धर्म और विज्ञान

                     


🙏ओ३म् 🙏

              धर्म और विज्ञान


यो विद्यात् सूत्रं विततं यस्मिन्नोताः प्रजा इमाः ।

सूत्रं सूत्रस्य यो विद्यात् स विद्यात् ब्राह्मणं महत् ।। अथर्व वेद 10/8/36 

अर्थ (यः) जो मनुष्य (तत् विततम् सूत्रम्) उस तने हुए सूत्र को (विद्यात्) जान ले (यस्मिन्) जिस सूत्र में (इमा: प्रजाः) ये सब लोक-लोकान्तर तथा उत्पन्न हुई वस्तुएँ (ओता:) ओत-प्रोत अर्थात् माला के दानों के समान पिरोई हुई हैं और (यः) जो पुरुष (सूत्रस्य सूत्रम्) इस सूत्र के भी सूत्र को (विद्यात्) जान ले (स) वही मनुष्य (महत् ब्राह्मणम्) बड़े ब्रह्म को (विद्यात्) जान पाएगा।

कुछ लोगों का मानना है कि धर्म का विज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं। धर्म को विज्ञान का शत्रु समझते हैं। किन्तु यह धर्म को विज्ञान के विरुद्ध समझने की भ्रान्ति अकारण नहीं है। पिछले इतिहास को देखने से पता चलता है कि धर्म नामधारी लोगों ने वैज्ञानिकों पर अनगिनत अत्याचार किये हैं। उन्हें अनेकों प्रकार की यातनाएँ दी गईं। ईसाई जगत बाइबिल के आधार पर लम्बे समय तक यह मानता रहा कि पृथ्वी केन्द्र है और सूर्य उसकी चारों ओर परिक्रमा करता है। आगे चलकर विज्ञान के प्रकाश में गैलिलियों ने इस मान्यता का खंडन किया और कहा कि यह मान्यता बुद्धि विरुद्ध है। आकार की दृष्टि से सूर्य की तुलना में पृथ्वी ऐसे ही है जैसे एक विशाल पर्वत के सामने राई का दाना । यदि कोई कहे कि एक विशाल पर्वत राई के दाने जैसे केन्द्र की परिक्रमा करता था तो सुनकर लोग हँसेंगे, क्योंकि सरलता और स्वाभाविकता इसी में है कि छोटी वस्तु बड़ी वस्तु के गिर्द घूमे। गैलिलियो की इस बात को सुनकर ईसाइयों की दुनिया में तहलका मच गया। यह उसका धर्मग्रन्थ के विरुद्ध बहुत बड़ा अपराध समझा गया और उसे 10 वर्ष कठोर कारावास का दण्ड दिया। धर्म का नाम लेकर ही ब्रोनो को जीवित अग्नि में जला दिया गया। देवी हाई पेशिया को बुरी तरह से मार दिया गया क्योंकि उसने गैलिलियों की बात का अनुमोदन किया था। इसी प्रकार अनेकों वैज्ञानियों को धर्म का विरोधी समझा जाने के कारण नाना प्रकार की अमानुषिक यन्त्रणायें दी गईं। किन्तु सच्चाई यह है कि धर्म और विज्ञान का परस्पर कोई विरोध नहीं अपितु दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। प्रो० हक्सले ने धर्म और विज्ञान दोनों पर विचार करते हुए कहा है

The True Science and the True Religion are Twin Sis ters their separation is a sure cause of death to both.

अर्थात् सच्चा विज्ञान और सच्चा धर्म दो जुड़वाँ बहिनें हैं उनका एक दूसरे से पृथक करना दोनों के नाश का कारण है।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है, मानव को इहलौकिक उन्नति करते हुए पारलौकिक उन्नति का भी प्रयास करना चाहिये। इसी में मानव जीवन की पूर्णता एवं सार्थकता है। धर्म और विज्ञान इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं।

विज्ञान हमें ब्रह्माण्ड का ज्ञान कराता है, धर्म आत्मा तथा ब्रह्म का ज्ञान प्रदान करता है। विज्ञान हमें शारीरिक सुख प्रदान करता है जबकि धर्म आत्मिक आनन्द की प्राप्ति कराता है। विज्ञान हमें बताता है कि इस ब्रह्माण्ड की रचना कैसे हुई, कब हुई, इसके उपादान कारण क्या है, इसके निर्माण में किन-2 पदार्थों का मेल हुआ, किन्तु धर्म हमें बताता है इस ब्रह्माण्ड की रचना किसने की और क्यों की।

विज्ञान हमें ब्रह्माण्ड का ज्ञान कराता है और धर्म हमें ब्रह्म का ज्ञान देता हैं। विज्ञान भौतिक विकास करता है तथा धर्म आध्यात्मिक विकास करता है। विज्ञान के द्वारा हम नये-2 आविष्कार करके उसके सदुपयोग से सुख प्राप्त कर सकते हैं और दुरुपयोग से हानि भी उठा सकते हैं किन्तु धर्म मानव को सुख शान्ति तथा आनन्द की ओर ही ले जाता हैं।

विज्ञान हमें नियम का ज्ञान कराता है, परन्तु धर्म नियामक का बोध कराता हैं। विज्ञान के नियमों को वैज्ञानिक बनाता नहीं अपितु खोज करता है। उदाहरणार्थ-विज्ञान का एक नियम यह है कि आक्सीजन का एक कण जब हाइड्रोजन के दो कणों से मिलता है तो पानी बन जाता है। इसको "एच टू ओ" (H,O) कहते हैं। जो वैज्ञानिक जल पर अनुसंधान करेगा उसे सर्वत्र यही नियम दिखाई देगा। इस नियम को वैज्ञानिको ने बनाया नहीं अपितु खोजा है। नियम बनाने वाला ईश्वर है, जिसके सम्बन्ध में उपरोक्त वेद मंत्र में कहा-"जो पुरुष इस सूत्र के भी सूत्र को जान ले वही मनुष्य बड़े ब्रह्म को जान पायेगा।"

आज विज्ञान के क्षेत्र में मानव ने आश्चर्यजनक उन्नति की है। नित नये 2 आविष्कार हो रहे हैं। वायुयान के द्वारा हम घंटों की यात्रा मिनटों में तय कर लेते हैं। घर में बैठे हुए दूरदर्शन पर वक्ता के दर्शन एवं उसके वक्तव्य का श्रवण सुगम हो गया है। इंटरनेट के माध्यम से सारे संसार की जानकारी घर में ही मिल रही है। मोबाईल के द्वारा कहीं भी व्यक्ति से संपर्क किया जा सकता है। फैक्स तथा ई-मेल के द्वारा लिखित विचारों को भेजने मे अब कुछ भी समय नहीं लगता। वस्त्र प्रक्षालन का कार्य मशीनों द्वारा हो रहा है। रोटी सेंकने के लिये सौर ऊर्जा से संचालित चूल्हे भी घरों में आ गये हैं। अन्न को सुखाने का यंत्र तथा आटा पीसने की चक्की भी विज्ञान की ही देन है। विज्ञान के कारण ही मानव चन्द्रमा पर पहुँचकर वहाँ की मिट्टी का अध्ययन अपनी प्रयोगशालाओं में कर रहा है। विज्ञान के कारण ही कृत्रिम उपग्रहों में बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है। मंगल ग्रह तथा अन्य ग्रहों में भी जाने की योजना बना रहा है। चिकित्सा के क्षेत्र में भी विज्ञान का अभूतपूर्व योगदान हैं। मलेरिया तथा क्षय रोग जैसे असाध्य रोगों पर काबू पाया गया है। मस्तिष्क तथा हृदय का सफल आपरेशन विज्ञान के कारण ही सम्भव हो पाया हैं। कई धर्मावलम्बी वक्ता मंच पर बैठकर विज्ञान को कोसते रहते हैं। वे कहते हैं कि विज्ञान मनुष्य को नास्तिकता के गहन गर्त में गिरा रहा है। यह विज्ञान विनाश का कारण तथा सारे अनथों की जड़ है। परन्तु जिस विज्ञान पर यह महानुभाव दोषारोपण करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि जिस कूलर तथा पंखे की ठंडी हवा का वे आनन्द ले रहे हैं, जिस माइक्रोफोन पर वे भाषण दे रहे हैं तथा जिस विद्युत के दूधिया प्रकाश में रेशमी वस्त्र पहन कर विभिन्न हावभावों द्वारा श्रोताओं को आकर्षित कर रहे हैं, यह सब विज्ञान की ही तो देन है।


वेद कहता है :-

विष्णो: कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्य: सखा ।। ऋग्वेद 1/22/19

"हे लोगों ! विष्णु के कर्मों को देखो, जिन कर्मों को देख कर मनुष्य अपने व्रतों को पालन करने में सफल होता है। विष्णु इन्द्र का सबसे योग्य सखा है।" मानव उस प्यारे प्रभु की रचना को देख कर ही तो उसका अनुकरण करता है। उसने बगीचे में लाल, पीले, हरे, नीले नाना प्रकार के रंग बिरंगे फूलों को देखकर नाना प्रकार के रंगों को बनाया। आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को देख कर वायुयान का निर्माण में किया। जल में मछली को तैरते देखकर नौकाओं की रचना की। प्रभु द्वारा रचित सृष्टि का अनुकरण ही तो विज्ञान का आधार है। परन्तु विज्ञान की सार्थकता तभी है जब मनुष्य स्व विवेक द्वारा प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ का उचित उपयोग करके लाभ प्राप्त करता हो। यदि वह प्रकृति के पदार्थ का दुरुपयोग करता है तो लाभ के स्थान पर हानि होगी। प्रभु प्रदत्त आणविक शक्ति पहले से ही विद्यमान थी, विज्ञान ने उसकी खोज की, उस शक्ति से मनुष्य अपना तथा दूसरों का विध्वंस कर सकता है और चाहे तो मानव कल्याण के लिये उपयोग में ले सकता है। अफीम और संखिया जैसी नशीली तथा विषैली वस्तुएँ भी सृष्टि में हैं, एक चतुर वैद्य इनसे मानव हितकारी औषधियों का निर्माण करता है किन्तु मूर्ख आदमी इन्हें खाकर अपनी जान गँवा बैठता है। बुद्धिमान व्यक्ति चाकू से फल काट कर अपना कार्य सिद्ध करता है। किन्तु मूर्ख आदमी उससे उँगली काट कर दुखी होता है। उपरोक्त वेद मंत्र हमें यही शिक्षा देता है कि उस ईश्वर की रचना को गहराई से देखो, और उससे बुद्धिपूर्वक कर्त्तव्याकर्त्तव्य को जानकर अपने व्रतों का पालन करो, अर्थात् अपने कर्तव्य पालन के प्रति जागरूक हो जाओ। हमें यह समझ लेना चाहिये कि विज्ञान धर्म से कोई अलग वस्तु नहीं है। महर्षि कणाद के अनुसार अभ्युदय (साँसारिक उन्नति) धर्म का पहला अंग है और अभ्युदय (साँसारिक उन्नति) विज्ञान के बिना सम्भव नहीं। अतः आज संसार में विज्ञान के द्वारा धर्म के प्रथम अंग अभ्युदय की पूर्ति हो रही है। किन्तु आज का मानव जहाँ विज्ञान के द्वारा अभ्युदय की पूर्ति में लगा हुआ है वहाँ वह निःश्रेयस अर्थात् परलोक को भूल बैठा है।


भूल बैठा आदमी उस आसमानी बाप को ।

 बस खुदा समझा है उसने वर्क को और भाप को ।।


जब तक मनुष्य धर्म के द्वितीय अंग निःश्रेयस की ओर अग्रसर नहीं होगा तब तक धर्म की पूर्णता सिद्ध नहीं हो सकेगी। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि परम पिता परमात्मा ही परम वैज्ञानिक है। वही आनन्द का देने वाला है। उसको जानकर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता। उसकी शरण में जाकर ही परम गति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। आज हम पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण करके भ्रमित हो रहे हैं। बाहर की चकाचौंध में हृदय का दीपक बुझ रहा है। किसी शायर ने कहा है ।


अजब तमाशा है आज नूर मगरिब से, मशरिक को मिल रहा है अंधेरा छा जायेगा जहाँ में गर यही रोशनी रहेगी।

आइये हम संसार के अन्दर भौतिक उन्नति करते हुए जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर हों। इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।

              इति ओ३म् शम्

               शास्त्री हरी आर्यः 

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