वैदिक प्रतिभा का पुच्छल तारा - गुरुदत्त विद्यार्थी

   

🔆कई एक  प्रतिभाशाली मनुष्य अल्पायु में मर के भी इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिख जाते हैं। भारत में हम आदि शंकराचार्य जी (33 वर्ष), स्वामी विवेकानंद जी (39 वर्ष) शहीद भगतसिंह (23 वर्ष) गणितज्ञ सी. रामानुजन (34 वर्ष) आदि के ऐसे नामों को भली भांति जानते हैं। वैदिक धर्म को आर्य समाज के रूप में पुनर्जीवित करने वाले स्वामी दयानन्द जी सरस्वती से सीधे तौर पर प्रेरित आर्य मुसाफिर प. लेखराम जी (39 वर्ष) और प. गुरुदत्त विद्यार्थी (26 वर्ष) उसी श्रेणी में आते हैं। 


🔆गुरुदत्त (1864 - 1890).जन्म - पंजाब के मुल्तान नगर में ( प्राचीन काल में मूलस्थान - नाम से  प्रसिद्ध नगर भक्त प्रहलाद /उसके पिता राजा हिरण्यकशिपु की कर्म स्थली माना जाता है) - पिता श्री रामकृष्ण। 1881 ई में मैट्रिक परीक्षा पास करने के पश्चात गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में अगली शिक्षा के लिए प्रवेश लिया। 1880 में ही आर्य समाज लाहौर के सदस्य बन गये। 

🔆अत्यंत प्रतिभाशाली थे ईश्वर के अस्तित्व पर उन्हें शक था। परन्तु आर्य समाज लाहौर के कार्य में बहुत रुचि थी। अत: 1883 ई सितंबर में  जब स्वामी दयानन्द जी की रुगणता का समाचार मिला तो आ. स. के प्रधान ला. जीवन दास के साथ उन को भी स्वामी जी की सेवा-सुश्रूसा के लिए अजमेर भेजा गया। 19 वर्ष के इस युवक को स्वामी जी के जीवन के अंतिम दृश्य ने हिला के रख दिया। ज़हर के कारण शरीर पर बने फफोलों को जब स्वामी जी की क्षौर क्रिया के दौरान छीला गया फिर भी वह आत्मिक बल के कारण प्रभु स्मरण करते रहे और उफ तक नहीं की। स्वामी जी के इस परिनिर्वाण दृश्य को देख कर युवक गुरु दत्त के मन पर अनोखा प्रभाव पड़ा। और वह आस्तिक बन गये। 

🔆बी ए की परीक्षा पास करके आप ने साईंस विषय से एम ए की परीक्षा पास की ढ करने के बाद उसी कालेज में साइंस विषय को पढाने के लिए अस्थाई  तौर पर प्रोफेसर बनाये गये। गुरु दत ने एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर के पद हेतु प्रयास को त्याग कर आर्य समाज के काम को चुना। 


🙏 8 नवंबर 1883 की श्रद्धांजली सभा में हुए स्वामी दयानन्द जी की स्मृति में कालेज स्थापित करने के निर्णय से उन को एक जीवन लक्ष्य मिला। इस कालेज हेतु धन संग्रह के कठिन, निराशा, आलोचना भरे कार्य में स्थान- स्थान जाने का कार्य अन्य आर्य जनों के साथ इस अनुभवहीन युवा ने सराहनीय ढंग से किया। 1 जून 1886 को डी ए वी स्कूल की स्थापना हुई। 1889 ई से गुरुदत ने इसी संस्था में बिना वेतन के साईंस और गणित पढाना आरम्भ कर दिया। 


🙏 आप ने सत्यार्थ प्रकाश 18 बार पढा। कथनी करनी एक करते हुए,  प्रचार कार्य में लगे आप ने अपने वस्त्रों के उपर चोगा पहना जिस पर समाज के पांच नियम सामने और पांच नियम पीछे लिखे थे। चोगा पहन चौराहे पर खड़े हो कर प्रचार करते थे। 


🙏स्वाध्याय के बल पर अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के कारण आप ने पाणिनी की संस्कृत व्याकरण पर अधिकार प्राप्त कर लिया। आयु में उन से अधिक बड़े चार आर्य सन्यासियों ने उन से विधिवत अष्टाध्यायी सीखी। "दी रीजेनेरेटर अॉफ आर्यवर्त" अपनी पत्रिका में उन्होंने "वेद और वेदार्थ", " आर्य सभ्यता और दर्शन", विषयों पर लेख लिखे और " दि टर्मिनालोजी आॅफ वेदास", " दि टर्मिनालोजी आफ दि वेदास एन्ड यूरोपियन स्कालर्ज़ " आदि खोज पूर्ण लेखों में मैक्स मूलर और मोनियर विलियम्स की वेदार्थ की विवेचना की।" दि टर्मिनालोजी.. "को तो आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में डिग्री कक्षा की पाठ्य पुस्तक नियत किया गया। उपनिषदों में ईश, मुण्डक और माण्डूक्य की उनके द्वारा लिखी सुगम व्याख्या को बहुत लोकप्रियता मिली। अंग्रेजी भाषा पर उन का सहज अधिकार और विवेचना शक्ति बड़े बड़े विद्वानों को मुग्ध कर देती थी। 


🙏उनकी अव्यवस्थित दिन चर्या, निरन्तर भाषण, लेखन और सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहने के कारण उन को तपेदिक की शिकायत हो गई। 11 मार्च 1890 ई को मात्र 26 वर्ष की आयु में उन की जीवन लीला समाप्त हो गई। 


🙏 उन के देहान्त पर न केवल उन के आर्य सहयोगी लाला लाजपत राय ने, बल्कि दैनिक पत्रों सिविल एण्ड मिलिट्री गज़ट, दि ट्रिब्यून, ईसाई पत्रिका " दि ट्रू लाईट", अलीगढ़ इन्स्टीट्यूट गज़ट ने भी श्रद्धांजलि दी। 26 अप्रैल को उनकी 153 वीं जयंती थी। नमन और श्रद्धांजलि 🌸🙏 


(  आभार-मूल लेख - डा भवानी लाल भारतीय द्वारा)

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