🙏ओ३म् 🙏
वर्णाश्रम धर्मः
सुविज्ञ पाठकगण! आपने पूर्व के दो लेखों में वेद उपनिषद् मनुस्मृति आदि ग्रन्थों के आधार पर धर्म के वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास किया। परन्तु जानना और आचरण करना ये दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं। यदि धर्म को जानकर उसपर आचरण न किया जाये, तो जानना व्यर्थ हो जाता है। प्राचीन काल में आचार्य शिष्य को यही उपदेश देता था धर्मंचर धर्म का आचरण कर। अतः धर्म आचरण की चीज है। वास्तव में धर्म सबका एक ही है। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द जी कहते हैं- “ धर्म नाम न्यायाचरण। न्यायाचरण नाम पक्षपात छोड़ के वर्तना पक्षपात छोड़ना नाम सर्वदा अहिंसादि निर्वैरता सत्यभाषण आदि में स्थिर रहकर हिंसा, द्वेष आदि और मिथ्या भाषणादि से सदा पृथक रहना। सब मनुष्यों का यही एक धर्म है। किन्तु जो-जो धर्म के लक्षण वर्ण कर्मों में पृथक-पृथक आते हैं इसी से चार वर्ण पृथक-पृथक गिने जाते हैं। (संस्कार विधि गृ० प्र०)
न्यायाचरण, अहिंसा, निर्वैरता, सत्यभाषणादि ये सब साँझे के धर्म हैं। किन्तु जिस प्रकार यह हमारा शरीर चार भागों में बँटा हुआ है उसी प्रकार मानव समाज को समुन्नत करने हेतु गुण, कर्म स्वभावानुसार अपने-अपने कर्त्तव्य रूपी धर्म का पालन करने के लिये हमारे प्राचीन ऋषियों ने इसे चार भागों में विभाजित किया था।
ब्राह्मण
शरीर में जो स्थान मुख का है वही समाज में ब्राह्मण का है। आँख, नाक, रसना, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों का केन्द्र मुख है। मानव समाज में जो ज्ञान विज्ञान का प्रचार-प्रसार करके अज्ञानान्धकार को दूर करने में लगा रहता है वह ब्राह्मण कहलाता है जैसे मुख, गर्मी, सर्दी आदि को सदा खुला रहकर सहन करता है, इसी प्रकार ब्राह्मण को भी तपस्वी होना चाहिये। मनु महाराज ने ब्राह्मण के छः कर्त्तव्य इस प्रकार लिखे हैं- (1) वेदादि शास्त्रों का अन्यों को पढ़ाना (2) स्वयं विद्या को पढ़ना (3) अग्निहोत्रादि यज्ञ का करना (4) यज्ञ कराना (5) विद्या अथवा सुवर्ण आदि का सुपात्रों को दान देना (6) न्याय से धनोपार्जन करने वाले गृहस्थों से दान भी लेना।
इनमें से पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना धर्म तथा पढ़ाना, यज्ञ कराना, दान लेना जीविका है, परन्तु जो दान लेना है वह नीच कर्म है। किन्तु पढ़ाके और यज्ञ कराके जीविका करनी उत्तम है (मद कृत संस्कार विधि) ब्राह्मण को सदा संतोषी, निरभिमानी, धार्मिक, राग, द्वेष रहित, निन्दा स्तुति से दूर तथा सरल स्वभाव वाला होना चाहिये।
क्षत्रिय –
शरीर में जो स्थान बाहुओं का है, वही स्थान समाज में क्षत्रिय का है। जो अन्याय से संघर्ष करता हुआ समाज में न्यायपूर्वक प्रजा की रक्षा करता है, वह क्षत्रिय कहलाता है। महर्षि मनु ने क्षत्रिय का कर्त्तव्य इस प्रकार लिखा है
*प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च* । *विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः* ।।( मनु० 1/89)
दीर्घ ब्रह्मचर्य से (अध्ययनम्) साङ्गोपाङ्ग वेदादि शास्त्रों को यथावत् पढ़ना, (इज्या) अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना, (दानम्) सुपात्रों को विद्या सुवर्ण आदि और प्रजा को अभयदान देना, (प्रजानां रक्षणम्) प्रजाओं का सब प्रकार से सर्वदा यथावत् पालन करना, यह धर्म क्षत्रियों के धर्म के लक्षणों में और शस्त्र विद्या का पढ़ाना, न्यायघर और सेना में जीविका करना क्षत्रियों की जीविका है। (संस्कार विधि ऋषि दयानन्द कृत अर्थ) क्षत्रिय को सदा निर्भीकता, तेजस्विता, न्यायप्रियता, बुद्धिमत्ता, धीरता, जितेन्द्रियता आदि गुणों से युक्त होना चाहिये।
वैश्य
शरीर में जो स्थान उदर भाग का है वही स्थान समाज में वैश्य का है। जो व्यक्ति पशु पालन, खेती, व्यापार आदि से धन का उपार्जन करता हुआ समाज तथा राष्ट्र हित में खर्च करता हुआ समाज तथा राष्ट्र को धन-धान्य से समृद्ध बनाता है, उसे वैश्य कहते हैं। इस विषय में मनु महाराज कहते हैं
*पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च* । *वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च* ।। (मनु 1/90)
अर्थः (अध्ययनम्) वेदादि शास्त्रों का पढ़ना (इज्या) अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना (दानम्) अन्नादि का दान देना ये तीन धर्म के लक्षण और (पशूनां रक्षणम्) गाय आदि पशुओं का पालन करना, उनसे दुग्धादि का बेचना (वणिक्पथम्) नाना देशों की भाषा, हिसाब, भू गर्भ विद्या, भूमि बीज आदि के गुण जानना और सब पदार्थों के भावाभाव समझना (कुसीदम्) ब्याज का लेना * (कृषिमेव च) खेती की विद्या का जानना, अन्न आदि की रक्षा, खात और भूमि की परीक्षा, जोतना बोना आदि व्यवहार को जानना, ये चार कर्म वैश्य की जीविका के हैं। (संस्कार विधि ऋषि दयानन्द कृत अर्थ )
समाज तथा राष्ट्र में यदि किसी वस्तु का अभाव है तो उसे दूर करने का उत्तरदायित्व वैश्य का है। जिस प्रकार यदि शरीर का उदर भाग खाये पिये को संचित ही करता रहे, शरीर के अन्य अङ्गों में वितरण न करे तो अजीर्ण होकर व्यक्ति नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाता है, इसी प्रकार यदि वैश्य धन का उत्पादन, अर्जन करके वितरण के माध्यम से समाज को उन्नत नहीं करता तो उस समाज में असंतोष, अराजकता तथा विद्वेष की भावना व्याप जाती है और वह समाज दुर्बल तथा हर प्रकार से अवनति को प्राप्त हो जाता है।
शूद्र
जो विद्या ग्रहण करने में असमर्थ हो । ज्ञान-विज्ञान से रहित बुद्धिहीन हो । राज्य प्रबन्ध करने की क्षमता जिसमें न हो। जो कृषि, व्यापार आदि करने की योग्यता न रखता हो। शारीरिक परिश्रम द्वारा समाज की सेवा करके जो अपने जीवन का निर्वाह करता है वह शूद्र कहलाता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिये इन चारो वर्णों की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो समाज तथा राष्ट्र को समुन्नत करने के लिये शिक्षक, रक्षक, पोषक तथा सेवक इन चारों का योगदान आवश्यक होता है ।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि यह वर्ण-व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं अपितु गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर होती है। कुछ लोग जन्म के आधार पर जातिवाद के भेदभाव को फैलाकर समाज में घृणा, द्वेष तथा फूट के बीज बोकर अपने राजनैतिक अथवा अन्य स्वार्थ सिद्धि में लग गये। उन्होंने समाज की इतनी सुन्दर व्यवस्था प्रचलित करने वाले महर्षि मनु को ही कोसना प्रारम्भ कर दिया। मनु के भावों को वे समझ नहीं पाये। मनु महाराज ने समाज की सर्वाङ्गीण उन्नति का वर्ण व्यवस्था रूपी एक ऐसा ढाँचा प्रस्तुत किया है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार कार्यक्षेत्र का चुनाव करता है तथा अपने-अपने गुण कर्म स्वभाव के उन्नत या अवनत हो जाने पर शूद्र ब्राह्मण तथा ब्राह्मण शूद्र बन जाता है।
जिस प्रकार मानव समाज की उन्नति के लिये समाज को चार भागों में बाँटा गया है उसी प्रकार व्यक्तिगत उन्नति के लिये मानव जीवन को भी चार आश्रमों में विभाजित किया है।
ब्रह्मचर्य-
इसमें पच्चीस वर्ष तक घर के राजसिक वातावरण से दूर रह कर आचार्य कुल में ब्रह्मचर्य पूर्वक विद्याभ्यास करते हुए शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विकास किया जाता है। यह मानव जीवन रूपी भवन की नींव है। नींव जितनी मज़बूत होगी भवन भी उतना ही सुदृढ़ होगा। इस विषय में पहले लिखा जा चुका है।
गृहस्थ-
इसमें ब्रह्मचारी विद्या प्राप्ति के पश्चात् अपने गुण कर्म स्वभावानुसार सुयोग्य कन्या से विवाह करके कार्य क्षेत्र में पदार्पण करता है। धर्मानुसार सन्तानों की उत्पत्ति तथा नियत काल में पंच महायज्ञों (ब्रह्म यज्ञ, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ) को करता हुआ इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।
किसी मनुष्य को गृहस्थाश्रम के अनुष्ठान से भय नहीं करना चाहिये, क्योंकि सब अच्छे व्यवहार वा सब आश्रमों का यह गृहस्थाश्रम मूल है इससे इस गृहस्थाश्रम का अनुष्ठान अच्छे प्रकार से करना चाहिये और इस गृहस्थाश्रम के बिना मनुष्यों की वा राज्यादि व्यवहारों की सिद्धि कभी नहीं होती (यजु० 3/41 ऋषि दयानन्द कृत भावार्थ )
अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में गृहस्थ की महिमा का बखान करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं - "इस लिये जितना कुछ व्यवहार संसार में है, उसका आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहाश्रम न होता, तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम कहाँ से हो सकते? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है।
इस सम्बन्ध में महर्षि मनु का कथन है जिस प्रकार समस्त जन्तु अपने जीवन के लिये वायु पर आश्रित रहते हैं। उसी प्रकार समस्त आश्रम गृहस्थ पर आधारित है। क्योंकि गृहस्थाश्रम ज्ञान तथा अन्न से तीनों आश्रमों की पालना करता है। इस लिये गृहस्थाश्रम अन्य तीनों आश्रमों की अपेक्षा ज्येष्ठ है। इस लिये जो मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो, वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धारण करे (मनु० 3/66-68) गृहस्थाश्रम को धारण करने के लिये किस प्रकार के गुण तथा योग्यता होनी चाहिये, इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द यजुर्वेद ( 8/31) मंत्र के भावार्थ में लिखते हैं इस बात का निश्चय है कि - ब्रह्मचर्य, उत्तम शिक्षा, विद्या, शरीर और आत्मा का बल, आरोग्य, पुरुषार्थ, ऐश्वर्य, सज्जनों का संग, आलस्य का त्याग, यम नियम और उत्तम सहाय के बिना किसी मनुष्य से गृहाश्रम धारा नहीं जा सकता। इसके बिना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती। इसलिये इसका पालन सबको बड़े प्रयत्न से करना चाहिये।" गृहस्थाश्रम को चलाने के लिये धन ऐश्वर्य का होना अत्यन्त आवश्यक है। बिना धन के गृहस्थ नहीं चल सकता। अतः पुरुष को धन प्राप्ति के लिये पुरुषार्थ करना आवश्यक है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि धन का उपार्जन करना पुरुष का ही उत्तरदायित्व है, स्त्री का नहीं। अथर्व वेद (अथर्व 14/1/26) में पति के लिये पत्नी की कमाई खाने का निषेध किया गया है। विवाह संस्कार के समय वर प्रतिज्ञा करता है-ममेयमस्तु पोष्या मह्यं त्वादाद् बृहस्पतिः (अथर्व 14/1/52) यह वधू मेरी पोष्या-पालनीया है, इसके पालन-पोषण का उत्तरदायित्व मैं लेता हूँ। भगवान ने तुझे मुझको दिया है। विवाह संस्कार में सबके सामने प्रतिज्ञा करके विपरीत आचरण करना अशोभनीय है। इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि धन का उपार्जन न्यायपूर्वक होना चाहिये। अन्यायोपर्जित धन का परिणाम अन्ततः दुखदायी होता है। इस विषय में महात्मा विदुर जी का कथन है
एक: पापानि कुरूते फलं भुङ्क्ते महाजनः । भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्त्ता दोषेण लिप्यते ।। (महाभारत उद्योग पर्व अ 33/42)
"कुटुम्ब में एक पुरुष पाप करके पदार्थ लाता है और महाजन अर्थात् सब कुटुम्ब उसको भोगता है भोगने वाले दोष भागी नहीं होते किन्तु अधर्म का कर्त्ता ही दोष का भागी होता है"। गृहस्थ में सुखी जीवन के लिये पति-पत्नी में परस्पर प्यार, परस्पर सहयोग, परस्पर विश्वास तथा परस्पर एक दूसरे की भावनाओं को समझ कर व्यवहार करना भी अनिवार्य है। इसके बिना जीवन में मधुरता नहीं आ सकेगी। अतः गृहस्थ जीवन को सुखी बनाने के लिये गृहस्थ के कर्त्तव्य रूपी धर्म के पालन में सदा तत्पर रहना चाहिये।
वानप्रस्थ -
गृहस्थ के सभी कर्त्तव्यों को पूरा करने के पश्चात् पुत्र के भी पुत्र हो जाने पर गृह त्याग करके आत्मोन्नति, साधना तथा स्वाध्यायादि के लिये वन में जाकर रहने को वानप्रस्थ कहते हैं। इस विषय में मनु महाराज कहते हैं- गृहस्थ जब देखे कि सिर के बाल में श्वेत हो गये हैं, मुख पर झुरियाँ पड़ गई हैं तथा पुत्र के घर भी पुत्र हो गया है, तब गृहस्थ के कार्यों से मुक्त होकर आत्मिक उन्नति के लिये वन में जाकर रहे। ग्राम के सब राजसिक आहारों उत्तमोत्तम वस्त्रों तथा पदार्थों को छोड़ स्त्री को पुत्रों के पास छोड़ अथवा यदि उसकी साथ चलने की इच्छा हो तो उसे साथ लेके वन को जावे। नाना प्रकार के सामा आदि अन्न, सुन्दर-सुन्दर शाक, मूल, फल, फूल, कंद आदि से पञ्च महायज्ञों को करे और उसी से अतिथि सेवा और आप भी निर्वाह करे। स्वाध्याय अर्थात् पढ़ने-पढ़ाने में नित्य युक्त, जितात्मा, सबका मित्र, इन्द्रियों का दमनशील, विद्यादि का दान देने हारा और सब पर दयालु, किसी से कुछ भी पदार्थ न लेवे, इस प्रकार सदा वर्तमान करे। जो जंगल में पढ़ाने और योगाभ्यास करने हारे तपस्वी धर्मात्मा विद्वान् लोग रहते हों जो कि गृहस्थ व वानप्रस्थ वनवासी हों उनके घरों में से भिक्षा ग्रहण करे। (मनु० अ० 6 श्लो॰ 2.3.5.8.26 ऋद कृत अर्थ )
उपरोक्त मनुस्मृति के श्लोकों को देखने से अनुमान होता है कि जिस काल में इसकी रचना हुई उस काल में नगरों व ग्रामों के चारों और घने जंगल थे, उन जंगलों में हमारे भारत के ऋषि, मुनि, विरक्त, कुटिया बनाकर रहते थे। वे गृहस्थियों की संतानों को निःशुल्क शिक्षा देते थे। भिक्षा माँग कर अपने जीवन का निर्वाह करते थे तथा स्वाध्याय तपश्चर्या योगाभ्यास, आत्मचिन्तन द्वारा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते थे। वर्तमान में परिस्थितियाँ बदल गई है। अब वो अरण्य (जंगल) नहीं रहे, जिनमें कुटी बना कर रहा जा सके, क्योंकि आधुनिक सभ्यता की अंधी दौड़ में मानव ने प्रकृति का अत्यधिक दोहन किया है, जंगल सब काट डाले। जहाँ कहीं नगरों में वानप्रस्थाश्रम बने हैं, उनमें भी अधिकांश वे ही वृद्ध महानुभाव रह रहे हैं जो जीवन निर्वाह के लिये पेन्शन पाते हैं अथवा पुत्रादिकों से मासिक आर्थिक सहयोग मिल जाता है, केवल भिक्षावृत्ति से इस युग में जीवन निर्वाह कठिन है। वे जन धन्य है जो वर्तमान युग की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी तपस्या का जीवन व्यतीत करते हुए वानप्रस्थाश्रम मर्यादा का पालन करते हैं।
संन्यास
मोहादि आवरण, पक्षपात तथा अधर्म को छोड़कर परोपकारार्थ विरक्त होकर पृथिवी पर विचरण करना संन्यास कहलाता है (संस्कार विधि संन्यास प्रकरण)
महर्षि दयानन्द जी ने मनुस्मृति तथा जाबालोपनिषद् के आधार पर संन्यास के तीन प्रकार बताये हैं, जो इस प्रकार हैं
प्रथम प्रकार
जो वानप्रस्थ के आदि में कह आये हैं कि ब्रह्मचर्य पूरा करके गृहस्थ और गृहस्थ होके वनस्थ, वनस्थ होके संन्यासी होवे, यह क्रम संन्यास अर्थात् अनुक्रम से आश्रमों का अनुष्ठान करते-करते वृद्धावस्था में जो संन्यास लेना है उसी को क्रम-संन्यास कहते हैं।
द्वितीय प्रकार
जिस दिन दृढ़ वैराग्य प्राप्त होवे उसी दिन चाहे वानप्रस्थ का समय पूरा भी न हुआ हो अथवा वानप्रस्थ आश्रम का अनुष्ठान न करके गृहाश्रम से ही संन्यासाश्रम ग्रहण करे, क्योंकि संन्यास में दृढ़ वैराग्य और यथार्थ ज्ञान का होना ही मुख्य कारण है।
तृतीय प्रकार
यदि पूर्ण अखण्डित ब्रह्मचर्य, सच्चा वैराग्य और पूर्ण ज्ञान विज्ञान को प्राप्त होकर विषयासक्ति की इच्छा आत्मा से यथावत् उठ जावे, पक्षपात रहित होकर सबके उपकार करने की इच्छा होवे, और जिसको दृढ़ निश्चय हो जावे कि मैं मरणपर्यन्त यथावत् संन्यास धर्म का निर्वाह कर सकूँगा, तो वह न गृहस्थाश्रम करे न वानप्रस्थाश्रम किन्तु ब्रह्मचर्याश्रम को पूर्ण कर के ही संन्यासाश्रम को ग्रहण कर लेवे। (संस्कार वि संन्यास प्रकरण )
संन्यासाश्रम की उपयोगिता
ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या पढ़ने, गृहस्थाश्रम से गृह सम्बन्धी कार्यों तथा वानप्रस्थाश्रम में तपश्चर्या, स्वाध्यायादि में व्यस्त रहने के कारण व्यक्ति समाज तथा राष्ट्र में धर्म प्रचार तथा ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि के लिये विशेष सहयोग नहीं दे सकता, किन्तु संन्यासी इस कार्य को निश्चिन्त व निर्भीक होकर कर सकता है, क्योंकि संन्यासी निष्काम होता है। वह अपनी बात को पक्षपात रहित होकर सत्य के साथ कह सकता है। इस विषय में महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है - जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है, वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना विद्या-धर्म कभी नहीं बढ़ सकता, और दूसरे आश्रमों को विद्याग्रहण, गृहकृत्य और तपश्चर्यादि का सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है, पक्षपात छोड़कर वर्तना दूसरे आश्रमों को दुष्कर है।
जैसा संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत का उपकार करता है, वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को सत्य विद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है, उतना ही अन्य आश्रमों को नहीं मिल सकता। ( स० प्र० समु० 5)
ब्राह्मण ही संन्यास का अधिकारी
संन्यास ग्रहण करने का अधिकार केवल ब्राह्मण को ही है, क्योंकि जैसा कि पहले बताया जा चुका है, ब्राह्मण संतोषी, निरभिमानी, • धार्मिक, राग द्वेष रहित, निन्दा स्तुति से दूर सरल स्वभाव सात्विक तथा विद्वान होता है ऐसा व्यक्ति ही संन्यासाश्रम का पालन यथावत् कर सकता है। यद्यपि संन्यास के लिये वैराग्य का होना बहुत आवश्यक है किन्तु बिना ज्ञान के वह संसार में विद्या तथा धर्म का प्रचार प्रसार नहीं कर सकता।
तीन एषणाओं का त्याग
संन्यासी को तीन एषणाओं (इच्छाओं) का त्याग करना होता है 1. पुत्रैषणा संतान का मोह 2. वितैषणा धनादि पदार्थों को संग्रह करने का मोह तथा लौकेषणा संसार के व्यक्तियों द्वारा अपनी प्रशंसा का मोह। इन तीन एषणाओं से ग्रसित व्यक्ति संन्यास धर्म का पालन कदापि नहीं कर सकता।
संन्यासी का धर्म
संन्यासी जगत के सन्मान से विष के तुल्य डरता रहे, और अमृत के समान अपमान की चाहना करता रहे, क्योंकि जो अपमान से डरता और मान की इच्छा करता है वह प्रशंसक होकर मिथ्यावादी और पतित हो जाता है। इस लिये चाहे निन्दा हो चाहे प्रशंसा, चाहे मान हो चाहे अपमान, चाहे जीना हो चाहे मृत्यु, चाहे हानि हो चाहे लाभ, चाहे कोई प्रीति करे चाहे वैर बाँधे, चाहे अन्न पान वस्त्र उत्तम स्थान न मिले वा मिले, चाहे शीत उष्ण कितना ही क्यों न हो इत्यादि सबका सहन करे और अधर्म का खण्डन तथा धर्म का मण्डन सदा करता रहे, इससे परे उत्तम धर्म दूसरे किसी को न माने। परमेश्वर से भिन्न किसी की उपासना न करे, न वेद विरुद्ध कुछ माने, परमेश्वर के स्थान में सूक्ष्म वा स्थूल तथा जड़ और जीव को भी कभी न माने, आप सदा परमेश्वर को अपना स्वामी माने और आप सेवक बना रहे, वैसा ही उपदेश अन्य को भी किया करे। जिस-जिस कर्म से गृहस्थों की उन्नति हो वा माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पति, बन्धु, बहिन, मित्र, पड़ोसी, नौकर, बड़े और छोटों में विरोध छूट कर प्रेम बढ़े उस उसका उपदेश करे। (संस्कार विधि संन्यास प्रकरण)
आपने देखा कि मानव के व्यक्तिगत जीवन को सर्वाङ्गीण उन्नति के लिये चारों आश्रमों का कितना महत्व है। व्यक्ति समाज की इकाई है, व्यक्ति का जीवन जितना सुन्दर तथा सुदृढ़ होगा, समाज भी उतना ही सुन्दर तथा सशक्त होगा। हमारे प्राचीन ऋषियों ने व्यक्तिगत एवं सामाजिक उन्नति के लिये वर्णाश्रम व्यवस्था की परिकल्पना करके उसे सुन्दर रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया। उनके बताये मार्ग पर चल कर ही हम अपना समाज का तथा राष्ट्र का कल्याण कर सकते हैं।
धार्मिक जीवन की पहचान
आप किसी उद्यान में जाते हैं, वहाँ नाना प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों की भीनी-भीनी सुगन्ध से आपका मन प्रसन्न हो उठता है। आपकी इच्छा होती है कि अधिक से अधिक देर तक उद्यान की सैर करूँ सैर करने के पश्चात् आप ज्यों ही वापिस चले, रास्ते में कहीं से दुर्गन्ध आई, आपने रुमाल जेब से निकाल कर अपनी नासिका पर रख लिया तथा शीघ्रता के साथ वहाँ से आगे निकल गये। इससे लगता है। कि आप सुगन्ध चाहते हैं दुर्गन्ध नहीं और न केवल आप ही अपितु सभी व्यक्ति सुगन्ध चाहते हैं। इसी प्रकार यदि हम मानव समाज रूपी उद्यान में सुगन्ध चाहते हैं तो हमें स्वयं सुगन्धित होना पड़ेगा। जिस व्यक्ति के जीवन में अधर्म की दुर्गन्ध है वह मानव समाज रूपी उद्यान को सुवासित नहीं कर सकेगा। चाहे वह व्यक्ति कितना ही पूजा-पाठ तथा मंत्र जाप आदि करता हो। इस विषय में स्वामी समपर्णानन्द जी सरस्वती अपने कायाकल्प ग्रन्थ के प्रारम्भ में लिखते हैं जिस मुहल्ले में तुम रहते हो यदि उसकी नालियाँ दुर्गन्ध युक्त हैं चारों ओर कीचड़ सड़ रहा है, मच्छरों की बस्तियाँ बस रही हैं, लोग मैले कुचैले, अनपढ़, रोगों के मारे और निर्धनता के सताये हैं और तुम इन अवस्थाओं में परिवर्तन करने के लिये कुछ नहीं कर रहे हो तो मत समझो तुम धर्मात्मा हो। चाहे तुम कितनी लम्बी समाधि भी लगाते हो, कितना भजन कीर्तन करते हो, कितने घण्टे-घड़ियाल बजाते हो और कितनी भी सामग्री फूँक देते हो, तो भी धर्मात्मा नहीं हो। यदि तुम्हारे मन्दिर की आरती ने, तुम्हारी लम्बी सन्ध्याओं ने और तुम्हारी पाँच नमाजों ने तुम्हारी आँखों को गरीबों का दुःख देखने के लिये, तुम्हारे कानों को उनकी दर्द भरी आहें सुनने के लिये और तुम्हारें हाथों को उनके कष्ट निवारण के लिये विवश नहीं किया, तो तुम आँखें रखते भी अन्धे हो, कान रखते भी बहरे हो, हाथ रखते भी लूले हो।" व्यक्ति के श्रेष्ठाचरण से ही उसके धार्मिक होने का पता चलता है। धार्मिक व्यक्ति कभी क्रूर नहीं हो सकता। वह कभी जीवों की हिंसा नहीं कर सकता। वह पराये दुख को देख कर दुखी हो उठता है। वह सभी प्राणियों में अपने समान आत्मा को देखता है । उसके हृदय में सभी प्राणियों के प्रति प्रेम की के प्रति तरंगें प्रवाहित रहती हैं ।
महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थों में यत्र तत्र मानवीय धर्माधर्म सम्बन्धी विवेचना प्रस्तुत की है। उनमें से कुछ को यहाँ उद्धृत किया जाता है- "मनुष्य उसी को कहना कि जो मनन शील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख दुख और हानि लाभ को समझे, अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं की चाहे वे महा अनाथ निर्बल और गुण रहित क्यों न हों उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ महा बलवान् और गुणवान भी हो तथापि उसका नाश, अवनति अप्रियाचरण सदा किया करे। अर्थात् जहाँ तक हो सके वहाँ तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही चले जावें परन्तु इस मनुष्यपन रूप धर्म से पृथक् कभी न होवे "
''जो पक्षपात रहित न्यायाचरण, सत्यभाषणादि युक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है उसको धर्म और जो पक्षपात सहित अन्यायाचरण, मिथ्या भाषणादि ईश्वराज्ञा भंग वेद विरुद्ध है उसको अधर्म मानता हूं ।" (सत्यार्थ प्रकाश स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश)
जितने मनुष्य से भिन्न जातिस्थ प्राणी हैं उनमें दो प्रकार का स्वभाव है बलवान से डरना, निर्बल को डराना और पीड़ा से अर्थात् दूसरे का प्राण तक निकाल के अपना मतलब साध लेना। जो मनुष्य ऐसा स्वभावरखता है उसको भी इन्हीं जातियों में गिनना उचित है परन्तु जो निर्बलों पर "दया, उनका उपकार और निर्बलों को पीड़ा देने वाले अधर्मी बलवानों से किंचित मात्र भी भय, शंका न करके उनको पर पीड़ा से हटाके निर्बलों की रक्षा तन, मन और धन से सदा करता है वही मनुष्य जाति का निजगुण है क्योंकि जो बुरे कामों के करने में भय और सत्य के कामों के करने में किन्चित् भी भय शंका नहीं करते वे ही मनुष्य धन्यवाद के पात्र कहाते हैं।" (व्यवहार भानु)
"जो पक्षपात रहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग, पाँचों परीक्षाओं के अनुकूल आचरण, ईश्वराज्ञा पालन, परोपकार करना रूप धर्म, जो इससे विपरीत वह अधर्म कहाता है।" (व्यवहार भानु)
प्रश्न जो विद्या पढ़ा हो और उसमें धार्मिकता न हो तो उसको विद्या का फल होगा वा नहीं?
उत्तर कभी नहीं, क्योंकि विद्या का यही फल है कि जो मनुष्य को धार्मिक होना अवश्य है, जिसने विद्या के प्रकाश से अच्छा जानकर न किया और बुरा जानकर न छोड़ा तो क्या वह चोर के समान नहीं है? क्योंकि जैसे चोर भी चोरी को बुरी जानता हुआ करता और साहूकारी को अच्छी जानके भी नहीं करता, वैसे ही जो पढ़के भी अधर्म को नहीं छोड़ता और धर्म को नहीं करने हारा मनुष्य है। (व्यवहार भानु)
प्रश्न मनुष्य का आत्मा सदा धर्म और अधर्म कर्म से होता है? युक्त किस-2
उत्तर- जब तक मनुष्य सर्वान्तर्यामी, सर्वदृष्टय, सर्वव्यापक, सर्व कर्मों के साक्षी परमात्मा से नहीं डरते, अर्थात् कोई कर्म ऐसा नहीं है जिसको वह न जानता हो। सत्य विद्या, सुशिक्षा, सत् पुरुषों का संग, उद्योग, जितेन्द्रियता, ब्रह्मचर्य आदि शुभ गुणों के होने और लाभ के अनुसार व्यय करने से धर्मात्मा होता है और जो इससे विपरीत है वह धर्मात्मा कभी नहीं हो सकता (व्यवहार भानु)
वही सत्यपुरुष का लक्षण है कि जैसा आत्मा का ज्ञान वैसा वचन और जैसा वचन वैसा ही कर्म करना और जिसका आत्मा से मन उससे वचन और वचन से विरुद्ध कर्म करना है वहा असत्पुरुष का लक्षण है। इस लिये मनुष्यों को उचित है कि सब प्रकार का पुरुषार्थ करके अवश्य धार्मिक हों। (व्यवहार भानु)
उपरोक्त महर्षि दयानन्द जी द्वारा अपने ग्रन्थों के भिन्न-भिन्न स्थलों पर धर्माधर्म का विवेचन अज्ञानान्धकार में भूले-भटके मानव का मार्गदर्शन करता है। इसी ज्ञान के प्रकाश में अधर्म को त्याग धर्म का अनुसरण करके मानव जीवन में सच्चा सुख प्राप्त कर सकता है।
🌹इति ओ३म् शम्
🙏शास्त्री हरी आर्यः
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