मनुष्यों के लिए अथर्ववेद का संदेश

 अथर्ववेद में एक मंत्र है

        उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम् । सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र ।।

अथर्ववेद- 8/4/22

शब्दार्थ- हे ( इन्द्र) एश्वर्य चाहने वाली आत्मा ( उलूकयातुं ) उल्लू की चाल को, ( शुशुलूकयातुं ) भेड़िए की चाल को,( श्वयातुम् ) कुत्ते की चाल को ( उत कोकयातुं ) और चिड़े या हंस की चाल को, ( सुपर्णयातु़ ) गरुड़ की चाल को ( उत गृध्रयातुं ) तथा गिद्ध की चाल को ( जहि ) त्याग दे ।( रक्ष ) इन शत्रुओं को ( दृषदा + इव+ प्र + मृण ) पत्थर समान कठोर साधन से मसल दे।।

पशुओं में और मनुष्य में यही भेद है कि पशु केवल स्वार्थ को देखता है धर्माधर्म उचित अनुचित की परिभाषा में नहीं काम करता है जो मनुष्य आलम वनों को प्राप्त करके क्षणिक सुख साधन प्राप्ति हेतु कुछ भी इष्ट अनिष्ट करने में नहीं हिचके चाहते हैं विषुवत ही है ऐसे पशु वध व्यवहार करने वालों को निश्चित ही ईश्वर या व्यवस्था के कारण मन में शतक भय लज्जा फिल्म का बने रहते हैं इतना ही नहीं अग्रिम जन्म में वे विभिन्न कुत्ता बिल्ली गधा बैल आदि दारुण दुखदाई योनियों को प्राप्त करते हैं इसीलिए परमपिता परमेश्वर ने मनुष्यों को पशुओं के निम्न प्रवृत्तियां उनकी चालू सभाव आचरण व्यवहारों को छोड़ने का इस मंत्र में आदेश दिया है

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