इशोपनिषद का सार

 ओ३म पूर्णमदः पूर्णमिदम्, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्णमेव अवशिष्यते।।

               पूर्ण परमात्मा से पूर्ण सृष्टि रची गई । वह फिर भी पूर्ण है और पूर्णता से सृष्टि को सींच रहा है। आओ उस पूर्ण ब्रह्म को जान कर परिपूर्णता के पथिक बनें।

           जगत को हम तीन भागों में बांट सकते हैं:- भौतिक जगत्-जीवात्मा का जगत-परमात्मा का जगत्

भौतिक जगत्:- अगर चार में चार जोड़ दिया जावे तो आठ, चार घटा दिया जावे तो शून्य।

जीवात्मा का जगतः- प्रेम देने से घटता नहीं, बल्कि प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेम बढ़ जाता है। क्रोध के बदले में प्रेम जतलाने से, क्रोध घटता है। देने वाले का बढ़ता है।

परमात्मा का जगतः- भौतिक जगत निर्जीव है, अतः प्रतिक्रिया नहीं होती। जीवात्मा का जगत सजीव है। अतः शुभाशुभ कर्मों के द्वारा प्रतिक्रिया होती है। निर्लेपता नहीं इच्छा है। परमात्मा का जगत निर्लेप है। कर्म नहीं-इच्छा नहीं। पूर्ण में कुछ जोड़ो तो भी पूर्ण, कुछ निकालो तो भी पूर्ण।

ओ३म् ईशा वास्यम् इंद सर्व, यत् किंचित् जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विप्त् धनम्।। 

         मन्त्र का शब्दार्थः- संसार के कण-कण में प्रभु बसा हुआ है। (कर्मों के अनुसार भिन्नता है। संसार में इस जीवन का अन्त, शरीर का भस्म हो जाना है)। अतः संसार को त्याग पूर्वक भोग। किसी की सम्पत्ति पर गिद्ध दृष्टि मत रख।

        मनुष्य समझता है कि वह मालिक है। जो कुछ वह समेट लेता है-वह उसका निजी है। संसार के सारे अनर्थ इसी भावना से होते हैं। सम्पति किसकी है ? हर व्यक्ति समझे बैठा है कि जो कुछ उसके पास है, वह उसका है। दूसरे कहते हैं, यह उसने हड़प लिया है। आर्थिक उपद्रवों की यही जड़ है। उपनिषद् ने स्वत्व मलकीयत की मान्यता को चुनौती दी है। जो कुछ है, किसी का नहीं, सब भगवान् का है। जब मनुष्य समझ ले कि उसका कुछ भी नहीं, तब जीवन का कांटा ही बदल जाता है। लड़ाई झगड़े समाप्त हो जाते हैं। काम किये बिना मनुष्य रह नहीं सकता। इसलिए जो कुछ करता है, कर्त्तव्य समझ कर करता है, अधिकार समझ कर नहीं। क्योंकि अधिकार का प्रश्न ही तब उठता है, जब स्वत्व का, मलकीयत का प्रश्न हो, जब स्वामित्व ही हममें से किसी का नहीं, तब जो हाथ आता है, भगवान का दिया प्रसाद समझकर ही मनुष्य उसे ग्रहण करता है। इस दृष्टि से उसकी भाषा बदल जाती है। हम सब संसार के पीछे भागते हैं, उपनिषद् की भाषा समझने वाला व्यक्ति संसार को छोड़ता है। संसारी व्यक्ति जिसे छोड़ता है, अध्यात्मिक व्यक्ति उसी को पाने का प्रयत्न करता है।

        आध्यात्मिक भाषा में शब्दों के अर्थ भी बदल जाते हैं। जिसे हम विद्या कहते हैं, उसे वह अविद्या कहता है। 'अविद्या' शब्द से जिसे हम छोड़ देने की बात कहते हैं, उसे उपनिषद का ऋषि, मृत्यु पर विजय पाने का साधन बतलाता है। विद्या का लाभ तो है ही, अविद्या का भी लाभ है। जितना भौतिक-विज्ञान है उसे हम विद्या कहते हैं। उपनिषद् का ऋषि उसे अविद्या कह कर उसका क्षेत्र सीमित कर देता है।

              भौतिक विज्ञान से संसार की वस्तुएं हाथ आती हैं। मनुष्य सुख-चैन से जी सकता है, इससे ज्यादा कुछ नहीं मिलता। इनसे उसकी प्यास कुछ समय के लिए बुझती है, परन्तु फिर जाग उठती है। हमारी तलाश तो उस आनन्द के स्रोत की है, जिसका अमृत जल पीने से, मनुष्य मरणधर्मा होने पर भी अमर हो जाता है। वह भोगने और त्यागने के, अविद्या तथा विद्या के, असम्भूति तथा सम्भूति के समन्वय की बात कहता है। विद्या भी ठीक है, अविद्या भी ठीक है, सम्भूति भी ठीक असम्भूति भी ठीक। यह कंधे से कंधा मिला कर चलें तो ठीक-एक दूसरे से लड़ें तो ना ठीक। इस प्रकार के समन्वय को ईशावास्योपनिषद् का सार कहा जा सकता है।

निवास शास्त्री



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