किसकी स्तुति करें ?

 प्रेष्ठ वो अतिथिं स्तुषे मित्रमिव प्रियम्। अग्रे रथं न  वेद्यम् ॥

- साम० ५

ऋषिः - मेधातिथिः ॥ देवता - अग्रिः ॥ छन्दः- गायत्री ॥

 अन्वयः - मित्रमिव प्रियं प्रेष्ठं अतिथिं वेद्यं रथं न, अग्नेः वः स्तुषे ॥

शब्दार्थ- [हे मनुष्य!] (मित्रमिव प्रियम्) मित्र के समान हितसाधक (प्रेष्ठम्) अतिप्रिय (अतिथिम्) निरन्तर व्यापक (वेद्यम्) जानने योग्य अथवा हृदयरूपी वेदी में ध्यान करने योग्य (रथं न) रथ के समान सबके आधार और वाहक पहुँचानेवाले (अग्नेः) प्रकाशमान परमात्मा की (स्तुषे) तू स्तुति कर।

व्याख्या- मन्त्र के भाव को समझने के लिए उसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- पहला भाग जिसे विधिवाक्य कह सकते हैं, मानव-जीवन का मुख्य लक्ष्य है- उस प्रभु की स्तुति के गीत गाना; मन्त्र के शेष भाग में छह विशेषणों के द्वारा उस प्रभु के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है- (१) वह प्रभु ही श्रेष्ठ मित्र के समान हितसाधक तथा प्रिय है। (२) वह सबसे अधिक प्रेम करने योग्य है। (३) वह निरन्तर व्यापक है। (४) वही जानने के योग्य और हृदयरूपी वेदी में ध्यान करने योग्य है। (५) वह सर्वाधार है। (६) वह प्रकाश- स्वरूप है।


स्तुषे का अर्थ 'तू स्तुति कर' इतना ही है, किन्तु इसके गहरे भाव को प्रकट करने के लिए इसका अर्थ 'स्तुति के गीत गा' किया गया है। हेतु यह है कि साम है ही गान का विषय । साम का लक्षण शास्त्रकारों ने किया "गीतिषु सामाख्या" - ऋचाएँ ही भक्तों के भावावेश की स्वर- लहरी में जब फूटकर बाहर प्रकट होती हैं, तो वे साम बन जाती हैं। उपासना और संगीत का गहरा सम्बन्ध है, अर्थात् जो मनोदशा एक गायक की संगीत को गाने के समय होती है, ठीक वही स्थिति भक्त की भी उपासना में प्रभु-स्मरण के समय होनी चाहिए। उपासक की मनोदशा का अच्छा चित्र खींचा है गोस्वामी तुलसीदास ने-

हिय फाटउ फूटउ नयन, जरउ सो तन केहि काम। द्रवै स्त्रवै पुलकै नहीं, तुलसी सुमिरत नाम ॥

वह हृदय फट जाय जो प्रभु का नाम लेते ही द्रवित नहीं होता। वे आँखें फूट जायँ जो भगवान् को याद करने पर प्रेम के झरने नहीं बहातीं। वह शरीर जो उसका नाम लेते ही पुलकित नहीं हो उठता, भस्म हो जाय।

 एक उर्दू शायर ने भी अच्छा कहा है-

दिल वो क्या जिसको नहीं तेरी तमन्नाए-विसाल !

 चश्म क्या जिसको तेरे दीद की हसरत ही नहीं ॥


इसलिए गाने के बिना स्तुति प्राण-विहीन शरीर के समान है। उसमें रस का सञ्चार तो तभी होगा जब गायक की स्वर-साधना का समा बंधेगा। गम्भीरता से विचार करके देखा जाय तो गाना केवल अलापने और स्वर के आरोह-अवरोह और तान-मूच्र्छना का नाम नहीं है। लोक में एक कहावत है कि- 'गाना और रोना तो सबको आता है।' यदि गाना संगीत-विद्या का नाम होता तो वह सभी को कैसे आ सकता है? इससे परिचित तो वे ही होते हैं जो इसको विधिपूर्वक सीखते हैं। वस्तुतः गाना और रोना, दोनों ही पारिभाषिक शब्द हैं। गाने की परिभाषा यह है कि- "मनुष्य के हृदय में उल्लास की उमङ्ग उठकर अपने अन्दर न समाकर स्वर का सहारा लेकर बाहर झलक पड़े, उसे गाना कहते हैं।" इस स्थिति में मनुष्य गुनगुनाने के लिए विवश है और हममें से कोई भी ऐसा न मिलेगा जो गाता न हो। चाहे वह स्नानागार में गाए, चाहे गली में चहलकदमी करते हुए, चाहे उसे कोई तर्ज आती हो अथवा न आती हो और चाहे सुननेवाले उसे बिल्कुल पसन्द न कर रहे हों, किन्तु वह गाता है। तो गाने का वास्तविक स्वरूप हुआ- "उल्लास का विकास।" इसी प्रकार रोने की परिभाषा यह है- " मानसिक व्यथा और कष्ट नियन्त्रण के बाहर होकर जब आँसुओं का सहारा लेकर बाहर फूट पड़े, उस स्थिति का नाम रोना है।" यद्यपि साहित्य में प्रेमाश्रुओं का वर्णन है, वह सभी के अनुभव का विषय भी है। जब चिर-वियोग के बाद कोई भी स्नेही जन परस्पर मिलते हैं, तो आँखों में आँसू छलक आते हैं, किन्तु प्रेम में आकर हिचकियाँ भरकर कोई नहीं रोता। वह रुदन तो कष्ट का ही सूचक होता है।

 इस बात को रहीम ने बहुत सुन्दर रूप में कहा है-

रहिमन अँसुआ नयन ढरि, जिय-दुख प्रगट करेइ। 

जाहि निकारो गेह ते, कस न भेद कह देइ ॥

 एक शायर ने भी प्रकारान्तर से यही बात कही है-

 इन्हें आँसू समझकर यूँ न मिट्टी में मिला जालिम !

 पयामे-दर्दे-दिल है और आँखों की जुबानी है।


इस परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट है कि स्तुति तबतक अपने वास्तविक धरातल पर नहीं आती जबतक कि उसमें संगीत की मादकता न हो। बहुत-से व्यक्तियों की यह धारणा है कि ईश्वर-भक्ति के लिए दुःख आवश्यक है। जबतक मनुष्य दुःखी नहीं होता, तबतक उसमें भक्ति  की भावना नहीं पनपती। 

इस विचार का मूल गीता का यह श्लोक है-

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्त्ता जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ । - गीता ७।१६


श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि चार प्रकार के लोग ईश्वर का भजन करते हैं- (१) दुःखी, (२) सत्यासत्य की खोज करनेवाले, (३) सम्पत्ति चाहनेवाले, (४) वास्तविकता को पहचाननेवाले विवेकी। लोग सामान्यतया इस श्लोक में आर्त्त, दुःखी को पहले देखकर इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि ईश्वर-भक्ति के लिए दुःख अनिवार्य है। वस्तुतः बात यह नहीं है। दुःखी के प्रति भक्त के मन में करुणा और सहानुभूति तो होनी चाहिये, इसके बिना तो संसार नरक बन जाएगा।

 उर्दू के प्रसिद्ध शायर जिगर ने कहा है-

जबतक कि गमे-इन्साँ से जिगर इन्सान का दिल मामूर नहीं,

 जन्नत' ही सही दुनिया, लेकिन, जन्नत से जहन्नुम दूर नहीं।


किन्तु दुःख और आपत्ति का मारा हुआ ही भगवान् का नाम लेता हो, तो उस कष्ट के निवृत्त होने पर वह उसे भूल भी जाएगा। प्रायः संसार में यही होता है। एक मनोरञ्जक कहानी है कि एक मीरासी नदी को पार करने लगा तो पहले डर से भगवान् को प्रसन्न करने के लिए सङ्कल्प किया कि सकुशल पार होने पर ५ रुपये का प्रसाद बाँदूँगा। अब वह निश्चिन्त होकर नदी में चलने लगा और लगभग नदी पार कर ली; केवल दो-तीन गज़ की धारा और शेष बची थी, किन्तु नदी में पानी घुटने से ऊपर था ही नहीं। मीरासी के मन में विचार आया कि पाँच रुपये बेकार खो दिये; नदी में तो पानी ही न निकला ! संयोग की बात, यह सोचते ही नदी में गढ़ा आ गया और वह गर्दन तक उसमें डूब गया। यह देखकर मीरासी घबराया। सोचने लगा कि सम्भवतः मेरे मन में जो नास्तिकता के भाव आए, यह उसी का परिणाम है। कहीं ऐसा न हो कि डूब ही जाऊँ ! हड़बड़ाहट में एकाएक पलटकर बोला कि जो प्रसाद बोल दिया है, वह तो बाँदूँगा ही, यह बात तो मैंने वैसे ही कह दी थी। स्पष्ट है कि दुःखी तबतक ही भक्ति दिखाता है, जबतक कष्ट है। कष्ट के हटने पर दुनिया की रङ्गोलियों में मस्त हो जाता है। 

ठीक कहा है किसी शायर ने-

जो डरकर नारे-दोजखं से, ख़ुदा का नाम लेते हैं। 

इबादत क्या, वो खाली बुज़दिलाना' एक खिदमत है ॥


वस्तुतः भक्ति क्या है? 

मगर जब शुक्रे-नेऽमत में जबीं झुकती है बन्दे की।

 वो सच्ची बन्दगी है, इक शरीफ़ाना इताअत है॥


प्रभु के अगणित उपकारों को स्मरण कर कृतज्ञ मन जब उसका धन्यवाद देने के लिए झुकता है, तभी वस्तुतः स्तुति और भक्ति होती है। ऋषि दयानन्द ने भी सत्यार्थप्रकाश में यही कहा कि प्रभु-प्रेम में गद्गद होकर भगवान् का भजन करना चाहिए। केवल दुःख में प्रभु का स्मरण करनेवाला तो सबसे निकृष्ट कोटि का भक्त है। उससे कुछ अच्छा' अर्थार्थी' अर्थात् सम्पत्ति की लालसा में भगवान् का नाम लेनेवाला है। किन्तु इसकी भी स्थिति सम्पत्ति आते ही वैसे ही हो जाएगी जैसी पहले की थी। इससे अधिक उत्तम भक्त 'जिज्ञासु', अर्थात् सत्यान्वेषी है। वह जिस-जिस सत्य को परखता जाता है, उस पर आचरण के लिए आरूढ़ होता जाता है। जब उसे अपनी वैज्ञानिक खोजों के बाद प्रभु के सृष्टिकर्ता होने का विश्वास हो जाता है, तब वह भक्ति की ओर उन्मुख होता है। किन्तु इन सब में श्रेष्ठ और वास्तविक भक्त 'ज्ञानी' है। वह जीवन का चरमलक्ष्य समझकर ही प्रभु का स्मरण करता है।

इसलिए मन्त्र में पहली बात कही कि तेरे जीवन की सार्थकता उसकी स्तुति के गीत गाने में है। मन्त्र में दूसरी बात है- "मित्रमिव प्रियम्"- वह मित्र के समान हित-साधक है। संस्कृत की 'जिमिदा स्नेहने' धातु का मित्' और 'त्रैङ् रक्षणे' धातु का 'त्रै' इस प्रकार दोनों के योग से 'मित्र' शब्द बना। वह स्नेह जो अपना और अपने सम्पर्क में आनेवाले (दोनों) का त्राण - उद्धार करनेवाला हो। इस उच्चस्तर पर मित्रता करनेवाले संसार में बड़े सात्त्विक-धार्मिक महापुरुष ही हो सकते हैं। दुनियादारी की दृष्टि से भी मित्रता का विश्लेषण किया जाय तो वह होगा- 'स्वार्थ साधन का उचित गठबन्धन'। दो व्यक्तियों के परस्पर स्वभाव मिलते हों, इसी समान शील और व्यसन के कारण एक-दूसरे के सुख-दुःख में, शादी-ग़मी में शामिल होते हों और यही क्रम कुछ लम्बे समय तक चलता रहे तो संसार की बोल-चाल की भाषा में ये दोनों मित्र कहलाएँगे, किन्तु इस सम्बन्ध-सूत्र को सुरक्षित रखने के लिए सम्पत्ति और पद आदि की समानता का स्तर अनिवार्य है। राजा और रङ्क की, मूर्ख और विद्वान् की मित्रता कभी नहीं चल सकती। इसमें द्रुपद और द्रोण का उदाहरण पर्याप्त है। यह भी संसार की दृष्टि से कोई बुरी बात नहीं है। कल्पना कीजिये-हमारा कोई व्यवसायी मित्र आर्थिक सङ्कट में आ गया। उसे फैक्ट्री को सन्तुलित करने के लिए एक-साथ पाँच लाख रुपये की आवश्यकता है। मित्र के हित की दृष्टि से हम उसका उद्धार भी चाहते हैं, किन्तु अपनी आर्थिक स्थिति ऐसी है कि पाँच लाख की तो बात ही क्या, पाँच हजार जुटाना भी कठिन है। तब हम अपने मित्र की चाहते हुए भी कोई सहायता नहीं कर सकते, अतः किसी नीतिकार ने बड़े पते की बात लिखी कि- "गजानां पङ्कमग्नानां गजा एव धुरंधराः "- दलदल में फँसे हाथी को निकालने के लिए हाथी ही अपेक्षित है। हम और आप उसे खींचकर निकालना चाहें तो नहीं खींच सकते। पर आज के संसार की मित्रता जितना डुबाती है, उतना उबारती नहीं। 

शास्त्रकारों ने अच्छे मित्रों के छह लक्षण गिनाए हैं-

 पापान्निवारयति योजयते हिताय,

 गुह्यं च गूहति गुणान् प्रकटीकरोति । 

आपद्गतं च न जहाति ददाति काले, 

सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥


मित्र का पहला कर्त्तव्य है कि निरन्तर सम्पर्क के कारण अपने मित्र के जीवन की जो बुराई पता लगे, उसे छोड़ने के लिए प्रेमपूर्वक प्रेरणा करे, किन्तु आज स्थिति यह है कि स्वयं हम जिस व्यसन में लिप्त हैं, मित्र को भी उसी कीचड़ में घसीटते हैं। स्वयं सिगरेट पीते हैं तो प्रयत्न यही होता है कि हमारा मित्र भी साथ देने लगे। मित्रों को सिनेमा देखने की दावत देना और आग्रहपूर्वक घसीट ले-जाना तो शिष्टाचार का अङ्ग बन गया है। किन्तु अच्छे मित्र का कर्तव्य यही है कि वह मित्र को दुष्कर्म छोड़ने की प्रेरणा करता रहे।

मित्र का दूसरा कर्त्तव्य है कि बुराई को छुड़ाकर ही सन्तुष्ट न हो जाय, "योजयते हिताय"- भलाई के कामों में उसे लगावे भी। दुष्कर्म की बीमारी को छोड़ने का पूरा उपचार भी यही है, क्योंकि मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है कि- "Man Cannot remain Stationary, he must either improve or impair" - मनुष्य कभी एकरस नहीं रह सकता, या तो वह उन्नति की ओर अग्रसर होगा अथवा अवनति की ओर लुढ़केगा। बुराई के दुःसंस्कारों से पीछा तो तभी छूटेगा जब बुराई के स्थान की पूर्ति अच्छाई से होगी, अतः मित्र को बुराई से हटाकर भलाई में लगावे।

मित्र का तीसरा कर्त्तव्य है- "गुह्यं च गृहति" छिपाने के योग्य बात को छिपावे। जब यह अनुभव हो कि मेरा मित्र अपनी कमियों को दूर करने के लिए तो प्रयत्नशील है, फिर भी कभी कोई भूल हो जाती है, तो वह क्षन्तव्य है। इस अवस्था में मित्र की बातों की अनदेखी कर देनी चाहिए। पर आजकल के मित्रों का यह पक्ष अत्यन्त दुर्बल है। वे मित्र की बातों का यह कहकर कि- 'हमारे मित्र हैं, हमसे उनकी कोई बात छिपी नहीं है' या 'और किसी को तो हम कहते नहीं, किन्तु आपसे कोई बात छिपाई नहीं जा सकती', आदि बातें सभ्यजनोचित भाषा में कहकर मित्र के दोषों का सारी बस्ती में ढिंढोरा पीट देते हैं। ऐसे मित्र शत्रुओं से भी अधिक भयङ्कर होते हैं। मित्र का चतुर्थ कर्त्तव्य है- "गुणान् प्रकटीकरोति" - मित्र के गुणों का समाज में वर्णन करे। इससे उसे और अधिक शुभकर्म करने की प्रेरणा मिलेगी। अब आगे पाँचवाँ कर्त्तव्य कहा - "आपद्‌गतं च न जहाति"- विपत्ति में घिरे मित्र की कभी उपेक्षा न करे। जितना अपना सामर्थ्य हो, उसके कष्ट निवारण में लगावे। छठा कर्त्तव्य है- "ददाति काले"- मित्र को यदि आर्थिक सहयोग की आवश्यकता है तो अवश्य दे। बुरे दिन किसी के सदा नहीं रहते। यदि आप सङ्कट में किसी की सहायता करते हैं, तो इससे मित्रता की जड़ें पाताल तक पहुँच जाती हैं। एक प्रकार से मित्रता की परख विपत्ति ही में होती है। 

इस विषय में ऋग्वेद में बहुत उत्तम परामर्श दिया गया है-

न स सखा यो न ददाति सख्ये सचाभुवे सचमानाय पित्वः ।

 अपास्मात् प्रेयात् न तदोकोऽस्ति पृणन्तमन्यमरणं चिदिच्छेत् ॥

- ऋ० १०।११७।४


सहायता के इच्छुक मित्र की समय पर जो सहायता नहीं करता वह मित्र ही नहीं है। ऐसे मित्र को छोड़कर विपत्ति में सहायक किसी दूसरे मित्र को खोजना चाहिए।

किसी उर्दू शायर ने भी बहुत सुन्दर कहा है-

जवाले-जाहोदौलत में बस इतनी बात अच्छी है,

कि दुनिया को बखूबी आदमी पहचान लेता है।

तुलसीदासजी ने भी बहुत अच्छा कहा है-

जे न मित्र-दुख होहिं दुखारी, 

तिनहिं बिलोकत पातक भारी।

महात्मा भर्तृहरि के गिनाए सन्मित्रों के उक्त लक्षण उच्चकोटि के धर्मात्माओं में ही मिल सकते हैं। सामान्यजन तो आपाधापी और स्वार्थ- साधन की उधेड़बुन में ही लगे रहते हैं। किन्तु सच्चे मित्र के पूर्ण लक्षण भगवान् में ही चरितार्थ होते हैं। मित्र का पहला लक्षण बताया- पाप से बचाए। सांसारिक मित्र तो पाप करने पर ही उससे बचने का परामर्श देगा, किन्तु वह प्रभु तो ऐसा अन्तर्यामी मित्र है कि मन में ज्यों ही कोई बुरे संस्कार उदित होते हैं, उसी समय भय, शङ्का और लज्जा के भाव पैदा करके उस बुराई से बचने की प्रेरणा करता है। उसी प्रकार अच्छा काम करने का विचार आते ही उल्लास और हर्ष की तरङ्ग-सी मन में उठती है। यह प्रेरणा भी प्रभु की ओर से ही है। भले कामों में प्रेरणा करने का जो मित्र का दूसरा लक्षण है, वह भी प्रभु पर ही घट रहा है। तीसरा लक्षण है छिपाने योग्य बात को छिपावे। इसमें तो मनुष्य के ऊपर भगवान् की असीम कृपा है। हमारा कोई भी दुर्विचार और दुर्व्यसन ऐसा नहीं है जिसे भगवान् जानता न हो। फिर भी न केवल उसे गुप्त रखता है, अपितु दया और सहिष्णुता का वरदहस्त भी उसका हमारे ऊपर सदा बना रहता है। यदि हम एक-दूसरे के उन गुप्त भावों से परिचित हो जाएँ तो बखेड़ा खड़ा हो जाय। श्रीमान् जी, आदरणीय और पूज्य के चिकने-चुपड़े विशेषण धरे रह जाएँगे। 

ठीक कहा है किसी शायर ने-

ये खूब क्या है, ये जीस्त क्या है,

 जहाँ की अस्ली सरिश्त क्या है?

 बड़ा मज़ा हो तमाम चेहरे 

अगर कोई बेनकाब कर दे॥

मित्र का चौथा गुण कि 'मित्र के सद्‌गुणों को प्रकट करे, उनकी

सराहना करे' - इस विषय में भी सज्जनों पर प्रभु कृपा होती है। संसार ,

में उत्तम कोटि के व्यक्ति नाम और यश की भावना से कोई काम नहीं

करते, अपितु अपना कर्त्तव्य समझकर उसका आचरण करते हैं।

 जैसाकि

कहा है- "ददामि देयमित्येव यजे यष्टव्यमित्युत" - देना मेरा कर्त्तव्य है

यह समझकर देता हूँ और यज्ञ भी अपना धर्म समझकर करता हूँ, नाम

और यश के भाव से नहीं। किन्तु संसार में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है

जब किसी के सदाचरण की सुगन्ध संसार में न फैली हो और लोग उससे

अपरिचित रहे हों। 

ठीक लिखा है उर्दू के महान् शायर अकबर ने -


निगाहें कामिलों पर पड़ ही जाती हैं जमाने की।

 कहीं छिपता है 'अकबर' फूल पत्तों में निहाँ होकर ?


अतः प्रभु अपने ढङ्ग से हमारे गुणों का प्रकाश भी करता है। पाँचवाँ गुण- "विपद्-ग्रस्त मित्र को सहारा दे, उसकी उपेक्षा न करे।" इसमें भी प्रभु ही पूर्ण हैं। ठीक है कि दुष्कर्म के फलस्वरूप विपत्ति भी प्रभु-व्यवस्था से ही आती है, किन्तु उस विपत्ति का लक्ष्य सुधार करना है, केवल कष्ट देना नहीं। पर साथ ही विपत्ति के समय जो धैर्य और दृढ़ता आती है, वह प्रभु का ही वरदान है। कई बार आपत्ति की घटा उतर जाने पर अपने धैर्य और अपनी शान्ति पर स्वयं को आश्चर्य होता है। अन्तिम लक्षण मित्र को देने का है। इसमें तो वह प्रभु कमाल ही करते हैं। यदि हमारा दुष्कर्म कोई बाधक न हो तो उसे निहाल करते देर नहीं लगती -


तेरे करम में कमी कुछ नहीं, करीम है तू। 

कुसूर मेरा है झूठा उमीदवार हूँ मैं ॥


मन्त्र में प्रभु के विशेषणों में दूसरा है 'प्रेष्ठम्' । वह सबसे अधिक प्रेम करने योग्य है। संस्कृत व्याकरण में तमप् और इष्ठन् प्रत्यय अतिशय के अर्थ में आते हैं, अर्थात् जहाँ पराकाष्ठा हो। अंग्रेज़ी के भी बेस्ट, बिग्गेस्ट और ग्रेटेस्ट आदि शब्दों में अतिशय के अर्थ का द्योतक वही

|औ 'इष्ठन्' प्रत्यय है। इस अतिशय प्रेम का पात्र वह प्रभु ही है। सांसारिक हैं। ये सब रिश्ते मिथ्या और झूठे हैं- वेद यह नहीं मानता, क्योंकि वेद ने स्वयं किसके साथ कैसा व्यवहार हो, यह उपदेश दिया है-

अन्यो अन्यमभि हर्यंत वत्सं जातमिवाघ्या। अथर्व० ३।३०।१


अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः ।

जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम् ॥ - अथर्व० ३।३०।२

 मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् मा स्वसारमुत स्वसा । अथर्व० ३।३०।३


यदि वेद की दृष्टि में ये सब सम्बन्ध मिथ्या होते तो वेद कर्त्तव्य- पालन का उपदेश क्यों देता? वेद का आशय यह है कि ये सब सांसारिक सम्बन्ध क्षणिक हैं। एक समय था जब ये सम्बन्ध नहीं थे और एक समय आएगा जब ये सम्बन्ध नहीं रहेंगे। इन सम्बन्धों का जन्म हमारे शरीर के साथ होता है और शरीर की समाप्ति के बाद सम्बन्धों का नाम भले ही रह जाय, वास्तव में सम्बन्ध नहीं रहता। प्रभु से हमारा सम्बन्ध सदा से है और सदा रहेगा, अतः उसके साथ परम प्रेम का अर्थ है-सर्वस्व की बाजी लगाकर भी धर्म के मार्ग पर आरूढ़ होना, यही उसको अतिशय प्रेम करना है, जैसा कि महर्षि व्यास ने महाभारत में कहा है-

न जातु कामान्न भयान्न लोभात्, धर्मं त्यजेत् जीवितस्यापि हेतोः । 

धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ॥

- महाभारत ५।४०।११


"किसी अवस्था में भी काम और लोभ के वशीभूत होकर अथवा भय से भी संत्रस्त होकर तथा मृत्यु का सङ्कट उपस्थित होने पर भी धर्म का परित्याग न करे। जीवात्मा अमर है और धर्म भी शाश्वत है। सुख-दुःख और दूसरे अन्यान्य कारण सब अनित्य हैं।"


तीसरा विशेषण है- 'अतिथिम्' वह सर्वव्यापक है। अतिथि शब्द का सर्वव्यापक अर्थ समझने के लिए 'तिथि' शब्द को समझना चाहिए। चन्द्रमा के माध्यम से जहाँ महीने का हिसाब रखा जाता है, वहाँ तिथियों में प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया के आधार पर मास का परिगणन होता है। इन तिथियों में कभी किसी पक्ष में कोई तिथि घट जाती है और कोई बढ़ जाती है। आपाततः यह घटने-बढ़नेवाली बात विचित्र-सी लगती है। जब सूर्य और चन्द्र नियमित रूप से उदित और अस्त हो रहे हैं, दिन और रात का क्रम यथावत् जारी है तो फिर तिथि घट कैसे गई ? यही प्रश्न तिथि बढ़ने के विषय में भी है। वस्तुतः उस प्रकार से तिथि न घटती है, न बढ़ती है। जितने समय को ज्योतिष के हिसाब से एक सीमा में बाँध दिया जाता है, उसे तिथि कहते हैं। गणित के हिसाब से २४ घण्टे से कम की सीमा निर्धारित हुई तो यह तिथि का बढ़ना हो गया और वही समय की सीमा ३६ अथवा और अधिक घण्टे की निर्धारित हुई तो समय का घटना हो गया। सार यह निकला कि जिसकी सीमा नियत हो उसे तिथि कहते हैं, चाहे वह सीमा स्थान की हो अथवा समय की और जिसकी देश और काल की कोई सीमा न हो, अर्थात् जो सब काल और सब स्थानों पर हो उसे कहेंगे- 'अतिधि'। इस प्रकार अतिथि शब्द का अर्थ हुआ सर्वव्यापक ।

एक आस्तिक के लिए प्रभु को सर्वव्यापक समझना अत्यन्त आवश्यक है। यदि स्थान-विशेष में उसकी कल्पना की जाएगी तो साधक के लिए पथभ्रष्ट होने की आशंकाएँ पग-पग पर रहेंगी। उसकी सुरक्षा इसी में है कि प्रत्येक स्थान पर सर्वज्ञ सर्वकर्मफल-प्रदाता परमेश्वर को अनुभव करे। उसके मन में निश्चय होना चाहिए कि वह मेरे अच्छे और बुरे सब आचरणों को जानता है। यह कर्मों का साक्षी भी ऐसा है कि उन कर्मों के अनुसार फल की व्यवस्था करता है। इस व्यवस्था में कभी भी कोई व्यतिक्रम नहीं हो सकता, यह निश्चय होने पर मनुष्य पाप से बचता है। इसके विपरीत मस्जिद, मन्दिर और स्थान-विशेष में जब मनुष्य उसकी स्थिति स्वीकार करता है तो स्वाभाविक रूप से प्रभु के घर कहलानेवाले स्थानों में जाते अथवा वहाँ रहते समय जो उसके मन की पवित्रता है, वह उस चारदीवारी के बाहर न रहेगी और उसके पतन की भी पूरी सम्भावनाएँ रहेंगी।

ऋषि दयानन्द ने साकार उपासना का जो खण्डन किया, उसमें एक मुख्य कारण यह भी है। मनुष्यों ने प्रभु के विषय में अपनी स्थिति के आधार पर कल्पना कर डाली। प्रभु सब देखता है, इसके आधार पर सोचता है कि भगवान् के चारों ओर आँखें होती होंगी, तभी तो वह चारों ओर देख सकता है, अतः चार मुखों की कल्पना हुई। प्रभु बहुत शक्तिवाला है, इस आधार पर अनेकों भुजाओं की कल्पना हुई। यहीं तक नहीं, सोचा कि हमें पेड़ा खाने में बहुत स्वादिष्ट लगता है तो ऐसी बढ़िया वस्तु भगवान् को भी रुचिकर होगी। मेवा और मिठाई मूर्ति पर चढ़ा दी। मांसाहारियों ने काली पर शराब और मांस चढ़ा दिये। भङ्गड़ियों ने महादेव पर भाँग चढ़ा दी। यह सब बुराई प्रभु को स्थान- विशेष पर कल्पित करके अपनी रुचि उस पर थोप देने से उत्पन्न हुई है।

प्रभु का शुद्ध स्वरूप समझे बिना मनुष्य में विचार और आचार की पवित्रता कभी नहीं आ सकती। स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रभु-भक्ति संसार में प्रायः होती है, किन्तु प्रभु के स्वरूप को समझकर अपने कर्त्तव्य का निष्ठा से पालन वही कर सकता है, जो उसे संसार में सर्वत्र अनुभव करता है। इस सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास के जीवन की रोचक और उपदेशप्रद किंवदन्ती है

गोस्वामीजी विरक्त होकर घरबार त्यागकर निकले ही थे। एक बार रात्रि को विश्राम करके आधी रात से पहले ही चल पड़े। बस्ती से आगे कुछ ही दूर पर उन्हें आठ-दस व्यक्ति मिले, जो चोर थे। इनको देखकर चोरों के मुखिया ने कहा कि- 'लो, बोहनी तो इससे ही कर लो। जो इसके पास हो, छीन लो।' यह सुनकर दो चोर यात्री के पास आए और देख दाखकर कहने लगे- 'है तो इसके पास कुछ नहीं।' चोरों के मुखिया ने गोस्वामीजी से पूछा- 'तुम कौन हो ?' ये तो वैराग्य के नशे में थे ही, उत्तर दिया- 'जो तुम हो सो हम हैं।' अभिप्राय था- तुम भी मनुष्य हो, मैं भी एक मनुष्य हूँ। किन्तु चोरों के शब्दकोश के आधार पर इसका यह अर्थ हुआ कि मैं भी एक चोर हूँ। इस उत्तर पर स्वाभाविक रूप से विश्वास इसलिए जम गया कि और कौन रात्रि को सुख की नींद छोड़कर अन्धकार में ठोकरें खाता फिरेगा ? चोरों के नेता ने कहा- 'यदि तू भी वही है जो हम हैं, तो आज की रात हमारे साथ मिलकर काट ले।' इस पर गोस्वामीजी उनके साथ हो लिये। चोर भी जिस गाँव में, जिस घर में उन्हें नक्रब लगानी थी, वहाँ पहुँचे। नेता ने सबकी ड्यूटियाँ-कौन अन्दर जाएगा, कौन बाहर रहेगा आदि- आदि बाँट दीं। इस क्रम में गोस्वामीजी को बाहर रहकर निगरानी का काम सौंपा। साथ ही यह भी कहा कि- 'देखो, लोग जग जावें अथवा और कोई खतरे की बात हो तो चिल्ला मत पड़ना। खुदी हुई मिट्टी की मुट्ठी भरके अन्दर फेंक देना। इससे हम समझ लेंगे कि खतरा है।' गोस्वामीजी ने कहा कि- 'यही करूँगा।'

चोर नक़ाब लगाकर अन्दर चले गए। वे यह देखते फिर रहे थे कि कौन-सा ताला तोड़ें, क्या-क्या लें? गोस्वामीजी बाहर खड़े सोचने लगे कि मुझे यह काम सौंपा गया है कि अगर हमारे साथियों को कोई देखनेवाला हो तो मैं मुट्ठी भर मिट्टी अन्दर फेंककर उन्हें सूचित कर दूँ। विचार आया कि यह तो ठीक है कि इन्हें कोई मनुष्य नहीं देख रहा, पर वह भगवान् तो देख रहा है जो सब जगह व्यापक है। बस, इस विचार के आते ही मुट्ठी भरके मिट्टी अन्दर फेंक दी। 'चोरों के पैर नहीं होते' कहावत है ही। उन्होंने अनुमान लगाया कि लोग जाग गए दीखते हैं, इसलिए भागना चाहिये। सब निकल निकलकर भागे । साथियों को भागता देखकर गोस्वामीजी ने भी दौड़ लगाई। सब भागकर बस्ती से बाहर किसी सुरक्षित स्थान पर इकट्ठे हुए तो चोरों के नेता ने गोस्वामीजी से पूछा- 'क्या बात थी ? लोग जाग गए थे ?' उत्तर मिला 'नहीं।' 'और कोई खतरा था ?' गोस्वामीजी ने फिर 'नहीं' कहा। इन उत्तरों से क्षुब्ध होकर चोरों के नेता ने कहा- 'यह पागल कहाँ से साथ लगा लिया! इसने बना-बनाया सब काम बिगाड़ दिया!' अभिप्राय यह कि सर्वत्र प्रभु की व्यापकता को समझे बिना कोई मनुष्य पाप से नहीं बच सचतुर्थ विशेषण है- 'वेद्यम्'। व्युत्पत्ति के आधार पर 'वेद्यम्' शब्द का एक अर्थ है- 'वेत्तुम् योग्यम्' - जानने के योग्य, और दूसरा अर्थ है- 'वेद्यां भवं वेद्यम्'- उसका ज्ञान हृदयरूपी वेदी में ही हो सकता है।

पहली बात-वही जानने योग्य है। जिसने बहुत कुछ पढ़ लिया और उसे नहीं जाना, तो कुछ नहीं जाना, क्योंकि शास्त्रकारों ने विद्या की परिभाषा यह की है- 'सा विद्या या विमुक्तये' - विद्या वह है, जो दुःखों से छुड़ा दे। जो और दुःखों को लाद दे, वह विद्या नहीं, अविद्या है। आत्मज्ञान-शून्य कोरा शब्द-ज्ञान दुःख का ही कारण है। उस शब्द-ज्ञान का पहला दुष्परिणाम दुरभिमान के रूप में आता है। बड़े-बड़े विद्वान्, जबतक उनकी ज्ञानधारा परमार्थ की ओर नहीं मुड़ती, तबतक वे घमण्ड के नशे में चूर रहते हैं। उनका ज्ञान उनको चैन से नहीं बैठने देता। उदाहरण के लिए महाराज भर्तृहरि को देखिये। ये संस्कृत व्याकरण के धुरन्धर पण्डित थे। महावैयाकरण महाभाष्य के रचयिता पतञ्जलि को भी तुच्छ समझकर भर्तृहरि ने कह दिया था- "मामदृष्ट्वा गतः स्वर्गमकृतार्थः पतञ्जलिः " - पतञ्जलि मुझे देखे बिना मर गया तो अकृतार्थ ही रहा; यदि वह मुझे देख लेता तो पता चलता कि व्याकरण का पाण्डित्य क्या होता है। किन्तु आगे चलकर संसार की ठोकरें खाकर जब उनकी अन्दर की आँखें खुलीं तो दुनिया ही बदल गई। 

यह आपबीती उन्होंने स्वयं लिखी है-

यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम् ,

 तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।

यदा किञ्चित्-किञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम् ,

तदा मूर्वोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥

'जब मैं बहुत थोड़ा जानता था, तब मैं उस ज्ञान के घमण्ड में हाथी के समान मदान्ध हो गया था। उस समय दर्पातिरेक से मैं अपने- आपको सर्वज्ञ समझता था। किन्तु आत्मज्ञानी विद्वानों की संगति से मुझे अब कुछ-कुछ ज्ञान हुआ है तो अब धारणा यह बनी है कि मैं तो मूर्ख हूँ और मेरा सारा घमण्ड ज्वर के समान उतर गया है।'

यही अवस्था सारे संसारियों की है। स्पष्ट है कि यह विद्या दुःख से छुड़ा नहीं रही, अपितु और सङ्कट में उलझा रही है। ऐसी पढ़ाई- लिखाई से तो मूर्खता कहीं अच्छी है। एक संस्कृत के कवि ने एक श्लोक में-"मूर्खस्य चाष्टौ गुणाः" मूर्ख की आठ विशेषताएँ गिनाई हैं- अधिक खाना, अधिक सोना, निश्चिन्त रहना, मानापमान को महत्त्व न देना आदि। तो ऐसी पढ़ाई से क्या लाभ जिससे मनुष्य निरा स्वार्थी बना रहे ? इसलिए विद्या वही है जो दुःख से छुटकारा दिला दे। अतः मन्त्र में कहा- 'वेद्यम्' - वही जानने योग्य है। 'वेद्यम्' का दूसरा अभिप्राय है कि उसे जानने के लिए कहीं बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है, वह हृदय-मन्दिर में जाना जाता है, क्योंकि वही एक ऐसा स्थान है, जहाँ जीवात्मा और परमात्मा दोनों विद्यमान हैं। परमात्मा भले ही सर्वव्यापक है, किन्तु जीवात्मा शरीर में भी व्याप्त नहीं है। उसका अधिष्ठान केवल हृदय है। अतः साधना से अविद्यादि दोषों को दूर करके उसके दर्शन के अधिकारी बनो। अपनी मोटी भाषा में कबीर ने ठीक कहा -

कबिरा मन निर्मल भये, जैसे गंगानीर। 

पाछे लागा हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर ॥ 

स्वामी सर्वदानन्द जी इस प्रसङ्ग में निम्र शे'र प्रायः कहा करते थे-

ढूँढता किस वास्ते गाफिल ये घर-घर देखता,

 पहले ही जेरे-बगल गर अपना दिलबर देखता। 

साफ़ कर देता अगर सीने के आईने का जंग,

 चेहरा-ए-तस्वीर से शक्ले-मुनव्वर देखता।

 सैकड़ों पर्दो से वो पर्दानशीं आता नज़र,

 पर्दा आँखों का अगर ग़ाफ़िल उठाकर देखता।


अब पाँचवाँ विशेषण है- 'रथं न'। यहाँ 'न' उपमार्थक है। जैसे सवार का आधार रथ होता है, उसी प्रकार वह परमात्मा सारे जगत् का आधार है, तथा जिस प्रकार गति रथ में होती है, सवार में नहीं, उसी प्रकार सारा जड़-जगत् गतिमय है। सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि समस्त ग्रह और नक्षत्र स्वयं नियमित गति से नहीं घूम सकते। इस समस्त चक्र को घुमानेवाला वही है। अतएव वेद में अन्यत्र भी कहा- 'स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम्' वही पृथिवी आदि समस्त लोकों का धारण करनेवाला है।

अन्तिम विशेषण है- 'अग्नेः'- उस प्रकाशस्वरूप की स्तुति कर। संसार में जितना भी भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश है, यह सब उसी की कृपा से हमें प्राप्त हुआ है। हमारी आँखों की सहायता के लिए भगवान् ने सूर्य को बनाया। यदि सूर्य न होता तो हम आँखें होते हुए भी अन्धे थे। रात्रि के अन्धकार में अग्नि तत्त्व की सहायता के बिना हमें कुछ भी न दीखता।

जैसे आँखों की सहायता के लिए सूर्य दिया, उसी प्रकार भलाई और बुराई की पहचान की योग्यता उत्पन्न करने के लिए सृष्टि के प्रारम्भ में ही अपना ज्ञान 'वेद' दिया। यदि उसने अपने ज्ञान का प्रसाद न बाँटा होता तो मनुष्य की हालत पशुओं से भी बुरी होती। इसलिए हे मनुष्य ! तू उसी की स्तुति कर।

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