# बालकों के प्रति माता-पिता व आचार्य का कर्तव्य ।

 


ऋषि दयानंद जी महाराज अपने सत्यार्थ प्रकाश में कहते हैं की माता पिता और आचार्य अपने शिष्य व संतान को वीर्य की रक्षा में आनंद और नाश करने में दुख प्राप्ति के विषय में अवश्य बता देनी चाहिए। जैसे "देखो जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है तब उसको आरोग्य, बुद्धि ,बल ,पराक्रम बढ़कर बहुत सुख प्राप्ति होती है। इसके रक्षण में यही रीत है कि विषयों की कथा, विषय ग्रस्त लोगों का सांग, विषयों का ध्यान, स्त्री का दर्शन, एकांत सेवन, संभाषण और स्पर्श अधिकरण से ब्रह्मचारी लोग पृथक रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण विद्या को प्राप्त करें। जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता वह नपुंसक महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है वह दुर्बल, निस्तेज, और उत्साह, साहस ,धैर्य ,बल ,पराक्रम आदि गुणों से रहित होकर नष्ट हो जाता है। जो तुम लोग सु शिक्षा और विद्या के ग्रहण, वीर्य की रक्षा करने में इस समय चूकोगे तो पुनः इस जन्म में तुम को यह अमूल्य समय प्राप्त नहीं हो सकता है। जब तक माता-पिता गृह कार्य करने में समर्थ हैं तब तक संतान को विद्या अध्ययन करना चाहिए एवं शारीरिक बल भी बढ़ाना चाहिए। उपरोक्त जो शिक्षा है वह माता-पिता को चाहिए कि वह अपने संतान को उक्त शिक्षा प्रदान करें। इसीलिए "मातृमान् पितृमान्" शब्द का ग्रहण उक्त वचन में किया है, अर्थात जन्म से पांचवें वर्ष तक बालकों को माता , छठी वर्ष से 8 वर्ष तक पिता शिक्षा प्रदान करें, और नाव में वर्ष के आरंभ में द्विज अपने संतानों का उपनयन करके आचार्य कुल में अर्थात जहां पूर्ण विद्वान और पूर्ण विदुषी स्त्री शिक्षा और विद्या दान करने वाली हो वहां लड़के और लड़कियों को भेज दें और शूद्र आदि वर्ण उपनयन किए बिना विद्या अभ्यास के लिए गुरुकुल में भेज दें।

उन्हीं के संतान विद्वान, सभ्य और सु शिक्षित होते हैं , जो पढ़ाने में संतानों काला धन कभी नहीं करते किंतु ताड़ना ही करते हैं , इसमें व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है :- 

सामृतै: पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितै:। लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणा: ।।


अर्थात जो माता, पिता और आचार्य संतान और शिष्यों का पालन करते हैं जानो अपने संतान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो संतानों   वा शिष्यों का लाडन करते हैं वे अपने संतानों और शिष्यों को विष पिला के नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं । क्योंकि लाडन से संतान और शिष्य दोष युक्त तथा ताड़न से गुण युक्त होते हैं ।

 संतान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और लाडन से सदा  अप्रसन्न रहा करें । परंतु माता, पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या, द्वेष से ताड़न ना करें, किंतु ऊपर से भयप्रदान और भीतर से कृपा दृष्टि रखें । जैसी अन्य शिक्षा की, वैसे ही चोरी, जारी, आलस्य, प्रमाद, मादक द्रव्य, मिथ्या भाषण, हिंसा, क्रूरता, ईर्ष्या, द्वेष, मोह आदि दोषों के छोड़ने और सत्याचार के ग्रहण करने की शिक्षा प्रदान करें। क्योंकि जिस पुरुष ने जिसके सामने एक बार चोरी, जारी, मिथ्या भाषण आदि कर्म किया उसकी प्रतिष्ठा उसके सामने मृत्यु पर्यंत नहीं होती। जैसी हानि प्रतिज्ञा मिथ्या करने वाले की होती है वैसी अन्य किसी की नहीं।इससे जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा करनी है उसके साथ अब ऐसी ही पूरी करनी चाहिए अर्थात "जैसे किसी ने किसी से कहा कि मैं तुमको या तुम मुझसे अमुक समय मैं मिलूंगा या मिलना अथवा हमको वस्तु अमुक समय में तुमको मैं दूंगा" इसको वैसी ही पूरी करें नहीं तो उसकी प्रतीति कोई भी नहीं करेगा । इसलिए सदा सत्य भाषण और सत्य प्रतिज्ञा युक्त सबको होना चाहिए। किसी को अभिमान नहीं करना चाहिए । छल और कपट उसको कहते हैं जो भीतर और बाहर और रख दूसरे को मोह में दाल और दूसरे की हानि पर ध्यान ना देकर स्व प्रयोजन सिद्ध करना। "कृतघ्नता" उसको कहते हैं कि किसी के किए हुए उपकार को नहीं मानना। क्रोध आदि दोष और कटु वचन को छोड़ शांत और मधुर वचन ही बोले और बहुत बकवास ना करें। जितना बोलना चाहिए उससे न्यून व अधिक ना बोले। बड़ों को मान दे, बड़ों को सदैव ऊंचे स्थान पर बिठाए, प्रथम नमस्ते करें । उनसे उचित स्थान पर ना बैठे। सभा में विशेष स्थान पर बैठे जैसी अपनी योग्यता हो और दूसरा कोई ना उठाएं। विरोध किसी से ना करें। संपन्न होकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग रखें। सज्जनों का संग और दुष्टों का त्याग, अपने माता, पिता और आचार्य की तन, मन और धनादि उत्तम उत्तम पदार्थों से प्रीति पूर्वक सेवा करें ।

 यान्यस्माकं सुचारितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि ।।

इसका अभिप्राय जो है कि माता-पिता आचार्य अपने संतानों और शिष्यों को सदा सत्य उपदेश करें और यह भी कहें कि जो जो हमारे धर्म आयुक्त कर्म हैं उनका ग्रहण करो और जो जो दुष्ट कर्म हैं उनका त्याग कर दिया करो । जो जो सत्य जाने उनका प्रकाश और प्रचार करें। किसी पाखंडी, दुष्ट जारी मनुष्य पर विश्वास ना करें और जिस जिस उत्तम कर्म के लिए माता, पिता और आचार्य आज्ञा दें उसका यथेष्ठ पालन करें। जैसे माता, पिता ने धर्म, विद्या, अच्छे आचरण के श्लोक, निघंटु, निरुक्त, अष्टाध्याई अथवा अन्य सूत्र व वेद मंत्र कंठस्थ कराएं हों उनका पुनः अर्थ विद्यार्थियों को विदित कराएं। जैसे प्रथम समुल्लास में परमेश्वर का व्याख्यान किया है उसी प्रकार मान के उसकी उपासना करें। जिस प्रकार आरोग्य, विद्या और बल प्राप्त हो उसी प्रकार भोजन छाधन और व्यवहार करें कराएं , अर्थात जितनी क्षुधा हो उससे कुछ न्यून भोजन करें ।   मद्य मांसादि के सेवन से अलग रहें । अज्ञात गंभीर जल में प्रवेश ना करें , क्योंकि जल जंतु वा किसी अन्य पदार्थ से दुख और जो तैरना ना जानता हो तो डूब जा सकता है। 

"नाविज्ञाते जलाशये" यह मनु का वचन है, अविज्ञात जलाशय में प्रविष्ट होकर स्नान आदि नहीं करना चाहिए।

 दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं, वस्त्रपूतं जलं पिबेत् । सत्यपूतां वदेद्वाचं, मन:पूतं समाचारेत् ।। (मनु ६/४६)

अर्थात नीचे दृष्टि कर उनके नीचे स्थान को देख कर चलें, वस्त्र से छान के जल पिएं, सत्य से पवित्र करके वचन बोलें, मन से विचार करके आचरण करें।

 माता शत्रु: पिता बैरी येन बालो न पाठीत: ।

 ना शोभाते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।

यह किसी कवि का वचन है। दे माता और पिता अपने संतानों के पूर्ण वैरी हैं जिन्होंने उनको विद्या की प्राप्ति नहीं कराई, दे विद्वानों की सभा में वैसे तिरस्कृत और कुशोभित होते हैं, जैसे हंसों के बीच में बबूला। यही माता पिता का कर्तव्य कर्म परम धर्म और कृति का काम है जो अपने संतानों को तन, मन, धन, विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षा युक्त कराना ।

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