बिहार की स्थिति

 


बिहार की स्थिति आज भी राष्ट्र के लिए एक गम्भीर प्रश्न बनी हुई है। ऐसा प्रतीत होता है मानो सरकार ने इसे केवल "मज़दूर पैदा करने वाली फैक्ट्री" बनाकर रख दिया है। बिहार की मिट्टी उपजाऊ है, लोग मेहनती और योग्य हैं, लेकिन रोजगार और उद्योगों की स्थिति बेहद दयनीय है। यहाँ कारख़ानों और बड़े रोजगार केंद्रों की स्थापना तो दूर, पहले से मौजूद संसाधनों का भी सही ढंग से उपयोग नहीं किया जाता। नतीजा यह है कि लाखों युवाओं को रोज़गार की तलाश में अपने घर-परिवार को छोड़कर महानगरों और अन्य राज्यों की ओर पलायन करना पड़ता है।


राजनीतिक परिदृश्य और भी निराशाजनक है। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष—चुनाव आते ही सभी नेताओं का काफ़िला बिहार की धरती पर पहुँचता है। बड़ी-बड़ी सभाएँ होती हैं, घोषणाएँ की जाती हैं, सपनों के महल गढ़े जाते हैं। लेकिन जैसे ही चुनाव समाप्त होते हैं, सारे वादे और संकल्प हवा हो जाते हैं। जनता वही रहती है—बेरोज़गारी, गरीबी और पलायन की मार झेलती हुई।


बिहार के बच्चे और युवा सबसे अधिक पीड़ित हैं। उन्हें शिक्षा और रोजगार का अधिकार मिलना चाहिए, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि वे सड़कों पर भटक रहे हैं। शासन-प्रशासन की विडम्बना यह है कि जहाँ उन्हें अवसर और सहयोग मिलना चाहिए, वहाँ उन्हें डराया-धमकाया जाता है, कभी आंदोलन करने पर घसीटा जाता है, तो कभी आवाज़ उठाने पर दमन का सामना करना पड़ता है। लोकतंत्र का यह रूप किसी भी संवेदनशील समाज के लिए शर्मनाक है।


यदि बिहार के भविष्य को सच में बदलना है, तो सरकार को केवल चुनावी भाषणों से आगे बढ़कर ठोस कदम उठाने होंगे। उद्योगों की स्थापना, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ और पारदर्शी प्रशासन के बिना बिहार की दशा और दिशा नहीं बदलेगी। केवल राजनीतिक नारों और झूठे वादों से न तो जनता का विश्वास जीता जा सकता है और न ही युवाओं का भविष्य सुरक्षित किया जा सकता है।


बिहार की जनता ने दशकों से इंतज़ार किया है, लेकिन अब समय आ गया है कि सरकार जनता को आश्वासन नहीं, बल्कि वास्तविक अवसर दे। लोकतंत्र का असली दायित्व जनता की आकांक्षाओं को पूरा करना है—ना कि उन्हें निराशा और हताशा की अंधेरी खाई में धकेलते रहना।

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