आर्य स्तम्भ-अमर बलिदानी

 🏵️आर्य स्तम्भ-अमर बलिदानी-🏵️ 



*प.लेखराम "आर्य मुसाफिर* " स्वामी दयानंद जी सरस्वती के जीवन काल में उनसे प्रभावित हो कर वैदिक धर्म के लिए सर्वस्व त्याग करने वालों की सूची में स्वामी श्रद्धानंद, गुरुदत्त विद्यार्थी आदि के समान "आर्य मुसाफिर" उपनाम से प्रसिद्ध प. लेखराम का विशेष स्थान है।              


🏵️उनका जन्म पिता  मेहता तारा सिंह के शान्डिल्य गोत्री ब्राह्मण परिवार में सन 1858 ई में गांव सैदपुर जि० जेहलम ( अब पाकिस्तान) में हुआ। शिक्षण: मदरसे में उर्दू- *मिडिल* कक्षा तक हुआ। 1875 ई में पेशावर में *पुलिस* मे  भर्ती ,सार्जेंट पद से 1884 ई में त्यागपत्र दे दिया। युवक लेखराम दृढ़ संकल्पी, जिज्ञासु, हिन्दू धर्म में रुचि, गीता पाठ, फिर अद्वैत मत की ओर झुकाव हुआ।।      


🏵️ स्वामी दयानंद जी की ख्याति से प्रभावित हो कर 1880 ई में अजमेर जा कर उन से मिले। उनसे 10 प्रश्न पूछे जिन में प्रमुख और उनके उत्तर इस प्रकार हैं ... प्र०1. जीव और ब्रह्म भिन्न हैं उसमें वेद का कोई प्रमाण बताईए ?...उ०. यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय सारा जीव-ब्रह्म का भेद बताता है।..प्र०2. अन्य मत के मनुष्यों को शुद्ध करना चाहिए या नहीं?..उ०.अवश्य शुद्ध करना चाहिए।..प्र०3.बिजली क्या वस्तु है और कैसे उत्पन्न होती है?..  उ०. विद्युत सब स्थान में है और वायु-बादलों की रगड़ से आकाश में उत्पन्न होती है।..प्र०4. आकाश और ब्रह्म दोनों व्यापक हैं फिर एक जगह कैसे रह सकते हैं ?..उ०. ब्रह्म, आकाश से सूक्ष्म है वह आकाश में भी व्याप्त है। ...इस भेंट में स्वामी जी ने उन्हें 25 वर्ष की आयु से पूर्व विवाह करने से मना भी किया। संस्कार विधि पुस्तक की प्रति दी। आर्य समाज का अंग्रेजी में एक मासिक पत्र भी निकाला  जाए, इस हेतु विचार व्यक्त किया।                      


🏵️स्थापना *आर्य समाज पेशावर*:  पंजाब प्रांत में लाहौर, अमृतसर, गुरुदासपुर आदि नगरों में 1877 घ में आर्य समाज इकाइयों की स्थापना ह चुकी थी।  1880 ई में प० लेखराम जी ने सुदूर पेशावर नगर में भी आर्य समाज स्थापित कर दी। अपने खर्चे पर एक उर्दू मासिक पत्रिका " धर्मोपदेश"भी प्रकाशित करना शुरू कर दिया।                 


🏵️ *शास्त्रार्थ*/ *उपदेशक काल* :वेदादि शास्त्रों के आधार पर अपने मुसलमान अफसरों से भी बिना झिझक बहस करते थे।  इस कारण किसी बहाने से उनका सार्जेंट पद समाप्त कर दिया गया।  1884 ई में लेखराम ने पुलिस सेवा से त्यागपत्र दे दिया और बहुत कम वेतन 30 रुपये पर पंजाब प्रतिनिधि सभा के उपदेशक का कार्यभार संभाल लिया। यहां - वहां विधर्मियों से लोहा लेने पहुंच जाते। प्रवास, शास्त्रार्थ, उपदेश, लेखन कार्य करते थे। इसलिए "आर्य मुसाफिर" उपनाम से प्रसिद्ध होगये।                .


 🏵️ *अहमदिया मत खंडन* : पंजाब प्रांत के गुरुदासपुर ज़िला स्थित कस्बा कादियां में एक मुसलमान मिर्ज़ा ने खुद को नबी घोषित कर दिया। अपनी *चमत्कारी* शक्तियों की डींग मारी।  साहसी प० लेखराम उस की पोल देने कादियां पहुंच गए । अपनी हथेली पर कुछ लिख कर मुट्ठी बंद और मिर्ज़ा को चुनौती दी कि बताओ मेरी मुठ्ठी में क्या लिखा है ? मिर्ज़ा चुप ही रहा । तब पंडित जी ने मुठ्ठी खोली। हथेली पर ' *ओम्* ' लिखा हुआ था। मिर्ज़ा की किरकिरी हो गई ।                     


🏵️ मिर्ज़ा ने हिन्दू मान्यताओं और आर्य समाज पर आक्षेप करते हुए "बुराहीने अहमदिया " पुस्तक  लिखी, तो पंडित जी ने उस का करारा उत्तर  " तकजीब *बुराहीने अहमदिया " पुस्तक 1886* ई में लिखी। जिसकी छपने से पहले ही हाथ से लिखी प्रतियाँ दूर दूर तक पहुंच गई।.. *एक ईसाई पादरी खड़क* सिंह ने  भी अपने छ: व्याख्यानों मे जो आक्षेप  हिन्दुओं पर लगाए थे उनके उत्तर भी पंडित जी ने लिख कर छपवाए । अन्य अवैदिक मतों के खंडन में भी ट्रेक्ट छपवाए। 1887 ई में पण्डित जी को फीरोजपुर से छपने वाले मुखपत्र " *आर्य गज़ेट" का* सम्पादन भार भी दे दिया गया ।।                        


🏵️1888 ई में उनको स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी हेतु तथ्य, लिखित सामग्री इकट्ठा करने का काम भी सौंप दिया गया।  आर्य समाज के जलसों में व्याख्यान हेतु जाते थे साथ में सामग्री भी जुटाते रहे। 1891 ,ई मे ंदानापुर की खुदाबख्श लाईब्रेरी में रखी कुरान से कुछ नोट किया साथ ही स्वामी जी की जीवनी संबंधित भी जानकारी ली। उस समय ही किसी ने उनके घर सूचित कर दिया कि पंडित जी की मृत्यु हो गई है। दानापुर आर्य समाज ने पंडित जी के परिवार को आश्वस्त किया कि पंडित जी कुशल हैं।.. फिर वह सिंध प्रांत के सक्खर, सरमौर, बूंदी में प्रचार करते हुए 1892 ई  के अंत में स्वामी जी की जन्मभूमि की खोज करने गुजरात भी गए।।                

🏵️1893 ई  में ही  35 वर्ष की आयु उनका विवाह सुश्री लक्षमी देवी के हाथ हुआ। पंडित जी ने उस को खुद ही पढ़ाना शुरू कर दिया। 1895 ई  में पुत्र सुखदेव का जन्म हुआ परंतु 1896 ई में ही 15 महीने के इस बालक का देहांत हो गया। पंडित जी के चैहरे  पर दु:ख की रेखा भी नहीं आई। आर्य समाज का कार्य ही उनकी मुख्य चिन्ता बन गई थी। प्रचार में कोई कमी नहीं आई।।।                  


🏵️ *लगन निडरता*: १.  जब पुत्र बीमार था तो खबर मिलीकि लुधियाना के निकट पायल में  कुछ लोग इसलाम धर्म अपनाने जा रहे हैं। पंडितजी ने जलदी के कारण एक्सप्रेस गाड़ी का टिकट ले लिया पंडित जी ने अपने *पुत्र की बीमारी* की चिन्ता भूल कर, जल्दी में एक्सप्रेस गाड़ी की टिकट ले ली पर वह उस स्टेशन पर नहीं रुकती थी। जब ट्रेन ड्राइवर ने उस स्टेशन पर लाईन क्लीयर लेने के लिए गाड़ी की गति धीमी की , तो पंडित जी ने अपना बिस्तर गाड़ी से नीचे फैंका और फिर खुद भी कूद गए। कपड़े *फट गए, खरोंच भी आईं, उठे बिस्तर* उठाया और स्थानीय आ. स. के मंत्री को साथ ले कर धर्म परिवर्तन करने वाले के घर तत्काल पहुंचे। उस व्यक्ति ने पंडित जी का हुलिया देखा  , अनुभव किया  कि पंडित जी को मेरी इतनी चिन्ता  है, तो उसने *हिंदू धर्म त्याग* करने का विचार ही छोड़ दिया। ... 

🏵️२...मार्च 1896 ई *अजमेरआर्यसमाज के उत्सव में प्रवचन देने के लिए गए, नगर कीर्तनके दोरान, अजमेर ख्वाजा चिश्ती की दरगाह के पास उनके व्याख्यान से  मुस्लमान भड़क गए। आर्य भाई डर कर वहां से खिसक गए, लेखराम नहीं डरे । कहीं पढ़ा था विधर्मियो के पूजा स्थल से तीस फूट दूर रह कर कोई विरोधी बोल सकता है। चिश्ती दरगाह के दरवाजे पर पहुंचे, वहां से तीस कदम नापे और खड़े होकर एकत्रित मुसलमानों को बुत परस्ती और कब्र परस्ती की हानियां समझाने लगे।..लौट कर आ गये आर्यों को आश्चर्य हुआ कि मुसलमान भीड़ उनकी बात को ध्यान से सुन रही  है। ... 

🏵️३..*जुलाई 1896 में शिमला* में हुए अपने व्याख्यान के दौरान प्रमाण देकर कहा कि इस्लाम के पैगम्बर ने खुदाई का दावा करके कुफ्र फैलाया। एक मुस्लिम युवक ने भड़क कर कहा- काफिरों को काटने वाली मुहम्मद की शमशीर ( तलवार) को मत भूलो। पण्डित जी ने उधर देखा और कड़क कर कहा- बुज़दिल मुझे मुहम्मदी तलवार की धमकी देता है ! मैं तो अपनी *जान हथेली पर* लिए फिरता हूँ। उसके बाद वहां किसी ने चूं तक नहीं की

🏵️४.. *जोधपुर* के नरेश प्रताप सिंह यद्दपि स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन काल में उनके श्रद्धालु हो गये थे , परंतु उनके भीतर एक धारणा थी कि राजपूतों को वीरता हेतु मांसाहार ज़रूरी था। स्वामी जी के एक अनुयायी मेरठ वासी प. भीमसेन ने 


🏵️ *धन के लोभ में* आकर मांस भक्षण के पक्ष में सम्मति दे दी। प. लेखराम जी को यह फरेब सहन नहीं हुआ । अगस्त 1893 ई में जोधपुर पहुंचे। भीमसेन को बता दिया कि यदि महाराज के समक्ष स्वामी जी की मान्यता के *अनुसार शाकाहार का समर्थन* नहीं करोगे तो मैं सर्वत्र आपकी भर्त्सना करके आपको धार्मिक सभाओं से बहिष्कृत करा दूंगा। भीमसेन को सत्य मन्तव्य देना पड़ा। लेखराम ने महाराज प्रताप के की नाराजगी की परवाह नहीं की।..


🏵️५ *सयालकोट* में तैनात सिख फौज के कुछ सैनिकों को मौलवियों ने बहका दिया की अपनी मान्यता के अनुसार , तुम इस्लाम के बहुत करीब हो, अतः तुम्हें मुस्लिम धर्म अपना लेना चाहिए। उन सैनिकों को गुरुओं की शिक्षाओं की ठीक जानकारी नहीं थी। पंडित जी को पता लगा, वहां पहुंच कर तर्क से मौलवियों के दांत खट्टे कर के सिख पंथ की कीर्ति समझाई। अपनी गरिमा की स्थापना की खुशी में सिख सैनिकों ने *पंडित जी* को *अपने* *कंधों पर* *उठा कर* जुलूस निकाला।

🏵️६.. *राजपुताना* के प्रवास के दौरान उन्होंने इस्लाम धर्म की आलोचना की तो एक *पठान सरदार* ने गुस्से में भर कर अपनी तलवार की मूंठ पर हाथ रखा। प. जी गरजे, तो हाकिम ने उस पठान को वहां से हटा दिया।.        


🏵️ अहमदिया मिर्जा प. लेखराम के  द्वारा किए जा रहे आक्षेपों से इतना सकपका गया कि उसने भयंकर दिखने वाले एक कसाई को प. लेखराम के पीछे आर्य सिद्धांत जानने के बहाने लगा दिया। चेतावनी मिलने के बावजूद प. जी उस को परे नहीं हटाया। 6 मार्च 1897 ई को प. जी घर पर स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी संबंधित कागजात पढ़ रहे थे कि उनकी माता जी उनको बाज़ार से कुछ सामान लाने को कहा। कागज़ात समेट कर प. जी ने हाथ उठाकर जम्हाई ली। ताक में बैठे कसाई ने कहीं से एक छुरा निकाला, असावधान प. जी के पेट में घुसेड कर घुमा दिया ।  बाहर लटक गई अंतडियों को प. जी ने पकड़ लिया। उन्हें घंभीर हालत में हस्पताल ले जाया गया। स्वामी श्र्द्धानंद से पास बैठे थे। पंडित लेखराम ने कहा " आर्य समाज में तहरीर और तकरीर ( लेखन और भाषण) का काम बंद नहीं होना चाहिए" । और प्राण त्याग दिए। उस समय प. जी मात्र 39 साल के थे।


🙏 *नमन और श्रद्धांजलि* 🙏  पत्नी लक्षमी देवी त्याग की मूर्ति थीं।  प. जी के जीवन बीमा की दोहज़ार रुपये की की राशि उपदेशक शिक्षा के हेतु दान करदी।🙏


🪷 ( साभार: स्वामी श्रद्धानंद और स्वामी स्वतंत्रानंद लिखित जीवनियों से )🪷

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