पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी

 


 महर्षि दयानंद आर्य समाज के दीवाने प्रतिभा के धनी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी का जन्म 26 अप्रैल अट्ठारह सौ चौंसठ को मुल्तान में दिल्ली दरवाजा के अंदर मंत्रा मोहल्ले में हुआ था। गुरुदत्त विद्यार्थी बचपन से ही विद्वान थे। विद्यार्थी जीवन में अंग्रेजी,उर्दू ,फारसी ,गणित और विज्ञान विषयों में अन्य विद्यार्थियों से बहुत आगे थे। आयु में ही उन्होंने अपनी प्रतिभा का जमा लिया था उन्होंने अलग से संस्कृत भी पढ़नी शुरू की थी। विश्वविद्यालय से b.a. की परीक्षा पास करके, मैं भौतिक विज्ञान में एमएससी की उपाधि प्राप्त की। इस परीक्षा में वह कॉलेज में सर्वप्रथम रहे, इस परीक्षा में इतने अंक प्राप्त किए थे, जितने पहले कभी किसी ने नहीं प्राप्त किए थे, इसी कारण उनके नाम के बाद विद्यार्थी शब्द जुड़ गया। पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी ने अंग्रेजी में अनेक लेख लिखें इनकी पुस्तक द टर्मिनोलॉजी, ऑफ द वेदास एंड यूरोपियन स्कॉलर्सको डिग्री कक्षा में पढ़ाने के लिए स्वीकृत किया गया और वह भी जब परतंत्रता के युग में भारतीयों को काली कुली और काफिर कहकर पुकारा जाता था। उनका जगह-जगह अनादर अपमान या जाता था और उन्हें साधारण स्कूल का मुख्याध्यापक भी नहीं बनाया जाता था। विद्यालय कॉलेज का मुख्य अध्यापक का पद अंग्रेजों को दिया जाता था, ऐसे समय में इस 24 वर्ष के नौजवान की लिखी पुस्तक देश की सीमा लांघ कर दुनिया पर छा गई। इससे पंडित जी की ख्याति को चार चांद लग गए। परीक्षा के पश्चात करीब 3 वर्ष तक पंडित जी ने राजकीय कॉलेज लाहौर में भौतिकी के प्रोफेसर के रूप में अध्यापन किया। यह पहले भारतीय थे, को सरकारी कॉलेज में यह पद मिला था। यह भारतीयों के लिए सम्मान की बात थी। इससे पहले यहां के सब प्रोफेसर अंग्रेज ही होते थे। कुछ समय पश्चात उन्होंने अनुभव किया कि विज्ञान के प्रोफेसर के रूप में सेवा करने के कारण इनको वैदिक धर्म के प्रचार एवं योगाभ्यास में बाधा आ रही है। इन्होंने सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया। पश्चात गुरुदत्त जी को अतिरिक्त एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर के पद पर नियुक्ति हेतु प्रस्ताव प्राप्त हुआ और लाहौर के न्यायधीश ने इन्हें बुलाया भी ,किंतु पंडित जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। ऋषि ऋण से उऋण होने के लिए जो त्याग पंडित जी ने किया, वैसा उदाहरण कम ही मिलता है। जीवन के प्रारंभिक काल में पंडित गुरुदत्त विज्ञान के विद्यार्थी थे। अतः वह नास्तिक थे। उन्हें ईश्वर पर पूर्ण विश्वास नहीं था। जब स्वामी दयानंद जी जी अजमेर में मृत्यु शैया पर थे उस समय लाहौर आर्य समाज ने पंडित गुरुदत्त जी को उनकी सेवा के लिए भेजा। कहां पर उन्होंने स्वामी जी की मृत्यु का आश्चर्यजनक दृश्य देखा कि सारे शरीर से खून बह रहा था, तू स्वामी जी का चेहरा शांत और प्रसन्न था विनती भयंकर कष्ट भी शांति से सह रहे थे । अंत में प्राण त्याग ते हुए जब स्वामी जी ने कहा ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो तो इस वाक्य को सुनकर और स सारे दृश्य को देखा तो उन्होंने सोचा कोई सच्चा ईश्वर भक्त ही इतना कष्ट सह सकता है और बिना किसी घबराहट के शांतिपूर्वक प्राण त्याग सकता है। इसी विचार ने पंडित गुरुदत्त जी को नास्तिक से आस्तिक बना दिया। अभी ऐसा अनुयाई बनाया जिसने वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार के लिए अपने को पूरी तरह से समर्पित कर दिया। पंडित गुरुदत्त संस्कृत, अंग्रेजी ,फारसी और अन्य भाषाओं तथा विज्ञान के बहुत बड़े विद्वान थे। वे महान विचारक ,लेखक और उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे। उन्होंने छोटी सी आयु में ही अनेक पुस्तकें लिखी ।

वेद  और आधुनिक विज्ञान का समन्वय करके लेख लिखते थे। हमें दयानंद के बाद उनकी स्मृति में जब शिक्षा संस्थान खेलने के निश्चय हुआ, तब गुरुदत्त जी ने भारत भर में घूम-घूम कर उसके लिए धन संग्रह किया। वी ए वी कॉलेज में अवैतनिक रूप से विज्ञान पढ़ाते थे। का सबसे महत्वपूर्ण कार्य था आर्य साहित्य लिखकर आर्य समाज का प्रचार कार्य करना था। श्री जगह-जगह व्याख्यान देखकर लोगों की शंकाओं का समाधान भी करते थे। उन्होंने वेदों की वैज्ञानिक अर्थों के आधार पर भी लेख लिखे थे। वे आर्य समाज के वार्षिक उत्सव पर जाकर वैदिक सिद्धांतों का प्रचार करते थे। इस प्रकार आर्य समाज के कार्यों में उनका विशेष योगदान रहा। रात आर्य समाज का प्रचार कार्य करने से उनका स्वास्थ्य गिरता चला गया। उनका रोग इतना बढ़ गया कि 26 वर्ष की अल्पायु में 18 मार्च 1980 में उन्होंने प्राण त्याग दिए। निसंदेह इतना तो कहा ही जा सकता है कि पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी थोड़ा और हमारे बीच रहते तो और अधिक आर्य ।साहित्य की श्री वृद्धि करते।

एक टिप्पणी भेजें (0)
और नया पुराने