हमारी दिनचर्या कैसी होनी चाहिए ?

 


      पहला सुख निरोगी काया माना गया है, जिसको बिना व्यवस्थित दिनचर्या के किसी ने नहीं पाया है । हम प्रतिदिन प्रातः सायं संध्या बेला में चिंतन करते हैं कि -

हे ईश्वर दयानिधे! भवत  कृपयानेन  जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकम्मोक्षणा सद्य: सिद्धि र्भवेन्न:।'

हे दयानिधे भगवान! की कृपा से जो जो उत्तम कर्म हम लोग करते हैं वह सब आपको अर्पण है जिससे हम लोग आपको प्राप्त होके धर्म जो सत्य नहीं आया का आचरण, अर्थ है जो धर्म से पदार्थों की प्राप्ति, काम जो धर्म और अर्थ से ईस्ट भोगों का सेवन और मोक्षा जो सब दुखों से छूटकर सदा आनंद में रहना है। इन चार प्रकार के पदार्थों की सिद्धि हमको शीघ्र प्राप्त हो।

धर्म का आचरण, धन की उपार्जन, सांसारिक सुखों का उपभोग और ईश्वर की प्राप्ति केवल स्वस्थ व्यक्ति ही कर सकता है। मानव जीवन के लक्ष्य पुरुषार्थ चतुष्टय(धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति का साधन स्वस्थ शरीर ही है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। रोग या  दुर्बलता अधिकतर हमारी असावधानी यहां पापों का फल है। रोगी व्यक्ति स्वयं अपने जीवन को भार समझता है तथा राष्ट्र की हानि करता है। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह हर संभव उपाय द्वारा अपने स्वास्थ्य को बनाए रखें । युवावस्था के प्रारंभ में तो इस और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि यही समय शरीर की वृद्धि और पुष्टि का है। यदि इस समय और असावधानि या शरीर की उपेक्षा की गई तो आगे पश्चाताप ही करना पड़ेगा।

स्वास्थ्य की परिभाषा सुश्रुत-संहिता में सारगर्भित और सीमित शब्दों में की गई है-

समदोष: सामान्गीच्श्र समधातुमलक्रिय:। प्रसन्नात्मेन्द्रयमना स्वस्ति इत्यभिधियते।।

  जिसके बाद, बीता हुआ कल तीनों दोष समान हो, जठराग्नि प्रतित्प, शरीर को धारण करने वाली धातुएं-रक्त, मेल, अस्थि, मज्जा और वीर्य समान अनुपात में हो, मूल मंत्र की प्रवृत्ति समुचित रूप में होती हो, जिसकी इंद्रियां, मानव शरीर का स्वामी आत्मा भी प्रसन्न हो, ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहते हैं। यहां शरीर के साथ, मन, बुद्धि और आत्मा इन सबके स्वास्थ्य की ओर संकेत किया है।

कहते हैं कि आयुर्वेद के उद्भट विद्वान् कार्य चरक ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने का विचार किया। विद्यालय से अवकाश होने पर विद्यार्थी गपशप करते हुए अपने छात्रावास की ओर जा रहे थे। आचार्य महोदय मार्ग की समिप विद्यमान पुराने वृक्ष  के कोटा में कर बैठ गए और अस्पष्ट स्वर मे प्रत्येक गुजरने वाले छात्र से यह प्रश्न पूछा- कोऽरुक्, कोऽरुक्, कोऽरूक्? कौन रोगी नहीं, अर्थात स्वस्थ्य कौन है? इन्हें छात्रों में एक प्रबुद्ध छात्र बाग्भट्ट भी था। उसने इस वाक्य को ध्यान से सुना और उत्तर दिया-

हितभुक्, मितभुक्, ऋतभुक्।

 जो व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुकूल,ऋतू अनुसार, उचित मात्रा में भोजन करता है, वही स्वस्थ है। इन्हीं आचार्य ने स्वस्थ रहने के लिए कहा-

नित्यम् हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारि व्यसनेष्वसक्त:‌।

दाता सम:सत्यपर:क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोग:।।

जो नित्य प्रति हितकारी आहार-विहार का सेवन करता है, प्रत्येक कार्य उसके परिणाम पर विचार करके करता है, दो विषयों और व्यसनों मैं आसक्त नहीं है, दानशील है, सुख दुख में समान भाव से रहता हूं, सत्या परायण और क्षमाशील है एवं जो शास्त्रों के ज्ञाता सदाचारी विद्वानों का सत्संग करता है वह कभी भी रोगी नहीं होता, अर्थात सदा स्वस्थ रहता है। हमारी शरीर नियमित एवं व्यवस्थित दिनचर्या से ही व्यस्त रह सकता है। अतः इस पुस्तक के प्रथम भाग में दिनचर्या का ही वर्णन किया गया है।

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