविष्ट करके यज्ञ के समान सदा सुख पहुँचाता है।"
यथोचित न्याय तथा दण्ड व्यवस्था जिस प्रकार परमेश्वर सभी जीवों को उनके कर्मानुसार यथायोग्य फल देता है, इसी प्रकार राजा भी धर्मात्माओं को सुख तथा दुष्टों को दण्ड देकर पक्षपात रहित उचित न्याय से राज्य में सुख शान्ति की स्थापना करे। दण्ड के सम्बन्ध में मनु महाराज कहते हैं
दण्ड: शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति । दण्ड: सुप्तेषु जागर्त्ति दण्डं धर्म विदुर्बुधाः ।। (मनु० 9/18)
दण्ड ही प्रजा का शासनकर्त्ता, सब प्रजा का रक्षक, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है। इसीलिये बुद्धिमान लोग दण्ड ही को धर्म कहते हैं।
दण्ड से हानि लाभ
समीक्ष्य स धृतः सभ्यक् सर्वा रंजयति प्रजाः । असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वतः ।। मनु 6/18
जो दण्ड अच्छे प्रकार विचार से धारण किया जाये तो वह सब प्रजा को आनन्दित कर देता है और जो बिना विचार चलाया जाये तो सब ओर से राजा का विनाश कर देता है।
चक्रवर्ती और माण्डलिक दो राजा
इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा तौ भक्षं चक्रतुरग्र एतम् ।। (यजु अ 8 में 36 द°भा )
प्रजा के बीच अपनी-2 सभाओं सहित राजा होने के योग्य दो (पुरुष) होते हैं, एक चक्रवर्ती अर्थात् एक चक्रराज करने वाला और दूसरा माण्डलिक कि जो मण्डल का ईश्वर (राजा) हो। ये दोनों प्रकार के राजा जन उत्तम न्याय, नम्रता, सुशीलता और वीरतादि गुणों से प्रजा की रक्षा अच्छे प्रकार करे। फिर उन प्रजा जनों से यथायोग्य कर लेवें और सब व्यवहारों में विद्या की वृद्धि सत्यवचन का आचरण करें। इस प्रकार धर्म, अर्थ और कामनाओं से प्रजाजनों को संतोष देकर आप संतोष पावें। आपत्काल में राजा प्रजा की तथा प्रजा राजा की रक्षा कर परस्पर आनन्दित हों।
धार्मिक ही चक्रवर्ती राज्य के योग्य
एषते निर्ऋते भागस्तं जुषस्व स्वाहा अग्नि नेत्रेभ्यो देवेभ्यः पुरः सद्भ्यः स्वाहा ।। (यजु० अ० 9 मं० 35 द०भा० )
जिसकी सभा वा राज्य में पूर्ण विद्या युक्त धार्मिक मनुष्य सभासद वा कर्मचारी होते है और जिसकी सभा वा राज्य में मिथ्यावादी, व्यभिचारी, अजितेन्द्रिय, कठोर वचनों के बोलने वाले अन्यायकारी, चोर और डाकू आदि नहीं होते और आप भी इसी प्रकार का धार्मिक होता है। वही पुरुष चक्रवर्ती राज्य करने के योग्य होता है। इससे विरुद्ध नहीं। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने वेद भाष्यादि ग्रन्थों में माण्डलिक एवं चक्रवर्ती राज्य एवं राजा के कर्त्तव्यों को सहस्रों स्थानों पर वर्णन किया है, किन्तु यहाँ विस्तार भय से अति संक्षेप में राज धर्म विषयक लिखा गया है। अधिक जानने के लिये मनुस्मृति सप्तम् अष्टम् नवम् अध्याय, विदुरनीतिप्रजागर, शुक्रनीति कौटिल्य अर्थ शास्त्र, तथा महाभारत शान्ति पर्व के राज धर्म का अध्ययन करें।
इति ओ३म् शम्
शास्त्री हरी आर्यः