*ओ३म्*
महर्षि दयानन्द सरस्वती और छ: दर्शन शास्त्रों की एकरूपता
महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों तथा प्रवचनों में यह प्रतिपादित किया है कि छ: वैदिक दर्शन (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त) शास्त्रों की मौलिक मान्यताओं में परस्पर-विरोध नहीं है।
इन शास्त्रों के अनुशीलन से भी यह स्पष्ट होता है कि इनकी मौलिक मान्यताओं में कहीं भी विरोध नहीं है, प्रत्युत पर्याप्त एकरूपता मिलती है। जैसे - इन छ: दर्शनों की कुछ मान्यताएं निम्नलिखित हैं -
१. विविध दु:खों की निवृत्ति से मोक्ष-प्राप्ति होती है।
२. सृष्टि की रचना में तीन अनादि कारण हैं - ईश्वर, जीव और प्रकृति।
३. सत् पदार्थ का अभाव और असत् पदार्थ का भाव कभी नहीं हो सकता।
४. वेद ईश्वरोक्त होने से स्वत: प्रमाण ग्रन्थ है।
५. जीवात्मा शरीरादि से भिन्न अपरिणामी चेतन तत्त्व है।
६. परमात्मा जीवात्मा से भिन्न सर्वज्ञ, सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान् सत्ता है।
७. जीवात्मा अपने कर्मानुसार ईश्वरीय व्यवस्था से कर्मफलों को भोगता है।
८. यह दृश्य-जगत प्रकृति का विकार है।
९. जीवात्मा के बन्धन का कारण अज्ञान है।
१०. जीवात्मा प्रति शरीर में भिन्न-भिन्न हैं।
११. जीवात्मा अविनश्वर, चेतन, शाश्वत सत्ता है।
१२. परमात्मा निराकार होने से कभी शरीरधारण नहीं करता है, इत्यादि ।
इसी प्रकार मुक्ति के विषय में छ: शास्त्रों की एकरूपता बताते हुए महर्षि दयानन्द ने पूना में दिये उपदेश में कहा था -
"षड् दर्शनों के प्रणेताओं की मुक्ति के विषय में क्या सम्मति है? - इसका तत्त्व मालूम हो जायेगा। पहले जैमिनिकृत पूवमीमांसा में कहा है कि धर्म अर्थात् यज्ञ से मुक्ति मिलती है और वहां 'यज्ञो वै विष्णु:' इत्यादि शतपथ... फिर कणादमुनि ने वैशेषिक दर्शन में कहा है - कि तत्त्वज्ञान से मुक्ति होती है। न्याय-दर्शन के रचयिता गौतम ने अत्यन्त दु:ख-निवृति को मुक्ति माना है। मिथ्याज्ञान के दूर होने से ... यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होता है, वही मुक्ति की अवस्था है। योगशास्त्र के कर्त्ता पतंजलि मानते हैं कि चित्तवृत्तियों का निरोध करने से शान्ति और ज्ञान प्राप्त होते हैं और इससे कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। सांख्य-दर्शन के प्रणेता महामुनि कपिल कहते हैं कि तीन प्रकार के दु:खों की निवृत्ति होना ही परम पुरुषार्थ (मुक्ति) है। अब देखिये कि उत्तर मीमांसा अर्थात् वेदान्त दर्शन के रचयिता बादरायण (व्यास)... मत से मुक्ति की दशा में अभाव और भाव दोनों रहते हैं। मुक्त-जीवात्मा का परमेश्वर के साथ व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध रखता है।"