* यज्ञेन वाच: प पद पदवीयमायन् । ( ऋ /१०/७२/३)
विद्वान लोग! पवित्र अंतःकरण या पवित्र भावना से वाणी के मार्ग को जानते हैं।
यह मंत्र आदि सृष्टि के चार विषयों के हृदय में वेदज्ञान प्रदान करने से संबंधित है। उन ऋषि यों ने ह्रदय के वेदस्थ ज्ञान को अपनी वाणी से प्रकाशित किया। इसका संबंध ज्ञान और वाणी से है। इस प्रकार मनुष्य अपने हृदय अथवा मस्तिष्क की बात को अपनी वाणी द्वारा प्रकट करता है।
वाकपटुता को उर्दू भाषा में हाजिर जवाबी कहते हैं। वाकपटुता उसमें होती है जो व्युत्पन्नमति हो। व्युत्पन्नमति को उर्दू में हाजिर दिमाग कहते हैं। हाजिर दिमाग का संबंध मस्तिष्क की तीव्रता और उर्वरता से होता है। जितना ही व्यक्ति उर्वर मस्तिष्क होगा उतना ही हाजिर दिमाग होगा। व्यक्ति जितना ही हाजिर दिमाग होगा उतना ही वाकपटु होगा। वाकपटुता भी मनुष्य का 1 गुण होता है। वाकपटु व्यक्ति दूसरे को निरुत्तर कर देता है। वाकपटुता के अनेक उदाहरण उपस्थित किए जा रहे हैं :-
*अकबर ने बीरबल से पूछा अरे बीरबल! मेरे शरीर पर सब जगह बाल हैं, पर हथेलियों पर बाल क्यों नहीं है?
बीरबल ने कहा, "जहांपना! आप दिनभर इतना दान देते हैं, कि आप ही हथेलियों के बाल घुस गए हैं।"
अकबर ने अगला प्रश्न किया, लेकिन तुम्हारी हथेली पर भी बाल नहीं हैं?
बीरबल ने कहा, आपके द्वारा दिए गए दान को लेते रहने से मेरे बाल भी घुस गए हैं?
अकबर ने पूछा यह सामने बैठे लोगों की हथेलियों पर भी बाल नहीं हैं, ऐसा क्यों है?,
बीरबल ने तपाक से उत्तर दिया, हुजूर! इन लोगों के सामने आप दान देते हैं, मैं लेता हूं और यह लोग अफसोस के साथ हाथ मलते रहते हैं, इसलिए इनकी हथेलियों पर भी बाल नहीं हैं।
* मुगल सल्तनत के आखिरी बादशाहा बहादुर शाह 'जफर' कुछ दरबारियों के साथ बातों में मशगूल थे। बादशाह के उस्ताद से एक जौक भी सेवा में उपस्थित थे। एक हजरात जरूरी संदेश लेकर बादशाह की खिदमत में पेश हुए और तुरंत उत्तर पाकर वापस जाने लगे। एक दरबारी ने जिज्ञासा प्रकट की -
ऐसी भी क्या जल्दी है? इधर आए, उधर चले।, संदेशवाहक ने मुंह से अनायास निकल गया, "अपनी खुशी ना आए ना अपनी खुशी चले" ।
बादशाह ने उस्ताद जौक की तरफ देख कर कहा, उस्ताद! देखना क्या साफ मिसरा हुआ है ? उस्ताद जोक ने तुरंत गिरह लगाई,
"लाई हयात आए कजा ले चली चले,।
अपनी खुशी ना आए ना अपनी खुशी चले।,।।
* मथुरा के कवि मान पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह की गुण ग्राहकता से प्रभावित हो उनसे मिलने लाहौर पहुंचे। लेकिन दरबार में उन तक पहुंच पाना बहुत कठिन था।अंततः एक अधिकारी ने उन्हें इस शर्त पर दरबार में पेश करवाना स्वीकार किया कि वह अपनी कविता में महाराज के एक आंख होने का जिक्र अवश्य करेंगे। मान कवि ने इस चुनौती को स्वीकारा । अगले दिन दरबार में महाराजा को आशीर्वाद देने के बाद पहला दोहा यह सुनाया -
औरन के द्वै द्वै भई, वे अखियां के ही काज ? ।
तेरी एक ही आंख में, कोटी आंख की लाज ।।
महाराजा ने उन्हें अच्छी विदाई दी।
* आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने बुद्धि बल और वैदिक ज्ञान से अपने समय के कई पंडित और विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था। स्वामी जी वेदों के पंडित होने के साथ ही विनोद्रपई भी थे । उनके विनोद अशिष्ट ना होकर शिक्षाप्रद होते थे ।
एक बार अलीगढ़ में एक पंडित शास्त्रार्थ के लिए आया, किंतु वह स्वामी जी से ऊंचे चबूतरे पर बैठा। उसे लोगों ने स्वामी जी के साथ नीचे बैठने को कहा, परंतु वह नहीं माना।
स्वामी जी ने कहा - कोई बात नहीं ऊपर ही बैठा रहने दो, ऊपर बैठने से कोई बड़ा नहीं हो जाता । पास के एक वृक्ष की ओर संकेत करके स्वामी जी ने कहा देखो वह कौवा पंडित जी से भी ऊपर बैठा है ।
* स्वामी दयानंद जी महाराज कांसे और पीतल के बने बर्तनों में भोजन कर रहे थे । एक पौराणिक सन्यासी आया और कहने लगा, सन्यासी को धातु का स्पर्श नहीं करना चाहिए । दैवयोग से उस सन्यासी ने सिर मुंडवा रखा था। स्वामी दयानंद जी कहने लगे , क्या यह सिर्फ जूते से मुंडवा आया है ?।
* लुधियाना (पंजाब) मैं पौराणिक पंडितों ने कहा कि स्वामी दयानंद से शास्त्रार्थ तो क्या, हम उनकी शक्ल भी नहीं देखना चाहते । स्वामी दयानंद जी ने कहा, मेरी शक्ल देखना यदि तुम्हें स्वीकार ना हो तो ना देखो, परंतु मेरे और अपने मध्य में पर्दा डालकर ही शास्त्रार्थ करो ।
* एक बार पौराणिक ब्रह्मणों ने स्वामी दयानंद जी महाराज को निरुत्तर करने की योजना बनाई । उन्होंने सोचा कि स्वामी दयानंद जी से यह पूछा जाए कि आप विद्वान हैं , कि अविद्वान् ? । यदि कहेंगे विद्वान हैं तो उनसे गृहस्थ प्रकरण और सांसारिकता की बात पूछी जाए। यदि कहें अविद्वान् हैं तो उनसे कहा जाए कि जब आप स्वयं ही अविद्वान् हैं तो हमें क्या सिखाएंगे ?
यह विचार करके वे स्वामी जी महाराज के समक्ष उपस्थित हुए और स्वामी जी से पूछने लगे कि आप विद्वान हैं या अविद्वान् ? स्वामी जी महाराज कहने लगे कि बेदर्दी शास्त्रों का विद्वान हूं, परंतु सांसारिक विषयों का अविद्वान् हूं । यह सुनकर पौराणिक पंडित अवाक हो गए और निरुत्तर होकर वापस लौट आए।
* रेलगाड़ी में दो मौलवी यात्रा कर रहे थे। उस दिन एकादशी का व्रत था। एक मौलवी ने दूसरी मौलवी से पूछा- एकादशी क्या होती है ? वह शरारत भरे स्वर में बोला - रोजे की बीवी होती है । कुंँवर सुखलाल जी भी साथ बैठे थे वे बोले - मौलवी साहब! है तो रोजे की बीवी, परंतु रहती हिंदुओं के घर में है ।
* रेल गाड़ी में बैठा एक मुसलमान एक हिंदू को बार-बार यह कह रहा था कि जो मनुष्य जन्म लेता है वह मुसलमान के रूप में जन्म लेता है। गाड़ी सियालकोट के स्टेशन पर रुकी। आर्य समाज के सुप्रसिद्ध भजन उपदेशक कुंँवर सुखलाल जी गाड़ी के डिब्बे में उन दोनों के पास बैठ गए ।मुसलमान ने फिर यही चर्चा आरंभ कर दी कि जो मनुष्य उत्पन्न होते हैं वह मुसलमान ही उत्पन्न होते हैं । कुंवर सुखलाल जी मैं एक दो बार सुना । जब उसने बार-बार यही रेट लगाई तो कुंवर साहिब कहने लगे मियां ! यदि ऐसी ही बात थी तो सब कटे कटाये उत्पन्न होते । जन्म के पश्चात सुन्नत (लिंग की अग्रभाग को काटना) कराने की क्यों आवश्यकता पड़ी ? इस पर मुसलमान निरुत्तर हो गया। वह हिंदू जो लगातार इस तोता-रटंत बात को सुन रहा था और उससे कोई उत्तर नहीं बन पा रहा था, उमर साहिब का धन्यवाद करते हुए कहने लगा -महाराज! आपने मेरा पीछा छुड़ा दिया । यह व्यक्ति घंटे भर से मेरा दिमाग खा रहा था ।
* आर्य समाज के खंडन का यह प्रभाव पड़ा कि विधर्मी विद्वान आर्य समाज के विद्वानों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा करते थे । इन शास्त्रार्थ में तर्क के बल पर एक दूसरे को परास्त करने की होड़ लगी रहती थी । इंसास्ता अर्थों में वाकपटुता के अनेक उदाहरण मिलते हैं। कुछ उदाहरण उपस्थित किए जा रहे हैं -
आर्य समाज के मूर्धन्य शास्त्रार्थ महारथी पंडित रामचंद्र जी देहलवी बड़े तार्किक विद्वान थे । उनकी तरफ से सामने बड़े-बड़े दिग्गज नहीं ठहरते थे । एक बार शास्त्रार्थ के आरंभ में ही उन्होंने मौलवी साहब से पूछा - "एक मुसलमान यदि मर कर जन्नत में जाएगा तो उसे 72 हूरें (अप्सराएं) मिलेंगी । यदि एक मुसलमान औरत मर कर जन्नत में जाएगी तो उसे कितने हुर्रे(पुरुष) मिलेंगे ?"मौलवी साहब निरुत्तर हो गए । वास्तव में इस प्रश्न का उत्तर संसार में किसी मौलवी के पास नहीं है ।
* कहने का तात्पर्य यह है कि हमें वाकपटुता होना आवश्यक है, क्योंकि इससे जो है लोगों के समक्ष हमारे सम्मान बना रहता है । वाकपटुता हमें स्वाध्याय से एवं विद्वानों के प्रवचन आदि श्रवण से प्राप्त होती है, अर्थात हमें सत्संगी बन कर के अपने हाजिर दिमाग को हाजिर जवाबी बनाएं ।
Atyant Manohar
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