Basis of Human Life (हिंदी में)-

 

         महर्षि मनु जी महाराज ने मनुस्मृति में धर्म के दश लक्षण गिनाएं हैं जिन लक्षणों में एक भी लक्षण आजकल के मनुष्यों के जीवन में नहीं दिखाई देता-

धृतिः क्षमादमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। 

धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। 

       पहला लक्षण (धृति) धैर्य रखना, दूसरा- (क्षमा) आदि जो कि निन्दा स्तुति,मान-अपमान, हानि-लाभ आदि दु:खों में भी सहनशील नहीं रहना, तीसरा-( दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे, चौथा- (अस्तेय) चोरी त्याग अर्थात् बिना आज्ञा या छल कपट, किसी व्यवहार तथा वेदविरूद्ध उपदेश से पर पदार्थ का ग्रहण करना चोरी, पांचवा- ( शौच) राग-द्वेष पक्षपात छोड के भीतर और बाहर की पवित्रता रखना, छठा- ( इन्द्रिय निग्रह) अधर्माचरणों को रोक के इन्द्रियों को धर्म में ही सदा चलाना, सातवां- (धी:) मादक द्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ दुष्टों का संग, आलस्य प्रमाद आदि को छोड़ कर खेष्ट पदार्थों का सेवन, सत्यरूपों का संग, योगाभ्यास से बुद्धि बढ़ाना, आठवां (विद्या) पृथ्वी से लेकर परमेश्वर पर्यंत यथार्थ ज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना, सत्य जैसा आत्मा में, वैसा मन में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्तना, इसके विपरीत अविद्या है। नवां- (सत्य)जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना, वैसा ही बोलना, वैसा ही करना भी तथा दशवां- (अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ के शान्त्यादि गुणों को ग्रहण करना। ये दश धर्म के लक्षण हैं।

            महर्षि मनु ने स्पष्ट कर दिया है कि धर्म के लक्षण कोई बाहरी चिह्न नहीं हैं जिन्हें देखकर व्यक्ति के धार्मिक होने या धर्म का पता चल सके। ये सभी दश लक्षण व्यक्ति के व्यवहार आचार-विचार एवं आन्तरिक प्रवृत्ति से हैं। इन लक्षणों के आधार पर ही व्यक्ति धार्मिक और अधार्मिक होने का अनुमान लगाया जा सकता है। जो व्यक्ति सत्य नहीं बोलता, चोरी करता है, व्यभिचार करता है, इन्द्रियों के ऊपर संयम नहीं है, ऐसा व्यक्ति कितना भी बाह्य आडम्बर धारण कर ले, उसे धार्मिक होने की पदवी नहों दी जा सकती।

               महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने संस्कार विधि में जहां मनुस्मृति में वर्णित धर्म के दश लक्षणों को उद्धृत किया है। वहां महर्षि दयानन्द ने अहिंसा को भी धर्म का लक्षण मानकर धर्म के ग्यारह लक्षण माने हैं।महर्षि मनु जी कहते हैं कि जो विप्र या द्विज धर्म के इन दश लक्षणों का अध्ययन मनन करते हैं वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं। प्राणी जगत् में यदि कोई सर्वश्रेष्ठ प्राणी है तो वह है-मनुष्य। मानव जीवन सर्व शक्तियों का केन्द्र तथा सर्व सुखों का स्रोत है। यह आत्मा मानव जीवन को प्राप्त करके ही उन्नति की चरम सीमा तथा अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। आत्मा के अन्दर जो महान दिव्य शक्तियां निहित हैं उनका विकास इसी मानव जीवन में होना सम्भव है। यह मानव जीवन ही अपने चरम उत्कर्ष द्वारा स्वयं भी अपने जीवन को सुखमय बना सकता है और विश्व को भी सुख शांति का सन्देश सुना सकता है तथा देश, जाति और राष्ट्र का उत्थान कर सकता है। परन्तु मनुष्य राष्ट्र का उत्थान और उसे सुखी तभी बना सकता है जबकि वह पहले स्वयं अपना उत्थान कर ले।

         वर्तमान में धर्म के नाम पर होने वाले पाखण्ड़ों को देखकर मनुष्य के लिए विचारणीय प्रश्न उत्पन्न हो गया है कि धर्म का सही स्वरूप क्या है? जब कोई ढोगी बाबा या तथाकथित संत कोई अनैतिक कार्य करता है, अनाचार में लिप्त होकर समाज में उसका असली स्वरूप सामने आता है तो धर्म के नाम का मुद्दा शुरू हो जाता है। मीडिया वर्ग इस बात को प्रमुखता से दिखाता है धर्म के नाम पर बहस शुरू कर देता है और यह कहा जाता है कि धर्म की आड़ में बाबा के द्वारा किया गया घिनौना कृत्य, धर्म के नाम पर बाबा की दुकानदारी, धर्म की आड़ में लोगों को किया गुमराह । बाबा के द्वारा किए गए हर कृत्य को धर्म के साथ जोड़कर उसे धर्म का चोला पहना दिया जाता है। बाबा के द्वारा स्थापित किसी मत, पन्थ, सम्प्रदाय को धर्म का नाम दे दिया जाता है। मीडिया के किसी भी बुद्धिजीवी वर्ग ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि वास्तव में धर्म क्या है? इस बात का निष्कर्ष नहीं निकाला कि बाबा का यह कुकृत्य धर्म का विषय है भी या नहीं? इसी विषय को लेकर कुछ धर्म के ठेकेदारों को चैनल पर बिठाकर धर्म के नाम पर बहस शुरू हो जाती है। परन्तु आज तक कोई भी धर्म की ही सही परिभाषा नहीं बता पाया। इसका कारण यह है कि धर्म के विषय में | उनका ज्ञान शून्य है। वे केवल हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन आदि सम्प्रदायों को ही धर्म समझते हैं। कभी भी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि वेद और शास्त्र धर्म के विषय में क्या कहते है? धर्म के विषय पर बहस शुरू कर देते है।

            मानव जीवन में उत्थान और उसे सुखमय बनाने का यदि कोई सर्वोत्तम साधन है तो वह है धर्म। धर्म वह शीतल जल है जो इस मानव जीवन रूपी वृक्ष को हरा-भरा रखता है तथा उसे पुष्पित तथा फलित बना देता है जिस के मधुर तथा स्वादिष्ट फलों का आश्वादन कर वह स्वयं भी सुख पाता है और अपने मधुर तथा स्वादिष्ट फलों द्वारा राष्ट्र को भी सुखमय बना देता है। इसके विपरीत धर्महीन मानव जीवन नीरस और फीका है। धर्म मनुष्य को विलासितामय जीवन से हटाकर उसे संयमी और सदाचारी बना देता है। वर्तमान में धर्म से विमुख होने के मुख्य रूप से दो कारण हैं एक सदाचार का न होना और दूसरा धर्म के वास्तविक स्वरूप को न समझना। आज जहां सदाचार से रहित जीवन मनुष्य को धर्मपरायण नहीं होने देता वहां धर्म के वास्तविक स्वरूप को न समझने के कारण मनुष्य धर्म से दूर होता जा रहा है। आज लोगों ने धर्म के वास्तविक स्वरूप को न समझ कर वर्तमान में प्रचलित समुदायों, और मजहबों को ही धर्म समझ लिया है। जब मनुष्य इन समुदायों द्वारा प्रचलित नाना प्रकार के आडम्बरों और देश तथा समाज की उन्नति में बाधक रूढ़ी रिवाजों तथा कुप्रथाओं को देखता है तो धर्म से उदास हो जाता है। इन्हीं सम्प्रदायों, मजहबों तथा समुदायों को आज के राजनेताओं ने धर्म समझ कर अपने आपको धर्म निरपेक्ष घोषित कर दिया है

            महाभारत में कहा है-धर्मो धारयते प्रजा अर्थात् प्रजाओं का धारण धर्म ही करता है। धर्म ही उसे सत्पथगामी बनाता है। ऋषि दयानन्द अपनी प्रसिद्ध पुस्तक संस्कार विधि में इसी धर्म के यथार्थ स्वरूप का निम्न मार्मिक शब्दों में वर्णन करते हैं- किसी से वैर वृद्धि करके अनिष्ट करने में कभी न बर्तना सुख, दुख हानि लाभ में व्याकुल होकर कभी कर्त्तव्य को न छोड़ना। धैर्य पूर्वक अपने कर्त्तव्य में स्थिर रहना, निन्दा, स्तुति, मान, अपमान का सहन करना। मन को सदा अधर्माचरण से हटा कर धर्माचरण में ही प्रवृत्त रखना। मन, कर्म, वचन से अन्याय और अधर्म के द्वारा किसी वस्तु का स्वीकार न करना। राग, द्वेष आदि के परित्याग से आत्मा और मन को पवित्र और जलादि से शरीर को शुद्ध रखना। श्रोत्र आदि इन्द्रियों को अकर्त्तव्यता से हटा कर्त्तव्य कर्मों में सदा प्रवृत्त रखना। वेदादि सत्य विद्या ब्रह्मचर्य, सत्संग करने और कुसंग दुर्व्यसन, मद्यपानादि के परित्याग से बुद्धि को सदा निर्मल बनाना। सत्य जानना, सत्य बोलना, सत्य कहना क्रोध आदि दापों का परित्याग कर शान्ति आदि गुणों को धारण करना ही धर्म कहलाता है।

            वर्तमान में धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है, धर्म के नाम पर जो आडम्बर फैलाया जा रहा है, इसके ऊपर विचार करने की आवश्यकता है। आज ऐसे ढ़ोगी बाबाओं से समाज को सावधान करने की आवश्यकता है जिनका धर्म के विषय में ज्ञान शून्य है। जिनके जीवन में धर्म नाम की कोई चीज नहीं है, वे धर्म के ठेकेदार बने हुए हैं और धर्म के नाम पर समाज का अहित कर रहे हैं। आज मत, पन्थ और सम्प्रदाय को धर्म का स्वरूप दे दिया गया है। इसी तथाकथित धर्म के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाया जाता है, एक दूसरे से अलग किया जाता है। ऋषि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित धर्म के सिद्धान्तों का पालन करने से संसार की उन्नति हो सकती है। इसलिए महर्षि दयानन्द जी ने आर्य समाज के नियम में लिखा कि सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए। सत्य आचरण करना और उसी के अनुसार अपने कर्त्तव्य का पालन करना ही धर्म है। सत्य को छोड़कर मनुष्य धार्मिक होने का दिखावा तो कर सकता है परन्तु धार्मिक नहीं बन सकता।


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